मोहन प्यारे द्विवेदी की रचनाएँ

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मोहन प्यारे द्विवेदी की रचनाएँ
मोहन प्यारे द्विवेदी
मोहन प्यारे द्विवेदी
पूरा नाम पं. मोहन प्यारे द्विवेदी
अन्य नाम पंडित जी, प्यारे मोहन
जन्म 1 अप्रॅल, 1909
जन्म भूमि बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 अप्रॅल, 1989
मृत्यु स्थान बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि भारतीय
कर्म-क्षेत्र साहित्य
मुख्य रचनाएँ नौमिषारण्य का दृश्य, कवित्त, मांगलिक श्लोक, मोहनशतक
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

मोहन प्यारे द्विवेदी का जीवन स्वाध्याय तथा चिन्तन पूर्ण था। वह नियमित रामायण अथवा श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया करते थे। संस्कृत का ज्ञान होने के कारण पंडित जी रामायण तथा श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान तथा चिन्तक थे। उन्हें श्रीमद्भागवत के सैंकड़ों श्लोक कण्ठस्थ थे। इन पर आधारित उन्होंने अनेक हिन्दी की रचनायें भी कीं। वह ब्रज तथा अवधी दोनों लोकभाषाओं के न केवल ज्ञाता थे, अपितु उस पर अधिकार भी रखते थे। प्राकृतिक चित्रणों का वह मनोहारी वर्णन किया करते थे। वह अपने समय के बड़े सम्मानित आशु कवि भी थे। भक्ति रस से भरे इनके छन्द बड़े ही भाव पूर्ण हैं। उनकी भाषा में मृदुता छलकती थी। वह कवि सम्मेलनों में भी हिस्सा लिया करते थे। अपने अधिकारियों व प्रशंसकों को खुश करने के लिए तत्काल दिये गये विषय पर भी वह कविता बनाकर सुना दिया करते थे।

प्रमुख रचनाएँ

मोहन प्यारे द्विवेदी द्वारा रचित कुछ प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

नौमिषारण्य का दृश्य-

धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये, मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।
अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए, पूछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।
सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां, वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।
गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ, स्नेह को लुटाता यहां नितसांझ भोर है।।1।।

प्रकृति यहां अति पावनी सुहावनी है, पावन में पूतता का मोहन का विलास है।
मन में है ज्ञान यहां तन में है ज्ञान यहां, धरती गगन बीच ज्ञान का प्रकाश है।
अंग अंग रंगी है रमेश की अनूठी छवि, रसना पै राम राम रस का निवास है।
शान्ति है सुहाती यहां हिय में हुलास लिये, प्रभु के निवास हेतु सुकवि मवास है।।2।।

कवित्त-

गाते रहो गुण ईश्वर के, जगदीश को शीश झुकाते रहो।
छवि ‘मोहन’ की लखि नैनन में, नित प्रेम की अश्रु बहाते रहो।
नारायण का धौर धरो मन में, मन से मन को समझाते रहो।
करुणा करि के करूणानिधि को, करूणा भरे गीत सुनाते रहो।।1।।

जग में जनमें जब बाल भये, तब एक रही सुधि भोजन की।
तन में तरुणाई तभी प्रकटी, तब प्रीति रही तरुणी तन की।
तन बृद्ध भयो मन की तृष्णा, सब लोग कहें सनकी सनकी।
सुख! ‘मोहन’ नाहिं मिल्यो कबहूं, रही अंत समय मन में मनकी।।2।।

मांगलिक श्लोक- मोहन प्यारे द्विवेदी प्रायः इसका प्रयोग करते रहते थे-

अहि यतिरहि लोके, शारदा साऽपि दूरे।
बसति विबुध वन्द्यः, शक्र गेहे सदैव।
निवसति शिवपुर्याम्, षण्मुखोऽसौकुमारः।
तवगुण महिमानम्, को वदेदत्र श्रीमन्।।
नन्वास्यां समज्जायां ये ये छात्राः पण्डिताः, वैकरणाः, नैयायिकाः वेदान्तज्ञादयो वर्तन्ते,
तान् तान् सर्वान् प्रति अस्य श्लोकस्यर्थस्य कथनार्थम् निवेदयामि। सोऽयं श्लोकः–

‘‘ति गौ ति ग ति वा ति त्वां प री प ण प णी प पां
मा प धा प र प द्या न्तु उ ति रा ति सु ति वि ते।’’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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