भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-18
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु
1. भूतैराक्रम्पमाणोऽपि घीरो दैववशानुगैः।
तद् विद्वान् न चलेन्नार्गात् अन्वशिक्षं क्षितेर् व्रतम्।।
अर्थः
दैव अर्थात् सृष्टि के ज्ञात और अज्ञात् कार्य-कारण आदि नियमों के अधीन भूतों से पछाड़ खाकर पीड़ित होने पर भी धैर्यशाली विद्वान् पुरुष उनकी दैवाधीनता जान अपने निश्चित मार्ग से कभी विचलित न हो- यह मैंने पृथ्वी से (क्षमाव्रत) सीखा।
2. शश्वत् परार्य-सर्देहः परार्थैकान्त-संभवः।
साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम्।।
अर्थः
सदा-सर्वदा दूसरों के सर्वथा हितेच्छु और जिनका जन्म ही एकमात्र परहितार्थ है, उन पर्वत एवं वृक्षों का शिष्य बनकर साधु पुरुष को चाहिए कि उनसे ‘परात्मता’ यानी दूसरों के लिए ही अपना जन्म है, यह शिक्षा ग्रहण करे।
3. स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुरयस् तीर्थभूर् नृणाम्।
मुनिः पुनात्यापां मित्रं ईक्षोपस्पर्श-कीर्तनैः।।
अर्थः
पानी स्वभावतः स्वच्छ, स्निग्ध, मधुर और लोगों के लिए तीर्थ की तरह पवित्र होता है। इसी तरह हम भी निर्मल, स्वभावतः स्नेहशील, मधुरभाषी और शुद्ध रहें- ऐसा समझलनेवाला मुनि अपने दर्शन, स्पर्सन और भाषण से लोगों को पवित्र करता है।
4. मुनिः प्रसन्न-गंभीरो दुर्विग्राह्यो दुरत्ययः।
अनंतपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः।।
अर्थः
समुद्र की तरह मुनि को प्रसन्न, गंभीर, अथाह, अनाक्रमणीय, अपार और अक्षुब्ध और जिसमें चढ़ाव-उतार नहीं होता, ऐसा होना चाहिए।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-