भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-29
समूह के साथ मिले रहने की सहज प्रवृत्तिज भावना से उसे जो सुरक्षा अनुभव होती है, वह जाती रहती है और वह सुरक्षा की भावना फिर एक ऊँचे स्तर पर पहुँचकर अपने व्यक्तित्व को बिना गंवाए दुबारा प्राप्त की जानी है। अपने आत्म के संघटन द्वारा संसार के साथ उसकी एकता एक सहज प्रेम और निःस्वार्थ कार्य द्वारा उपलब्ध की जानी है। प्रारम्भिक दृश्य में अर्जुन प्रकृति के संसार और समाज के सम्मुख खड़ा है और वह अपने-आप को बिलकुल अकेला अनुभव करता है। वह सामाजिक प्रमापों के सम्मुख झुककर आन्तरिक सुरक्षा प्राप्त करना नहीं चाहता। जब तक वह अपने-आप को एक क्षत्रिय के रूप में देखता है, जिसका काम लड़ना है, जब तक वह अपनी पदस्थिति और उसके कर्त्तव्यों से जकड़ा हुआ है, तब तक उसे अपने वैयक्तिक कर्म की पूरी सम्भावनाओं का पता नहीं चलता, हममें से अधिकांश लोग सामाजिक जगत् में अपने विशिष्ट स्थान को प्राप्त करके अपने जीवन को एक अर्थ प्रदान करते हैं और एक सुरक्षा की अनुभूति, एक आत्मीयता की भावना प्राप्त करते हैं। साधारणतया सीमाओं के अन्दर रहते हुए हम अपने जीवन की अभिव्यक्ति के लिए अवसर पा लेते हैं और सामाजिक दिनचर्या बन्धन अनुभव नहीं होती।
व्यक्ति अभी तक उभर नहीं पाया है। वह सामाजिक माध्यम से भिन्न रूप में अपने विषय में सोच भी नहीं पाता। अर्जुन सामाजिक प्राधिकार के सम्मुख पूर्णतया विनत होकर अपनी असहायता और दुश्चिन्ता की अनुभूति पर विजय पा सकता था, परन्तु वह उसके विकास को रोकना होता। किसी भी बाह्म प्राधिकार के सम्मुख झुककर प्राप्त की गई सन्तोष और सुरक्षा की भावना आत्मा की अखण्डता के मोल पर ख़रीदी जाती है। आधुनिक विचारधाराओं, जैसे कि एकतन्त्रवाद, का कथन है कि व्यक्ति की रक्षा उसको समाज में लय करके ही की जा सकी है। वे यह भूल जाते हैं कि समाज का अस्तित्व केवल मानवीय व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिए है।
अर्जुन अपने-आप को सामाजिक सन्दर्भ से अलग कर लेता है; अकेला खड़ा होता है और संसार के संकटपूर्ण और असहाय बना देने वाले पहलुओं का सामना करता है। अकेलेपन और दुश्चिन्ताओं पर विजय पाने के लिए झुक जाना मानवोचित रीति नहीं है। अपनी आन्तरिक आध्यात्मिक प्रकृति का विकास करके हमें संसार के साथ एक नये प्रकार की आत्मीयता की अनुभूति होती है। हम उस स्वतन्त्रता तक ऊपर उठ जाते हैं, जहां आत्मा की अखण्डता पर आंच नहीं आती। तब हम सक्रिय सृजनशील व्यक्तियों के रूप में अपने-आप को पहचान लेते हैं और तब हम बाह्म प्राधिकार के अनुशासन के अनुसार जीवन नहीं बिताते, अपितु स्वतन्त्र सत्यनिष्ठा के आन्तरिक नियम के अनुसार जीवन बिताते हैं।
व्यक्तिक आत्मा ईश्वर[1] का एक अंश है; भगवान् का एक काल्पनिक नहीं, अपितु वास्तविक रूप, परमात्मा का एक सीमित व्यक्त रूप। आत्मा, जो कि परमेश्वर से निकली है, भगवान् से निकास के रूप में उतनी नहीं है, जितनी कि उसके अंश के रूप में। वह अपना आदर्श उसी श्रेष्ठ मूल तत्व से प्राप्त करती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1. 15, 7। आत्मा के इस दिव्य तत्व को कई नाम दिए गए हैं—शीर्ष, भूमि, अन्ध गर्त, चिनगारी, अग्नि, आन्तरिक, ज्योति।
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