धन सिंह थापा
धन सिंह थापा
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पूरा नाम | मेजर धन सिंह थापा |
जन्म | 10 अप्रैल, 1928 |
जन्म भूमि | शिमला, हिमाचल प्रदेश |
मृत्यु | 6 सितम्बर, 2005 (आयु- 77) |
सेना | भारतीय थल सेना |
रैंक | मेजर, लेफ़्टिनेंट कर्नल |
यूनिट | 1/8 गोरखा राइफल्स |
सेवा काल | 1949-1975 |
युद्ध | भारत-चीन युद्ध (1962) |
सम्मान | परमवीर चक्र |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | मेजर धनसिंह थापा शत्रु द्वारा बन्दी बना लिए गए थे। देश लौटकर दुबारा सेना में आने के बाद मेजर थापा अंतत: लेफ़्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँचे और पद मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने लखनऊ में सहारा एयर लाइंस के निदेशक का पद संभाला। |
मेजर धन सिंह थापा (अंग्रेज़ी: Dhan Singh Thapa, जन्म: 10 अप्रैल, 1928 – मृत्यु: 6 सितम्बर, 2005) परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय व्यक्ति है। इन्हें यह सम्मान सन 1962 में मिला। 1962 के भारत-चीन युद्ध में जिन चार भारतीय बहादुरों को परमवीर चक्र प्रदान किया गया, उनमें से केवल एक वीर उस युद्ध को झेलकर जीवित रहा उस वीर का नाम धन सिंह थापा था जो 1/8 गोरखा राइफल्स से, बतौर मेजर इस लड़ाई में शामिल हुआ था। धन सिंह थापा भले ही चीन की बर्बर सेना का सामना करने के बाद आज भी जीवित रहे, लेकिन युद्ध के बाद चीन के पास बन्दी के रूप में जो यातना उन्होंने झेली उसकी स्मृति भर भी थरथरा देने वाली है। धन सिंह थापा इस युद्ध में पान गौंग त्सो (झील) के तट पर सिरी जाप मोर्चे पर तैनात थे, जहाँ उनके पराक्रम ने उन्हें परमवीर चक्र के सम्मान का अधिकारी बनाया।
जीवन परिचय
धन सिंह थापा का जन्म 10 अप्रैल 1928 को शिमला में हुआ था और 28 अक्तूबर 1949 को वह एक कमीशंड अधिकारी के रूप में फौज में आए थे। वह एक ऐसे सैनिक अधिकारी के रूप में गिने जाते थे, जो चुपचाप अपने काम में लगा रहता हो। अनावश्यक बोलना या बढ़-चढ़ कर डींग मारना, या खुद को बहादुर जताना उनके स्वभाव में कभी नहीं था। चीन ने 1962 में जब भारत पर आक्रमण की कार्यवाही की, तब भारत इस स्थिति के लिए कतई तैयार नहीं था। भारत के राजनैतिक नायक पंडित जवाहरलाल नेहरू अंतरारष्ट्रीय स्तर पर शांति के दूत माने जाते थे। उनकी नज़र में देश के भीतर विकास का रास्ता खोलना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था। उनकी इसी तरह उनका ध्यान अंतरारष्ट्रीय फलक पर भारत की छवि वैसी ही प्रस्तुत रखने पर था, जैसी महात्मा गाँधी या गौतम बुद्ध के देश की मानी जाती है। इस नाते देश की योजनाएँ कृषि और विकास के लिए उद्योगों पर पहले केन्द्रित थीं और रक्षा उपक्रम तथा सेना उनकी नजर में सबसे ऊपर नहीं थी। इसी तरह चीन को भी भारत की राजनैतिक नज़र बस उतना और वैसा ही समझ रही थी, जैसा चीन खुद को पेश कर रहा था। लेकिन सच तो यह था। भारत की शांति की नीति का पक्षधर होते हुए भी उसकी विस्तारवादी कुटिल नीति भी साथ में लागू थी। तिब्बत को कब्जे में लेना उसके इस छद्म व्यवहार को दर्शाता था। लेकिन भारत इस ओर से एक से, बेखबर था। इसलिए भारत की सेना न तो युद्ध के लिए तैयार थी, और न उसे इस बात की कोई खबर थी कि चीन की सेनाएँ भारत की सीमा के भीतर न सिर्फ घुस चुकी हैं, बल्कि अपनी चौकियाँ और बंकर भी बना चुकी हैं।
भारत-चीन युद्ध (1962)
चीन की सैन्य शक्ति में अनगिनत योद्धा तो थे ही, वह पूरी तरह प्रशिक्षित तथा चुस्त-मुस्तैद भी थे। उनके पास हथियारों और गोला बारूद का अकूत भण्डार था। उनकी संचार व्यवस्था एकदम ठीक-ठाक थी और सबसे बड़ी बात, उन्हें इस बात का पता था कि भारत इस युद्ध के लिए तो तैयारी से लैस है, न ही उसके राजनायकों की युद्ध जैसी मनःस्थिति है। चीन के लिए इतना ही काफ़ी था। इन परिस्थितियों में 8 गोरखा राइफल्स की 1st बटालियन की डी कम्पनी को सिरी जाप पर चौकी बनाने का हुकुम दिया गया। उस कम्पनी की कमान मेजर धन सिंह थापा संभाल रहे थे। पानगौंग त्सो झील के किनारे सिरी जाप 1 पर थापा को चौकी बनानी थी, जब कि चीनी लद्दाख में बहुत में बहुत सारी चौकियाँ पहले से बना चुके थे। सिरी जाप का यह इलाक़ा क़रीब 48 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था। चूँकि छोटी-छोटी चौकियाँ बनाना तय हुआ था, इसलिए थापा की डी कम्पनी को केवल 28 लोग दिए गए थे। इस काम के लिए थापा के बाद दूसरे स्तर के अधिकारी सूबेदार गुठंग उनके साथ थे। इसके अलावा, स्थिति यह थी कि उस चौकी के तीन तरफ चीनी सैनिकों ने फटाफट अपनी चौकियाँ बना कर खड़ी कर ली थीं।
19 अक्टूबर 1962 को थापा की टुकड़ी ने देखा कि सिरी जाप के आस-पास चीनी सैनिकों का बेशुमार जमावड़ा हो रहा है। उनके पास भरी मात्रा में हथियार व बन्दूकें हैं और तय है कि कुछ बड़ी कार्यवाही की योजना उनकी तरफ चल रही है। ऐसा ही कुछ नज़ारा ढोला के सामने, पूर्वी छोर पर भी देखा गया। यह दुतरफा हमले की सम्भावना का संकेत था। इसे समझकर थापा ने अपने सैनिकों को तुरंत और जल्दी गहरी खाइयाँ खोदने का आदेश दिया लेकिन यह काम बेहद कठिन था। जमीन बर्फ की सख्त सतह से ढकी हुई थी। इस पर कम्पनी कमाण्डर ने यह आदेश भी दिया कि रेत की बोरियों और राशन की बोरियों तक से बंकर बना लिए जाएँ, जो बचाव के लिए दीवार का काम करें।
आशंका को सच करते हुए, चीन की फौजों ने 20 अक्तूबर 1962 को सुबह साढ़े चार बजे हमला कर दिया। उनके पास मोर्टार के साथ-साथ लगातार गोलियां चलाने की भी व्यवस्था थी। ढाई घंटे तक यह क्रम चलता रहा जिसका फायदा उठा चीनी सैनिक क़रीब डेढ़ सौ गज भीतर तक आ गए। जब गोलाबारी थमी तब भारतीय फौजों ने क़रीब छह सौ सैनिकों का हल्लाबोल सुना जो चौकी पर हमला करने के लिए बढ़े चले आ रहे थे। दरअसल इसी स्थिति का भारतीय गोरखा सैनिक इंतजार कर रहे थे। अब चीनी सैनिक भारतीय गोरखा टुकड़ी की मशीनगन की मार के अन्दर थे। उस तक आते ही थापा के सिपाही अपनी मशीनगन और राइफल्स से दुश्मन की सेना पर टूट पड़े जिससे बहुत से चीनी सैनिक हताहत हुए और कई घायल हो गए। इस तरह भारत के बहादुरों ने चीनी फौजियों को चौकी से सौ गज के फासले पर रुक जाने के लिए मजबूर कर दिया। चीनी सैनिकों की ओर से गोलियों की बौछार और मोर्टार दागे जाने से मेजर धनसिंह थापा की डी टुकड़ी का नुकसान होना ही था। उसके भी बहुत से सैनिक मारे गए या घायल हो गए थे। सेक्शन कमाण्डार नायक कृष्णा बहादुर थापा ने सैनिकों के हताहत होते जाने पर खुद लाइट मशीनगन संभाल कर गोलियाँ बरसानी शुरू की थीं। उन्होंने भी बहुत से दुश्मनों को मौत की नींद सुलाकर स्वयं वीरगति प्राप्त की थी। इस दौरान उनकी संचार व्यवस्था भी नाकाम हो गई थी इसलिए भारतीय सेना अपनी बटालियन से संवाद स्थापित करने में भी असमर्थ थी।
इस कठिन परिस्थिति में सूबेदार मिन बहादुर गुरूंग और मेजर धनसिंह थापा अपनी रणनीति के अनुसार टुकड़ी को उत्साहित भी कर रहे थे और नियोजित भी। चीन के साथ फौजियों की नई टुकड़ी आ गई थी वह ताजा दम सैनिक और भी ज्यादा जोश में थे। ऐसे में चीनी सैनिक रेंगते हुए चौकी के 50 गज तक पास बढ़ आए थे, जब कि दोनों तरफ से उनकी टुकड़ियां गोलियाँ बरसा कर उनके बढ़ने का रास्ता बना रही थीं। दुश्मन के पास अग्निवर्षक बम भी थे, जिन्हें फेंक कर वह आग और धुएँ का कवज बना रहे थे। इसके बावजूद, गोरखों ने इस स्थिति की चुनौती को स्वीकार किया और अपनी छोटी दूरी वाले हथियारों से उनका जवाब देना शुरू किया। अचानक सूबेदार गुरुंग अपने ही एक बंकर के ढह जाने पर उसके नीचे दब गए। उनके हाथ में उस समय लाइट मशीनगन थी, जिससे वह गोलियाँ बरसा रहे थे। उन्होंने किसी तरह संघर्ष करके खुद को बंकर के नीचे से बाहर निकाला और फिर लगातार गोलियाँ बरसाने लगे। इससे चीनी सैनिकों को भारी नुकसान हुआ, जो भी गुरूंग के निशाने पर आया, वह धराशायी हो गया लेकिन तभी वह खुद आघात का शिकार हुए और उन्होंने वीरगति पाई। अब मेजर धनसिंह थापा उस चौकी पर डटे हुए थे और उनके साथ 34 में से केवल 7 जवान बचे थे। इस बीच दुश्मन हैवी मशीनगन, बाजूका के साथ 4 ऐसे यान ले आया था, जो पानी और जमीन दोनों पर चलकर मार करते थे। ऐसे यानों पर दो-दो हैवी मशीनगन लगी हुई थीं। भारत की संचार व्यवस्था पहले ही टूट चुकी थी। धनसिंह थापा की चौकी भारी दबाव में आ गई थी। इस बीच बटालियन तक संवाद लेकर नायक रविलाल को एक छोटी नाव में भेजा गया क्योंकि संवाद का और कोई तरीका नहीं था। बटालियन से टोकुंग के रास्ते दो नावें सहायता लेकर आ रही थीं। दोनों नावों पर चीनी सैनिकों ने निशाना साध लिया। एक नाव उनकी गोली खाकर वहीं डूब गई। उसके साथ सभी सैनिक डूब गए। दूसरी नाव, जिसमें नायक रविलाल स्वयं था, वह किसी तरह बच पाने में सफल हो गई लेकिन मेजर धनसिंह थापा तक सहायता नहीं पहुँच पाई।
शत्रु द्वारा बंदी
अब मेजर धनसिंह थापा के पास सिर्फ तीन सैनिक रह गए, बाकी चार हताहत हो गए। उनका यह हाल मेजर धनसिंह थापा के बंकर पर अग्नि बम गिरने से हुआ। इसके साथ ही चीनी फौज ने उस चौकी और बंकर पर कब्जा कर लिया और मेजर धनसिंह थापा शत्रु द्वारा बन्दी बना लिए गए। उसके बाद चीन की फौजों ने तीसरा हमला टैंक के साथ किया। इस बीच नाव लेकर बच निकला नायक रविलाल फिर बटालियन में पहुँचा और उसने सिरी जाप चौकी के पराजित होने, तथा सारे सैनिकों और मेजर धनसिंह थापा के मारे जाने की खबर वहाँ अधिकारियों को दी। उसने बताया कि वहाँ सभी सैनिक और मेजर थापा बहादुरी से, अपनी आखिरी सांस तक लड़े। बटालियन नायक द्वारा दी गई इस खबर को सच मान रही थी, जब कि सच यह नहीं था। मेजर थापा अपने तीन सैनिकों के साथ बंदी बना लिए गए थे। लेकिन भाग्य को अभी भी नया कुछ दिखाना था। पकड़े गए थापा सहित तीन बन्दियों में से राइफल मैन तुलसी राम थापा, चीनी सैनिकों की पकड़ से भाग निकलने में सफल हो गया। वह चार दिनों तक अपनी सूझ-बूझ से चीनी फौजों को चकमा देता रहा और किसी तरह भाग कर छिपता हुआ अपनी बटालियन तक पहुँच पाया। तब उसने मेजर धनसिंह थापा तथा दो अन्य सैनिकों के चीन के युद्धबन्दी हो जाने की सूचना दी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेजर थापा लम्बे समय तक चीन के पास युद्धबन्दी के रूप में यातना झेलते रहे। चीनी प्रशासक उनसे भारतीय सेना के भेद उगलवाने की भरपूर कोशिश करते रहे। वह उन्हें हद दर्जे की यातना देकर तोड़ना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव नहीं हुआ। मेजर धनसिंह थापा न तो यातना से डरने वाले व्यक्ति थे, न प्रलोभन से।
देश लौटकर सेना में आने के बाद मेजर थापा अंतत: लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँचे और पद मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने लखनऊ में सहारा एयर लाइंस के निदेशक का पद संभाला।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता | लेखक- अशोक गुप्ता | पृष्ठ संख्या- 56
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