अंतर्राष्ट्रीय विधि, सार्वजनिक
अंतर्राष्ट्रीय विधि, सार्वजनिक
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 41,42,43 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री कृष्ण अग्रवाल। |
अंतर्राष्ट्रीय विधि, सार्वजनिक परिभाषा–अंतर्राष्ट्रीय कानून उन विधि नियमों का समूह है जो विभिन्न राज्यों के पारस्परिक संबंधों के विषय में प्रयुक्त होते हैं। यह एक विधि प्रणाली है जिसका संबंध व्यक्तियों के समाज से न होकर राज्यों के समाज से है।
इतिहास
अंतर्राष्ट्रीय कानून (विधि) के उद्भव तथा विकास का इतिहास निश्चित काल सीमाओं में नहीं बाँटा जा सकता। प्रोफेसर हालैंड के मतानुसार पुरातन काल में भी स्वतंत्र राज्यों में मान्यता प्राप्त ऐसे नियम थे जो दूतों के विशेषाधिकार, संधि, युद्ध की घोषणा तथा युद्ध संचालन से संबंध रखते थे (देखिए-लेक्चर्स ऑन इंटरनैशनल लॉ हालैंड)। प्राचीन भारत में भी ऐसे नियमों का उल्लेख मिलता है (रामायण तथा महाभारत)। यहूदी, यूनानी तथा रोम के लोगों में भी ऐसे नियमों का होना पाया जाता है। 14वीं, 13वीं, सदी ई. पू. में खत्ती रानी ने मिस्री फ़राऊन को दोनों राज्यों में परस्पर शांति और सौजन्य बनाए रखने के लिए जो पत्र लिखे थे वे अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से इतिहास के पहले आदर्श माने जाते हैं। वे पत्र खत्ती और फ़राऊनी दोनों अभिलेखागारों में सुरक्षित रखे गए जो आज तक सुरक्षित हैं। मध्य युग में शायद किसी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता ही न थी क्योंकि समुद्री दस्यु समस्त सागरों पर छाए हुए थे, व्यापार प्राय लुप्त हो चुका था और युद्ध में किसी प्रकार के नियम का पालन नहीं होता था। बाद में पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार का युग आया तब अंतर्राष्ट्रीय कानून के विकास में कुछ प्रगति हुई। कालांतर में मानव सभ्यता के विकास के साथ आचार तथा रीति की परंपराएँ बनीं जिनके आधार पर अंतर्राष्ट्रीय कानून आगे बढ़ा और पनपा। १९वीं शताब्दी में उसकी प्रगति विशेष रूप से विभिन्न राष्ट्रों के मध्य होने वाली संधियों तथा अभिसमयों द्वारा हुई। सन् 1899 तथा 1907 ई. में हेग में होने वाले शांति सम्मेलनों ने अंतर्राष्ट्रीय कानून के रूप को मुखरित किया और अंतर्राष्ट्रीय विवाचन न्यायालय की स्थापना हुई।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् राष्ट्रसंघ (लीग ऑव नेशन्स) ने जन्म लिया। उसके मुख्य उद्देश्य थे शांति तथा सुरक्षा बनाए रखना और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि करना। परंतु 1937 ई. में जापान तथा इटली ने राष्ट्रसंघ के अस्तित्व को भारी धक्का पहुँचाया और अंत में 19 अप्रैल, सन् 1946 ई. को संघ का अस्तित्व ही मिट गया।
द्वितीय महायुद्ध के विजेता राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका तथा सोवियत, रूस का अधिवेशन मास्को नगर में हुआ और एक छोटा-सा घोषणापत्र प्रकाशित किया गया। तदनंतर अनेक स्थानों में अधिवेशन होते रहे और एक अंतरराष्ट्रीय संगठन के विषय में विचार-विनिमय होता रहा। सन् 1945 ई. में 25 अप्रैल से 26 जून तक, सैन फ्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें पचास राज्यों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। 26 जून, 1945 ई. को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का घोषणापत्र सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ जिसके द्वारा निम्नलिखित उद्देश्यों की घोषणा की गई
(1) अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाए रखना।
(2) राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री बढ़ाना।
(3) सभी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को हल करने में अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
(4) सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न राष्ट्रों के कार्यकलापों में सामंजस्य स्थापित करना।
इस प्रकार संयुक्त राष्ट्रसंघ और विशेषतया अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना से अंतरराष्ट्रीय कानून को यथार्थ रूप में विधि (कानून) का पद प्राप्त हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अंतरराष्ट्रीय-विधि-आयोग की स्थापना की जिसका प्रमुख कार्य अंतरराष्ट्रीय विधि का विकास करना है।
अंतर्राष्ट्रीय विधि का संहिताकरण
कानून के संहिताकरण से तात्पर्य है समस्त नियमों को एकत्र करना, उनको एक सूत्र में क्रमानुसार बाँधना तथा उनमें सामंजस्य स्थापित करना। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में इस ओर प्रयास किया गया। इंस्टीट्यूट ऑव इंटरनैशनल लॉ ने भी इसमें समुचित योग दिया। हेग सम्मेलनों ने भी इस कार्य को अपने हाथ में लिया। सन् 1920 ई. में राष्ट्रसंघ ने इसके लिए समिति बनाई। इस प्रकार पिछली तीन शताब्दियों में इस कठिन कार्य को पूरा करने का निरंतर प्रयास होता रहा। अंत में 21 नवंबर, 1947 ई. को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इस कार्य के निमित्त संविधि द्वारा अंतर्राष्ट्रीय-विधि-आयोग स्थापित किया।
अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय
अंतर्राष्ट्रीय कानून का विस्तार असीम तथा इसके विषय निरंतर प्रगतिशील हैं। मानव सभ्यता तथा विज्ञान के विकास के साथ इसका भी विकास उत्तरोत्तर हुआ और होता रहेगा। इसके विस्तार को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। अंतर्राष्ट्रीय विधि के प्रमुख विषय इस प्रकार हैं:
(1)राज्यों की मान्यता, उनके मूल अधिकार तथा कर्तव्य।
(2) राज्य तथा शासन का उत्तराधिकार।
(3) विदेशी राज्यों पर क्षेत्राधिकार तथा राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर किए गए अपराधों के संबंध में क्षेत्राधिकार।
(4) महासागर एवं जल प्रांगण की सीमाएँ।
(5) राष्ट्रीयता तथा विदेशियों के प्रति व्यवहार।
(6) शरणागत अधिकार तथा संधि के नियम।
(7) राजकीय एवं वाणिज्य दूतीय समागम तथा उन्मुक्ति के नियम।
(8) राज्यों के उत्तरदायित्व संबंधी नियम।
(9) विवाचन प्रक्रिया के नियम।
अंतर्राष्ट्रीय विधि के आधार
अंतर्राष्ट्रीय कानून के नियमों का सूत्रपात विचारकों की कल्पना तथा राष्ट्रों के व्यवहारों में हुआ। व्यवहार ने धीरे-धीरे प्रथा का रूप धारण किया और फिर वे प्रथाएँ परंपराएँ बन गईं। अत अंतर्राष्ट्रीय कानून का मुख्य आधार परंपराएँ ही हैं। अन्य आधारों में प्रथम स्थान विभिन्न राष्ट्रों में होने वाली संधियों का है जो परंपराओं से किसी भी अर्थ में कम महत्वपूर्ण नहीं है। इनके अतिरिक्त राज्यपत्र, प्रदेशीय संसद द्वारा स्वीकृत संविधि तथा प्रदेशीय न्यायालय के निर्णय अंतर्राष्ट्रीय कानून की अन्य आधार शिलाएँ हैं। बाद में विभिन्न अभिसमयों ने तथा निर्वाचन न्यायालय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार न्यायालय एवं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों ने अंतर्राष्ट्रीय कानून को उसका वर्तमान रूप दिया।
अंतर्राष्ट्रीय विधि के काल्पनिक तत्व- अंतर्राष्ट्रीय विधि कतिपय काल्पनिक तत्वों पर आधारित है जिनमें प्रमुख ये हैं:
(क) प्रत्येक राज्य का निश्चित राज्यक्षेत्र है और निजी राज्यक्षेत्र में उसको निजी मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है।
(ख) प्रत्येक राज्य को कानूनी समतुल्यता प्राप्त है।
(ग) अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत सभी राज्यों का समान दृष्टिकोण है।
(घ) अंतर्राष्ट्रीय विधि की मान्यता राज्यों की सम्मति पर निर्भर है और उसके समक्ष सभी राज्य एक समान हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन
अंतर्राष्ट्रीय विधि की मान्यता सदैव राज्यों की स्वेच्छा पर निर्भर रही है। कोई ऐसी व्यवस्था या शक्ति नहीं थी जो राज्यों को अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए बाध्य कर सके अथवा नियमभंजन के लिए दंड दे सके। राष्ट्रसंघ की असफलता का प्रमुख कारण यही था। संसार के राजनीतिज्ञ इसके प्रति पूर्णतया सजग थे। अत संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि कालांतर में अंतर्राष्ट्रीय कानून को राज्यों की ओर से ठीक वैसा ही सम्मान प्राप्त हो जैसा किसी देश की विधि प्रणाली को अपने देश में शासन वर्ग अथवा न्यायालयों से प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्रसंघ अपने समस्त सहायक अंगों के साथ इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न करने में प्रयत्नशील हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा समिति को कार्यपालिका शक्ति भी दी गई है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं. ग्रं.-जे.डब्ल्यू. गारनर; टैगोर लॉ लेक्चर्स, 1922; रॉस ए टैक्स्ट बुक ऑव इंटरनेशनल लॉ; डब्ल्यू.ई. हाल इंटरनेशनल लॉ; के.आर.आर. शास्त्री स्टडीज़ इन इंटरनेशनल लॉ।
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 41,42,43 |
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