अभिलेख

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अशोक का कंधार अभिलेख

किसी विशेष महत्व अथवा प्रयोजन के लेख को अभिलेख कहा जाता है। यह सामान्य व्यावहारिक लेखों से भिन्न होता है। प्रस्तर, धातु अथवा किसी अन्य कठोर और स्थायी पदार्थ पर विज्ञप्ति, प्रचार, स्मृति आदि के लिए उत्कीर्ण लेखों की गणना प्राय: अभिलेख के अंतर्गत होती है। कागज, कपड़े, पत्ते आदि कोमल पदार्थों पर मसि अथवा अन्य किसी रंग से अंकित लेख हस्तलेख के अंतर्गत आते हैं। कड़े पत्तों (ताडपत्रादि) पर लौहशलाका से खचित लेख अभिलेख तथा हस्तलेख के बीचे में रखे जा सकते हैं। मिट्टी की तख्तियों तथा बर्तनों और दीवारों पर उत्खचित लेख अभिलेख की सीमा में आते हैं। सामान्यत: किसी अभिलेख की मुख्य पहचान उसका महत्व और उसके माध्यम का स्थायित्व है।

अभिलेखन सामग्री और यांत्रिक उपकरण

अभिलेखन के लिए कड़े माध्यम की आवश्यकता होती थी, इसलिए पत्थर, धातु, ईंट, मिट्टी की तख्ती, काष्ठ, ताड़पत्र का उपयोग किया जाता था, यद्यपि अंतिम दो की आयु अधिक नहीं होती थी। भारत, सुमेर, मिस्र, यूनान, इटली आदि सभी प्राचीन देशों में पत्थर का उपयोग किया गया। अशोक ने तो अपने स्तंभलेख में स्पष्ट लिखा है कि वह अपने धर्मलेख के लिए प्रस्तर का प्रयोग इसलिए कर रहा था कि वे चिरस्थायी हो सकें। किंतु इसके बहुत पूर्व आदिम मनुष्य ने अपने गुहाजीवन में ही गुहा की दीवारों पर अपने चिह्नों को स्थायी बनाया था। भारत में प्रस्तर का उपयोग अभिलेखन के लिए कई प्रकार से हुआ है-गुहा की दीवारें, पत्थर की चट्टानें (चिकनी और कभी कभी खुरदरी), स्तंभ, शिलाखंड, मूर्तियों की पीठ अथवा चरणपीठ, प्रस्तरभांड अथवा प्रस्तरमंजूषा के किनारे या ढक्कन, पत्थर की तख्तियाँ, मुद्रा, कवच आदि, मंदिर की दीवारें, स्तंभ, फर्श आदि। मिस्र में अभिलेख के लिए बहुत ही कठोर पत्थर का उपयोग किया जाता था। यूनान में प्राय: संगमरमर का उपयोग होता था। यद्यपि मौसम के प्रभाव से इस पर उत्कीर्ण लेख घिस जाते थे। विशेषकर, सुमेर, बाबुल, क्रीट आदि में मिट्टी की तख्तियों का अधिक उपयोग होता था। भारत में भी अभिलेख के लिए ईटं का प्रयोग यज्ञ तथा मंदिर के संबंध में हुआ है। धातुओं में सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, काँसा, लोहा, जस्ते का उपयोग भी किया जाता था। भारत में ताम्रपत्र अधिकता से पाए जाते हैं। काठ का उपयोग भी हुआ है, किंतु इसके उदाहरण मिस्र के अतिरिक्त अन्य कहीं अवशिष्ट नहीं है। ताड़पत्र के उदाहरण भी बहुत प्राचीन नहीं मिलते।

अभिलेख में अक्षर अथवा चिह्नों की खुदाई के लिए रूंखानी, छेनी, हथौड़े, (नुकीले), लौहशलाका अथवा लौहवर्तिका आदि का उपयोग होता था। अभिलेख तैयार करने के लिए व्यावसायिक कारीगर होते थे। साधारण हस्तलेख तैयार करने वालों को लेखक, लिपिकर, दिविर, कायस्थ, करण, कर्णिक, कर्रिणन्‌, आदि कहते थे; अभिलेख तैयार करने वालों की संज्ञा शिल्पों, रूपकार, शिलाकूट आदि होती थी। प्रारंभिक अभिलेख बहुत सुंदर नहीं होते थे, परंतु धीरे धीरे स्थायित्व और आकर्षण की दृष्टि से बहुत सुंदर और अलंकृत अक्षर लिखे जाने लगे और अभिलेख की कई शैलियाँ विकसित हुई। अक्षरों की आकृति और शैलियों से अभिलेखों के तिथिक्रम को निश्चित करने में सहायता मिलती है।

चित्र, प्रतिकृति प्रतीक तथा अक्षर

तिथिक्रम में अभिलेखों में इनका उपयोग किया गया है।[1] विभिन्न देशों में विभिन्न लिपियों और अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इनमें चित्रात्मक, भावात्मक और ध्वन्यात्मक सभी प्रकार की लिपियाँ है। ध्वन्यात्मक लिपियों में भी अंकों के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है वे ध्वन्यात्मक नहीं हैं। ब्राह्मी और देवनागरी दोनों के प्राचीन और अर्वाचीन अंक 1 से 9 तक ध्वन्यात्मक नहीं हैं। प्राचीन अक्षरात्मक तथा चित्रात्मक अंकों की भी यही अवस्था है। सामी, यूनानी और रोमन लिपियों के भी अंक घ्वन्यात्मक नहीं हैं। यूनानी में अंकों के प्रथम अक्षर ही अंकों के लिए प्रयुक्त होते थे, जैसा एम (M), डी (D), सी (C), वी (V, और आइ (I) का प्रयोग अब तक 1000, 500, 100, 50, 10 (V को ही उलटा जोड़कर), 5 और 1 के लिए होता है। इसी प्रकार विराम और गणित के बहुत से चिह्न घ्वन्यात्मक नहीं होते।

लेखनपद्धति

लेखनपद्धति में सबसे पहले प्रश्न आता है व्यक्तिगत अक्षरों की दिशा का। अत्यंत प्राचीन काल से अब तक अक्षरों की बनावट और अंकन में प्राय: एकरूपता पाई जाती है। अक्षर ऊपर से नीचे लंबवत्‌ खचित अथवा उत्कीर्ण होते हैं मानों किसी कल्पित रेखा से वे लटकते हों।

अभिलेख

आधुनिक कन्नड़ के आड़े अक्षर भी उसी कल्पित रेखा के नीचे सँजोए जाते हैं। अक्षरों का ग्रंथन प्राय: एक सीधी आधारवत्‌ रेखा के ऊपर होता है। इस पद्धति के अपवाद चीनी और जापानी अभिलेख हैं, जिनमें पंक्तियाँ लंबवत्‌ ऊपर से नीचे लिखी जाती हैं। लेखन पद्धति का दूसरा प्रश्न है लेखन की दिशा। भारोपीय लिपियाँ की लेखनदिशा बाएँ से दाएँ तथा सामी और हामी लिपियों की दाएँ से बाएँ मिलती है। कुछ प्राचीन यूनानी अभिलेखों और बहुत थोड़े भारतीय अभिलेखों में लेखनदिशा गोमूत्रिका सदृश (पहली पंक्ति में दाएँ से बाएँ, दूसरी पंक्ति में बाएँ से दाएँ और आगे क्रमश: इस प्रकार) पाई जाती है। चीनी और जापानी अभिलेखों में पंक्तियाँ ऊपर से नीचे और लेखनदिशा दाएँ से बाएँ होती है। प्रारंभिक काल में अक्षरों के ऊपर की रेखा काल्पनिक थी अथवा किसी अस्थायी पदार्थ से लिखकर मिटा दी जाती थी। आगे चलकर वह वास्तविक हो गई, यद्यपि यूनानी और रोमन अभिलेखों में वह अक्षरों के नीचे आ गई।

भारतीय अक्षरों में क्रमश: शिरोरेखा बनाने की प्रथा चल गई जो कल्पित (पुन: वास्तविक) रेखा पर बनाई जाती थी। प्राचीन अभिलेखों में एक शब्द के अक्षरों का समूहीकरण और शब्दों के पृथक्करण पर ध्यान कम दिया जाता था, जहाँ तक कि वाक्यों को अलग करने के लिए भी किसी चिह्न का प्रयोग नहीं होता था जिन भाषाओं का व्याकरण नियमित था उनके अभिलेख पढ़ने और समझने में कठिनाई नहीं होती, शेष में कठिनाई उठानी पड़ती है। विराम चिह्नों का प्रयोग भी पीछे चलकर प्रचलित हुआ। भारतीय अभिलेखों में पूर्ण विराम के लिए दंडवत्‌ रेखा (।), दो रेखा (।।) अथवा शिरोरेखा के लिए दंडवत्‌ रेखा (T) का प्रयोग होता था। किसी अभिलेख के अंत में तीन दंडवत्‌ देखाओं (।।।) का भी प्रयोग होता था। सामी तथा यूरोपीय अभिलेखों में वाक्य के अंत में एक विंदु (.), दो बिंदु (:) अथवा शून्य (0) लगाने की प्रथा थी। इसी प्रकार अभिलेखों में पृष्ठीकरण , संशोधन,संक्षिप्तीकरण तथा छूट मांगालिक चिह्नों का विकास हुआ। प्राय: सभी देशों में मांगालिक चिह्नों, प्रतीकों और अलंकरणों का प्रयोग अभिलेखों में होता था। भारत में स्वस्तिक, सूर्य, चंद्र, त्रिरत्न, बुद्धमंगल, चैत्य, बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, वृत्त, ओउम्‌ का आलंकारिक रूप, शंख, पद्य, नंदी, मत्स्य, तारा, शस्त्र, कवच आदि इस प्रयोजन के लिए काम में आते थे। सामी देशों में चंद्र और तारा, ईसाई देशों में स्वस्तिक, क्रास आदि मांगलिक चिह्न प्रयुक्त होते थे। अभिलेख के ऊपर, नीचे या अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर लांछन अथवा अंक प्रामाणिकता के लिए लगाए जाते थे।

अभिलेख के प्रकार

यदि अत्यंत प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के अभिलेखों का वर्गीकरण किया जाए तो उनके प्रकार इस भाँति पाए जाते हैं: (1) व्यापारिक तथा व्यावहारिक, (2) आभिचारिक (जादू टोना से संबद्ध), (3) धार्मिक और कर्मकांडीय, (4) उपदेशात्मक अथवा नैतिक, (5) समर्पण तथा चढ़ावा संबंधी, (6) दान संबंधी, (7) प्रशासकीय, (8) प्रशस्तिपरक, (9) स्मारक तथा (10) साहित्यिक।

व्यापारिक तथा व्यावहारिक

बारहवीं शताब्दी का अभिलेख

भारत, पश्चिमी एशिया, मिस्र, क्रीट, यूनान आदि सभी प्राचीन देशों में व्यापारियों की मुद्राओं पर और उनके लेखे जोखे-से संबंध रखने वाले अभिलेख पाए गए हैं। प्राचीन भारत के निगमों और श्रेणियों की मुद्राएँ अभिलेखांकित होती थीं और वे व्यापारिक एवं व्यावहारिक कार्यो के लिए भी स्थायी और कड़ी सामग्री का उपयोग करती थीं। कभी-कभी तो अन्य प्रकार के अभिलेखों में भी व्यापारिक विज्ञापन पाया जाता है। कुमारगुप्त तथा बंधुवर्मन्कालीन मालव[2] के अभिलेख में वहाँ के तंतुवायों (जुलाहों) के कपड़ों का विज्ञापन इस प्रकार दिया हुआ है: तारुण्य और सौंदर्य से युक्त, सुवर्णहार, तांबूल, पुष्प आदि से सुशोभित स्त्री तब तक अपने प्रियतम से मिलने नहीं जाती, जब तक कि वह दशपुर के बने पट्टमय (रेशम) वस्त्रों के जोड़े को नहीं धारण करती। इस प्रकार स्पर्श करने में कोमल, विभिन्न रंगों से चित्रित, नयनाभिराम रेशमी वस्त्रों से संपूर्ण पृथ्वीतल अलंकृत है।

आभिचारक

सिंधु घाटी (हड़प्पा और मोहन जोदड़ो) में प्राप्त बहुत सी तख्तियों पर आभिचरिक यंत्र हैं। इनमें विभिन्न पशुओं द्वारा प्रतिनिहित संभवत: देवताओं की स्तुतियाँ हैं। प्राय: कवचों पर ये अभिलेख मिलते हैं। सुमेर, मिस्त्र, यूनान आदि में भी आभिचारिक अभिलेख पाए जाते हैं।

धार्मिक और कर्मकांडीय

मंदिर, यज्ञ, हवन, पूजापाठ आदि से संबंध रखने वाले बहुसंख्यक अभिलेख पाए जाते हैं। इनमें धार्मिक विधिनिषेध, हवन प्रक्रिया, पूजापद्धति, हवन तथा पूजा की सामग्री, यज्ञ दक्षिणा आदि का उल्लेख मिलता है। अशोक ने तो अपने अभिलेखों को 'धर्मलिपि' ही कहा है जिनमें बौद्ध धर्म के सर्वमान्य तत्त्वों का विवरण है। यूनानी अभिलेखों में मंदिर, कर्मकांड, पुरोहित तथा धार्मिक संघों के बारे में प्रचुर सामग्री मिलती है।

उपदेशात्मक

धार्मिक प्रयोजन की तरह अभिलेखों का नैतिक उपयोग भी होता था। अशोक के धर्मलेखों में उपदेशात्मक अंश बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। बेसनगर (विदिशा) के छोटे गरूड़ध्वज अभिलेख में भी उपदेश है: तीन अमृत पद हैं। यदि इनका सुंदर अनुष्ठान हो तो ये स्वर्ग को प्राप्त कराते हैं। ये हैं--दम, त्याग और अप्रमाद। चीन और यूनान में भी उपदेशात्मक अभिलेख मिलते हैं।

हरि-विष्णु अभिलेख

समर्पण अथवा चढ़ावा

धार्मिक स्थापत्यों, विधियों और अन्य प्रकार की संपति का किसी देवता अथवा धार्मिक संस्थान को स्थायी रूप से समर्पण अंकित करने के लिए इस प्रकार के अभिलेख प्रस्तुत किए जाते थे।

दान संबंधी

प्राचीन धार्मिक और नैतिक जीवन में दान का बहुत ऊँचा स्थान था। प्रत्येक देश और धर्म में दान को संस्था का रूप प्राप्त था। स्थायी दान को अंकित करने के लिए पहले पत्थर और फिर ताम्रपत्र का प्रयोग होता था।

प्रशासकीय

प्रशासकीय अभिलेखों में विधि (क़ानून), नियम, राजाज्ञा, जयपत्र, राजाओं और राजपुरुषों के पत्र, राजकीय लेखाजोखा, कोश के प्रकार और विवरण, सामंतों से प्राप्त कर एवं उपहार, राजकीय सम्मान और शिष्टाचार, ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख, सधाधिलेख आदि की गणना है। पत्थर के स्तंभ पर लिखी हुई बाबुली सम्राट् हम्मुराबी की विधिसंहिता प्रसिद्ध है। अशोक के धर्मलेखों में उसका राजकीय शासन (आज्ञा) भरा पड़ा है।

प्रशस्ति

अशोक का रुम्मिनदेई अभिलेख

राजाओं द्वारा विजयों और कीर्ति का वर्णन स्थायी रूप से शिलाखंडों और प्रस्तरस्तंभों पर लिखवाने की प्रथा बहुत प्रचलित रही है। भारत में राजाओं की दिग्विजय के वर्णन बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। मिस्री सम्राट् रामसेज़ तृतीय, ईरानी सम्राट् दारा, भारतीय राजाओं में खारवेल, गौतमीपुत्र शातकर्णी, रूद्रदामन, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, स्कंदगुप्त, द्वितीय पुलकेशिन्‌ आदि की प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं।

स्मारक

चूँकि अभिलेखों का मुख्य कार्य अंकन को स्थायी बनाना था, अत: घटनाओं, व्यक्तियों तथा कृतियों के स्मारकरूप में अगणित अभिलेख पाए गए हैं।

साहित्यिक

अभिलेखों में सर्वमान्य धार्मिक ग्रंथों अथवा उनके अवतरण और कभी कभी समूचे नवीन, काव्य, नाटक आदि ग्रंथ अभिलिखित पाए जाते हैं।

अभिलेख सिद्धांत

अभिलेख तैयार करने के लिए सामान्य रूप के कुछ सिद्धांत और नियम प्रचलित थे। अभिलेख का प्रारंभ किसी धार्मिक अथवा मांगलिक चिह्न या शब्द से किया जाता था। इसके पश्चात्‌ किसी इष्ट देवता की स्तुति अथवा आमंत्रण होता था। तत्पश्चात्‌ आशीर्वादात्मक वाक्य आता था। पुन: दान अथवा कीर्तिविशेष की प्रशंसा होती थी। फिर दान अथवा कीर्ति भंग करने वाले की निंदा की जाती थी। अंत में उपसंहार होता था। अभिलेख के अंत में लेखक और उत्कीर्ण करने वाले का नाम और मांगलिक चिह्न होता था। भारत में यह नियम प्राय: सर्वप्रचलित था। अन्य देशों में इन सिद्धांतों के पालन में दृढ़ता नहीं थी।

तिथिक्रम और संवत्‌ का प्रयोग

अभिलेखों में तिथि और संवत्‌ लिखने की प्रथा धीरे-धीरे प्रचलित हुई। प्रारंभ में भारत में स्थायी एवं क्रमबद्ध संवतों के अभाव में राजाओं के शासनवर्ष से तिथि गिनी जाती थी। फिर कतिपय महत्त्वाकांक्षी राजाओं और शासकों ने अपनी कीर्ति स्थायी करने के लिए अपने पदासीन होने के समय से संवत्‌ चलाया जो उनके बाद भी प्रचलित रहा। फिर महान्‌ घटनाओं और धर्मप्रवर्त्तकों एवं संत महात्माओं के जन्म अथवा निधनकाल से भी संवतों का प्रवर्तन हुआ। फलस्वरूप अभिलेखों में इनका प्रयोग होने लगा। तिथियों के अंकन में दिन, वार, पक्ष, मास और संवत्‌ का उल्लेख पाया जाता है।

ऐतिहासिक अभिलेख

तिथिक्रम से प्राचीन अभिलेख मिस्र की चित्रलिपि के माने जाते हैं। फिर प्राचीन इराक के अभिलेखों का स्थान है, जो पहले अर्धचित्र और पुन: इराक के अभिलेखों का स्थान है, जो पहले अर्धचित्रलिपि और पुन: कीलाक्षरों में अंकित हैं। सिंधुघाटी के अभिलेख इराकी अभिलेखों के प्राय: समकालीन हैं। इनके पश्चात्‌ क्रीट, यूनान और रोम के अभिलेखों की गणना की जा सकती है। ईरान के कीलाक्षर और आरामाई लिपि के लेख भी प्रसिद्ध हैं। चीन में चित्र एवं भावलिपि के लेख बहुत प्राचीन काल से पाए जाते हैं। भारत में सिंधुघाटी के परवर्ती अभिलेखों का मोटे तौर पर निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है-

अशोक का शिलालेख, धौली
  1. मौर्यपूर्व
  2. मौर्य
  3. शुंग
  4. भारत-बाख्त्री
  5. शक
  6. कुषाण
  7. आंध्र-शातवाहन
  8. गुप्त
  9. मध्यकालीन (इसमें विविध प्रादेशिक शैलियों का समावेश है) तथा
  10. आधुनिक

भारतीय शैली के अभिलेख संपूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया में पाए जाते हैं।

अशोक के अभिलेख

मौर्य सम्राट अशोक के इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। यह माना जाता है कि, अशोक को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक 'डेरियस' से मिली थी। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- 'शिलालेख', 'स्तम्भलेख' और 'गुहालेख'। शिलालेखों और स्तम्भ लेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। 14 शिलालेख सिलसिलेवार हैं, जिनको चतुर्दश शिलालेख कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाजगढ़ी, मानसेरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं। शायद इसीलिए उन्हें 'लघु शिलालेख' कहा जाता है। इस प्रकार के शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जतिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं।

मौर्य काल के शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशोक का धम्म व्यावहारिक फलमूलक (अर्थात फल को दृष्टि में रखने वाला) और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया, वहीं लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया। वस्तुतः उसने अपने शासनकाल में निरन्तर यह प्रयास किया कि प्रजा के सभी वर्गों और सम्प्रदायों के बीच सहमति का आधार ढूंढा जाए और सामान्य आधार के अनुसार नीति अपनाई जाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस संबंध में विस्तृत विवेचन के लिए द्रं.अक्षर
  2. बंधुवर्मन्कालीन मालव सं.529

बाहरी कड़ियाँ

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