उत्पलाचार्य
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उत्पलाचार्य 'प्रत्यभिज्ञादर्शन' के प्रसिद्ध आचार्य थे। ये कश्मीर में शैवमत की प्रत्यभिज्ञा शाखा के प्रवर्तक सोमानंद के पुत्र तथा शिष्य थे। इनका समय नवम शती का अंत और दशम शती का पूर्वार्ध था। उत्पलाचार्य ने प्रत्यभिज्ञा मत को अपने सर्वश्रैष्ठ प्रमेय बहुल ग्रंथ 'ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-कारिका' द्वारा तथा उसकी वृत्तियों में अन्य मतों का युक्तिपूर्वक खंडन कर उच्च दार्शनिक कोटि में प्रतिष्ठित किया था।[1]
- उत्पलाचार्य के पुत्र तथा शिष्य लक्ष्मणपुत्र अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा तथा क्रमदर्शन के महामहिम गुरु थे।
- रचनाओं की दृष्टि से उत्पलाचार्य ने कई कृतियों की रचना की। इनमें इन्होंने प्रयत्यभिज्ञा के दार्शनिक रूप को विद्वानों के लिए तथा जनसाधारण के लिए भी प्रस्तुत किया है।
- उत्पलाचार्य के मान्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं-
- स्तोत्रावली - यह भगवान शंकर का स्तुतिपरक सरस सुबोध गीतिकाव्य है।
- सिद्धित्रय - अजड प्रमातृसिद्धि, ईश्वरसिद्धि (वृत्ति के साथ) और संबंधसिद्धि (टीका के साथ)।
- शिवदृष्टिव्याख्या - यह उत्पलाचार्य के गुरु सोमानंद के 'शिवदृष्टि' ग्रंथ का व्याख्यान है, जिसका प्रणयन, भास्करी के अनुसार 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञा' से पूर्ववर्ती है।
- ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-कारिका - अपनी 'वृत्ति' नामक 'लघ्वी' तथा 'विवृत्ति' नामक महती व्याख्या के साथ यह उत्पलाचार्य का पांडित्यपूर्ण युक्ति संवलित गौरव ग्रंथ है, जिस पर अभिनवगुप्त ने 'विमर्शिणी' और 'विवृत्तिविमर्शिणी' नामक नितांत प्रख्यात टीकाएँ लिखी हैं। इसी ग्रंथ ने इस दार्शनिक मतवाद को 'प्रत्यभिज्ञा' जैसी मार्मिक संज्ञा प्रदान की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्पलाचार्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 फ़रवरी, 2014।