जॉर्ज यूल
जॉर्ज यूल
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पूरा नाम | जॉर्ज यूल |
जन्म | 1829 |
जन्म भूमि | स्टोनहेवन |
मृत्यु | 1892 |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पद | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चौथे अध्यक्ष |
अन्य जानकारी | जॉर्ज यूल भारतीय समाज के बीच अपने विशाल दृष्टिकोण, उदारवादी विचार और भारतीय महत्वाकांक्षाओं के प्रति सम्मान के लिए जाने जाते थे। |
अद्यतन | 16:57, 4 जून 2017 (IST)
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जॉर्ज यूल (अंग्रेज़ी: George Yule, जन्म: 1829, स्टोनहेवन; मृत्यु: 1892) इंग्लैंड और भारत में स्कॉटलैंड के एक व्यापारी थे, जिन्होंने 1888 में इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चौथे अध्यक्ष के रूप में कार्य किया था। वह पहले गैर-भारतीय थे, जो उस कार्यालय को आयोजित करते थे। वह लंदन के जॉर्ज यूल एंड कंम्पनी के संस्थापक थे और कलकत्ता के एंड्रयू यूल एंड कंम्पनी, के अध्यक्ष थे।
परिचय
जॉर्ज यूल का जन्म 1829, स्टोनहेवन में हुआ था। वह एक ऐसी शख्सियत थे, जो भारतीयों से अपरिचित नहीं थे और गंभीर रूप से उनके कल्याण और उन्नति में रुचि रखते थे। डब्लू. सी. बनर्जी के आग्रह पर उन्होंने इलाहाबाद में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता स्वीकार की। वह उद्योगपति वर्ग से ताल्लुक रखते थे। वह कलकत्ता की मशहूर एंड्रयू यूल कॉरपोरेशन के मालिक थे। वे कलकत्ता के फौजदार और कुछ समय तक इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष भी रहे।[1]
व्यक्तित्व
जॉर्ज यूल भारतीय समाज के बीच अपने विशाल दृष्टिकोण, उदारवादी विचार और भारतीय महत्वाकांक्षाओं के प्रति सम्मान के लिए जाने जाते थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के मुताबिक वह ‘’एक पक्के स्कॉचमैन थे, जो किसी भी चीज को गहराई से परख लेते थे, और अपने विचारों को स्पष्टता से बिना हिचक के रखते थे, जैसा कि एक स्कॉचमैन करता है।‘’ जिस मुस्तैदी से उन्होंने कांग्रेस का निमंत्रण स्वीकार किया और जिस योग्यता से उन्होंने इलाहाबाद अधिवेशन का संचालन किया। इसके चलते वह भारतीय समाज में एक शक्तिशाली और मशहूर व्यक्ति बन गए और इसी वजह से भारत के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला। कांग्रेस का एक दल जो साल 1889 में ब्रिटिश जनता के लिए हुए राजनीतिक सुधारों का समर्थन करने के लिए लंदन गया था, तो वहाँ जॉर्ज यूल ने उनकी काफ़ी सहायता की। इंग्लैंड में अपनी सेवानिवृत्ति के दौरान भी ब्रिटिश कमेटी के सदस्य के तौर पर उन्होंने कांग्रेस के कार्यों का पुरजोर समर्थन किया।
निधन
जॉर्ज यूल को भारतीय जीवनकाल के दौरान आधिकारिक और गैर आधिकारिक रूप से काफ़ी सम्मान, सराहना मिली। उनका निधन का 1892 में हो गया।
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