श्रीकांत उपन्यास भाग-15
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अब तक का मेरा जीवन एक उपग्रह की तरह ही बीता, जिसको केन्द्र बनाकर घूमता रहा हूँ उसके निकट तक न तो मिला पहुँचने का अधिकार और न मिली दूर जाने की अनुमति। अधीन नहीं हूँ, लेकिन अपने को स्वाधीन कहने की शक्ति भी मुझमें नहीं। काशी से लौटती हुई ट्रेन में बैठा हुआ बार-बार यही सोच रहा था। सोच रहा था कि मेरी ही किस्मत में बार-बार यह क्यों घटित होता है? मरते दम तक अपना कहने लायक़ क्या किसी को भी न पा सकूँगा? क्या इसी तरह ज़िन्दगी काट दूँगा? बचपन की याद आई। दूसरे की इच्छा से दूसरे के घर में वर्ष के बाद वर्ष रहकर इस शरीर को तो किशोर से यौवन की ओर आगे बढ़ाता रहा, लेकिन, मन को न जाने किस रसातल की ओर खदेड़ता रहा। आज बार-बार पुकारने पर भी उस बिदा हुए मन की कोई आहट नहीं मिलती, हालाँकि कभी-कभी क्षीण कण्ठ का अनुसरण कान में आ लगता है, फिर भी, बिना संशय के नहीं पहिचान पाता कि वह अपना ही है,- विश्वास करते डर लगता है।
यह समझकर ही यहाँ आया हूँ कि आज मेरे जीवन में राजलक्ष्मी मृत है। नदी-किनारे खड़े होकर विसर्जित प्रतिमा के अन्तिम चिह्न तक को अपनी ऑंखों से देखकर लौटा हूँ- आशा करने का, कल्पना करने का, अपने को धोखा देने का कोई भी सूत्र शेष रखकर नहीं आया हूँ। उस तरफ सब शेष हो गया है, निश्चिन्त हो गया हूँ, पर यह शेष कितना शेष है, यह किससे कहूँ और कहूँ ही क्यों?
पर कुछ दिन का ही तो ज़िक्र है। कुमार साहब के साथ शिकार खेलने गया। दैवात् पियारी का गाना सुनने के लिए बैठा, बैठते ही भाग्य में कुछ ऐसा मिला जो जितना आकस्मिक था उतना ही अपरिसीम। न अपने गुण से पाया और न अपनी ग़लती से खोया ही, फिर भी आज स्वीकार करना पड़ा कि मैंने उससे खो दिया- मेरे संसार में सब मिलाकर क्षति ही शेष रही। जा रहा हूँ कलकत्ते, पर वासना फिर एक दिन बर्मा पहुँचायगी। लेकिन यह मानों जुआरी का घर लौटना है। घर का चित्र अस्पष्ट, अप्रकृत है, सिर्फ पथ ही सत्य है। ऐसा लगता है मानों इस पथ पर चलने का कोई अन्त नहीं।
"अरे, यह तो श्रीकान्त है!"
यह खयाल ही न था कि गाड़ी स्टेशन पर ठहरी है। देखता हूँ कि हमारे गाँव के बाबा, राँगा दीदी तथा सतरह-अठारह साल की एक लड़की-तीनों गर्दन, सिर और कन्धों पर गठरी-पोटली लादे प्लेटफॉर्म पर दौड़ लगाते आये और खिड़की के सामने आकर एकाएक थम गये। बाबा बोले, "उफ, कैसी भीड़ है! जहाँ एक सुई के जाने की भी गुंजाइश नहीं वहाँ तीन-तीन आदमी हैं! तुम्हारा डब्बा तो काफ़ी ख़ाली है, चढ़ आवें?" "आइए, कहकर दरवाज़ा खोल दिया। वे तीनों जनें हाँफते-हाँफते ऊपर आये और जितना सामान था नीचे रख दिया। बाबा ने कहा, "यह शायद ज़्यादा किराये का डब्बा है, दण्ड तो नहीं देना पड़ेगा?"
मैंने कहा, "नहीं, मैं गार्ड से कह आता हूँ।"
गार्ड को इत्तिला दे अपना कर्त्तव्य पूरा कर जब लौटा, तब वे लोग निश्चिन्त हो आराम से बैठे थे। गाड़ी के छूटने पर राँगा दीदी ने मेरी ओर नजर डाली, और चौंककर कहा, "तुम्हारा यह कैसा शरीर हो गया है श्रीकान्त? सारा मुँह सूखकर एकदम रस्सी जैसा हो गया है, कहाँ थे इतने दिन? कुछ भी हो, तुम अच्छे तो हो? जब से गये एक चिट्ठी तक नहीं दी? घरवाले सब सोच-फिक्र में मरे जाते हैं!"
इस तरह के प्रश्नों के उत्तर की कोई आशा नहीं करता, जवाब न मिलने पर बुरा भी नहीं मानता।
बाबा ने बताया कि तीर्थ करने के लिए यह सपत्नीक गया-धाम आये थे और यह लड़की उनकी बड़ी साली की नातिनी है,- बाप हज़ार रुपये गिन देने को तैयार है, लेकिन फिर भी अब तक कोई योग्य पात्र नहीं जुटा। मानती ही न थी इसलिए साथ लाना पड़ा। पूँटू, पेड़े की हाँड़ी तो खोल बेटी- क्यों जी, पूछता हूँ कि दही का बर्तन भूल तो नहीं आयी। हाँ तो पत्तो पर रख दो-दो-चार पेड़े, थोड़ा दही- ऐसा दही तुमने कभी खाया न होगा भैया, कसम खाकर कह सकता हूँ। नहीं-नहीं, लुटिया के पहले हाथ धो डालो, पूँटू, ऐरे-गैरे को तो दे नहीं रही हो- ऐसे लोगों को कैसे देना चाहिए यह सीखो।"
पूँटू ने यथा आदेश कर्त्तव्य का सयत्न पालन किया। अतएव, ट्रेन में ही असमय में अयाचित दही-पेड़े मिल गये। खाते हुए सोचने लगा कि मेरे ही भाग्य में सारी अनहोनी हुआ करती है, सो इस बार कहीं पूँटू के लिए मैं ही हज़ार रुपये की कीमत का पात्र न चुन लिया जाऊँ! यह खबर उन्हें पहली बार ही मिल गयी थी कि मैं बर्मा में अच्छी नौकरी करने लगा हूँ।
राँगा दीदी बहुत ज़्यादा स्नेह करने लगीं, और आत्मीय ज्ञान की वजह से पूँटू भी घण्टे भर में ही घनिष्ठ हो गयी, क्योंकि, मैं कोई दूसरा तो था नहीं!
लड़की अच्छी है। साधारण भद्र गृहस्थ घराने की, रंग गोरा तो नहीं था लेकिन देखने में सुन्दर थी। हालत यह हुई कि बाबा उसके गुणों का बखान खत्म ही न कर पा रहे थे। लिखने-पढ़ने के बारे में राँगा दीदी ने कहा, "वह ऐसी सुन्दर चिट्टी लिख सकती है कि आजकल के तुम्हारे नाटक और नॉविल भी हार मान जाँय। उस घर की नन्दरानी को एक ऐसी चिट्ठी लिख दी थी कि जमाई महाशय सात दिन के बजाय पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आ पहुँचे।"
राजलक्ष्मी का उल्लेख किसी ने इंगित से भी नहीं किया जैसे उस तरह की कभी कोई बात हुई थी, यह किसी को याद तक नहीं!
दूसरे दिन गाँव के स्टेशन पर गाड़ी ठहरी तो मुझे भी उतरना पड़ा। उस वक्त क़रीब दस बजे थे। ठीक वक्त पर स्नानाहार न होने पर पित्त भड़क जाने की आशंका से वे दोनों जनें चिन्तित हो उठे। मकान पहुँचने पर मेरी खातिरदारी की सीमा न रही। पाँच-सात दिन के अन्दर ही गाँव-भर में किसी को यह सन्देह न रहा कि पूँटू का वर मैं ही हूँ। यहाँ तक कि पूँटू को भी सन्देह न रहा।
बाबाजी ने चाहा कि यह शुभ कार्य आगामी वैशाख महीने में ही सम्पन्न हो जाय। पूँटू के रिश्तेदार जो जहाँ थे उन्हें बुला लेने की बात भी उठी। राँगा दीदी ने पुलकित हृदय से कहा, "देखते हो, किसी के भाग्य में कौन बदा है, यह पहले से कोई भी नहीं बता सकता!"
मैं पहले उदासीन था, फिर चिन्तित हुआ, और उसके बाद डरा। क्रमश: अपने ऊपर ही सन्देह होने लगा कि कहीं मैंने मंजूरी तो नहीं दे दी! मामला ऐसा बेढब हो गया कि कहीं पीछे कोई बुरी घटना न घट जाय इसलिए ना कहने का साहस ही न रहा। पूँटू की माँ यहीं थी। एक दिन रविवार को एकाएक उसके पिता के भी दर्शन हो गये। मुझे कोई नहीं जाने देना चाहता, आमोद-प्रमोद और हँसी-मजाक भी होने लगा- पूँटू मेरे ही सिर पड़ेगी, सिर्फ थोड़े दिनों की देर है- शनै:-शनै: ऐसे लक्षण ही चारों ओर स्पष्ट नजर आने लगे। जाल में फँसा जा रहा हूँ, मन को शान्ति नहीं मिलती- जाल तोड़कर बाहर भी नहीं निकल पाता। ऐसे वक्त अचानक एक सुयोग मिला। बाबा ने पूछा, "तुम्हारी कोई जन्मपत्री है या नहीं? उसकी तो जरूरत है।"
जोर लगाकर सारे संकोचों को दूर करके कह बैठा, "आप लोगों ने पूँटू के साथ मेरा विवाह करना क्या सचमुच स्थिर कर लिया है?"
बाबा मुँह फाड़कर थोड़ी देर तक अचम्भे से देखते रहे, फिर बोले, "वाकई? सुन लो इनकी बात!"
"पर मैं तो अभी तक स्थिर नहीं कर पाया हूँ।"
"नहीं कर पाये तो अब कर लो। लड़की की उम्र मैं चाहे बारह-तेरह वर्ष की बताऊँ या और कुछ, लेकिन असल में वह सतरह-अठारह साल की है। इसके बाद हम इस लड़की की शादी कैसे करेंगे?"
"पर वह मेरा दोष तो नहीं है?"
"तो फिर किसका है? शायद मेरा?"
इसके बाद लड़की की माँ और राँगा दीदी से शुरू करके पास पड़ौस की लड़कियाँ तक आ गयीं। रोना-धोना, अनुयोग अभियोगों का अन्त नहीं रहा। मुहल्ले के पुरुषों ने कहा, "ऐसा शैतान आज तक नहीं देखा, इसे अच्छा सबक देना चाहिए।"
पर दण्ड देना और बात है और लड़की की शादी करना दूसरी बात है। फलत: बाबा चुप हो रहे। इसके बाद अनुनय-विनय की पारी आई। पूँटू को अब नहीं देखता हूँ। शायद वह गरीब शर्म से मुँह छिपाए कहीं पड़ी है। क्लेश होने लगा। कैसा दुर्भाग्य लेकर ये हमारे घरों में पैदा होती हैं। सुना कि ठीक यही बात उसकी माँ भी कह रही है- ओ अभागिन, हम सबको खाने के बाद जायेगी। इसकी ऐसी तकदीर है कि समुद्र पर दृष्टि डाले तो समुद्र तक सूख जाय और जली हुई शोल मछली भी पानी में भाग जाए। इसका ऐसा हाल न होगा तो किसका होगा!
कलकत्ते जाने के पहले बाबा को बुलाकर अपने घर का पता बता दिया। कहा, "मेरे लिए एक व्यक्ति की राय लेना जरूरी है, उनके कहने पर मैं राजी हो जाऊँगा।" बाबा मेरा हाथ पकड़कर गद्गद कण्ठ से बोले, "देखो भाई, लड़की को मत मारो। उन्हें जरा समझा-बुझाकर कहना कि वे अपनी असम्मति न दें।" मैं बोला, "मेरा विश्वास है कि वे असम्मति प्रकट न करेंगे। बल्कि खुश होकर ही सम्मति देंगे।"
बाबा ने आशीर्वाद दिया, "तुम्हारे मकान पर कब आऊँ, भैया?"
"पाँच-छ: दिन बाद ही आइए।"
पूँटू की माँ और राँगा दीदी ने रास्ते तक आकर ऑंसुओं के साथ मुझे बिदा किया।
मन ही मन कहा, तकदीर! किन्तु यह अच्छा ही हुआ कि एक प्रकार से वचन दे आया। मैंने इस बात पर नि:संशय विश्वास कर लिया कि इस विवाह में राजलक्ष्मी लेशमात्र भी आपत्ति न करेगी।
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स्टेशन पर पहुँचते ही ट्रेन छूट गयी। दूसरी ट्रेन आने में दो घण्टे की देर थी। समय काटने का उपाय खोज रहा था कि एक मित्र मिल गये। एक मुसलमान युवक ने कुछ देर तक मेरी ओर देखते रहकर पूछा, "आप श्रीकान्त हैं?"
"हाँ।"
"मुझे नहीं पहिचान सके? मैं गौहर हूँ।" कहकर उसने मेरा हाथ ज़ोर से दबा दिया, पीठ पर सशब्द चपत लगाई और ज़ोर से गले लिपटकर कहा, "चलो, हमारे घर चलो। कहाँ जा रहे थे- कलकत्ते? अब जाने की जरूरत नहीं- चलो।"
यह मेरा पाठशाला का मित्र है, उम्र में कोई चार साल बड़ा होगा, हमेशा से ही कुछ आधा पागल जैसा। ऐसा लगा कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसका वह पागलपन कम होने की बजाय बढ़ गया है। पहले भी उसकी जबरदस्ती से बचने का उपाय न था, अत: यह खयाल कर मेरी दुश्चिन्ता की सीमा न रही कि कम-से-कम आज रात को वह मुझे किसी तरह नहीं छोड़ेगा। यह कहना व्यर्थ है कि उसकी आत्मीयता और उल्लास में हिस्सा बाँटने की शक्ति आज मुझमें नहीं है। पर वह छोड़ने वाला जीव नहीं था। मेरा बैग उसने खुद उठा लिया और कुली बुलाकर उसके सिर पर बिछौना रख दिया। फिर जबरदस्ती खींचता हुआ बाहर लाया और गाड़ी का भाड़ा ठीक कर मुझसे बोला, "चलो।"
बचने का कोई उपाय नहीं है, तर्क करना फिजूल है।
यह कह चुका हूँ कि गौहर मेरा पाठशाला का साथी है। हमारे गाँव से उसका मकान एक कोस दूर था, एक ही नदी के किनारे। बचपन में बन्दूक चलाना उसी से सीखा था। उसके पिता की एक पुरानी बन्दूक थी, उसी को लेकर नदी किनारे, आम के बगीचों में और झाड़-झंखाड़ों में घूमकर हम दोनों चिड़ियों का शिकार किया करते थे। बचपन में अनेक बार उसी के यहाँ रात काटी है- उसकी माँ चिवड़ा, गुड़, दूध और केला लाकर मुझे फलाहार करा देती थी। उनकी ज़मीन-जायदाद, खेती-बारी बहुत थी। गाड़ी में बैठकर गौहर ने प्रश्र किया, "इतने दिनों तक कहाँ थे, श्रीकान्त?"
जहाँ जहाँ था, उसका एक संक्षिप्त विवरण दे दिया। पूछा, "तुम अब क्या करते हो, गौहर?"
"कुछ भी नहीं।"
"तुम्हारी माँ अच्छी तरह हैं?"
"माँ-बाप दोनों की मृत्यु हो गयी- मकान में अकेला मैं ही हूँ।"
"शादी नहीं की?"
"वह भी मर गयी।"
मन ही मन सोचा कि शायद इसीलिए चाहे जिसे पकड़ ले जाने का इतना आग्रह है! जब कोई बात करने को नहीं मिला तो पूछा, "तुम्हारी वह पुरानी बन्दूक है?"
गौहर ने हँसकर कहा, "देखता हूँ कि तुम्हें उसकी याद है! वह है, और उसके सिवाय और भी एक अच्छी बन्दूक ख़रीदी थी। तुम शिकार खेलने जाना चाहो तो साथ चला चलूँगा। किन्तु अब मैं चिड़ियाँ नहीं मारता-बहुत दु:ख होताहै।"
"यह क्या गौहर, तब तो तुम दिन-रात इसी के पीछे पागल थे।"
"यह सच है। लेकिन अब बहुत दिनों से छोड़ दिया है।"
गौहर का एक परिचय और है कि वह कवि है। उन दिनों वह मुँह-जुबानी अनर्गल ग्राम-गीत बना सकता था- किसी भी वक्त और किसी भी विषय पर। छन्द, मात्रा और ध्वानि इत्यादि काव्य-शास्त्र के क़ानून-कायदों को मानता था या नहीं, इसका ज्ञान मुझे न तब था और न अब है। पर मुझे याद है कि मैं उन दिनों मणिपुर का युद्ध और टिकेन्द्र जीत सिंह के वीरत्व की कहानी उसके मुँह से सुनकर पुन:-पुन: उत्तेजित हो उठता था। पूछा, "गौहर, उन दिनों तुम्हें कृत्तिवास से भी सुन्दर रामायण लिखने का शौक़ था, वह संकल्प अब भी है या गया है?" गौहर क्षण-भर में गम्भीर हो गया। बोला, "वह शौक़ क्या कभी जा सकता है रे? उसी के बल पर तो बचा हुआ हूँ। जब तक ज़िन्दा रहूँगा तब तक उसे लिये रहूँगा। कितना लिखा है, चलो न, आज सारी रात तुम्हें सुनाऊँगा तो भी खत्म न होगा।"
"कहते क्या हो गौहर?"
"नहीं तो क्या तुमसे झूठ कहता हूँ?"
प्रदीप्त कवि-प्रतिभा से उसकी ऑंखो और मुँह चमक उठे। सन्देह नहीं किया था, सिर्फ विस्मय ज़ाहिर किया था। तथापि, कहीं केंचुआ खोजते हुए साँप न निकल आये- मुझे जबरदस्ती बैठाकर सारी रात काव्य-चर्चा ही न करता रहे- मेरे भय की सीमा नहीं रही।
खुश करने के लिए कहा, "नहीं गौहर, यह थोड़े ही कहता हूँ। तुम्हारी अद्भुत शक्ति को सभी स्वीकार करते हैं, पर बचपन की बातें याद हैं या नहीं, यही जानने के लिए पूछा है। तो ठीक- वह बंगाल की एक कीर्ति होकर रहेगी।"
"कीर्ति? अपने मुँह से क्या कहूँ भाई, पहले सुन तो लो, फिर ये सब बातें होंगी।"
किसी भी तरह छुटकारा नहीं। कुछ देर स्थिर रहकर मानो कुछ-कुछ अपने आप ही कहा, "सुबह से ही तबियत ख़राब हो रही है। ऐसा लगता है कि अगर नींद आ जाती..."
गौहर ने इस पर ध्या न ही न दिया। कहा, "पुष्पक रथ पर बैठकर सीताजी जब रोते-रोते गहने फेंक रही हैं- इस अंश को जिन जिनने सुना है वे अपने ऑंसू नहीं रोक सके हैं श्रीकान्त।"
ऑंखों का जल मैं भी रोक सकूँगा, इसकी सम्भावना कम है। कहा,
"किन्तु..." गौहर ने कहा, "हमारे उस बूढ़े नयन चाँद चक्रवर्ती की तुम्हें याद है न? उसके मारे नाक में दम है। वक्त-बे-वक्त आकर कहता है, "गौहर, जरा वह अंश पढ़ो न, सुनूँगा।" कहता है, "बेटा, तुम मुसलमान की सन्तान कभी नहीं हो। ऐसा लगता है कि तुम्हारे शरीर में असली ब्राह्मण-रक्त प्रवाहित है।" 'नयनचाँद' नाम हर जगह नहीं होता, इसीलिए याद आ गया। मकान भी गौहर के गाँव में ही है। पूछा, "वही बूढ़ा चक्रवर्ती? उसके साथ तो तुम्हारे पिताजी का बड़ा झगड़ा हुआ था- लाठियाँ चलीं थीं और मामला भी?"
गौहर ने कहा, "हाँ। लेकिन पिताजी के सामने उसकी क्या चलती? उन्होंने उसकी ज़मीन, बगीचा, तालाब इत्यादि सबको कर्जमध्दे नीलाम करवा लिया था। लेकिन मैंने उसका तालाब और मकान लौटा दिया है। बहुत गरीब है। रात-दिन रोता था- यह क्या अच्छा होता श्रीकान्त?"
अच्छा तो नहीं होता, परन्तु चक्रवर्ती के काव्य-प्रेम से कुछ ऐसा ही अन्दाज लगा रहा था। कहा, "अब तो रोना बन्द हो गया है?"
गौहर ने कहा, "लेकिन आदमी वाकई अच्छा है। कर्जे के मारे उसने उस वक्त जो कुछ किया था, वैसा बहुत लोग करते हैं। उसके मकान के पास ही डेढ़ बीघे का आम का बगीचा है, उसके हरेक पेड़ को चक्रवर्ती ने अपने हाथों से लगाया है। नाती-पोते बहुत से हैं, ख़रीदकर खाने के लिए पैसे नहीं हैं। फिर, मेरा ही कौन है, कौन खाने वाला है?"
"यह ठीक है। उसे भी लौटा दो।"
"लौटा देना ही ठीक है, श्रीकान्त। ऑंखों के सामने ही आम पकते हैं, लड़के-बच्चे ठण्डी आहें भरते हैं- मुझे बहुत दु:ख होता है भाई! आम के दिनों में मेरे सब बगीचे व्यापारी लोग ले लेते हैं, सिर्फ वह बगीचा नहीं बेचता। कह दिया है, चक्रवर्ती, तुम्हारे नाती तोड़-तोड़कर खायें। क्या कहते हो ठीक किया न?"
'बिल्कुटल ठीक।" मन-ही-मन कहा, बैंकुण्ठ के खाते की जय हो! उसकी बदौलत यदि गरीब नयन चाँद पत्किंचित् लाभ उठा सके तो नुकसान ही क्या है? इसके अलावा गौहर कवि है। कवि की इतनी सम्पत्ति किस मतलब की अगर रसग्राही रसिक सुजनों के काम में न आय?
लगभग चैत्र के बीचोंबीच की बात है। गाड़ी की खिड़की को एकाएक अन्त तक खोलकर गौहर ने बाहर सिर निकालते हुए कहा, "दक्षिणी हवा का अनुभव हो रहा है श्रीकान्त?"
"हो रहा है।"
गौहर ने कहा, "वसन्त को पुकारते हुए कवि ने कहा है- 'खोल दे आज दखिन का द्वार'।"
कच्ची मिट्टी का रास्ता है। मलय पवन के एक झोंके ने रास्ते की सूखी धूल को ज़मीन पर नहीं रहने दिया, उससे समस्त मुँह और सिर को भर दिया। मैं अप्रसन्न होकर बोला, "कवि ने वसन्त को नहीं बुलाया। वह कहता है कि इस वक्त यम का दक्षिण द्वार खुला है- अत: गाड़ी को बन्द न करोगे, तो शायद वही आकर हाजिर हो जायेगा।"
गौहर ने हँसकर कहा, "चलकर देखोगे एक बार। चकोतरे के दो पेड़ों पर फूल खिले हैं, कोई आधा कोस से उनकी गन्ध आती है। सामने वाला जामुन का पेड़ माधवी फूलों से भर गया है, उसकी एक डाल पर मालती की लता है। फूल अभी नहीं खिले हैं, कलियों के गुच्छे के गुच्छे लटक रहे हैं। हमारे चारों ही ओर आम के बगीचे हैं और अबकी बार बौर से आम के झाड़ छा गये हैं। कल सुबह मधुमक्खियों का मेला देखना। कितने नीलकण्ठ, कितनी बुलबुलें और कितनी कोयलों के गान! इस वक्त चाँदनी रात है, इस कारण रात को भी कोयल की कूक नहीं रुकती। बाहर के कमरे की दक्षिण वाली खिड़की यदि खुली रखोगे तो फिर तुम्हारी पलकें न झपेंगी। लेकिन इस बार यों ही नहीं छोड़ दूँगा भाई, यह पहले से यह देता हूँ। इसके अलावा खाने की भी कोई फ़िक्र नहीं, चक्रवर्ती महाशय को एक बार खबर मिलने-भर की देर है। तुम्हारा आदर गुरु की तरह करेंगे।"
आमन्त्रण की अकपट आन्तरिकता से मुग्ध हो गया। कितनी मुद्दतों बाद मुलाकात हुई है, लेकिन वह ठीक उस दिन जैसा ही गौहर है- जरा भी नहीं बदला है- वैसा ही बचपन है, मित्र-मिलने में वैसा ही अकृत्रिम उल्लास है।
गौहर मुसलमान फ़कीर-सम्प्रदाय का है। सुना गया है कि उसके पितामह बाउल थे। वे रामप्रसादी और दूसरे गीत गा-गाकर भिक्षा माँगते थे। उनकी पाली हुई सारिका की अलौकिक संगीत-पारदर्शिता की कहानी उन दिनों इधर बहुत प्रसिद्ध थी। लेकिन गौहर के पिता पैतृक-वृत्ति छोड़कर तिजारत और पाठ का कारबार करने लगे और अपने लड़के के लिए बहुत-सी जायदाद ख़रीदकर छोड़ गये। परन्तु लड़के में बाप जैसी व्यापारी बुद्धि नहीं है- बल्कि बाबा का काव्य और संगीत के प्रति अनुराग ही उसमें है। अत: पिता की जी-तोड़ मेहनत से संचित ज़मीन-जायदाद और खेती-बारी का अन्त में क्या परिणाम होगा, यह शंका और सन्देह का विषय है।
खैर, जो हो, उन लोगों का मकान बचपन में देखा था। ठीक से याद नहीं। अब वह शायद कवि की वाणी-साधना के तपोवन में रूपान्तरित हो गया हो। उसे एक बार ऑंखों से देखने की इच्छा हुई।
उसके ग्राम के पथ से मैं परिचित हूँ, उसकी दुर्गमता भी याद आती है। किन्तु थोड़ी ही देर बाद मालूम हो गया कि शैशव की उस याद के साथ आज की ऑंखों से देखने की क़तई तुलना नहीं हो सकती। बादशाही जमाने की सड़क है अतिशय सनातन। मिट्टी पत्थरों की परिकल्पना यहाँ के लिए नहीं है! कोई करेगा, ऐसी दुराशा भी कोई नहीं करता। इतना ही नहीं, संस्कार या मरम्मत की सम्भावना भी लोगों के मन से बहुत समय पहले ही पुंछ गयी है। गाँव वाले जानते हैं कि शिकायत या अभियोग फिजूल है- उनके लिए किसी भी दिन राजकोष में रुपये नहीं होंगे। वे जानते हैं कि पुरुषानुक्रम से सड़क के लिए सिर्फ सड़क-टैक्स देना पड़ता है पर वह सड़क कहाँ है और किसके लिए है, यह सब सोचना भी उनके लिए ज्यादती है।
¹ बाउल-बंगाल में वैरागी सन्तों का एक सम्प्रदाय। कबीर, दादू आदि हिन्दी के सन्त-कवियों की वाणी गा-गाकर ये घर-घर भिक्षा माँगते हैं।
उस सड़क पर बहुकाल से संचित और स्तूपीकृत बालू और मिट्टी की रुकावट को हटाती हुई हमारी गाड़ी सिर्फ चाबुक के ज़ोर से अग्रसर हो रही थी। ऐसे ही वक्त गौहर एकाएक बड़े ज़ोर से चिल्ला उठा, "गाड़ीवान! और नहीं- और नहीं, ठहरो-एकदम रोको!"
उसने यह इस तरह कहा जैसे पंजाब-मेल का मामला हो-जैसे पल-भर में ही सब वैक्युम ब्रेक अगर बन्द न किये जा सके तो सर्वनाश की सम्भावना हो।
गाड़ी रुक गयी। बाँयें हाथवाला रास्ता उनके गाँव जाने का है। उतरकर गौहर ने कहा, "श्रीकान्त, उतर आओ। मैं बैग ले लेता हूँ, तुम बिछौना उठाओ, चलो।"
"शायद गाड़ी और आगे नहीं जायेगी?"
"नहीं। देखो न, रास्ता नहीं है।"
यह सही है। दक्षिण बाँयीं ओर काँटेदार पेड़ और बेत-कुंजकी घनी तथा सम्मिलित शाखा-प्रशाखाओं के कारण गाँव की वह गली अतिशय संकीर्ण हो गयी है। गाड़ी को अन्दर घुसाने का तो प्रश्न ही अवैध था, क्योंकि अगर आदमी भी होशियारी के साथ झुककर न घुसे तो काँटों में फँसकर उसके कपड़ों का फटना अनिवार्य है- अतएव, कवि के कथनानुसार वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अनिर्वचनीय था। उसने बैग को कन्धों पर रखा और मैंने बिछौने को बगल में दबाया। इस तरह हम लोग गोधूलि की बेला में गाड़ी से उतरे। कवि-गृह में जब पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। अन्दाज लगाया कि आकाश में वसन्त-रात्रि का चन्द्रमा भी निकल आया है। शायद पूर्णिमा के आस-पास की तिथि थी, अतएव इस आशा में था कि गम्भीर निशीथ में चन्द्रदेव सिर के ऊपर आ जाँय तो तिथि के बारे में नि:संशय हो जाऊँ। मकान के चारों ओर बाँसों का घना वन है। बहुत सम्भव है कि इसी जंगल में उसका कोयल नीलकण्ठ और बुलबुलों का झुण्ठ रहता हो और उन्हीं की अहर्निश पुकार तथा गाना कवि को व्याकुल बना देता हो। बाँस के पके सूखे हुए असंख्य पत्तों ने झड़झड़ कर ऑंगन और चबूतरे को चारों ओर से परिव्याप्त कर रखा है। इन पर नज़र पड़ते ही इस प्रेरणा से सारा मन क्षणभर में ही गर्जना कर उठता है कि झड़े हुए पत्तों का गीत गाया जाय। नौकर ने आकर बाहर की बैठक खोल दी और बत्ती जला दी। गौहर ने तख्त दिखाते हुए कहा, "तुम इसी कमरे में रहो। देखना, कैसी सुन्दर हवा आती है।"
असम्भव नहीं है। देखा, कि दक्षिण की हवा की वजह से देशभर की सूखी हुई लताओं और पत्तों ने गवाक्ष-पथ से भीतर घुसकर कमरे को भर दिया है, तख्त को भी छा दिया है। फर्श पर पैर पड़ते ही शरीर सनसना उठा। खाट के पाये के पास चूहे ने अपना बिल बनाकर मिट्टी जमा कर रक्खी है। मैंने उसे दिखाकर कहा, "गौहर, कमरे में तुम लोग क्या कभी झाँकते भी नहीं?"
गौहर ने जवाब दिया, "नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ती। मैं अन्दर ही रहता हूँ। कल सब साफ़ करा दूँगा।"
"साफ तो हो जाएगा, लेकिन इस बिल में साँप भी तो रह सकते हैं?"
नौकर ने कहा, "दो थे, लेकिन अब नहीं हैं। ऐसे दिनों में वे नहीं रहते, हवा खाने के लिए बाहर चले जाते हैं।"
पूछा, "यह कैसे मालूम हुआ मियाँ?"
गौहर ने हँसते हुए कहा, "यह मियाँ नहीं है, अपना नवीन है। पिताजी के जमाने का आदमी है। गाय-भैंस, खेती-बारी देखता है और मकान की हिफाजत भी करता है। हमारे यहाँ क्या है, और क्या नहीं है, इसे सब पता है।" नवीन बंगाली हिन्दू है और है पिता के जमाने का आदमी। इस घर की गाय-भैसें, खेती-बारी से लेकर मकान तक का सारा हाल जानना उसके लिए असम्भव नहीं है। तथापि साँप के बारे में उसकी बातों से निश्चिन्त न हो सका। यहाँ तो मकान-भर को दक्षिणी हवा लग गयी है! सोचा, इसमें शक नहीं कि हवा के लोभ में सर्प-युग्ल बाहर जा सकते हैं, परन्तु, उन्हें लौटते भी कितनी देर लग सकती है?
गौहर ने ताड़ लिया कि मुझे तसल्ली नहीं हुई है। कहा, "तुम तो खाट पर रहोगे, फिर तुम्हें डर किस बात का? इसके अलावा वे कहाँ नहीं रहते? भाग्य में लिखा था, इससे राजा परीक्षित को भी रिहाई नहीं मिली, फिर हम तो तुच्छ हैं। नवीन, कमरे में झाडू लगाकर एक ईंट से बिल को ढक देना, भूलना नहीं। पर श्रीकान्त, कहो तो, तुम खाओगे क्या?"
मैंने कहा, "जो कुछ मिल जाए।"
नवीन बोला, "दूध, चिवड़ा और अच्छी ईख का गुड़ है। आज के लायक-"
मैंने कहा, "ठीक है, ठीक है। इस मकान में ये ही चीज़ें खाने की मुझे आदत है, और कुछ जुटाने की जरूरत नहीं, भाई। बल्कि, तुम कहीं से एक हल्की ईंट ले आओ। बिल को मज़बूती से ढक दो, जिससे दक्षिण की हवा से पेट भरकर जब वे घर लौटें तो फिर एकाएक इसमें न घुस सकें।" हाथ में रोशनी लेकर नवीन कुछ देर तक तख्त के नीचे झाँकता रहा। फिर बोला, "नहीं, नहीं हो सकता।"
"क्या नहीं हो सकता जी?"
उसने सिर हिलाकर कहा, "नहीं, यह नहीं हो सकता। बिल का मुँह क्या अकेला है बाबू? पजाबा-भर ईंटें चाहिए। चूहों ने ज़मीन को एकबारगी पोला कर डाला है।"
गौहर विशेष विचलित न हुआ। उसने आदमी लगाकर कल अवश्य मरम्मत करा देने का हुक्म दे दिया।
नवीन हाथ पैर धोने के लिए पानी देकर फलाहार का आयोजन करने जब भीतर चला गया तो मैंने पूछा, "और तुम क्या खाओगे गौहर?"
"मैं? मेरी एक बूढ़ी मौसी हैं, वे ही खाना बनाती हैं। खैर, यह खाना-पीना खत्म हो जाए तो अपनी रचनाएँ तुम्हें सुनाऊँ।" वह अपने काव्य के ध्या न में ही मग्न था। अतिथि के आराम और सुविधा का खयाल शायद उसने किया ही नहीं। बोला, "बिछौना बिछा दूँ, क्या कहते हो? रात को हम दोनों एक साथ ही रहेंगे-क्यों?"
यह एक और आफत आई। कहा, "नहीं भाई गौहर, तुम अपने कमरे में जाकर सोओ। आज मैं बहुत थका हुआ हूँ, कल सुबह ही तुम्हारी रचना सुनूँगा।"
"कल सुबह? तब क्या वक्त रहेगा?"
"अवश्य रहेगा।"
गौहर चुप होकर कुछ सोचता रहा। बोला, "अच्छा श्रीकान्त, एक काम किया जाए तो कैसा हो! मैं पढ़ता हूँ और तुम लेटे-लेटे सुनते रहना। नींद आने पर मैं चला जाऊँगा। क्या कहते हो? यह ठीक है न- क्यों?"
मैंने विनती करते हुए कहा, "नहीं भाई गौहर, इससे तुम्हारी किताब की मर्यादा नष्ट होगी। कल मैं पूरा ध्या-न लगाकर सुनूँगा।"
गौहर ने क्षुब्ध चेहरे से बिदा ली, पर बिदा करके मेरा मन भी प्रसन्न नहीं हुआ।
यह एक ही पागल है। पहले इसके इशारों से तो मैंने यही समझा था कि अपने काव्य-ग्रन्थ को वह प्रकाशित करना चाहता है और उसे आशा है कि उससे संसार में एक धूम मच जायेगी। वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। पाठशाला और स्कूल में उसने सिर्फ थोड़ी-सी बंगला और अंगरेज़ी सीखी थी। इच्छा भी नहीं थी, और शायद समय भी नहीं मिला। शैशव में न जाने कब और कैसे वह कविता से प्रेम कर बैठा। सम्भव है कि वह प्रेम उसकी शिराओं के ख़ून में ही बह रहा हो-इसके बाद संसार का सब कुछ उसकी नजरों में अर्थहीन हो गया है। अपनी अनेक रचनाएँ उसे याद हैं। गाड़ी में बैठा हुआ बीच-बीच में वह गुनगुनाकर आवृत्ति भी करता था। उस वक्त सुनकर यह नहीं सोचा था कि इस अक्षय भक्त को वाग्देवी अपने स्वर्ण-पद्म की एक पंखुड़ी देकर किसी दिन पुरस्कृत करेंगी। पर अक्लान्त आराधना के एकाग्र आत्म निवेदन में इस बेचारे को विराम नहीं, विश्राम नहीं। बिछौने पर लेटा हुआ सोचने लगा कि बारह साल बाद मुलाकात हुई है। इन बारह वर्षों से उसने सब पार्थिव स्वार्थों को जलांजलि देकर और एक रचना के बाद दूसरी गूँथ करके श्लोकों का पहाड़ जमा कर लिया है। पर यह सब किस काम में आयेगा? जानता हूँ कि काम में नहीं आएगा। गौहर आज नहीं है पर उसकी दुश्चर तपस्या की अकृतार्थता स्मरण कर आज भी मन दुखी होता है। सोचता हूँ कि न जाने कितने शोभाहीन, गन्धहीन फूल लोक-चक्षुओं के अन्तराल में खिलते हैं और फिर अपने आप ही मुरझा जाते हैं। परन्तु, विश्व-विधान में यदि उनकी कोई सार्थकता है, तो शायद गौहर की साधना भी व्यर्थ नहीं हुई होगी।
गौहर ने बहुत सबेरे ही पुकारकर मेरी नींद खोल दी। तब शायद सात बजे थे, या न भी बजे हों। उसकी इच्छा थी कि वसन्त के दिनों में बंगाल के निभृत गाँवों के लोकोत्तर शोभा-सौन्दर्य को अपनी ऑंखों से देखकर धन्य होऊँ। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मानो मैं विलायत से लौटकर आया हूँ। उसका आग्रह पागलों जैसा था। अनुरोध टालने का उपाय नहीं था। अतएव हाथ-मुँह धोकर तैयार होना पड़ा। प्राचीर से सटे हुए एक अधमरे जामुन के पेड़ के अधिक हिस्से में माधवी और अधिक में मालती लता लिपटी थी। यह कवि की अपनी योजना है। अत्यन्त निर्जीव शकल-तथापि, एक में थोड़े से फूल खिले हैं और दूसरी में अभी कलियाँ फूटी हैं। उसकी इच्छा थी कि थोड़े से फूल मुझे उपहार दे, पर पेड़ में इतने लाल चींटे थे कि छूने का कोई उपाय नहीं सूझा। उसने मुझे यह कहकर सान्त्वना दी कि कुछ देर बाद उन्हें ऑंकड़ी से अनायास ही झड़ा दिया जायेगा। अच्छा, चलो।
प्रात:क्रिया ठीक तौर से निष्पन्न हो सके (अर्थात् कब्ज न रहे,) इसके उद्योग-पर्व में नवीन चिलम हाथ में लिये दम लगाकर बड़े ज़ोर से खाँस रहा था। थूककर, खखारकर और बहुत कुछ सँभालकर हाथ हिलाकर उसने मना किया। कहा, "जंगल में कहीं गायब मत हो जाइएगा, कहे देता हूँ।"
गौहर ने नाराजगी से कहा, "क्यों रे?"
नवीन ने जवाब दिया, "कोई दो-तीन सियार पागल हो गये हैं; ढोर-आदमियों को काटते डोल रहे हैं।"
मैं डर के मारे पीछे हट गया।
"कहाँ रे नवीन?"
"यह क्या मैंने देखा है कि कहाँ हैं? कहीं-न-कहीं झाड़ी-आड़ी में छिपे होंगे। अगर जाते हो तो ऑंखें खोलकर जाना।"
"तो भाई, जाने का काम नहीं गौहर।"
"वाह रे! इस वक्त कुत्ते और सियार जरा पागल हो ही जाते हैं- सिर्फ इसी वजह से क्या लोग रास्ता चलना बन्द कर देंगे? खूब कहा।"
यह भी दक्षिण की हवा का मामला है। अतएव, प्रकृति की शोभा देखने साथ में जाना ही पड़ा। रास्ते में दोनों ओर आम के बगीचे हैं। क़रीब पहुँचते ही असंख्य छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े चड़-चड़ पट-पट आवाज़ करते हुए आम्र-मुकलों को छोड़कर ऑंख, नाक, मुँह और कपड़ों के भीतर घुस गये। सूखे पत्तों पर आम का मधु गिरकर चिपकनी लेई की तरह हो गया था, वह जूते के तलों में चिपकने लगा। सँकरे रास्ते का बहुत-सा हिस्सा बेदख़ल कर विराजमान मुकलित-विकसित फूलों के भार से लदीं घनी करौंदे की झाड़ियाँ- इसी समय यदि आ गयीं नवीन की चेतावनी। गौहर के मतानुसार यह वक्त पागल होने लायक़ ही है, इसलिए करौदे के फूलों की शोभा और किसी दिन समय के अनुसार उपभोग की जायेगी। आज गौहर और मैं- यानी नवीन के 'ढोर आदमी' ने जरा तेज क़दम से ही स्थान त्याग किया।
मैं कह चुका हूँ कि हमारे गाँव की नदी इस गाँव की सीमा में भी होकर बहती है। वर्षा की चौड़ी जलधारा वसन्त के समागम से पतली शीर्ण हो गयी है। उस समय धार के साथ बहकर आई अपरिमेय सिवार और काई शुष्क तट-भूमि पर फैल गयी है और शिशिर और धूप में सड़कर उसने सारी जगह को दुर्गेन्ध से नरक-कुण्ड बना दिया है। नदी के उस पार कुछ दूर से मरके पेड़ में सैकड़ों लाल फूल खिले हुए थे। उन पर पड़ी, लेकिन इस वक्त कवि को भी उस ओर दृष्टि आकर्षित करना ठीक नहीं लगा। उसने कहा, "चलो, घर लौट चलें।"
"अच्छा, चलो।"
"मेरा खयाल था कि ये सब चीज़ें अच्छी लगेंगी।"
कहा, "अच्छी लगेंगी भाई, लगेंगी। अच्छे-अच्छे शब्दों में तुम इनको कविता में लिखो, मैं पढ़कर खुश हूँगा।"
"शायद इसीलिए गाँव के आदमी एक बार भूलकर भी इन्हें नहीं देखते।"
"नहीं। देखते-देखते उन्हें अरुचि हो गयी है। भाई, ऑंखों की रुचि और कानों की रुचि एक नहीं है। जो यह सोचते हैं कि कवि के वर्णन को अपनी ऑंखों देखने पर लोग मोहित हो जाते हैं, वह नहीं जानते सत्य क्या है। दुनिया के हर काम में यह बात लागू है। ऑंखों के लिए जो एक साधारण घटना या बहुत मामूली-सी वस्तु है वही कवि की भाषा में 'नयी सृष्टि' हो जाती है। तुम जो देखते हो वह भी सत्य है, और जो मैं नहीं देख सका वह भी सत्य है। इसके लिए तुम दुखी मत होना गौहर।'
तो भी लौटते समय रास्ते में उसने न जाने कितनी और क्या-क्या वस्तुएँ दिखाने की चेष्टा की। पथ का प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक लता पौधा तक मानो उसका पहिचाना हुआ है। न जाने कब एक पेड़ की छाल औषधि के लिए कोई छीलकर ले गया था और उससे चिपकनेवाला पदार्थ अब भी झर रहा था। सहसा उसे देखकर गौहर सिहर-सा उठा। उसकी ऑंखें छलछला आयीं, मैं उसके मुँह की ओर देखकर यह स्पष्टतया समझ गया कि अन्तर में उसने कितनी वेदना का अनुभव किया है। चक्रवर्ती जो अपनी सब खोई हुई चीज़ें पुन: वापस प्राप्त कर रहा था, सो केवल अपनी होशियारी के कारण नहीं, इसका कारण तो गौहर के स्वभाव में ही है। ब्राह्मण के प्रति मेरा क्रोध बहुत कुछ अपने आप ही कम हो गया। चक्रवर्ती से मुलाकात नहीं हुई, क्योंकि सुना गया कि उसके घर में उसके दो नातियों पर शीतला-माता की कृपा हुई है। अब तक गाँव-गाँव में विसूचिका-माता के दर्शन नहीं हुए हैं- वे सड़ी हुए तलैयों के पानी के थोड़ा और सूख जाने की राह देख रही हैं।
खैर, घर पहुँचकर गौहर ने अपना पोथा मेरे सामने हाजिर कर दिया। ऐसा आदमी संसार में बिरला ही होगा जिसे उसका परिणाम देखकर भय न लगता। बोला, "बिना पढ़े छुट्टी नहीं मिलेगी श्रीकान्त, और तुम्हें अपनी सच-सच राय देनी होगी।"
यह आशंका तो थी ही। साफ-साफ राजी हो सकूँ, इतना साहस नहीं था, तो भी कवि की वाटिका में इस यात्रा के, एक के बाद एक, मेरे सात दिन काव्यालोचना में ही कट गये। काव्य की बात जाने दो, किन्तु सघन साहचर्य में इस मनुष्य का जो परिचय मिला, व जितना सुन्दर था उतना ही विस्मयकारक।
एक दिन गौहर ने कहा, "श्रीकान्त, तुम्हें बर्मा जाने की क्या जरूरत है? हम दोनों के ही अपना कहने लायक़ कोई नहीं है, तो आओ ने हम दोनों भाई यहीं एक साथ जीवन बिता दें!"
हँसकर कहा, "मैं तो तुम्हारी तरह कवि नहीं हूँ भाई, न पेड़-पौधों की भाषा ही समझता हूँ, और न उनसे बातचीत कर सकता हूँ, फिर इस जंगल में कैसे रह सकूँगा? दो दिन में ही हाँफ जाऊँगा"
गौहर ने गम्भीर होकर कहा, "किन्तु मैं उनकी भाषा वाकई समझता हूँ। वे सचमुच बोलते हैं- क्या तुम लोग विश्वास नहीं करते?"
मैंने कहा, "यह तो तुम भी समझते हो कि विश्वास करना मुश्किल है?"
गौहर ने सरलता से स्वीकार कर लिया, कहा, "हाँ, हाँ, यह तो समझता हूँ।"
एक दिन सुबह अपनी रामायण का अशोक-वन वाला अध्या य कुछ देर तक पढ़ने के बाद उसने हठात् किताब बन्द कर दी और मेरी ओर घूमकर प्रश्न किया, "अच्छा श्रीकान्त, तुमने कभी किसी को प्यार किया है?"
कल बहुत रात तक जागकर राजलक्ष्मी को शायद अपनी अन्तिम चिट्टी- लिखी थी। उसमें बाबा की बातें, पूँटू की कथा और उसके दुर्भाग्य का समस्त विवरण था। उन लोगों को वचन दिया था कि एक आदमी की अनुमति माँग लूँगा- सो वह भिक्षा भी उसमें माँगी थी। चिट्ठी भेजी नहीं थी, उस वक्त पॉकेट में ही पड़ी हुई थी। गौहर के प्रश्न के उत्तर में हँसकर कहा, "नहीं।"
गौहर ने कहा, "यदि कभी प्यार करो, यदि कभी ऐसा दिन आये तो मुझे जताना श्रीकान्त।"
"जानकर क्या करोगे?"
"कुछ भी नहीं। तब सिर्फ तुम लोगों के बीच जाकर कुछ दिन काट आऊँगा।"
"अच्छा।"
"और अगर उस वक्त रुपयों की जरूरत हो तो मुझे खबर दे देना। बाबूजी बहुत रुपये छोड़ गये हैं, वह मेरे काम में तो लगा नहीं- किन्तु शायद तुम लोगों के काम में लग जाये।"
उसके कहने का तरीका कुछ ऐसा था कि सुनते ही ऑंखों से अश्रु निकल पड़े। कहा, "अच्छा, यह भी खबर दूँगा। पर आशीर्वाद दो कि इसकी कभी जरूरत न पड़े।"
मेरे जाने के दिन गौहर फिर मेरा बैग उठाकर प्रस्तुत हो गया। इसकी जरूरत न थी, नवीन तो शर्म से प्राय: अधमरा हो गया, पर उसने एक न सुनी। ट्रेन में बैठाकर वह औरतों की तरह रो उठा, बोला, "मेरे सिरकी कसम है श्रीकान्त, चले जाने के पहले एक दिन फिर आना ताकि फिर एक बार मुलाकात हो जाय।"
आवेदन की उपेक्षा नहीं कर सका, वचन दिया कि मिलने के लिए फिर एक बार आऊँगा।
"कलकत्ता पहुँचकर कुशल-संवाद दोगे न?"
यह वचन भी दिया। मानो न जाने कितनी दूर चला जा रहा हूँ!
कलकत्ते के मकान में जब पहुँचा, तब प्राय: संध्याल हो गयी थी। चौखट पर पैर रखते ही जिसके दर्शन हुए, वह और कोई नहीं स्वयं रतन था।
"यह क्या रे, तू है?"
"हाँ, मैं ही हूँ और कल से बैठा हूँ। एक चिट्ठी है।" समझ गया कि उसी प्रार्थना का उत्तर है। कहा, "डाक से भेजने पर भी तो चिट्ठी मिल जाती?"
रतन ने कहा, "यह व्यवस्था किसान, मज़दूर और साधारण गृहस्थ के लिए है। माँ की चिट्ठी अगर एक आदमी बिना खाये-पीये और सोये पाँच-सौ मील हाथ में लिए दौड़ता हुआ न लाये, तो खो न जायेगी? आप तो सब जानते हैं, क्यों झूठ-मूठ पूछ रहे हैं?"
बाद में सुना कि रतन का यह अभियोग झूठा है। क्योंकि खुद ही उद्यत होकर वह यह चिट्ठी अपने हाथ लाया है। मालूम हुआ कि ट्रेन की भीड़ और आहार वगैरह की अव्यवस्था के कारण उसका मिज़ाज बिगड़ गया है। हँसकर कहा, "ऊपर आ। चिट्ठी पीछे पढ़ूँगा, चल, पहले तेरे खाने का इन्तज़ाम कर दूँ।"
रतन ने पैरों की धूल लेकर प्रणाम किया और कहा, "चलिए।"
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डकार से चौंकाता हुआ रतन दाखिल हुआ।
"कह रतन, पेट भर गया?"
"जी हाँ। आप चाहे कुछ भी कहें बाबू, लेकिन हमारे कलकत्ते के बंगाली ब्राह्मणों के अलावा और कोई रसोई बनाना नहीं जानता। उनके आगे तो इन मारवाड़ी महाराजों को जानवर ही कहा जा सकता है।"
मुझे याद नहीं कि दोनों प्रान्तों की रसोई की अच्छाई-बुराई या रसोइये की कला के बारे में रतन से कभी मैंने बहस की हो, पर रतन की जितना जानता हूँ उससे यही खयाल हुआ कि सुप्रचुर भोजन से वह खूब सन्तुष्ट हुआ है। अगर यह बात न होती तो वह पश्चिमी रसोइयों के बारे में ऐसी निरपेक्ष राय न दे सकता। उसने कहा, "गाड़ी में धक्के तो कम नहीं लगे, हाथ-पैर फैलाकर लेटे बिना..."
"तो अच्छा है रतन, चाहे कमरे में चाहे बरामदे में बिछौना बिछाकर सो जा, कल सब बातें होंगी।"
न जाने क्यों चिट्ठी के लिए उत्कण्ठा न थी। ऐसा लग रहा था कि उसमें जो कुछ लिखा होगा वह तो मालूम ही है।
रतन ने फतूई की जेब से एक लिफाफा निकालकर मेरे हाथ में दे दिया। चपड़े से सील-मोहर किया हुआ था। बोला, "बरामदे की इस दक्षिणवाली खिड़की के बगल में बिछौना बिछा लूँ? मसहरी लगाने की झंझट नहीं होगी। कलकत्ते के अलावा ऐसा सुख और कहाँ है। जाता हूँ..."
"किन्तु सब खबर अच्छी है न रतन?"
रतन ने मुँह गम्भीर कर कहा, "ऐसा ही तो लगता है। गुरुदेव की कृपा से मकान का बाहरी हिस्सा गुलज़ार है। भीतर दास-दासियों, बंकू बाबू, और नयी बहू ने आकर घर-द्वार रोशन कर दिया है, और सबके ऊपर स्वयं माँ हैं जो मकान की मालकिन हैं। ऐसी गृहस्थी की बुराई कौन करेगा? लेकिन मैं बहुत पुराना नौकर हूँ, जाति का नाई हूँ- रतन को इतनी जल्दी भुलावा नहीं दिया जा सकता बाबू। इसीलिए तो उस दिन स्टेशन पर ऑंखों के अश्रु न रोक सका। यह निवेदन किया था कि परदेश में नौकरों की कमी होने पर रतन को एक बार खबर ज़रूर दे दें। जानता हूँ कि आपकी सेवा करने पर भी उसी माँ की सेवा होगी। धर्म का पतन नहीं होगा।"
मैं कुछ भी नहीं समझा, सिर्फ चुपचाप ताकता रहा। वह कहने लगा, "बंकू बाबू की अब उम्र भी हो गयी, थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर आदमी भी बन गये हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरे के अधीन किसलिए रहा जाय। दानपत्र के ज़ोर से सब मार तो लिया ही है। मानता हूँ कि मोटे तौर पर उन्होंने काफ़ी हाथ साफ़ किया है, पर वह कितने दिनों का है बाबू?"
बात अब भी साफ़ न हुई, पर एक धुँधली छाया ऑंखों के सामने तैर गयीं। वह फिर कहने लगा, "आपने तो खुद अपनी ऑंखों से देखा है कि महीने में कम-से-कम दो दफा मेरी नौकरी छूट जाती है। हालत बुरी नहीं है, नाराज होकर जा भी सकता हूँ, लेकिन क्यों नहीं जाता? जा नहीं सकता। इतना जानता हूँ कि जिसकी दया से सब कुछ हुआ है, उसके एक नि:श्वास से ही आश्विन के मेघ की तरह सब लोप हो जायेगा, वह पलक मारने की भी फुर्सत नहीं देगा। यह माँ की नाराजगी नहीं है, यह तो मेरे देवता का आशीर्वाद है।"
यहाँ पाठकों को यह स्मरण करा देना आवश्यक है कि बचपन में रतन थोड़े दिनों तक प्राइमरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर चुका है।
कुछ रुककर कहा, "माँ ने मना कर दिया है, इसीलिए कभी कहता नहीं। घर में जो कुछ था बाबा ने ले लिया, यजमानों का एक घर तक नहीं दिया। एक छोटा लड़का और लड़की, और उनकी माँ को छोड़कर पेट के लिए एक दिन गाँव छोड़कर बाहर निकल पड़ा। पर पहले जन्म की तपस्या थी, मेरी नौकरी इन माँ के ही घर लग गयी। सारा दुखड़ा उन्होंने सुना, लेकिन उस वक्त कुछ नहीं कहा। एक वर्ष के बाद मैंने निवेदन किया, "माँ, बच्चों को देखने की इच्छा है, अगर कुछ दिनों की छुट्टी मिल जाती। हँसकर बोलीं, "फिर आओगे न?" जाने के दिन हाथ में एक पोटली देते हुए कहा, "रतन, बाबा से लड़ाई-झगड़ा मत करना भैया, जो कुछ तुम्हारा चला गया है उसे इसके द्वारा फेर लेना।" गठरी खोलकर देखता हूँ तो पाँच-सौ रुपये हैं! पहले तो अपनी ऑंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ऐसा लगा, मानो मैं जागृत अवस्था में स्वप्न देख रहा हूँ। मेरी उसी माँ से बंकू बाबू अब उलटी-सीधी बातें कहते हैं, आड़ में खड़े होकर फुस-फुस करते हैं, सोचता हूँ कि अब इनके ज़्यादा दिन नहीं हैं, क्योंकि अब माँ-लक्ष्मी जाने ही वाली हैं!"
मैंने यह आशंका नहीं की थी, चुपचाप सुनने लगा।
ऐसा लगा कि कुछ दिनों से क्रोध और क्षोभ से रतन फूल रहा है। बोला, "माँ जब देती हैं तो दोनों हाथों से उड़ेल देती हैं। बंकू को भी दिया है, इसीलिए उसने यह सोच लिया है कि मधु निचोड़े हुए छत्ते की क्या कीमत?- इस वक्त तो ज़्यादा-से-ज़्यादा उसे जलाया ही जा सकता है। इसलिए उसको वे इतनी अप्रिय हो रही हैं। मूरख यह नहीं जानता कि आज भी माँ का एक गहना बेचने पर ऐसे पाँच मकान तैयार हो सकते हैं।"
मैं भी यह न जानता था। हँसकर कहा, "ऐसी बात है? पर वह सब हैं कहाँ?"
रतन भी हँसा। बोला, "उन्हीं के पास है। माँ ऐसी बेवकूफ नहीं। सिर्फ आप ही के चरणों पर सर्वस्व लुटाकर वे भिखारिणी हो सकती हैं, किन्तु और किसी के भी लिए नहीं। बंकू नहीं जानता है कि आपके ज़िन्दा रहते माँ को आश्रय की कमी न होगी, और जब तक रतन जीवित है तब तक उन्हें नौकर के लिए भी सोचने की जरूरत नहीं। उस दिन काशी से आपके इस तरह चले आने की वजह से माँ के हृदय में कैसा तीर चुभा है, इसकी खबर क्या बंकू बाबू रखते हैं? गुरु महाराज को भी उसकी खोज-खबर कहाँ से मिल सकती है?"
"पर मुझे तो उन्होंने ही खुद बिदा किया था, इसकी खबर तो रतन, तुम्हें है?"
जीभ निकालकर रतन शर्म से गड़ गया। उसमें इतनी विनय इसके पहले कभी न देखी थी। कहा, "बाबू, हम तो नौकर-चाकर हैं, ये सब बातें हमारे कानों को नहीं सुननी चाहिए। यह झूठ है।"
रतन थकावट मिटाने के लिए चला गया। शायद कल आठ बजे के पहले उसके शरीर में स्फूर्ति नहीं आयेगी।
दो बड़ी खबरें मिलीं। एक तो यह कि बंकू अब बड़ा हो गया है। पटने में जब पहली बार मैंने उसे देखा था तो उस वक्त उसकी उम्र सोलह-सतरह थी। अब इक्कीस वर्ष का युवक है। बल्कि इन पाँच-छह वर्षों में पढ़-लिखकर वह आदमी बन गया है। अत: शैशव का वह सकृतज्ञ स्नेह यदि आज यौवन के आत्मसम्मान-बोध में सामंजस्य न रख पाता हो, तो इसमें विस्मय की कौन-सी बात है?
दूसरी खबर राजलक्ष्मी की गम्भीर वेदना का पता न तो बंकू को और न गुरुदेव को ही आज तक मिला है।
मेरे मन में ये ही दो बातें बहुत देर तक घूमती रहीं।
बड़े यत्न से अंकित चमड़े की सील-मोहर को देखकर चिट्ठी खोली। उसके हाथ की लिखावट ज़्यादा देखने का मौक़ा नहीं मिला है, पर, यह खयाल आया कि अक्षर ऐसे तो नहीं हैं कि पढ़ने में तकलीफ हो, लेकिन फिर भी अच्छे नहीं हैं। पर यह पत्र उसने बहुत सावधानी से लिखा है। शायद उसे डर था कि मैं चिढ़कर फेंक न दूँ, बल्कि शुरू से आखिर तक सब कुछ आसानी से पढ़ जा सकूँ।
आचार और आचरण में राजलक्ष्मी उस युग की प्राणी है। प्रणय-निवेदन की अधिकता तो दूर की बात है, बल्कि यह भी याद नहीं आता कि उसने मेरे सामने कभी कहा हो कि 'प्रेम करती हूँ।' उसने चिट्ठी लिखी है- मेरी प्रार्थना के अनुकूल अनुमति देकर। तो भी, न जाने क्या है, पढ़ने में जाने क्यों डर लगने लगा। उसके बाल्य-काल की याद आ गयी। उस दिन गुरुमहाशय की पाठशाला में उसका पढ़ना-लिखना बन्द हो गया था। बाद में शायद घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लिया होगा। अतएव, भाषा का इन्द्रजाल, शब्दों की झनकार, पद-विन्यास की मधुरता की उसके पत्र में आशा करना अन्याय है। कुछ मामूली प्रचलित बातों में ही मन के भाव व्यक्त करने के अलावा वह और क्या करेगी? अनुमति देकर मामूली शुभ-कामना की दो लाइनें होंगी- यही तो? पर लिफाफा खोलकर पढ़ना शुरू करते ही कुछ देर के लिए बाहर का और कुछ भी याद न रहा। पत्र लम्बा नहीं है, लेकिन भाषा और भंगी जितनी सरल और सहज समझी थी, उतनी नहीं है। मेरे आवेदन का उत्तर उसने इस तरह दिया है-
"काशीधाम
"प्रणाम के उपरान्त सेविका का निवेदन।
"इस बार मिलाकर कुल सौ दफा तुम्हारी चिट्ठी पढ़ी। तो भी यह समझ में नहीं आया कि तुम पागल हो गये हो या मैं। तुमने शायद यह खयाल किया है कि मैंने तुम्हें पड़ा हुआ पा लिया था। परन्तु तुम कहीं पड़े हुए नहीं थे, तुम बहुत तपस्या के बाद मिले थे, बहुत आराधाना के बाद। इसीलिए, बिदा देने के मालिक तुम नहीं। मुझे त्याग करने का मालिकाना स्वत्वाधिकार तुम्हारे हाथों में नहीं है।
"तुम्हें याद नहीं, फूलों के बदले वन से करौंदे तोड़, उनकी माला गूँथकर, किस शैशव में तुम्हें वरण किया था। हाथों में काँटे चुभ जाने की वजह से ख़ून बहने लगता था, लाल माला का वह लाल रंग तुम नहीं पहिचान सके थे। बालिका की पूजा का अर्घ्य उस दिन तुम्हारे गले में था। परन्तु तुम्हारे हृदय पर रक्त-रेखा से जो लेखा अंकित कर देती थी, वह तुम्हारी नज़रों में नहीं पड़ी। पर जिसकी नजरों से संसार का कुछ भी छिपा नहीं रह सकता, उनके पाद-पद्मों में मेरा वह निवेदन पहुँच गया था।
"उसके बाद आई दुर्योग की रात। काले मेघों ने मेरे आकाश की ज्योत्स्ना ढँक दी। किन्तु वास्तव में वह मैं हूँ या और कोई, इस जीवन में यथार्थ रूप में वे सब बातें हुई थीं या सोते-सोते स्वप्न देख रही थी-यह सोचते ही बहुधा मुझे डर लगता है मैं पागल हो जाऊँगी। तब सब भूलकर जिसका ध्यादन लगाकर बैठती हूँ, उसका नाम नहीं लिया जाता। किसी से कहने की बात नहीं है। उनकी क्षमा ही मेरे जगदीश्वर की क्षमा है। इसमें ग़लती नहीं है, सन्देह नहीं। यहाँ मैं निर्भय हूँ।
"हाँ, कहा था कि इसके बाद मेरे बुरे दिनों की रात आयी, दोनों ऑंखों की सारी रोशनी को कलंक ने बुझा दिया। पर वही क्या मनुष्य का समस्त परिचय है? उस अखण्ड ग्लानि के घने आवरण के बाहर उसका क्या और कुछ भी बाकी नहीं है?
"है। अव्याहत अपराध के बीच-बीच उसे मैंने बार-बार देखा है। अगर ऐसा न होता, विगत दिनों का राक्षस यदि मेरे समस्त अनागत मंगल को नि:शेष ग्रास कर लेता, तो तुम फिर मुझे कैसे मिलते? मेरे ही हाथों में लाकर फिर तुम्हें कौन सौंप जाता?
"मुझसे तुम चार-पाँच वर्ष बड़े हो, तो भी तुम्हें जो अच्छा लगता है वह मुझे शोभा नहीं देता। मैं बंगाली घर की लड़की हूँ, जीवन के सत्ताईस वर्ष पार कर चुकने के बाद यौवन का दावा और नहीं करती। मुझे तुम ग़लत मत समझना- चाहे जितनी ही अधम क्यों न होऊँ। अगर वह बात तुम्हारे मन में क्षणभर के लिए घुणाक्षर न्याय से भी आये, तो इससे बढ़कर शर्म की बात मेरे लिए और कोई नहीं है। बंकू ज़िन्दा रहे, वह बड़ा हो गया है। उसकी बहू आ गयी है- तुम्हारी शादी के बाद उन लोगों के सामने मैं किस मुँह से निकलूँगी? यह अपमान कैसे सहूँगी?
"यदि तुम कभी बीमार पड़ो तो सेवा कौन करेगा-पूँटू? और मैं तुम्हारे मकान
के बाहर से ही नौकर के मुँह से खबर पूँछकर लौट आऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?
"शायद प्रश्न करोगे, तो क्या हमेशा ही ऐसा नि:संग जीवन काटूँ? पर प्रश्न चाहे कुछ भी हो, उसका जवाब देने की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं है, तुम्हारे ऊपर है। फिर भी अगर तुम बिल्कुनल ही कुछ न सोच सको- बुद्धि का इतना क्षय हो गया हो तो मैं उधार दे सकती हूँ, वह लौटानी नहीं पड़ेगी- लेकिन देखो, ऋण को कहीं अस्वीकार मत कर देना!
"तुम सोचते हो कि गुरुदेव ने मुझे मुक्ति का मन्त्र दिया है, शास्त्रों ने पथ का संधान दिया है, सुनन्दा ने धर्म की प्रवृत्ति दी है, और तुमने दिया है सिर्फ भार-बोझा। ऐसे ही अन्धे हो तुम लोग!
"पूछती हूँ, तुम्हें तो मैंने तेईस वर्ष की उम्र में पा लिया था, पर इसके पहले ये सब कहाँ थे? तुम इतना ज़्यादा सोच सकते हो और यह नहीं सोच सकते?"
"मुझे आशा थी कि एक दिन मेरे सब पापों का अन्त हो जायेगा, मैं निष्पाप हो जाऊँगी। यह लोभ क्यों है, जानते हो? स्वर्ग के लिए नहीं- वह मुझे नहीं चाहिए। मेरी कामना है कि मरने के बाद फिर आकर जन्म ले सकूँ। इसके मानी समझ सकते हो?
"सोचा था कि पानी की धारा में कीचड़ मिल गयी है- मुझे उसे निर्मल करना ही पड़ेगा। पर आज अगर उसका मूल स्रोत ही सूख जाय, तो पड़ा रह जायेगा मेरा जप-तप, पूजा-अर्चना, रह जायेगी सुनन्दा, पड़े रहेंगे मेरे गुरुदेव।
स्वेच्छा से मैं मरना नहीं चाहती। पर मेरे अपमान करने का ही कूट कौशल अगर तुमने रचा हो तो इस विचार को छोड़ दो। अगर तुम विष दोगे तो मैं पी लूँगी, पर उसे न ले सकूँगी। मुझे जानते हो, इसलिए यह बता दिया कि जो सूर्य अस्त होगा उसके पुन: उदय की अपेक्षा में बैठे रहने का वक्त अब मेरे पास नहीं है। इति।
राजलक्ष्मी।"
छुटकारा मिला। सुनिश्चित कठोर अनुशासन की चरम-लिपि भेजकर उसने एक ओर से मुझे बिल्कुाल निश्चिन्त कर दिया। इस जीवन में उस विषय में सोचने के लिए अब और कुछ नहीं रहा। पर नि:संशयपूर्वक यह तो मालूम हुआ कि क्या नहीं कर सकूँगा। पर इसके बाद मुझे क्या करना होगा, इस बारे में राजलक्ष्मी बिल्कुाल चुप है। शायद उपदेशों से भरी हुई एक चिट्ठी और किसी दिन लिखेगी, अथवा सशरीर मुझे ही तलब करेगी। लेकिन इस वक्त जो व्यवस्था हो गयी है वह बहुत ही सुन्दर है। इधर बाबा-महोदय सम्भवत: कल सुबह ही आकर हाजिर होंगे। उन्हें भरोसा दे आया हूँ कि फ़िक्र करने की जरूरत नहीं, अनुमति मिलने में कोई विघ्न न होगा। पर जो कुछ आ पहुँचा, वह निर्विघ्न अनुमति ही तो है। रतन नाई के हाथ उसने कपड़े और मौर मुकुट नहीं भेजा, यही बहुत है।
दूसरी ओर देश के मकान में विवाह का आयोजन निश्चय ही अग्रसर हो रहा होगा। पूँटू के आत्मीय स्वजनों में से कोई कोई शायद आकर हाजिर हो रहे होंगे, तथा प्राप्त वयस्क अपराधी लड़की को इतने दिनों तक लांछना और भर्त्सना के बदले अब कुछ आदर मिल रहा होगा। यह जानता हूँ कि बाबा से क्या कहूँगा। पर वह बात कैसे कहूँगा, यही समझ में नहीं आता। उनके निर्मम तकाजों, लज्जाहीन युक्तियों और वकालत के बारे में मन ही मन सोचकर एक ओर हृदय जितना तिक्त हो उठा, दूसरी ओर व्यर्थ प्रत्यावर्तन की निराशा से चिढ़े हुए परिवार वालों के उस अभागी लड़की को और भी ज़्यादा उत्पीड़ित करने की बात सोचते ही हृदय को उतनी ही व्यथा पहुँची। पर उपाय क्या है? बिछौने पर लेटा हुआ बहुत रात तक जागता रहा। पूँटू की बात भूलने में देर नहीं लगी, पर गंगामाटी की याद बराबर आने लगी। जन-विरल उस क्षुद्र गाँव की स्मृति कभी मिट नहीं सकती। इस जीवन की गंगा-जमुना की धारा एक दिन यहीं आकर मिली थी, और थोड़े अरसे तक पास-पास प्रवाहित हो एक दिन यहीं फिर अलग हो गयी थी। एक साथ रहने के वे क्षणस्थायी दिन श्रद्धा से गहरे, स्नेह से मधुर, आनन्द से उज्ज्वल और उनकी ही तरह नि:शब्द वेदना से अत्यधिक स्तब्ध हैं। विच्छेद के दिन भी हमने प्रवंचना की निन्दा से एक दूसरे को कलंक नहीं लगाया, नफे-नुकसान के फिजूल के वाद-विवाद से गंगामाटी के शान्त गृह को हम धूमाच्छन्न करके नहीं आया। वहाँ के सब लोग यही जानते हैं कि फिर एक दिन हम लौट आयँगे, फिर हँसी-खुशी शुरू होगी और फिर आरम्भ होगी भूस्वामिनी की दीन-दुखियों की सेवा और सत्कार। पर वह सम्भावना तो खत्म हो गयी है-प्रभात की विकसित मल्लिका दिन के अन्त का हुक्म मानकर चुप हो गयी है- यह बात वे स्वप्न में भी नहीं सोचेंगे।
ऑंखों में नींद नहीं है, निद्राहीन रजनी प्रात:काल की ओर जितनी आगे बढ़ने लगी, उतनी ही यह इच्छा होने लगी कि यह रात खत्म ही न हो! सिर्फ यही एक चिन्ता मानो मुझे मोहाच्छन्न करके रखे रही।
बीती हुई कहानी घूम-फिरकर मन में आ जाती है। वीरभूमि ज़िले की वह तुच्छ कुटिया मन पर भूत की तरह चढ़ जाती है, हमेशा काम-काज में फँसी हुई राजलक्ष्मी के दोनों स्निग्ध हाथ ऑंखों के सामने साफ़ नजर आते हैं, इस जीवन में परितृप्ति का ऐसा आस्वादन कभी किया है, यह याद नहीं आता।
अभी तक पकड़ा ही गया हूँ, पकड़ नहीं पाया हूँ। पर राजलक्ष्मी की सबसे बड़ी कमज़ोरी कहाँ है, आज पकड़ ली। वह जानती है कि मैं निरोग नहीं हूँ, किसी भी दिन बीमार पड़ सकता हूँ। तब न जाने कहाँ की एक पूँटू मुझे घेरकर बैठी है, राजलक्ष्मी का कोई प्रभुत्व ही नहीं है- इतनी बड़ी दुर्घटना को वह अपने मन में स्थान नहीं दे सकती। संसार की सब चीजों से वह अपने को वंचित कर सकती है पर यह वस्तु असम्भव है- यह उसके लिए असाध्यु है। मौत तुच्छ है, इसके निकट एक ओर रह गये गुरुदेव और एक ओर रह गये उसके जप-तप और व्रत-उपवास। चिट्ठी में उसने मुझे झूठा डर नहीं दिखाया है।
सुबह के वक्त शायद सो गया था। रतन की पुकार सुनकर जब उठा तो काफ़ी वक्त हो गया था। उसने कहा, "न जाने कौन एक बूढ़े महाशय घोड़ागाड़ी करके अभी आये हैं।"
वे बाबा हैं। पर गाड़ी किराये की करके? सन्देह हुआ।
रतन ने कहा, "साथ में एक सतरह-अठारह साल की लड़की है।"
वह पूँटू है। यह बेशर्म आदमी उसे कलकत्ते के मकान तक घसीट लाया है। सुबह का प्रकाश तिक्तता से म्लान हो गया। कहा, "उन्हें उस कमरे में लाकर बैठाओ रतन, मैं मुँह-हाथ धोकर आता हूँ।" यह कहकर मैं नीचे के स्नान-घर में चला गया।
घण्टे-भर बाद लौटते ही बाबा ने मेरी सादर अभ्यर्थना की, मानो मैं ही उनका अतिथि हूँ, "आओ बेटा, आओ। तबियत अच्छी है न?"
मैंने प्रणाम किया। बाबा ने पुकार मचाई "पूँटू, कहाँ गयी?"
पूँटू खिड़की के किनारे खड़ी होकर रास्ता देख रही थी, उसने पास आकर मुझे नमस्कार किया।
बाबा ने कहा, "इसकी बुआ शादी के पहले एक बार देखना चाहती थी। फूफा तो हाकिम हैं, पाँच सौ रुपया महीना पाते हैं। डायमण्ड हारबर में तबादला हुआ है- घर गृहस्थी छोड़कर बाहर जाने की फुर्सत बुआ को नहीं है। इसलिए साथ लेता आया। सोचा कि दूसरे के हाथों में सौंपने के पहले उन्हें एक बार दिखा लाऊँ। इसकी दादी-माँ ने आशीर्वाद देकर कहा, "पूँटू, ऐसा ही भाग्य तेरा भी हो।"
मेरे कुछ कहने के पहले ही खुद बोले, "मैं इतनी जल्दी नहीं छोड़ूँगा भैया। हाकिम हों चाहें और कुछ हों, हैं तो रिश्तेदार-खड़े होकर काम पूरा कराना होगा- तब उन्हें छुट्ठी मिलेगी। जानते तो हो बेटा, कि शुभ कार्य में बहुत विघ्न होते हैं- शास्त्रर में कहा ही है, 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि।' ऐसे एक आदमी के खड़े रहने पर किसी की चूँ तक करने की मजाल नहीं होगी। हमारे गाँव के लोगों का तो विश्वास है नहीं- वे सब कुछ कर सकते हैं। पर वे तो हाकिम हैं, उनकी तो राशि ही न्यारी है।
पूँटू के फूफा हैं। समाचार अवान्तर नहीं है- मतलब का है।
नया हुक़्क़ा ख़रीदकर रतन सयत्न चिलम सजाकर दे गया। थोड़ी देर तक गौर से देखने के बाद बाबा ने कहा, "ऐसा लगता है कि इस आदमी को कहीं देखा है?"
रतन ने फौरन ही कहा, "जी हाँ, देखा क्यों नहीं है। देश के मकान में जब बाबू बीमार थे..."
"ओ, तभी तो कहा कि पहिचाना हुआ चेहरा है।"
"जी हाँ।" कहकर रतन चला गया।
बाबा का मुँह अत्यन्त गम्भीर हो गया। धूर्त्त आदमी ठहरे, शायद उन्हें सारी बातें याद आ गयीं। चुपचाप चिलम के दम लगाते हुए बोले, "आने के लिए दिन देखकर आया था। बहुत अच्छा दिन है। मेरी इच्छा है कि आशीर्वाद का काम ऐसे ही खत्म कर जाऊँ। नूतन बाज़ार में तो सभी चीज़ें बिकती हैं। नौकर को एक बार भेज नहीं सकते? क्या कहते हो?"
जब कुछ भी कहने को न मिला तो किसी तरह सिर्फ कह दिया, "नहीं।"
"नहीं? नहीं क्यों? बारह बजे तक दिन बहुत अच्छा है। पंचांग है?"
मैंने कहा, "पंचांग की जरूरत नहीं। मैं विवाह नहीं कर सकता।"
बाबा ने हुक्के को दीवार से लगाकर रख दिया। चेहरा देखकर मैं ताड़ गया कि वह युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं। गले को बहुत शान्त और गम्भीर बनाकर कहा, "सारा आयोजन एक तरह से पूरा हो गया है। लड़की के ब्याह की बात है, हँसी-मजाक का मामला तो है नहीं। बचन दे आने पर अब ना करने पर कैसे काम चलेगा?"
पूँटू पीठ किये खिड़की के बाहर देख रही है और दरवाज़े की आड़ में रतन कान लगाये खड़ा है, यह अच्छी तरह मालूम हो गया।
मैंने कहा, "वचन देकर तो नहीं आया था, यह आप भी जानते हैं और मैं भी। कहा था कि एक व्यक्ति की अनुमति मिल जाने पर राजी हो सकता हूँ।"
"अनुमति नहीं मिली?"
"नहीं।"
बाबा एक क्षण ठहरकर बेले, "पूँटू के पिता कहते हैं कि सब मिलाकर वह एक हज़ार रुपये देंगे। ज़्यादा ज़ोर लगाने पर और भी सौ-दो सौ दे सकते हैं; क्या कहते हो?"
रतन ने कमरे में घुसकर कहा, "तम्बाकू क्या एक बार और बदल दूँ?"
"बदल दो। तुम्हारा नाम क्या है जी?"
"रतन।"
"रतन? बड़ा सुन्दर नाम है, कहाँ रहते हो?'
"काशी में।"
"काशी? देवी आजकल शायद काशी में रहती है? वहाँ क्या करती है।"
रतन ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, "उस समाचार से आपको मतलब?"
बाबा जरा हँसकर बोले, "नाराज क्यों होते हो बापू, क्रोध करने की तो कोई बात नहीं। गाँव की लड़की है न, इसीलिए खबर जानने की इच्छा होती है। शायद उसके पास भी कभी जा पड़ना पड़े। खैर, वह अच्छी तरह तो है?"
रतन बिना कोई जवाब दिये ही चला गया, और कोई दो मिनट बाद ही चिलम को फूँकता हुआ लौट आया और हुक़्क़ा हाथ में थमाकर चला जा रहा था कि बाबा बड़े ज़ोर से कई दम लगाकर ही उठ खड़े हुए। बोले, "ठहरो तो भई, जरा पाखाना दिखा दो। सुबह ही निकल पड़ा हूँ न! कहते-कहते वे रतन के आगे ही बहुत तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गये।"
पूँटू ने मुँह फिराकर देखा और कहा, "बाबा की बातों पर आप एतबार मत कीजिए। पिताजी के पास हज़ार रुपये कहाँ हैं जो देंगे? किसी तरह दूसरों के गहने मँगनी माँगकर जीजी की शादी की थी- अब वे लोग जीजी को नहीं बुलाते। कहते हैं कि हम लड़के की दूसरी शादी करेंगे।"
इस लड़की ने इतनी बातें मुझसे पहले नहीं कही थीं। कुछ चकित होकर पूछा, "तुम्हारे पिताजी वाकई हज़ार रुपये नहीं दे सकते?"
पूँटू ने सिर हिलाकर कहा, "कभी नहीं। पिताजी को रेल में सिर्फ चालीस रुपये मिलते हैं। स्कूल की फीस की वजह से ही मेरे छोटे भाई की पढ़ाई बन्द हो गयी। वह कितना रोता है!" कहते-कहते उसकी दोनों ऑंखें छलछला आयीं।
प्रश्न किया, "सिर्फ रुपये के कारण ही तुम्हारी शादी नहीं हो रही है?"
पूँटू ने कहा, "हाँ इसी वजह से। हमारे गाँव के अमूल्य बाबू के साथ पिताजी ने सम्बन्ध पक्का किया था। उनकी लड़कियाँ भी मुझसे बहुत बड़ी हैं। इस पर माँ पानी में डूब मरने को गयी, तो शादी रुक गयी। इस बार शायद पिताजी किसी की कुछ न सुनेंगे, वहीं मेरी शादी कर देंगे।"
पूछा, "पूँटू, मैं तुम्हें पसन्द हूँ?"
पूँटू ने लज्जा से मुँह नीचा कर जरा सिर हिला दिया।
"पर मैं भी तो तुमसे चौदह-पन्द्रह साल बड़ा हूँ?"
पूँटू ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया।
पूछा, "तुम्हारा क्या और कहीं कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था?"
पूँटू ने खुश होकर मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, "हुआ तो था। आप अपने गाँव के कालिदास बाबू को जानते हैं? उनके छोटे लड़के ने बी.ए. पास किया है। उम्र भी मुझसे थोड़ी ही ज़्यादा है। उसका नाम शशधर है।"
"वह तुम्हें पसन्द है?"
पूँटू हठात् हँस पड़ी।
मैंने कहा, "पर शशधर अगर तुम्हें पसन्द न करे?"
पूँटू ने कहा, "पसन्द क्यों न करेगा? हमारे मकान के सामने होकर बार-बार आता-जाता रहता है। राँगा दीदी हँसी में कहती थीं कि वह सिर्फ मेरे लिए ही चक्कर काटता है।"
"तो यह शादी क्यों नहीं हुई?"
पूँटू का चेहरा मलिन हो गया। कहा, "उसके पिता हज़ार रुपये नकद और हज़ार रुपये के गहने माँगते थे। ऊपर से शादी में भी पाँच सौ रुपये खर्च न हो जाते? इतना तो जमींदार के घर की लड़की के लिए ही हो सकता है। सच है न? वे बड़े आदमी हैं, उनके पास बहुत रुपये हैं मेरी माँ उनके यहाँ गयी और बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर उन्होंने एक नहीं सुनी।"
"शशधर ने कुछ नहीं कहा?"
"नहीं, कुछ नहीं। पर वह भी तो बहुत बड़ा नहीं है- उसके माँ-बाप ज़िन्दा हैं न?"
'यही सही है। शशधर की शादी हो गयी?"
पूँटू ने व्यग्र होकर कहा, "नहीं, अभी नहीं हुई। सुना है कि जल्दी ही होगी।"
"अच्छा, वहाँ तुम्हारी शादी हो जाने पर अगर वे लोग तुमसे प्रेम न करें?"
"मुझसे? प्रेम क्यों नहीं करेंगे? मैं रसोई बनाना, सिलाई करना और गृहस्थी के सारे काम जानती हूँ? मैं अकेली ही उनका सारा काम कर दूँगी।"
इससे ज़्यादा बंगाली घराने की लड़की और क्या जानती है? शारीरिक परिश्रम द्वारा ही वह सब कमियों की पूर्ति करना चाहती है। पूछा, "उन लोगों का सब काम अवश्य करोगी न?"
"हाँ, निश्चय करूँगी।"
"तो तुम अपनी माँ से जाकर कह दो कि श्रीकान्त दादा ढाई हज़ार रुपये भेज देंगे।"
"आप भेज देंगे? तो फिर वायदा कीजिए कि शादी के दिन आयेंगे?"
"अच्छा, आऊँगा।"
दरवाज़े की देहली पर बाबा की आवाज़ सुनाई दी।
उन्होंने लाँग से मुँह पोंछते-पोंछते प्रवेश किया और कहा, "तुम्हारा पायखाना तो बहुत अच्छा है भैया! सो जाने की इच्छा होती है। गया कहाँ रतन, और एक चिलम तम्बाकू सजा दे न।"
भाग-1 | भाग-2 | भाग-3 | भाग-4 | भाग-5 | भाग-6 | भाग-7 | भाग-8 | भाग-9 | भाग-10 | भाग-11 | भाग-12 | भाग-13 | भाग-14 | भाग-15 | भाग-16 | भाग-17 | भाग-18 | उभाग-19 | भाग-20 |
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