श्रीकांत उपन्यास भाग-5
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इस अभागे जीवन के जिस अध्याय को, उस दिन राजलक्ष्मी के निकट अन्तिम बिदा के समय ऑंखों के जल में समाप्त करके आया था- यह खयाल ही नहीं किया था कि उसके छिन्न सूत्र पुन: जोड़ने के लिए मेरी पुकार होगी। परन्तु पुकार जब सचमुच हुई, तब समझा कि विस्मय और संकोच चाहे जितना हो, पर इस आह्नान को शिरोधार्य किये बिना काम नहीं चल सकता।
इसीलिए, आज फिर मैं अपने इस भ्रष्ट जीवन की विशृंखलित घटनाओं की सैकड़ों जगह से छिन्न-भिन्न हुई ग्रन्थियों को फिर एक बार बाँधने के लिए प्रवृत्त हो रहा हूँ।
आज मुझे याद आता है कि घर पर लौट आने के बाद मेरे इस सुख-दु:ख-मिश्रित जीवन को किसी ने मानो एकाएक काटकर दो भागों में विभक्त कर दिया था। उस समय खयाल हुआ था कि मेरे इस जीवन के दु:खों का बोझा केवल मेरा ही नहीं है। इस बोझे को लादकर घूमे वह, जिसको कि इसकी नितान्त गरज हो। अर्थात् मैं जो दया करके जीता बच गया हूँ, सो तो राजलक्ष्मी का सौभाग्य है। आकाश का रंग कुछ और ही नजर आने लगा था, हवा का स्पर्श कुछ और ही किस्म का मालूम होने लगा था- मानो, कहीं भी अब घर-बार, अपना-पराया, नहीं रहा था। एक तरह के ऐसे अनिर्वचनीय उल्लास से अन्तर-बाहर एकाकार हो गया था, कि रोग रोग के रूप में, विपदा विपदा के रूप में, अभाव अभाव के रूप में, मन में स्थान ही नहीं पा सकता था। संसार में कहीं जाते हुए, कहीं कुछ करते हुए, दुविधा या बाधा का जरा भी सम्पर्क नहीं रह गया था।
यह सब बहुत दिन पहले की बातें हैं। वह आनन्द अब नहीं है; परन्तु उस दिन जीवन में इस एकान्त विश्वास की निश्चित निर्भरता का स्वाद एक दिन के लिए भी मैं उपभोग कर सका, यही मेरे लिए परम लाभ है। परन्तु, साथ ही, मैंने उसे खो दिया, इसका भी मुझे किसी दिन क्षोभ नहीं हुआ। केवल इस बात का ही बीच-बीच में खयाल आ जाता है कि जिस शक्ति ने उस दिन हृदय के भीतर जाग्रत होकर इतनी जल्दी संसार का समस्त निरानन्द हरण कर लिया था, वह कितनी विराट शक्ति है! और सोचता हूँ कि उस दिन अपने ही समान अन्य दो अक्षम दुर्बल हाथों के ऊपर इतना बड़ा गुरु-भार न डालकर यदि मैं समस्त जगद्-ब्रह्माण्ड के भारवाही उन हाथों पर ही अपनी उस दिन की उस अखण्ड विश्वास की समस्त निर्भरता को सौंप देना सीखता, तो फिर, आज चिन्ता ही क्या थी?-किन्तु, अब जाने दो उस बात को।
राजलक्ष्मी को मैंने पहुँच का पत्र लिखा था। उस पत्रका जवाब बहुत दिनों बाद आया। मेरे अस्वस्थ शरीर के लिए दु:ख प्रकाशित करके गृहस्थ बनने के लिए उसने मुझे कई तरह के बड़े-बड़े उपदेश दिए थे और अपने संक्षिप्त पत्र यह लिखकर खत्म किया था कि यदि वह कामों के झंझटों के मारे पत्रादि लिखने का समय न पा सके, तो भी, मैं बीच-बीच में अपनी खबर उसे देता रहूँ और उसे अपना ही समझूँ।
तथास्तु। इतने दिनों बाद उसी राजलक्ष्मी की यह चिट्ठी!
आकाश-कुसुम आकाश में ही सूख गये और जो दो-एक सूखी पंखुड़ियां हवा से झड़ पड़ीं उन्हें बीन करके घर ले जाने के लिए भी मैं ज़मीन टटोलता नहीं फिरा। ऑंखों में से दो-एक बूँद पानी शायद पड़ा भी हो, किन्तु, वह मुझे याद नहीं। फिर भी, यह याद है कि और अधिक दिन मैंने स्वप्न देखते हुए नहीं काटे। तब भी इस तरह और भी पाँच-छह महीने कट गये।
एक दिन सुबह बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। एकाएक एक अद्भुत पत्र आ पहुँचा। ऊपर औरतों के से कच्चे अक्षरों में नाम और ठिकाना लिखा था। खोलते ही पत्र के भीतर से एक छोटा-सा पत्र खट् से ज़मीन पर गिर पड़ा। उसे उठाकर तथा उसके अक्षर और नाम सही की ओर देखकर मैं मानो अपने दोनों नेत्रों पर भी विश्वास न कर सका। मेरी माँ, जो दस वर्ष पहले ही देह त्याग कर गयी थीं- उन्हीं के श्रीहस्त के ये दस्तखत थे, नाम और सही भी उन्हीं की थी। पढ़कर देखा, माँ ने उसमें अपनी 'गंगाजल¹' को जितना भी हो सकता है उतना अभय वचन दिया था। बात सम्भवत: यह थी, कि बारह-तेरह वर्ष पहले इस 'गंगाजल' के यहाँ जब अधिक उम्र में एक कन्या-रत्न ने जन्म ग्रहण किया, तब दु:ख, दैन्य और दुश्चिन्ता प्रकट करके शायद माँ को उसने एक पत्र लिखा होगा और उसी के प्रत्युत्तर में मेरी स्वर्गवासिनी जननी ने गंगाजल-दुहिता का विवाह का समस्त दायित्व ग्रहण करके जो पत्र लिखा था वही यह मूल्यवान दस्तावेज थी। तात्कालिक करुणा से पिघलकर माँ ने उपसंहार में लिखा था कि सुपात्र यदि कहीं न मिले, बिल्कुतल ही अभाव हो,
¹ बंगाल में स्त्रियाँ जिसे अपनी सखी-सहेली बनाती हैं उसे 'गंगाजल' इस प्यार के नाम से सम्बोधित करती हैं।
तो फिर मैं तो हूँ ही! सारी चिट्ठी को ऊपर से नीचे तक दो बार पढ़कर मैंने देखा कि वह मुंशियाना ढंग से लिखी गयी है। माँ को वकील होना चाहिए था क्योंकि जितनी भी कल्पनाएँ की जा सकतीं थीं उतनी तरह से वे अपने आपको और अपने वंशधरों को उस दायित्व में बाँध गयी हैं। उससे बचने के लिए दस्तावेज में कहीं जरा-सी भी जगह- जरा-सी भी त्रुटि, नहीं छोड़ी गयी है।
वह चाहे जो हो, पर ऐसा तो मुझे नहीं मालूम पड़ा कि 'गंगाजल' इन सुदीर्घ तेरह वर्षों तक इस पक्के दस्तावेज के ही भरोसे निर्भय हो चुपचाप बैठी रही है। परन्तु, उलटे मन ही मन मुझे ऐसा लगा कि बहुत प्रयत्न करने पर भी जब रुपये और निजी मनुष्यों के अभाव से सुपात्र उसके लिए एकबारगी अप्राप्य हो गया, और कुमारी कन्या की शारीरिक उन्नति की ओर दृष्टिपात करने से हृदय का रक्त मस्तिष्क में चढ़ने की तैयारी करने लगा, तब कहीं जाकर इस हतभाग्य सुपात्र के ऊपर उन्होंने अपना एकमात्र ब्रह्मास्त्र फेंका है।
माँ यदि जीती होतीं तो इस चिट्ठी के लिए आज मैं उनका सिर खा जाता और उनके पैरों पर ज़ोर से सिर पटककर अपनी ज्वाला को बुझाता, परन्तु यह रास्ता भी मेरे लिए बन्द है।
इसलिए, माँ का तो कुछ भी नहीं कर सका परन्तु, अब उनकी गंगाजल का भी कुछ कर सकता हूँ या नहीं, यह परखने के लिए मैं एक दिन रात्रि को स्टेशन पर जा पहुँचा। सारी रात ट्रेन में काटकर दूसरे दिन जब उनके गाँव के मकान पर पहुँचा तब दिन ढल गया था। गंगाजल-माँ पहले तो मुझे पहिचान न सकीं। अन्त में, परिचय पाकर इन तेरह वर्षों के बाद भी वे इस तरह रो पड़ीं जिस तरह कि माँ की मृत्यु के समय उनका कोई अपना आदमी भी ऑंखों के सामने उनकी मृत्यु होते देखकर, न रो सका होता।
वे बोलीं कि लोकदृष्टि से और धर्मदृष्टि से, दोनों ही तरह अब मैं तुम्हारी माता के समान हूँ और फिर दायित्व ग्रहण करने की प्रथम सीढ़ी के रूप में उन्होंने मेरी सांसारिक परिस्थिति का बारीकी से पर्यालोचन करना शुरू कर दिया। बाप कितना छोड़ गये हैं, माँ के कौन-कौन से गहने हैं और वे किसके पास हैं, मैं नौकरी क्यों नहीं करता और यदि करूँ तो अन्दाज से क्या महीना पा सकता हूँ, इत्यादि-इत्यादि। उनका मुँह देखकर खयाल हुआ कि इस आलोचना का फल उनके निकट कुछ वैसा सन्तोषजनक नहीं हुआ। वे बोलीं कि उनका एक रिश्तेदार बर्मा में नौकरी करके 'लाल' हो गया है, अर्थात् अतिशय-धनवान हो गया है। वहाँ तो राह-घाट में रुपये बिखरे पड़े हैं, केवल समेटने-भर की देर है! वहाँ पर जहाज़ से उतरते न उतरते ही बंगालियों को साहब लोग कन्धों पर उठा ले जाते हैं और नौकरी से लगा देते हैं। इस तरह की बहुत-सी बातें कहीं। बाद में मैंने देखा कि यह ग़लत धारणा केवल अकेली उन्हीं की नहीं थी। ऐसे बहुत-से लोग इस माया-मरीचिका से उन्मत्तप्राय होकर सहाय-सम्बलहीन अवस्था में वहाँ दौड़ गये हंु और मोह भंग होने के बाद उन्हें वापिस लौटाने में हम लोगों को कम क्लेश सहन नहीं करना पड़ा है। परन्तु वह बात इस समय रहने दो। गंगाजल-माँ का बर्मा-वर्णन मुझे तीर की तरह लगा। 'लाल' होने की आशा से नहीं-मेरे भीतर का जो घुमक्कड़पन कुछ दिनों से सोया हुआ था वह अपनी थकावट झाड़-पोंछकर मुहूर्त-भर में ही उठ खड़ा हुआ। जिस समुद्र को इसके पहले केवल दूर से खड़े-खड़े देखकर ही मुग्ध हो जाता था, अब उस अनन्त जलराशि को भी भेद करके मैं जा सकूँगा- इस इच्छा ने ही मुझे एकबारगी बेचैन कर दिया। तब किसी तरह एक बार छुटकारा पाना ही होगा।
मनुष्य मनुष्य से जितने प्रकार की भी जिरह कर सकता है, उनमें से किसी भी प्रकार की जिरह में गंगाजल-माँ ने मुझे नहीं छोड़ा। फिर भी, अपनी लड़की के योग्य पात्र की दृष्टि से उन्होंने मुझे रिहाई दे दी- इस विषय में मैं एक तरह से निश्चिन्त ही हो गया। परन्तु, रात्रि में भोजन के समय उनकी भूमिका का झुकाव देखकर मैं फिर उद्विग्न हो उठा। मैंने देखा, मुझे एकबारगी हाथ से जाने देने की उनकी इच्छा नहीं है। उन्होंने यह कहना शुरू किया कि यदि लड़की के भाग्य में न हो, तो धन, घर-बार, शिक्षा-दीक्षा आदि कितना ही क्यों न देखा जाय, सब कुछ निष्फल है। इस सम्बन्ध में नाम-धाम, विवरणादि के साथ बहुत-सी विश्वास योग्य नजीरें देकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित भी कर दिखाया। इतना ही नहीं, इसके विरुद्ध ऐसे भी कितने ही लोगों का नामोल्लेख किया कि जो निराट मूर्ख होते हुए भी केवल स्त्री के ही सौभाग्य के ज़ोर पर इस समय दिन-रात रुपयों के ढेर पर बैठे रहते हैं।
मैंने विनय सहित कह दिया कि रुपये-पैसे की तरफ मेरी आसक्ति तो है, फिर भी, चौबीसों घण्टे उन पर बैठा रहूँ, यह विवेचना मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम होती और इसके लिए स्त्री का सौभाग्य देखने का कुतूहल भी मुझे नहीं है। किन्तु इसका कोई विशेष फल नहीं हुआ। उन्हें निरस्त न कर सका। क्योंकि, जो स्त्री तेरह वर्ष के इतने लम्बे समय के पश्चात् भी एक पत्र को दस्तावेज के रूप में पेश कर सकती है, उसे इतने सहज में नहीं भुलाया जा सकता। वे बार-बार कहने लगीं कि इसे माता के ऋण के ही रूप में ग्रहण करना उचित है, और जो सन्तान समर्थ होते हुए भी मातृ-ऋण का परिशोध नहीं करती वह... इत्यादि-इत्यादि।
जब मैं बहुत ही शंकित और विचलित हो उठा, तब बातों ही बातों में मुझे मालूम हुआ कि पास के गाँव में यद्यपि एक सुपात्र है, परन्तु, पाँच सौ रुपये से कम में उसका पाना असम्भव है।
एक क्षीण आशा की रश्मि नजर आई। महीने-भर के बाद जैसे भी हो कोई उपाय कर दूँगा- यह वचन देकर दूसरे दिन सुबह ही मैंने प्रस्थान कर दिया। परन्तु उपाय किस तरह करूँगा- किसी ओर भी उसका कोई कूल किनारा नजर नहीं आया।
मेरे ऊपर लादा गया यह भार मेरे लिए कोई सचमुच की वस्तु नहीं हो सकता, यह मैं अनेक तरह से अपने आपको समझाने लगा; परन्तु फिर भी, माँ को इस प्रतिज्ञा के पाश से मुक्ति न देकर चुपचाप खिसक जाने की बात भी किसी तरह मैं नहीं सोच सका।
शायद एक उपाय था- मैं यह बात प्यारी से कहूँ। किन्तु, कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में भी मैं अपने मन को स्थिर न कर सका। बहुत दिनों से मुझे उसकी खबर भी नहीं मिली थी। उस पहुँच की खबर को छोड़कर मैंने उसे और कोई चिट्ठी भी नहीं लिखी थी। उसने भी उसके जवाब के सिवाय, दूसरा पत्र नहीं लिखा। इस बात को वह शायद नहीं मानती थी कि चिट्ठी-पत्री के द्वारा ही दोनों के बीच मिलाप का एक सूत्र रहता है। कम से कम उसके उस पत्र से तो मैं समझा। फिर भी अचरज की बात है कि दूसरे की लड़की के लिए भिक्षा माँगने के बहाने एक दिन मैं सचमुच ही पटने जा पहुँचा।
मकान में प्रवेश करते ही नीचे बैठने के कमरे के बरामदे में मैंने देखा कि वर्दी पहने हुए दो दरबान बैठे हैं। वे एकाएक एक साधारण से अपरिचित आगन्तुक को देखकर कुछ इस तरह देखते रह गये कि मुझे सीधे ऊपर चढ़ जाने में संकोच मालूम हुआ। इन्हें मैंने पहले नहीं देखा था। प्यारी के पुराने बूढ़े दरबानजी के बदले इन दो और दरबानों की क्या आवश्यकता आ पड़ी, यह मैं न सोच सका। जो भी हो, इनकी परवाह किये बगैर ऊपर चला जाऊँ अथवा विनय के साथ इनकी अनुमति माँगूँ- यह स्थिर करते-करते ही मैंने देखा कि रतन व्यस्त हुआ-सा नीचे आ रहा है। अकस्मात् मुझे देखकर वह पहले तो अवाक् हो गया; बाद में पैरों की ओर झुककर प्रणाम करके बोला-
"आप कब आए? यहाँ कैसे खड़े हैं?"
"अभी ही आ रहा हूँ, रतन। सब कुशल तो है न?"
रतन सिर हिलाकर बोला, "सब कुशल है, बाबू। ऊपर चलिए- मैं बरफ ख़रीदकर अभी आया।" कहकर वह जाने लगा।
"तुम्हारी मालकिन ऊपर ही हैं?"
"हाँ हैं", कहकर वह जल्दी से बाहर चला गया।
ऊपर चढ़ते ही जो पास का कमरा मिलता है वह बैठकखाना है। भीतर से एक ऊँची हँसी का शब्द और बहुत से लोगों की आवाज़ सुनाई दी। मैं जरा विस्मित हुआ। परन्तु, दूसरे ही क्षण, द्वार के नजदीक पहुँचकर मैं अवाक् हो गया। पिछली दफे इस कमरे को व्यवहार में आते नहीं देखा था। इसमें तरह-तरह के साज-सामान, टेबल, चेअर आदि अनेक चीज़ें एक कोने में ढेर होकर पड़ी रहती थीं। बहुधा कोई इस कमरे में आता भी न था। आज देखता हूँ, सम्पूर्ण कमरे में बिस्तर है, शुरू से अन्त तक कार्पेट बिछा हुआ है और उसके ऊपर सफेद जाजम झक-झककर रही है। तकियों के ऊपर गिलाफ चढ़े हुए हैं और उनके सहारे बैठे हुए कुछ सभ्य पुरुष अचरज से मेरी ओर देख रहे हैं। उनकी पोशाक में बंगालियों की तरह धोती होने पर भी सिर पर की बेल-बूटेदार मसलिन की टोपी से वे बिहारी से मालूम होते थे। तबले की जोड़ी के पास एक हिन्दुस्तानी तबलची था और उसके पास में भी स्वयं प्यारीबाई थीं। एक तरफ छोटा-सा हारमोनियम रखा था। प्यारी के शरीर पर यद्यपि मुजरे की पोशाक नहीं थी, फिर भी बनाव-सिंगार का अभाव नहीं था। समझ गया कि संगीत की बैठक जमी हुई है- थोड़ी देर विश्राम लिया जा रहा है।
मुझे देखते ही प्यारी के चेहरे का समस्त ख़ून मानो कहीं अन्तर्हित हो गया। इसके बाद उसने जबर्दस्ती कुछ हँसकर कहा, "यह क्या, श्रीकान्त बाबू हैं। कब आये?"
"आज ही।"
"आज ही? कब? कहाँ ठहरे हैं?"
क्षण-भर के लिए शायद मैं कुछ हतबुद्धि-सा हो गया; नहीं तो उत्तर देने में देर न होती। परन्तु, अपने आपको सम्हालने में भी मुझे अधिक देर नहीं लगी। मैंने कहा, "यहाँ के सब लोगों को तुम चीन्हती नहीं हो, इसलिए, नाम सुनकर भी न चीन्ह सकोगी।"
जो महाशय सबसे अधिक बने-ठने थे वही शायद इस यज्ञ के यजमान थे। बोले, "आइए बाबूजी, बैठिए।" इतना कहकर होठों को दबाकर जरा वे हँसे। भाव-भंगी से उन्होंने यह प्रकट किया कि हम दोनों का सम्बन्ध वे ठीक तौर से भाँप गये हैं! उनका आदर के साथ अभिवादन कर मैंने, जूते के फीते खोलने के बहाने, मुँह नीचा करके परिस्थिति को भाँप लेना चाहा। विचार करने के लिए अधिक समय नहीं था, यह ठीक है, परन्तु, इन थोड़े से क्षणों में मैंने यह स्थिर कर लिया कि हृदय के भीतर कुछ भी हो, बाहर के व्यवहार में वह किसी भी तरह प्रकाशित न होना चाहिए। मेरे मुँह की बातचीत से, ऑंखों की चितवन से, मेरे सारे आचरण के किसी भी छिद्र में से, अन्तर के क्षोभ अथवा अभिमान की एक बूँद भी बाहर आकर न गिरनी चाहिए। क्षण-भर बाद जब मैं सबके बीच में जाकर बैठा तब, यद्यपि यह सच है कि अपने मुख की सूरत अपनी ऑंखों न देख सका, किन्तु भीतर ही भीतर मैंने अनुभव किया कि अब उस पर अप्रसन्नता का लेशमात्र भी चिह्न नहीं रह गया है। राजलक्ष्मी की ओर देखकर मैं हँसते हुए बोला, "बाईजी, यदि शुकदेव मुनिका पता पा जाता तो आज तुम्हारे सामने बिठाकर एक दफा उनके मन की शक्ति की जाँच कर लेता! अरे, यह किया क्या है! यह तो रूप का समुद्र ही बहा दिया है!"
प्रशंसा सुनकर प्रमुख बाबू साहब आह्लाद से गलकर सिर हिलाने लगे। वे पुर्निया ज़िले के रहने वाले थे; मैंने देखा कि बोल न सकने पर भी बंगला अच्छी तरह समझते हैं। परन्तु प्यारी के कान तक लाल हो उठे।-किन्तु, लाज के मारे नहीं- गुस्से के मारे, यह भी समझने में कुछ बाकी न रहा। परन्तु, उस ओर भ्रूक्षेप भी न करके बाबू साहब को उद्देश्य करके मैंने उसी तरह हँसते हुए कहा, "मेरे आने के कारण यदि आप लोगों के आमोद-प्रमोद में थोड़ा-सा भी विघ्न होगा, तो मुझे बहुत दु:ख होगा। गाना-बजाना चलने दीजिए।"
बाबूजी इतने प्रसन्न हो उठे कि आवेश में आकार मेरी पीठ पर एक धौल जमाकर बोले, "बहुत अच्छा बाबू। हाँ प्यारी बीबी, एक बढ़िया-सा गाना चलने दो।"
"संध्याए के बाद होगा- बस अब और नहीं।" कह कर प्यारी हारमोनियम दूर खिसकाकर सहसा उठा खड़ी हुई।
इसी समय बाबू साहब मेरा परिचय पाने के उपलक्ष्य से अपना परिचय देने लगे- उनका नाम था रामचन्द्र सिंह। वे पुर्निया ज़िले के एक जमींदार हैं, दरभंगा- महाराजा उनके कुटुम्बी हैं, प्यारी बीबी को सात-आठ वर्ष से जानते हैं। वे उनके पुर्निया के मकान पर तीन-चार दफे मुजरा कर आई हैं। वे खुद भी अनेक दफे गाना सुनने यहाँ आए हैं। कभी-कभी दस-दस बारह-बारह दिन तक वे यहीं रहते हैं और तीनेक महीने पहले एक दफे आकर वे एक हफ्ते तक यहाँ रह गये हैं- वगैरह वगैरह। अब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। मेरे जवाब देने के पहले ही वहाँ प्यारी आ उपस्थित हुई। उसकी ओर देखकर मैंने कहा, "बाईजी से ही पूछिए न, कि क्यों आया हूँ।"
प्यारी ने मेरे मुँह पर एक तीव्र कटाक्ष डाला, परन्तु, जवाब दिया सहज शान्त स्वर में ही, "ये हमारे देश के आदमी हैं।"
मैंने हँसकर कहा, "बाबूजी, मधु होने पर मधुमक्खियाँ आकर जुट जाती हैं, वे देश-विदेश का विचार नहीं करतीं।" किन्तु इतना कहते ही मैंने देखा कि रहस्य को ग्रहण न कर सकने के कारण पुर्निया ज़िले के जमींदार ने अपने मुँह को गम्भीर बना लिया और उनके नौकर ने ज्यों ही आकर कहा कि संध्याी-पूजा के लिए तैयारी हो गयी है त्यों ही उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। तबलची तथा अन्य दो महाशय उनके साथ ही साथ बाहर चले गये। उनका मन अकस्मात् क्यों इतना व्याकुल हो गया, सो मैं बिन्दु-विसर्ग कुछ भी नहीं समझा।
रतन आकर बोला, "माँ, बाबूजी के बिछौने कहाँ करूँ?"
प्यारी ने झुँझलाकर कहा, "क्या और कोई कमरा नहीं है रतन? मुझसे पूछे बिना क्या इतनी-सी बुद्धि भी तू नहीं लगा सकता? चला जा यहाँ से!" इतना कहकर रतन के साथ आप भी बाहर चली गयी। मैंने खूब अच्छी तरह से देखा कि मेरे आकस्मिक शुभागमन से इस मकान का भार-केन्द्र एक सांघातिक ढंग से विचलित हो गया है। प्यारी ने, किन्तु थोड़ी ही देर बाद लौट आकर और मेरे मुँह की ओर कुछ देर देखते रहकर कहा, "ऐसे अचानक कैसे आना हो गया?"
मैंने कहा, "देश का आदमी हूँ, तुम्हें बहुत दिन से न देख सकने के कारण व्याकुल हो उठा था, बाईजी!"
प्यारी का मुँह और भी भारी हो गया। मेरे परिहास में जरा भी योग न देकर उसने पूछा, "आज रात को यहाँ ही रहोगे न?"
"रहने को कहोगी तो रह जाऊँगा।"
"मेरे कहने न कहने से क्या! तुम्हें यहाँ शायद कुछ असुविधा हो। जिस कमरे में तुम सोते थे उसमें तो..."
"बाबू सोते हैं? ठीक है, मैं नीचे सो जाऊँगा। तुम्हारा नीचे का कमरा तो बहुत उम्दा है।"
"नीचे सोओगे? कहते क्या हो! मन में तुम्हारे जरा भी विकार नहीं- दो ही दिन में इतने बड़े परमहंस किस तरह हो गये?"
मैंने मन ही मन कहा, "प्यारी, तुमने मुझे अब तक भी नहीं पहचाना।" फिर मुँह से कहा, "इसमें मुझे मान-अपमान का खयाल बिन्दु-भर भी नहीं है। और, कष्ट की बात का यदि खयाल करो, तो वह तो एकबारगी ही फिजूल है। मैं घर से बाहर निकलने के समय खाने-सोने की चिन्ताओं को दूर रख आता हूँ, यह तो तुम भी जानती हो। बिस्तर यदि अधिक हों तो एक ले आने के लिए कह दो, नहीं हो, तो फिर उसकी भी दरकार नहीं है- मुझे अपने कम्बल का सम्बल है।"
प्यारी ने सिर हिलाकर कहा, "सो तो मैं जानती हूँ; किन्तु, इससे मन में किसी तरह का दु:ख तो न होगा?"
मैंने हँसकर कहा, "नहीं, क्योंकि स्टेशन पर पड़े रहने की अपेक्षा तो यह बहुत ही अच्छा है।"
प्यारी कुछ देर चुप खड़ी रही; फिर बोली, "यदि मैं होती तो भले ही वृक्ष के नीचे सो रहती, परन्तु इतना अपमान कभी नहीं सहती।"
उसकी उत्तेजना को देखकर मुझसे हँसे बिना न रहा गया। वह मेरे मुँह से क्या सुनना चाहती है, सो मैं बड़ी देर से खूब समझ रहा था। किन्तु शान्त स्वाभाविक स्वरूप से मैंने जवाब दिया, "मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ कि इस बात को मन में आने दूँ कि तुम, जानबूझकर मुझे नीचे सोने को कहकर, मेरा अपमान कर रही हो। यदि सम्भव होता तो तुम उस दफे के समान इस दफे भी मेरे सोने की व्यवस्था करतीं। जाने दो, इन तुच्छ बातों को लेकर वाग्वितण्डा करने की जरूरत नहीं, तुम रतन को भेज दो कि मुझे नीचे का कमरा दिखा आवे, मैं कम्बल बिछाकर सो रहूँगा। मैं बहुत ही थक गया हूँ।
प्यारी ने कहा, "तुम ज्ञानी आदमी हो, तुम ही मेरी ठीक अवस्था को न जान सकोगे तो और जानेगा कौन? चलो, बच गयी।" इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास दबाकर पूछा, "एकाएक आने का सच्चा कारण तो मैं जान ही न सकी कि क्या है?"
मैं बोला, "पहला कारण तो तुम नहीं सुन पाओगी, किन्तु दूसरा सुन सकती हो!"
"पहला क्यों नहीं सुन सकूँगी?"
"अनावश्यक है, इसलिए।"
"अच्छा, दूसरा ही सुनाओ।"
"मैं बर्मा जा रहा हूँ। शायद और फिर कभी मिलना न हो सके। कम से कम यह तो निश्चित है कि बहुत दिनों तक मिलाप न होगा। जाने के पहले एक दफे तुम्हें देखने आया हूँ।"
रतन कमरे में आकर बोला, "बाबू, आपके बिस्तर तैयार हैं, आइए।"
मैंने खुश होकर कहा, "चलो।" प्यारी से कहा, "मुझे बड़ी नींद आ रही है। घण्टे भर बाद यदि समय मिले तो एक दफे नीचे आ जाना- मुझे और भी बहुत-सी बातें करनी हैं।" इतना कहकर रतन को साथ लेकर मैं बाहर हो गया।
प्यारी के निज के सोने के कमरे में ले आकर रतन ने मुझे जब शय्या बताई तब मेरे अचरज की सीमा न रही। मैं बोला, "मेरे बिस्तर नीचे के कमरे में न करके यहाँ क्यों किये?"
रतन ने अचरज के साथ कहा, "नीचे के कमरे में?"
मैंने कहा, "ऐसी ही बात तो हुई थी।"
वह अवाक् होकर कुछ देर मेरी ओर देखता रहा और अन्त में बोला, "आपके बिस्तर होंगे नीचे के कमरे में? आप मजाक कर रहे हैं बाबू!" इतना कहकर वह हँसता हुआ जा ही रहा था कि मैंने उसे बुलाकर पूछा, "तुम्हारी मालकिन कहाँ सोवेंगी?"
रतन बोला, "बंकू बाबू के कमरे में उनके बिस्तर लगा आया हूँ।" मैंने निकट आकर देखा- यह राजलक्ष्मी के उस डेढ़ हाथ चौड़े तख्ते पर बिछाया हुआ बिस्तर नहीं है। एक पलंग पर एक खूब मोटा गद्दा बिछाकर शाही बिस्तर लगाए गये हैं। शीशे के नजदीक नजदीक एक छोटी-सी टेबल के ऊपर मेज के बीचोंबीच लैम्प जल रहा है। एक किनारे बंगला भाषा की किताबें हैं और दूसरे किनारे गुलदस्ते में कुछ बेला के फूल रक्खे हैं। ऑंखों से देखते ही मैंने अच्छी तरह जान लिया कि इनमें से कोई भी चीज़ नौकर के हाथ की तैयार की हुई नहीं हैं। जो बहुत प्यार करती है, ये सब चीज़ें उसी के हाथ की तैयार की हुई हैं। ऊपर की चादर भी राजलक्ष्मी खुद अपने हाथों बिछा गयी है, यह मानो अन्दर ही अन्दर मैंने खूब अनुभव किया।
आज उन लोगों के सामने अचानक आ जाने के सबब राजलक्ष्मी ने हतबुद्धि हो, पहले चाहे जैसा व्यवहार क्यों न किया हो, पर यह बात मुझसे अज्ञात नहीं रही कि मेरी निर्विकार उदासीनता से वह मन ही मन शंकित हो उठी थी और यह भी मुझे मालूम हो गया कि मेरे भीतर ईर्ष्या् का प्रकाश देखने के लिए उत्सुक हो वह इतनी देर से इतनी तरह से क्यों बार-बार आघात कर रही थी। किन्तु, सब कुछ जानते हुए भी, अपने निष्ठुर स्वभाव को ही मर्दानगी समझकर मैंने उसका जरा भी अभिमान नहीं रहने दिया- उसके प्रत्येक छोटे से छोटे आघात को सौ गुना करके वापिस लौटा दिया। उसके प्रति किया गया यह अन्याय मेरे मन के भीतर अब सुई की तरह चुभने लगा। मैं बिस्तर पर लेट गया किन्तु सो नहीं सका। मैं यह निश्चय जानता था कि एक बार वह आयेगी जरूर। इसलिए, उत्सुकता के साथ उस समय की राह देखने लगा।
थकावट के कारण शायद कुछ सो भी गया था, सहसा ऑंखें खोलकर देखा कि प्यारी मेरे शरीर पर एक हाथ रखे हुए बैठी है। मेरे उठकर बैठते ही वह बोली, "बर्मा को गया हुआ मनुष्य फिर लौटकर वापिस नहीं आता, यह बात क्या तुम्हें मालूम है?"
"नहीं, मुझे नहीं मालूम।"
"फिर?"
"मुझे लौटना ही होगा, ऐसी तो किसी के सिर की कसम मुझ पर है नहीं।"
बात बहुत ही सामान्य थी। किन्तु, संसार में यह एक भारी अचरज की बात है कि मनुष्य की दुर्बलता कब किस झरोखे से अपने आपको प्रकट कर बैठेगी, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। इसके पहले कितने ही और इससे भी अधिक बड़े कारण घट गये हैं, परन्तु, मैंने कभी अपने आपको इस तरह नहीं पकड़ा जाने दिया। किन्तु, आज उसके मुँह से निकली हुई इस अत्यन्त साधारण बात को भी मैं सहन नहीं कर सका। मुँह से सहसा यह बात निकल ही गयी, "सब लोगों के मन की बात तो जानता नहीं राजलक्ष्मी, परन्तु एक मनुष्य के मन की अवश्य जानता हूँ। यदि किसी दिन लौटकर आऊँगा तो केवल तुम्हारे ही लिए। तुम्हारे सिर की कसम मैं कभी अवहेलना नहीं करूँगा।"
प्यारी मेरे पैरों पर एकबारगी उलटी ही गिर पड़ी। मैंने इच्छा करके भी पैर पीछे न खींचे, परन्तु, दसेक मिनट बीत जाने पर भी जब उसने अपना सिर ऊपर नहीं उठाया तब उसके सिर पर मैंने अपना दाहिना हाथ रक्खा जिसके पड़ते ही वह एक बार सिहरकर काँप उठी। परन्तु फिर भी वह उसी तरह पड़ी रही। सिर भी नहीं उठाया, बोली भी नहीं। मैंने कहा, "उठकर बैठो, इस अवस्था में हमें कोई देखेगा तो भारी अचम्भे में पड़ जायेगा।"
किन्तु, प्यारी ने जवाब तक नहीं दिया तब मैंने उसे ज़ोर से उठाया। उठाते ही मैंने देखा कि उसके नीरव ऑंसुओं से वहाँ की सारी चादर बिल्कुनल भीग गयी है। खींच-तान करने पर वह रुद्ध कण्ठ से बोल उठी, "पहले मेरी दो-तीन बातों का जवाब दो तब मैं उठूँगी।"
"कहो, कौन-सी बातें हैं।"
"पहले तो यह कहो कि उन लोगों के यहाँ रहने से तुमने मेरे सम्बन्ध में कोई बुरा खयाल तो नहीं किया?"
"नहीं।"
प्यारी और कुछ देर चुप रहकर बोली, "किन्तु, मैं भली औरत नहीं हूँ, यह तो तुम जानते हो? फिर भी, तुम्हें क्यों सन्देह नहीं हुआ?"
सवाल बड़ा ही कठिन था। वह भली स्त्री नहीं है, यह मैं जानता हूँ परन्तु वह ख़राब है, यह खयाल भी मैं मन में नहीं ला सका। मैं चुप हो रहा।
एकाएक वह अपनी ऑंखें पोंछकर झटपट उठ बैठी और बोली, "अच्छा, तुमसे पूछती हूँ; पुरुष कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि वह भला होना चाहता है तो उसे कोई रोकता नहीं; किन्तु, हम लोगों की पारी आने पर सब मार्ग क्यों बन्द हो जाते हैं? अज्ञान से, धनाभाव से, एक दिन जो कर बैठी- चिरकाल के लिए मुझे वही क्यों करना पड़ता रहे? हम लोगों को तुम लोग क्यों भला बनने नहीं देते?"
मैंने कहा, "हम लोग तो कभी रोकते नहीं। और यदि हम रोकें, तो भी, संसार में भले बनने के मार्ग में कोई किसी को अटकाकर नहीं रख सकता।"
प्यारी बड़ी देर तक चुप रहकर मेरे मुँह की ओर देखकर अन्त में धीरे-धीरे बोली, "बहुत ठीक, तो फिर, तुम भी मुझे नहीं रोक सकोगे।"
मेरे जवाब देने के पहले ही रतन की खाँसी का शब्द द्वार के निकट सुन पड़ा।
प्यारी ने पुकार कर कहा, "क्या है रतन?"
रतन ने मुँह आगे निकाल कर कहा, "माँ रात बहुत बीत गयी है- बाबूजी के खाने के लिए ले न आऊँ? रसोइया महाराज तो झोंके खाते-खाते रसोईघर में ही सो गये हैं।"
"अरे, तब तो तुममें से किसी ने भी अभी तक खाया न होगा!" इतना कह कर प्यारी घबड़ाकर और लज्जित होकर उठ खड़ी हुई। मेरे लिए खाने को वह अपने ही हाथों हमेशा लाती थी; आज भी लाने के लिए जल्दी से पैर बढ़ाती हुई चली गयी।
खाना समाप्त करके जब मैं बिस्तर पर लेटा तब रात का एक बज गया था। प्यारी फिर आकर मेरे पैरों के पास बैठ गयी। बोली, "तुम्हारे लिए अनेक रातें अकेले जागकर बिताई हैं- आज तुम्हें भी जागते रक्खूँगी। इतना कहकर मेरी सम्मति की राह देखे बगैर ही उसने मेरे पैर की तरफ का तकिया खींच लिया और बाएँ हाथ का सहारा लेकर वह लेट गयी तथा बोली, "मैंने बहुत विचार कर देखा, तुम्हरा इतने दूर-देश जाना किसी तरह भी नहीं हो सकता।"
मैंने पूछा, "तो फिर, क्या हो सकता है? इसी तरह यहाँ-वहाँ भटकते फिरना?"
प्यारी ने इसका जवाब न देकर कहा, "इसके सिवाय किसलिए बर्मा जा रहे हो, कहो तो सही?"
"नौकरी करने, यहाँ-वहाँ भटकते फिरने के लिए नहीं।"
मेरी बात को सुनकर प्यारी उत्तेजना के वश सीधी होकर बैठ गयी और बोली, "देखो, दूसरे से जो कहना हो कहना, किन्तु मुझे न ठगना। मुझे ठगोगे तो तुम्हारा इहकाल भी नहीं, पर काल भी नहीं बनेगा- सो जानते हो?"
"सो तो खूब जानता हूँ, अब क्या करना चाहिए, कहो तुम?"
मेरी स्वीकारोक्ति से प्यारी प्रसन्न हुई। हँसकर बोली, "स्त्रियाँ चिरकाल से जो कहती आई हैं वही मैं कहती हूँ। विवाह करके संसारी बन जाओ- गृहस्थ-धर्म का पालन करो।"
मैंने प्रश्न किया, "क्या सचमुच ही तुम खुशी होओगी?"
उसने सिर हिलाकर कानों के झूले हिलाते हुए उत्साह से कहा, "निश्चय से, एक दफे नहीं, सौ दफे। इससे यदि मैं सुखी नहीं होऊँगी, तो फिर और कौन होगा, बताओ?"
मैंने कहा, "सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु, इससे मेरे मन की एक दुर्भावना चली गयी। वास्तव में, यही खबर देने मैं आया था कि ब्याह किये बगैर मेरी गुजर नहीं।"
प्यारी एक बार अपने कानों के स्वर्णालंकार झुलाती हुई महाआनन्द से बोल उठी, "ऐसा होगा, तो मैं कालीघाट जाकर पूजा दे आऊँगी। किन्तु, लड़की को मैं ही देखकर पसन्द करूँगी, सो कहे देती हूँ।"
मैंने कहा, "इसके लिए अब समय नहीं है, लड़की तो स्थिर हो चुकी है।"
मेरे गम्भीर स्वर पर शायद प्यारी ने ध्या,न दिया। एकाएक उसके हँसते मुख पर एक मैली-सी छाया पड़ गयी; बोली, "ठीक तो है, अच्छा ही हुआ। स्थिर हो गयी है तो परम सुख की बात है।"
मैंने कहा, "सुख-दु:ख तो मैं समझता नहीं राजलक्ष्मी, जो बात स्थिर हो चुकी है वही तुम्हें बताता हूँ।"
"प्यारी एकाएक गुस्से से बोल उठी, "जाओ, चालाकी मत करो, सब बात झूठी है।"
"एक भी बात मिथ्या नहीं है। चिट्ठी देखते ही समझ जाओगी", इतना कहकर खीसे में से मैंने दो पत्र बाहर निकाले।
"कहाँ हैं, देखूँ चिट्ठी", इतना कह हाथ बढ़ाकर प्यारी ने दोनों हाथों में चिट्ठियाँ ले लीं। उन्हें हाथ में लेते ही मानों उसके सारे मुँह पर अंधेरा छा गया। दोनों पत्र हाथ में लिये ही लिये वह बोली, "दूसरे का पत्र पढ़ने की मुझे जरूरत ही क्या है। बताओ, कहाँ स्थिर हुई है?"
"पढ़ देखो।"
"मैं दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़ती।"
"तो फिर दूसरे की खबर जानने की तुम्हें जरूरत भी नहीं है।"
"मैं नहीं जानना चाहती।" इतना कहकर ऑंखें मींचकर वह लेट गयी। किन्तु दोनों चिट्ठियाँ उसकी मुट्ठी में ही रह गयीं। बहुत देर तक वह कुछ नहीं बोली। इसके बाद वह धीरे से उठी, जाकर लैम्प तेज किया और मेज पर दोनों पत्र रखकर स्थिरता से बैठी। उनमें जो कुछ लिखा था सो शायद उसने दो-तीन दफे पढ़ा। इसके बाद वह उठ आई और उसी तरह फिर लेट गयी। बहुत देर तक चुप रहने के बाद बोली, "सो गये क्या?"
"नहीं।"
"इस स्थान पर मैं तुम्हें किसी तरह ब्याह न करने दूँगी; वह लड़की अच्छी नहीं है, उसे मैंने बचपन में देखा है।"
"माँ का पत्र पढ़ा?"
"हाँ, किन्तु काकी के पत्र में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है कि तुम्हें उसे गले में डालना ही पड़ेगा। और चाहे वह अच्छी हो, चाहे न हो, उस लड़की को मैं किसी तरह भी घर में नहीं लाऊँगी।"
"कैसी लड़की घर में लाना चाहती हो, बता सकती हो?"
"सो मैं इस समय कैसे बताऊँ? विचार करके देखना होगा।"
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैं हँसकर बोला, "तुम्हारी पसन्दगी और विवेचना के ऊपर निर्भर रहा जाय तो मुझे अपना कुमारपन उतारने के लिए आगे और एक जन्म ग्रहण करना पड़े- शायद, उसमें भी पूरा न पड़े। जाने दो, यथासमय, न हो तो दूसरा जन्म ग्रहण कर लूँगा। मुझे जल्दी नहीं है। परन्तु, इस लड़की का तुम उद्धार कर दो। पाँच सौ रुपये हों तो काम हो जायेगा, मैं उन्हीं के मुँह से सुन आया हूँ।"
प्यारी उत्साह में आकर उठ बैठी और बोली, "कल ही मैं रुपये भेज दूँगी। काकी की बात मिथ्या नहीं होने दूँगी।" फिर कुछ देर ठहरकर बोली, "सच कहती हूँ तुमसे, यह लड़की अच्छी नहीं है, इसीलिए मुझे आपत्ति है, नहीं तो..."
"नहीं तो...?"
"नहीं तो फिर क्या! तुम्हारे लायक़ लड़की जब ढूँढ़ दूँगी, उसी समय इस बात का उत्तर दूँगी, इस समय नहीं।"
सिर हिलाकर मैंने कहा, "तुम फिजूल कोशिश मत करो राजलक्ष्मी, मेरे लायक़ लड़की तुम किसी दिन भी खोजकर न निकाल सकोगी।"
वह बहुत देर तक चुप बैठी रहकर एकाएक बोल उठी, "अच्छा सो शायद न निकाल सकूँ, परन्तु तुम बर्मा जाओगे तो मुझे साथ ले चलोगे?"
उसके प्रस्ताव को सुनकर मैं हँसा। बोला, "मेरे साथ चलने का तुम्हें साहस होगा?"
प्यारी मेरे मुँह के प्रति तीक्ष्ण दृष्टि पात करके बोली, "साहस! इसे क्या तुम कोई बड़ा कठिन काम समझते हो?"
"मैं चाहे जो समझूँ, किन्तु तुम्हारे इस सारे घर-द्वार, माल-असबाब, ज़मीन-जायदाद आदि का क्या होगा?"
प्यारी बोली, "चाहे जो हो। तुम्हें नौकरी करने के लिए जब इतनी दूर जाना पड़ा- यह सब रहते हुए भी जब तुम्हारे किसी काम न आया, तब इसे बंकू को दे जाऊँगी।"
इस बात का जवाब मैं नहीं दे सका। खुली हुई खिड़की के बाहर अंधेरे में देखता हुआ चुपचाप बैठा रहा।
उसने फिर कहा, "इतनी दूर न जाओ तो न चले? यह सब क्या किसी भी दिन तुम्हारे किसी काम में नहीं आ सकता?"
मैं बोला, "नहीं, कभी, किसी दिन भी नहीं।"
प्यारी ने गर्दन हिलाकर कहा, "यह मैं जानती हूँ। परन्तु, ले चलोगे तुम मुझे अपने साथ?" इतना कहकर उसने मेरे पैरों पर फिर अपने हाथ रख दिये। एक दिन जब प्यारी ने मकान से जबर्दस्ती बिदा कर दिया था तब उस दिन का उसका असाधारण धीरज और मन की ताकत देखकर मैं अवाक् हो गया था। आज उसी की इतनी बड़ी दुर्बलता-करुण कण्ठ की ऐसी कातर मिन्नत। यह सब एक साथ याद करके मेरी छाती फटने लगी। परन्तु, किसी तरह भी राजी न हो सका। बोला, "मैं तुम्हें अपने साथ तो नहीं ले जा सकता, परन्तु, तुम जब बुलाओगी, तभी लौट आऊँगा। मैं कहीं भी रहूँ, हमेशा तुम्हारा ही रहूँगा राजलक्ष्मी।"
"क्या तुम चिरकाल तक इस पापिष्ठा के ही होकर रहोगे?"
"हाँ, चिरकाल तक।"
"तब तो फिर, यह कहो कि तुम्हारा कभी विवाह ही न होगा?"
"हाँ, नहीं होगा। इसका कारण यह है, कि तुम्हारी सम्मति के बिना, तुम्हें दु:ख देकर, इस काम में मेरी कभी प्रवृत्ति नहीं होगी।"
प्यारी अपलक दृष्टि से कुछ देर तक मेरे मुँह की ओर देखती रही। इसके बाद उसके दोनों नेत्र ऑंसुओं से परिपूर्ण होकर बड़ी-बड़ी बूँदों के रूप में टप-टप गिरने लगे। ऑंखें पोंछकर गाढ़े स्वर में वह बोली, "इस हतभागिनी के लिए तुम ज़िन्दगी-भर सन्न्यासी बने रहोगे?"
मैंने कहा, "हाँ, बना रहूँगा। तुम्हारे पास जो वस्तु मैंने पाई है, उसके बदले सन्न्यासी बनकर रहने में मेरा कोई नुकसान नहीं है। मैं कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरी इस बात पर तुम कभी अविश्वास न करना।"
पल-भर के लिए दोनों की चार नजरें हुईं और दूसरे ही क्षण वह तकिये में मुँह छिपाकर उलटी लेट गयी। उच्छ्वसित क्रन्दन के आवेग से उसका सारा शरीर काँप-काँपकर और फूल-फूलकर उचकने लगा।
मैंने मुँह उठाकर देखा, सारा मकान गहरी नींद से ढका हुआ था। कहीं कोई जाग नहीं रहा था। केवल एक दफे खयाल आया, कि झरोखे के बाहर अंधियारी रात्रि अपने कितने ही उत्सवों की प्रिय सहचरी प्यारी के इस हृदय-विदारक अभिनय को मानो आज चुपचाप, ऑंखें खोलकर, अत्यन्त परितृप्ति के साथ देख रही है।
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ऐसी-ऐसी अनेक बातें देखी हैं जिन्हें कि जीवन-भर भूला नहीं जा सकता। वे जब कभी याद आ जाती हैं तब उस समय के शब्द तक मानो कानों में गूँज उठते हैं। प्यारी के अन्तिम शब्द भी इसी तरह के थे। आज भी मैं मानो उनकी गूँज सुना करता हूँ। वह अपने स्वभाव से ही कितनी अधिक संयमी थी, इसका परिचय बचपन में ही उसने बहुत दफे दिया है। और फिर, उसके ऊपर अब कितने दिनों की सांसारिक अभिज्ञता है। उस दफे मेरे बिदा होने के समय किसी तरह भागकर उसने आत्म-रक्षा की थी। परन्तु इस दफे वह किसी तरह भी अपने आपको न सँम्हा्ल सकी, और नौकर-चाकरों के सामने ही रो पड़ी। रुँधे हुए कण्ठ से वह बोल उठीं, "देखों, मैं नासमझ नहीं हूँ। अपने पापों का भारी दण्ड मुझे भोगना ही पड़ेगा, सो मैं जानती हूँ; किन्तु, फिर भी कहती हूँ, हमारा यह समाज बड़ा निष्ठुर-बड़ा निर्दय है। इसे भी इसका दण्ड एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा। भगवान इस पाप की सज़ा देंगे ही देंगे!"
समाज को उसने क्यों इतना बड़ा अभिशाप दिया सो वह जाने और उसके अन्तर्यामी जानें। मैं नहीं जानता, सो बात नहीं है; किन्तु मैं चुप ही रहा। बूढ़ा दरबान गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। मैं आगे पैर बढ़ा ही रहा था कि प्यारी ऑंखों के ऑंसुओं में से मेरे मुँह की ओर देखकर कुछ हँसी; बोली, "कहाँ जा रहे जो? फिर तो शायद दर्शन होंगे नहीं, एक भिक्षा देते जाओगे?"
मैं बोला, "दूँगा, कहो।"
प्यारी बोली, "भगवान न करें- किन्तु, तुम्हारी जीवन-यात्रा जिस ढंग की है उससे-अच्छा, जहाँ भी रहो, ऐसे समय में खबर दोगे? शरमाओगे तो नहीं?"
"नहीं, शरमाऊँगा नहीं- खबर ज़रूर दूँगा" इतना कहकर धीरे-धीरे मैं गाड़ी में जा बैठा । प्यारी पीछे-पीछे आई और उसने अपने ऑंचल में मेरे पैरों की धूल ले ली।
"अजी सुनते हो?" मैंने मुँह उठाकर देखा कि वह अपने काँपते हुए होठों को प्राणपण से काबू में रखकर कहने की कोशिश कर रही है। दोनों की नजर एक होते ही फिर उसकी ऑंखों से झर-झर पानी झर पड़ा। वह अस्पष्ट रुँधे हुए कण्ठ से धीरे से बोली, "न जाओ इतनी दूर तो? रहने दो, मत जाओ..."
चुपके से मैंने अपनी नजर उस ओर से फेर ली। गाड़ीवान ने गाड़ी हाँक दी। चाबुक और चार-चकोंके सम्मिलित सपासप और घर-घर शब्द से शाम का समय मुखरित हो उठा। किन्तु, इस सबको दबाकर केवल एक रुँधे हुए कण्ठ का दबा हुआ रुदन ही मेरे कानों में गूँजने लगा।
3
पाँच-छ: दिन बाद मैं एक दिन भोर के समय, सिर्फ एक लोहे का ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर कलकत्ते के कोयला-घाट पर जा पहुँचा। गाड़ी से उतरते न उतरते खाकी कुरती पहिने हुए एक कुली ने दोनों चीजों को झपट लिया, उन्हें लेकर पलक-भर में न जाने वह कहाँ अन्तधर्न हो गया और जब तक खोजते-खोजते दुश्चिन्ता के मारे मेरी ऑंखों में ऑंसू न आ गये तब तक उसका कोई पता ही नहीं चला।
गाड़ी पर से आते-आते ही मैंने देखा था कि जेटी¹ और बड़े रास्ते के बीच की भूमि नाना रंग के पदार्थों से लदी हुई है- लाल, काले, भूरे, गेरुए। थोड़ा-सा कुहरा भी छाया हुआ था। ऐसा मालूम हुआ कि बछड़ों का एक झुण्ड शायद चालान किये जाने के लिए बँधा हुआ है। निकट आकर ध्याहन से देखा तो मालूम हुआ कि चालान तो अवश्य होगा; किन्तु, बछडों का नहीं-मनुष्यों का। वे लोग बड़ी-बड़ी-सी गठरियाँ लिये, स्त्री-पुत्रों के हाथ पकड़, सारी रात इसलिए इसी तरह ओस में पड़े रहे हैं कि सुबह तड़के ही सबसे पहले जहाज़ में घुसकर एक अच्छी-सी जगह पर क़ब्ज़ा कर लेंगे। अतएव, किसके लिए सम्भव था कि पीछे से आकर इन्हें पार करके जेटी के द्वार तक पहुँच सके? थोड़ी ही देर बाद यह दल जब जागकर खड़ा हो गया तब मैंने देखा कि काबुल के उत्तर से कन्याकुमारी के अन्त तक का कोई भी प्रदेश अपना प्रतिनिधि इस कोयला-घाट पर भेजना नहीं भूला है।
सभी हैं। काली-काली गंजियाँ पहिने हुए चीनियों का दल भी बाद नहीं गया है। मैं भी तो डेक का (जिससे नीचे और कोई दर्जा नहीं उसका) यात्री था : इसलिए, लोगों को परास्त करके अपने बैठने के लिए एक जगह मुझे भी प्राप्त करनी थी। किन्तु इसका खयाल करते ही मेरा सारा शरीर बरफ-सा ठण्डा हो गया। फिर भी, जब जाना ही है और जहाज़ को छोड़कर और कोई जाने का रास्ता नहीं है, तब जैसे भी हो इन्हीं लोगों का अनुकरण करना कर्त्तव्य है- ऐसा विचार कर मैं अपने मन को जितना ही साहस देने लगा मानो उतना ही वह हिम्मत हारने लगा। जहाज़ कब आकर किनारे से लगेगा सो जहाज़ ही जाने। इस बीच में ही ये चौदह-पन्द्रह सौ लोग भेड़ों के झुण्ड की तरह कतारें बाँधकर एकाएक ऑंख उठाकर देखा, खड़े हो गये हैं। एक हिन्दुस्तानी आदमी से मैंने पूछा, "भैया, सब लोग अच्छी तरह से तो बैठे थे- अब एकाएक कतार बाँधकर क्यों खड़े हो गये?'*
¹ जहाँ जहाज़ ठहरते हैं वह स्थान।
वह बोला, "डगदरी होगी।"
"डगदरी क्या चीज़ होती है, भाई?"
उस आदमी ने पीछे से आए हुए एक धक्के को सँभालते हुए कुछ झुँझलाहट से कहा, "अरे पिलेग का डगदरी।"
बात को समझना और भी कठिन हो गया। पर, समझूँ चाहे न समझूँ- इतने आदमियों के लिए जो जरूरी है वह मेरे लिए भी होगी। किन्तु किस कौशल से अपने आपको इस झुण्ड में घुसेड़ दूँ, यह एक समस्या ही सामने आकर खड़ी हो गयी। कहीं से घुसने के लिए थोड़ी-सी साँसर है या नहीं, यह खोजते-खोजते देखा कि कुछ दूर पर खिदिरपुर के कितने ही मुसलमान संकुचित भाव से खड़े हुए हैं। यह मैंने स्वदेश-विदेश सभी जगह देखा है कि जो काम लज्जित होने जैसा है, उसमें बंगाली लोग अवश्य लज्जित होते हैं। वे भारत की अन्यान्य जातियों के समान बिना संकोच के धक्का-मुक्की मारा-मारी नहीं कर सकते। इस तरह खड़े होने में जो एक तरह की हीनता है, उसकी शरम के मारे मानो ये सब अपना सिर नीचा कर लेते हैं। ये लोग रंगून में दर्जी का काम करते हैं और अनेक दफे आए-गये हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सब सावधानी, कहीं यहाँ से बर्मा में प्लेग न चली जाय, इसलिए है। डॉक्टर परीक्षा करके पास कर दे तभी जहाज़ पर चढ़ा जा सकता है। अर्थात् रंगून जाने के लिए जो लोग तैयार हुए हैं, इसके पहले ही जाँच हो जाना चाहिए कि वे प्लेग के रोगी हैं या नहीं। अंग्रेजी राज्य में डॉक्टरों का प्रबल प्रताप है। सुना है, कसाईखाने के यात्रियों को भी अन्दर जाकर जिबह होने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इन लोगों का मुँह ताकना पड़ता है। किन्तु, परिस्थिति की दृष्टि से रंगून के यात्रियों के साथ उसकी जो इतनी अधिक समानता है सो उस समय किसने सोची थी।
क्रमश: पिलेग की डगदरी निकट आ पहुँची। पियादे-सहित डॉक्टर साहब दिखाई दिये। उस कतारबन्दी की अवस्था में गर्दन टेढ़ी करके देखने का मौक़ा तो नहीं था; फिर भी, आगे-खड़े हुए साथियों के प्रति किया गया परीक्षा-पद्धति का जितना भी प्रयोग दृष्टिगोचर हुआ, उससे मेरी चिन्ता की सीमा नहीं रही। कायर बंगालियों को छोड़कर ऐसा वहाँ कोई नहीं था जो देह के निम्न भाग के उघाड़े जाने पर भयभीत हो, परन्तु, अपने सामने के साहसी वीर पुरुषों के भी परीक्षा के समय बार-बार चौंक उठते देखकर मैं बुरी तरह शंकित हो उठा। सभी जानते हैं कि प्लेग की बीमारी में शरीर का स्थान-विशेष सूज आया करता है डॉक्टर साहब जिस प्रकार लीला-मात्र से और निर्विकार चित्त से उस सन्देह मूलक स्थान में हाथ डालकर सोजिश टटोलने लगे, उससे काठ के पुतलों को भी आपत्ति होती। किन्तु, भारतवासियों की सभ्यता सनातन है, इसलिए, जैसे भी हो एक दफे चौंककर ये स्थिर हो जाते थे। अगर और कोई जाति होती तो डॉक्टर का हाथ मरोड़े-तोड़े बिना न रहती। सो, चाहे जो हो, 'पास' होना जब अवश्य कर्त्तव्य था, तो फिर, और उपाय ही क्या हो सकता था? यथासमय ऑंखें मींचकर, सारा अंग संकुचित कर- एक तरह से हताश ही होकर, डॉक्टर के हाथ आत्म-समर्पण कर दिया और 'पास' भी हो गया।
इसके बाद जहाज़ पर चढ़ने की पारी थी। किन्तु, डेक-पैसिंजरों की यह अधिरोहण-क्रिया किस तरह निष्पन्न होती है- बाहर के लोगों के लिए उसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। फिर भी, कल-कारखानों में जिन्होंने दाँतवाले चक्रों की प्रक्रिया देखी है, उनके लिए इसका समझाना कुछ-कुछ सम्भव हो सकता है। वे जिस तरह आगे के खिंचाव और पीछे के धक्के से अग्रसर होकर चलते हैं, उसी तरह हमारी यह काबुली- पंजाबी- मारवाड़ी- मद्रासी- मराठा- बंगाली-चीनी- उड़िया गठित सुविपुल सेना केवल पारस्पारिक आकर्षण-विकर्षण के वेग से नीचे ज़मीन से जहाज़ के डेक पर बिना जाने ही चढ़ गयी और वह गति वहाँ पर भी नहीं रुकी। सामने की ओर देखा, एक गङ्ढे के मुँह पर सीढ़ी लगी हुई है। जहाज़ के गर्म-देश में उतरने का यही रास्ता था। नाले के अवरुद्ध मुख को खोल देने पर वृष्टि का संचित जल जिस तरह तीव्र वेग से नीचे गिरता है, ठीक उसी तरह यह दल भी स्थान अधिकृत करने के लिए जीने-मरने के ज्ञान से शून्य होकर नीचे उतरने लगा।
मुझे जहाँ तक याद आता है, मेरी नीचे जाने की इच्छा नहीं थी। पैरों से चलकर भी नहीं उतरा। क्षण भर के लिए मैं बेहोश हो गया था, इसलिए, मेरे इस कथन में यदि कोई सन्देह प्रकट करे, तो शायद कसम खाकर मैं इसे अस्वीकार भी न कर सकूँगा। होश में आने पर देखा कि गर्भ-गृह के मध्यक बहुत दूर पर एक कोने में मैं अकेला खड़ा हूँ। पैरों की ओर निगाह दौड़ाई, तो देखता हूँ कि इसी बीच में, जादू के खेल की तरह पल-भर में ही कम्बल बिछाकर और बॉक्स-पिटारों आदि से घेरकर हर किसी ने अपने-अपने लिए निरापद-स्थान बना लिया है और शान्ति से बैठकर अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त करना शुरू कर दिया है। इतनी देर के बाद, अब कहीं मेरे उस नम्बर वाले कुली ने आकर दर्शन दिया और कहा, "ट्रंक और बिस्तर ऊपर रख आया हूँ, यदि आप कहें तो नीचे ले आऊँ।"
मैंने कहा, "नहीं, बल्कि, किसी तरह यहाँ से उद्धार करके मुझे ही ऊपर ले चल।" क्योंकि वहाँ इतना-सा स्थान भी मुझे कहीं ख़ाली दिखाई नहीं दिया कि दूसरों के बिस्तर खूँदे बगैर तथा उनके साथ हाथापाई की सम्भावना उत्पन्न किये बगैर, मैं कहीं अपना क़दम रख सकूँ। वर्षा होने पर ऊपर पानी में भीग जाऊँ यह अच्छा, किन्तु यहाँ एक क्षण-भर भी ठहरना ठीक नहीं। अधिक पैसों के लोभ से कुली, काफ़ी कोशिश और बहस-मुबाहिसे के बाद, कम्बलों और सतरंजियों के किनारों को उलटता-पुलटता हुआ मुझे अपने साथ लिये हुए ऊपर आया और मेरा माल-असबाब दिखाकर बख्शीीश लेकर चलता बना। यहाँ का भी वही हाल- बिस्तर बिछाने के लिए, निरुपाय हो अपने ट्रंक के ऊपर ही बैठने का इन्तज़ाम करके मैं एकाग्र चित्त से माता भागीरथी के दोनों किनारों की महिमा का निरीक्षण करने लगा।
स्टीमर ने तब तक चलना आरम्भ कर दिया था। बहुत देर से प्यास लग रही थी। इन दो घण्टों के भीतर जो तूफ़ान सिर पर से गुजर गया उससे जिनकी छाती शुष्क न हो जाए, ऐसे कठिन-हृदय संसार में बहुत थोड़े ही लोग हैं। किन्तु आफत यह हुई कि साथ में न तो गिलास था और न लोटा। साथ के मुसाफिरों में यदि कहीं कोई बंगाली हो तो कुछ उपाय हो कुछ उपाय हो सकता है, यह सोचकर मैं फिर बाहर निकला। नीचे उतरने के उस गङ्ढे के निकट पहुँचते ही एक तरह का विकट कोलाहल सुन पड़ा। मेरी जानकारी इतनी विस्तृत नहीं है कि उस कोलाहल की उपयुक्त तुलना कर सकूँ। गोशाला में आग देने से एक प्रकार का कोलाहल होने की बात कही जाती है जरूर, किन्तु, इसके अनुरूप कोलाहल होने के लिए जितनी बड़ी गोशाला की आवश्यकता है उतनी बड़ी गोशाला महाभारत के युग में विराट राजा के यहाँ यदि रही तो जुदा बात है, किन्तु इस कलिकाल में किसी के यहाँ हो सकती है, इसकी तो कल्पना करना भी कठिन है।
भयपूर्ण हृदय से दो-एक सीढ़ियाँ उतरकर मैंने झाँका तो देखा कि यात्रियों ने अपना अपना 'नेशनल' (=जातीय) संगीत शुरू कर दिया है। काबुल से लेकर ब्रह्मपुत्र और कन्याकुमारी से लेकर चीन की सीमापर्यन्त जितने भी तरह के स्वर ब्रह्म हैं, जहाज़ के इस बन्द गर्भ के भीतर वाद्ययन्त्रों के सहयोग से, उनका ही समवेत रूप से अनुशीलन हो रहा है। ऐसे महासंगीत को सुनने का सौभाग्य कदाचित् ही संघटित होता है; और संगीत ही ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ है, यह बात उस जगह खड़े-खड़े ही मैंने सम्मान के साथ स्वीकार कर ली। किन्तु सबसे अधिक विस्मय की बात यह थी कि वहाँ इतने अधिक संगीत-विशारद एक साथ आ जुटे किस तरह?
मैं एकाएक यह स्थिर नहीं कर सका कि मेरा नीचे उतरना उचित है या नहीं। सुना है, अंगरेजी महाकवि शेक्सपियर ने कहा है कि संगीत के द्वारा जो मनुष्य मुग्ध नहीं होता वह ख़ून तक कर सकता है। किन्तु केवल मिनट भर सुन लेने से ही जो मनुष्य के ख़ून को जमा दे ऐसे संगीत की खबर शायद उन्हें भी नहीं थी। जहाज़ का गर्भ-गृह वीणापाणि का पीठ-स्थान है या नहीं, सो नहीं, सो नहीं जानता परन्तु, यदि न होता तो यह कौन सोच सकता कि काबुली लोग भी गाना गाते हैं!
एक तरफ यह अद्भुत काण्ड हो रहा था और मैं मुँह बाए देख रहा था कि एकाएक देखा- पास में ही खड़ा हुआ एक व्यक्ति प्राणपण से हाथ हिला-हिलाकर मेरी नजर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है। बहुत कष्ट से अनेक लोगों की लाल-लाल ऑंखें सिर पर रखकर मैं उस मनुष्य के पास जा उपस्थित हुआ। उसने ब्राह्मण समझकर मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार किया और अपना परिचय दिया कि मैं रंगून का विख्यात नन्द मिस्री हूँ। पास ही एक विगत-यौवना स्थूल स्त्री बैठी हुई एकटक मेरी ओर देख रही थी। मैं उसके मुँह की ओर देखकर स्तम्भित हो गया। मनुष्य की इतनी बड़ी-बड़ी फुटबाल-सी ऑंखें और इतनी मोटी जुड़ी हुई भौहें पहले कभी न देखी थीं।
नन्द मिस्री उसका परिचय देते हुए बोला, "बाबूजी, यह मेरी घरवा..."
बात पूरी भी न हो पाई थी कि वह फुँकार कर गर्ज उठी, "घरवाली! ये मेरे सात भाँवरों के स्वामी कहते हैं घरवाली! खबरदार, कहे देती हूँ मिस्री, जिस-तिस के आगे झूठ बोलकर मुझे बदनाम मत किया करो! हाँ...!"
मैं तो विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया।
नन्द मिस्री कुछ अप्रतिभ-सा होकर बोला, "आहा, नाराज क्यों होती हो टगर? घरवाली और कहते किसे हैं? बीस साल..."
टगर विकट क्रोध से बोल उठी, "बीस साल हो गये क्या हुआ। फूटे करम! जात-वैष्णव की लड़की होकर मैं कहलाऊँ केवट की घरवाली! कैसे, किस तरह? बीस बरस से तुम्हारे घर हूँ जरूर, किन्तु एक दिन भी तुम्हें चौके में घुसने दिया है, यह बात कोई भी नहीं कह सकता। टगर वैष्णवी मर जायेगी, पर अपनी जाति नहीं खोएगी, जानते हो?" इतना कहकर वह जात-वैष्णव की लड़की अपनी जाति के गर्व से मेरे मुँह की ओर देखती हुई अपनी दोनों फुटबाल की सी ऑंखें घुमाने लगी।
नन्द मिस्री लज्जित होकर बारम्बार कहने लगा, "देखा बाबूजी, देखा? अभी तक इसे जाति का गर्व है! देखा आपने! मैं हूँ, इसी से सह लेता हूँ, और कोई होता..." बीस बरस की उस घरवाली की ओर देखकर बेचारा अपनी बात पूरी भी न कर सका।
मैं और कुछ न बोला और उससे एक गिलास लेकर वहाँ से चल दिया। ऊपर पहुँचकर उस वैष्णवी की बातें याद करके मेरी हँसी रोकी न रुकी। किन्तु क्षण-भर बाद ही सोचा, यह तो एक सामान्य अशिक्षिता स्त्री ठहरी; पर, गाँवों में और शहरों में भी क्या ऐसे अनेक शिक्षित पुरुष नहीं हैं, जिनके द्वारा ऐसे ही हास्यकार्य अब भी प्रतिदिन हुआ करते हैं, और जो पाप के सारे अन्यायों से केवल खाना-छूना बचाकर ही परित्राण पा लेते हैं। तब, यह हो सकता है कि इस देश के पुरुषों का हाल देखकर तो हँसी नहीं आती, आती है सिर्फ औरतों को देखकर।
आज शाम से ही आकाश में थोड़े बादल जमा हो रहे थे। रात को एक बजे के बाद मामूली-सा पानी और हवा भी चली जिससे कुछ देर के लिए जहाज़ खूब हिला-डुला। दूसरे दिन सुबह से ही वह शिष्ट शान्त भाव से चलने लगा। जिसे समुद्री बीमारी कहते हैं, मेरा वह उपसर्ग तो शायद छुटपन में ही नाव के ऊपर कट गया था, इसलिए वमन करने के संकट को मैं एकबारगी ही पार कर गया; किन्तु, सपरिवार नन्द मिस्री का क्या हाल हुआ- किस तरह रात कटी, यह जानने के लिए मैं नीचे जा पहुँचा। कल के गायकों में अधिकांश उस समय तक भी औंधे पड़े हुए थे। मैंने समझ लिया कि रात्रि के उत्पात के कारण ही ये लोग अभी तक महासंगीत के लिए तैयार नहीं हो सके हैं। नन्द मिस्री और उसकी बीस बरस की घरवाली दोनों गम्भीर भाव से बैठे हुए थे। मुझे देख उन्होंने प्रणाम किया। उनके चेहरे के भाव से जान पड़ा कि कुछ देर पहले ही दोनों में कुछ कलह-सी ज़रूर हो चुकी है। मैंने पूछा, "रात को कैसा हाल रहा मिस्रीजी?"
नन्द बोला, "अच्छा रहा।"
उसकी घरवाली गरज उठी, "खाक रहा अच्छा! मैयारी मैया, कैसा अद्भुत काण्ड हो गया।"
कुछ उद्विग्न होकर मैंने पूछा, "कैसा काण्ड?"
नन्द मिस्री ने मेरे मुँह की ओर देखा, फिर जम्हाई ली। चुटकियाँ बजाईं और अन्त में कहा, "काण्ड ऐसा कुछ नहीं था बाबूजी। कलकत्ते की गलियों के मोड़ों पर साढ़े बत्तीस तरह का चबेना बेचते हुए आपने किसी को देखा है? यदि देखा हो तो हम लोगों की अवस्था को आप ठीक तौर से समझ सकेंगे। वह जिस तरह अंगूठे के नीचे दो-तीन अंगुलियों की चोट मारकर भुने हुए चावल, दाल, मटर, मसूर, चने, सेम के बीज आदि सबको एकाकार कर देता है, देवता की कृपा से हम सब भी ठीक उसी तरह गड्डमड्ड हो गये थे, अभी ही कुछ देर हुई सब कोई अपने-अपने कपड़े पहिचानकर फिर अपनी जगह आकर बैठे हैं।" इसके बाद वह टगर की ओर देखकर बोला, "बाबूजी, भाग्य से असल वैष्णव की जात नहीं जाती, नहीं तो मेरी टगर..."
टगर भड़के हुए भालू की तरह गरज उठी, "अब फिर वही!"
"नहीं, तो जाने दो", कहकर नन्द उदासीनता से दूसरी तरफ को देखता हुआ चुप हो गया।
एक काबुली दम्पति, जो कि मलिनता के अवतार थे, सिर से पैर तक पृथ्वी की सारी गन्दगी लादे हुए अत्यन्त तृप्ति के साथ रोटी खा रहे थे। क्रुद्ध टगर उन हतभागों के प्रति अपने बड़े-बड़े चक्षुओं से एकंटक होकर अग्नि वर्षण करने लगी। नन्द ने अपनी घरवाली को उद्देश्य करके प्रश्न किया, "तो फिर आज खाना-पीना कुछ न होगा, क्यों?"
घरवाली ने कहा, "मौत और किसे कहते हैं? होगा कैसे, सुनूँ तो?"
मामला न समझ सकने के कारण मैंने कहा, "अभी तो बड़ी सकार है, कुछ बेला चढ़ जाने पर..."
नन्द मेरे मुँह की ओर देखकर बोला, "कलकत्ते से एक हाँड़ी में बढ़िया रसगुल्ले लाया था बाबूजी, जहाज़ पर सवार होने तक कहता रहा, "आओ टगर, कुछ खा लेवें, आत्मा को कष्ट न दें", परन्तु नहीं- "मैं रंगून ले जाऊँगी।" (टगर के प्रति) ले, अब ले जा रंगून, क्या ले जाती है?"
टगर ने, इस क्रुद्ध अभियोग का स्पष्ट प्रतिवाद न कर, क्षुब्ध अभिमान से एक दफे मेरी ओर देखा और फिर, वह उस हतभागे काबुली को अपनी नजर से पहले के समान ही दग्ध करने लगी।
मैंने धीरे से पूछा, "क्या हुआ रसगुल्लों का?"
नन्द टगर को लक्ष्य करके कटाक्ष करता हुआ बोला, "उनका क्या हुआ सो नहीं कह सकता। वह देखो न फूटी हाँड़ी, और वह देखो बिछौने में गिरा हुआ रस। इससे ज़्यादा कुछ जानना चाहो तो पूछो उस हरामजादे से।" इतना कहकर टगर की दृष्टि का अनुसरण कर वह भी कठोर दृष्टि से उनकी ओर ताकने लगा।
मैंने बड़ी मुश्किल से हँसी रोकते हुए मुँह नीचा करके कहा, "तो जाने दो, साथ में चिउड़ा तो है!"
नन्द बोला, "उस ओर से भी छुट्टी मिल गयी है। बाबूजी को एक दफे दिखा तो दो, टगर।"
टगर ने एक छोटी-सी पोटली को पैरों से ठुकराते हुए कहा, "दिखा दो न तुम्हीं-"
नन्द बोला, "जो भी कहो बाबू, काबुली जात नमकहराम नहीं कही जा सकती। ये लोग जिस तरह रसगुल्ले खा जाते हैं, उसी तरह अपने काबुलदेश की मोटी रोटियाँ भी तो बाँध देते हैं,- फेंकना नहीं टगर, रख छोड़, तेरे ठाकुरजी के भोग के काम में आ जायेंगीं।"
नन्द के इस परिहास से मैं ज़ोर से हँस पड़ा, किन्तु दूसरे ही क्षण टगर के मुँह की ओर देखकर डर गया। क्रोध के मारे उसका सारा मुँह काला हो गया था। ऊँचे कण्ठ से वज्र-कर्कश शब्दों में जहाज़ के सब लोगों को चौंकाकर वह चिल्ला उठी, "जात तक मत जाना भला मिस्री-कहे देती हूँ, अच्छा न होगा, हाँ..."
उसकी चिल्लाहट से जिन लोगों ने मुँह उठाकर उस ओर देखा, उनकी विस्मित दृष्टि के सामने, शरम के मारे, नन्द का मुँह जरा-सा रह गया। टगर को वह बखूबी जानता था। अपनी निरर्गल दिल्लगी के कारण पैदा हुए उसके क्रोध को किसी तरह शान्त करने में ही कुशल थी। शरमिन्दा होकर वह चट से बोल उठा, "सिर की कसम टगर, गुस्सा मत हो, मैं तो केवल मजाक कर रहा था।"
टगर ने वह बात जैसे सुनी ही नहीं। पुतलियाँ और भौहें एक बार बाईं ओर और एक बार दाहिनी ओर घुमाकर और कण्ठ के स्वर को और एक पर्दा ऊपर चढ़ाकर वह बोली, "मजाक कैसा! जात को लेकर भी क्या कोई मजाक किया जाता है। मुसलमानों की रोटियों से भोग लगाया जायेगा? केवट के मुँह में आग-जरूरत हो तो तू ही न रख छोड़-बाप को इनका पिण्डदान दे देना!"
डोरी छोड़े हुए धानुष्य की तरह नन्द चट से सीधा होकर खड़ा हो गया और उसने टगर का झोंटा पकड़ लिया, "हरामजादी, तू बाप तक जाती है।"
टगर कमर का कपड़ा सँम्हालती हुई हाँफते-हाँफते बोली, और "हरामजादे, तू जात तक जायेगा!" इतना कहकर कानों तक मुँह फाड़कर उसने नन्द की भुजा के एक हिस्से में काट खाया। मुहूर्त-भर में ही नन्द मिस्री और टगर वैष्णवी का मल्ल-युद्ध गहरा हो उठा। देखते ही देखते सब लोग घेरकर खड़े हो गये। भीड़ हो गयी। समुद्री बीमारी की तकलीफ को भूलकर सारे 'हिन्दुस्तानी'¹ ऊँचे कण्ठ से वाहवाही देने लगे, पंजाबी छि:-छि: करने लगे, उड़िया चीं-चीं करने लगे। एक तरह से पूरा लंका काण्ड मच गया मैं सन्नाटे में आ गया। और मेरा मुँह विवर्ण हो गया। इतनी मामूली-सी बात पर निर्लज्जता का ऐसा नंगा नाच हो सकता है, इसकी मैं कल्पना भी न कर सका था। और वह भी एक बंगाली स्त्री-पुरुष के द्वारा जहाज-भर के लोगों के सामने हो रहा है, यह देखकर तो मैं लज्जा के मारे ज़मीन में गड़ा जाने लगा। पास में ही एक जौनपुरी दरबान अत्यन्त सन्तोष के साथ तमाशा देख रहा था। मेरी ओर लक्ष्य करके बोला, "बाबूजी, बंगालिन तो बहुत अच्छी लड़ने वाली है, हटती ही नहीं।"
मैं उसकी ओर ऑंखें उठाकर देख भी न सका, चुपचाप गर्दन नीची किये किसी तरह भीड़ को चीरता हुआ ऊपर भाग गया।
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