पारिजात त्रयोदश सर्ग

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पारिजात त्रयोदश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग गेय गान
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

त्रायोदश सर्ग

कान्त कल्पना

सिन्दूर

(1)

सिखाए अनुरंजन का मन्त्रा।
जमाए अनुपम अपना रंग।
लोक-हित-पंकज-पुंज-निमित्त।
कहाए विलसित बाल-पतंग॥1॥

भर रग-रग में भव-अनुराग।
मानसों को कर बहु अभिराम।
रखे शुचि रुचि की लाली मंजु।
लालिमा दिखला परम ललाम॥2॥

सिध्द हो कल कृति-नयन-निमित्त।
अलौकिक रस-अंकित वह बिन्दु।
याद आता है जिसे विलोक।
सुधारस-वर्षणकारी इन्दु॥3॥

लाभ कर हृदय-रंजिनी कान्ति।
ज्ञात हो लसित लालसा-ओक।
उसे, है जिसे, लोक-हित प्यारे।
दिखा अवलोकनीय आलोक॥4॥

मंजु आरंजित मुख का राग।
करें जन-जन रंजन भरपूर।
बने वसुधा सोहाग-सर्वस्व।
भारती-भूति-भाल सिन्दूर॥5॥

प्रभाकर

(2)

दृगों पर पड़ा असित परदा।
उरों में ऍंधिकयाला छाया।
समाया नस-नस में तामस।
भरा तम घर-घर में पाया॥1॥

ज्योति के लिए न फिर कैसे।
दुखित जनता-मानस तरसे।
प्रभाकर भारत-भूतल का।
तिमिर हर लो सहस्र कर से॥2॥

(3)

अरुणता अरुण नहीं पाता।
उषा क्यों आरंजित होती।
विभा का बीज धारातल में।
कान्त किरणावलि क्यों बोती॥1॥

गिरि-शिखर क्यों शोभा पाता।
मणि-जटित कल किरीट पाकर।
ललित क्यों लतिकाएँ होतीं।
मंजुतम मुक्ताओं से भर॥2॥

सरि-सरोवर में क्यों बिछतीं।
चादरें स्वर्ण-तार-विरचित।
अंक प्राची का क्यों लसता।
विपुल हीरक-चय से हो खचित॥3॥

कंठ क्यों खुलता विहगों का।
कुसुम-कुल-कलिका क्यों खिलती।
विलसता क्यों प्रभात का मुख।
प्रभाकर-प्रभा जो न मिलती॥4॥

(4)

क्षपाकर की छवि छिनती है।
तेजहत होते हैं ता।
गिरि-गुहा में तम छिपता है।
बने अंधो निशिचर सा॥1॥

उसे कहते दिल दुखता है।
यामिनी लुटती है जैसी।
कहें क्या ऐसी विभुता को।
प्रभाकर यह प्रभुता कैसी॥2॥

आलोक

(5)

भरत-सुत का मुख अति कमनीय।
हो गया है श्रीहीन नितान्त।
क्या पुन: पूर्व तेज कर प्राप्त।
बनेगा नहीं कलानिधि कान्त॥1॥

जगी जगती में जिसकी ज्योति।
समालोकित कर सा ओक।
कगी क्या भारत-भू लाभ।
फिर अलौकिकतम वह आलोक॥2॥

(6)

मत मिले तारकचय की ज्योति।
भले ही उगे न मंजु मयंक।
न दीखे दीपावलि की दीप्ति।
छिपाए चपला को घन अंक॥1॥

प्रभा पाएगा पूत प्रभात।
समालोकित होंगे सब ओक।
बनेगा दिवा दिव्य-से-दिव्य।
दिवापति का पाकर आलोक॥2॥

चारु चरित

(7)

किसके लालन-पालन से है रहती मुख की लाली।
भूतल में किसके कर से प्रतिपत्तिक गयी प्रतिपाली।
किसका आनन अवलोकन कर मानवता है जीती।
सुरुचि-चकोरी किस मयंक-मुख का मयूख है पीती॥1॥

कुजन लौह किस पारस के परसे है सोना बनता।
किसका कीत्तिक-वितान सकल वसुधातल में है तनता।
किसके दिव्यभूत मुख पर है वह आलोक दिखाता।
जिसे विलोक कलंक-तिमिर का है विलोप हो जाता॥2॥

किसके दृष्टिपूत दृग में है वह लालिमा विलसती।
जिसके बल से अनुरंजनता है वसुधा में बसती।
किसका तेज:पुंज कलेवर वह कौशल करता है।
जो तामसी वृत्तिक रजनी में दिव्य ज्योति भरता है॥3॥

किसका मंजुल मनोभाव है वह कल कुसुम खिलाता।
जिसके सौरभ से मन-उपवन है सुरभित हो जाता।
है किसकी अनुपम कृपालुता कल्पद्रुम की छाया।
पा जिसका अवलम्बन मानव ने वांछित फल पाया॥4॥

किसके अंकुश में मद-सा मदमत्त द्विरद दिखलाया।
किसे मोहती नहीं काम की महामोहिनी माया।
किसको ललना-लोल-नयन लालायित नहीं बनाता।
कुसुमायुधा के आयुधा को है कौन कुसुम कर पाता॥5॥

किसे लोभ की ललितभूत लहरें हैं नहीं नचाती।
किसके सम्मुख लोक-लालसाएँ हैं ललक न आती।
कामद सुखद वरद बहु रसमय परम मनोहर प्यारी।
है किसकी कमनीय कामना कामधेनु-सी न्यारी॥6॥

जो कोपानल मति-विलोप का साधन है हो पाता।
जिसका धूम विवेक-विलोचन को है अंधा बनाता।
जो अन्तस्तल को विदग्धा कर-कर है बहुत सताता।
वह आकर किसके समीप है तेज-पुंज बन जाता॥7॥

किसपर कभी मोह ने अपनी नहीं मोहनी डाली।
किसकी ममता गयी लोक-ममता-रंगत में ढाली।
किसके दिव्य दिवस हैं किसकी विभामयी हैं रातें।
परम पुनीत विभूति-भरित हैं चारु चरित की बातें॥8॥

(8)

मनुज-कुल मंजुल मानस-हंस।
मनुजता-कलिका कलित विकास।
सुरुचि-सरसी का सलिल ललाम।
कामना कान्त कमलिनी-वास॥1॥

कीत्तिक-कौमुदी कौमुदीनाथ।
सुकृति-सरिता का सरस प्रवाह।
ख्याति महिला का है सर्वस्व।
पूत जीवन पावन अवगाह॥2॥

वह मुकुर है वह जिसमें सांग।
हुए प्रतिबिम्बित शुचितम भाव।
कुजन-अय को करता है स्वर्ण।
डाल पारस-सा प्रमित प्रभाव॥3॥

बता पतितों को अपतन-मन्त्रा।
लाभ की उसने कीत्तिक महान।
कुमति को पढ़ा सुमति का पाठ।
अगति को करके प्रगति-प्रदान॥4॥

वह जलद है वह जिसका वारि।
हो सका हितकर सुधा-समान।
बन सके मरु-से जीवन-हीन।
कृपा से किसकी जीवनवान॥5॥

बो सके अवनी में वे बीज।
उसी के कर नितान्त कमनीय।
उगे जिससे वे पादप-पुंज।
बने जो सुरतरु-से महनीय॥6॥

मिले बल उसका बढ़ा समाज।
लाभ कर लोक-रंजिनी ख्याति।
हो गये ह-भ बहु वंश।
फली-फूली उससे सब जाति॥7॥

मनुज-जीवन होता है धान्य।
सफल बनते हैं सा यत्न।
हो सका महिमावान न कौन।
पा गये चारु चरित-सा रत्न॥8॥

मधुकर

(9)

भूलता भ्रमरी को कैसे।
भाँव क्यों भरता फिरता।
सुविकसित सुमन-समूहों पर।
मत्त बन-बनकर क्यों गिरता॥1॥

किसलिए काँटों से छिदता।
किसलिए तन की सुधा खोता।
कमल में कैसे बँधा जाता।
जो न मधुरत मधुकर होता॥2॥

सन्देश

(10)

भले ही हो मेरा मुख बन्द।
सजल दृग क्यों न सके अवलोक।
हाँ परम कुंठित है मम कंठ।
क्या नहीं मुखरित मानस ओक॥1॥

किसी अन्तर्दर्शी को छोड़।
कौन अन्तर-तर सका विलोक।
तिमिरमय हो सारा संसार।
कौन है सकल लोक-आलोक॥2॥

परम नीरव हो अन्तर्नाद।
किन्तु हैं अन्तर्यामी आप।
मुझे है इतना भी न विवेक।
पुण्य क्या है प्रभु क्या है पाप॥3॥

महा अद्भुत है विश्व-विधन।
बुध्दि क्यों उसमें क प्रवेश।
क्या कहूँ और कहूँ किस भाँति।
मौन ही है मेरा सन्देश॥4॥

भेद

(11)

भेद तब कैसे बतलायें।
भेद जब जान नहीं पाते।
फूल क्यों महँक-महँककर यों।
दूसरों को हैं महँकाते॥।1॥

किसलिए खिल-खिल हँसते हैं॥
किसलिए वे मुसकाते हैं।
देख करके किसकी रंगत।
फूल फूले न समाते हैं॥2॥

कमनीय कामना

(12)

बहु गौरवित दिखाये जाये न गर्व से गिर।
सब काल हिम-अचल-सा ऊँचा उठा रहे शिर।
अविनय-कुहेलिका से हो अल्प भी न मैली।
सब ओर सित सिता-सी हो कान्त-कीत्तिक फैली॥1॥

विलसे बने मनोहर बहु दिव्यभूत कर से।
संस्कृति-सरोजिनी हो सरसाति स्वत्व सरसे।
भावे स्वकीयता हो परकीयता न प्यारी।
जातीयता-तुला पर ममता तुले हमारी॥2॥

न विलासिता लुभाये न विभूति देख भूले।
कृति-कंजिनी विलोके सद्भाव-भानु फूले।
उसको बुरी लगन की लगती रहें न लातें।
न विवेक-हंस भूले निज नीर-क्षीर बातें॥3॥

तन-सुख-सेवार में फँस गौरव रहे न खोती।
संसार-मानसर में मति क्यों चुगे न मोती।
लगते कलंक को वे क्यों लाग से न धोंये
कैसे कुलांगनाएँ कुल का ममत्व खोयें॥4॥

सारी कुभावनाएँ जायें सदैव पीसी।
कमनीय कामनाएँ हों कल्पवेलि की-सी।
सुविभूतिदायिनी हो बन सिध्दि-सहचरी-सी।
हो साधना पुनीता सब काल सुरसरी-सी॥5॥

मानस-मयंक जैसा हँस-हँस रहे सरसता।
सब पर रहे मनुजता सुन्दर सुधा बरसता।
करके विमुग्ध भव को निज दिव्य दृश्य द्वारा।
उज्ज्वल रहे सदा ही चित-चित्रापट हमारा॥6॥

(13)

बादल की बातें

क्यों भ रहते हैं इतने।
लाल-पीले क्यों होते हैं।
बाँधाकर झड़ी आँसुओं की।
किसलिए बादल रोते हैं॥1॥

रंग बिगड़ा जो औरों का।
घरों में तो वे क्यों पैठे।
ताकते मिले राह किसकी।
पहाड़ों पर पहरों बैठे॥2॥

किसलिए ऊपर-नीचे हो।
चोट पर चोटें सहते हैं।
चाट से क्यों गिरि-चोटी के।
चाटते तलवा रहते हैं॥3॥

तरस खाकर भी कितनों को।
वे बहुत ही तरसाते हैं।
कभी तर करते रहते हैं।
कभी मोती बरसाते हैं॥4॥

क्यों बहुत ऊपर उठते हैं।
किसलिए नीचे गिरते हैं।
किसलिए देख-देख उनको।
कलेजे कितने चिरते हैं॥5॥

कभी क्यों पिघल पसीजे रह।
प्यारे से वे जाते हैं भर।
कभी क्यों गरज-गरज बादल।
मारते रहते हैं पत्थर॥6॥

हवा को हवा बताते या।
हवा हित के दम भरते हैं।
भागते फिरते हैं घन या।
हवा से बातें करते हैं॥7॥

बरसता रहता है जल या।
आँख से आँसू छनता है।
कौन-से दुख से बादल का।
कलेजा छलनी बनता है॥8॥

दिखाकर अपना श्यामल तन।
कौन-से रस से भरते हैं।
घेरते-घिरते आकर घन।
किन दिलों में घर करते हैं॥9॥

जब मिले मिले पसीजे ही।
सके रस-बूँदों में भी ढल।
रंग अपना क्यों पानी खो।
बदलते रहते हैं बादल॥10॥

शारद-सुषमा

(14)

लसी क्यों नवल बधूटी-सी।
नीलिमा नीले नभ-तल की।
रँगीली उषा अंक में भर।
लालिमा क्यों छगुनी छलकी॥1॥

चन्द्र है मंद-मंद हँसता।
चाँदनी क्यों यों खिलती है।
बता दो आज दिग्वधू क्यों।
मंजु मुसुकाती मिलती है॥2॥

बेलियाँ क्यों अलबेली बन।
दिखाती हैं अलबेलापन।
पेड़ क्यों लिये डालियाँ हैं।
फूल क्यों बैठे हैं बन-ठन॥3॥

तितलियाँ नाच रही हैं क्यों।
गीत क्यों कीचक गाते हैं।
चहकती हैं क्यों यों चिड़ियाँ।
मधुप क्यों मत्त दिखाते हैं॥4॥

विमलसलिला सरिताएँ क्यों।
मधुर कल-कल ध्वनि करती हैं।
क्यों ललित लीलामय लहरें।
मंजु भावों से भरती हैं॥5॥

हिम-मुकुट हीरक-चय-मंडित।
नगनिकर ने क्यों पाया है।
धावलता मिस वसुधा-तल पर।
क्षीर-निधिक क्यों लहराया है॥6॥

सर कमल-कुल लोचन खोले।
किसे अवलोकन करते हैं।
कान्त कूलों पर सारस क्यों।
सरसता-सहित विचरते हैं॥7॥

पहनकर सजी सिता साड़ी।
तारकावलि मुक्तामाला।
आ रही है क्या विधु-वदना।
शरद-ऋतु-सी सुरपुर-बाला॥8॥

कुसुमाकर

(15)

बनाते क्यों हैं मन को मुग्ध।
गूँजते फिरते मत्त मिलिन्द।
कोंपलों से बन-बन बहु कान्त।
भ फल-फूलों से तरु-वृन्द॥1॥

अनारों-कचनारों के पेड़।
लाभ कर अनुरंजन का माल।
किस ललक का रखते हैं रंग।
लाल फूलों से होकर लाल॥2॥

कलाएँ कौन लाल की देख।
कर रही हैं लोकोत्तर काम।
कालिमा-अंक को बना कान्त।
पलाशों की लालिमा ललाम॥3॥

पा गये रंजित रुचिर पराग।
किसलिए हैं पुलकित जलजात।
मिले बहु विकसित कुसुम-समूह।
हुआ क्यों लसित लता का गात॥4॥

क्यों गुलाबी रंगत में डूब।
गुलाबों में झलका अनुराग।
खिले हैं क्यों गेंदे के फूल।
बाँधाकर सिर पर पीली पाग॥5॥

तितलियाँ क्यों करती हैं नृत्य।
पहनकर रंग-बिरंगे चीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
चल रहा है क्यों मलय-समीर॥6॥

दिशाओं को कर ध्वनित नितान्त।
सुनाता है क्यों पंचम तान।
बनाता है क्यों बहु उन्मत्ता।
कोकिलों का उन्मादक गान॥7॥

याद कर किसका अनुपम रूप।
गयी अपने तन की छवि भूल।
मुसकुराई क्यों किसपर रीझ।
रंगरलियाँ कर कलियाँ फूल॥8॥

हुआ क्यों वासर सरस अपार।
बनी क्यों रजनी बहु मधुमान।
मारता है शर क्यों रतिकान्त।
कान तक अपनी तान कमान॥9॥

आ गया कुसुमाकर ले साज।
प्रकृति का हुआ प्रचुर शृंगार।
धारा बन गयी परम कमनीय।
पहनकर नव कुसुमों का हार॥10॥

कमनीय कला

(16)

रंजिता राका-रजनी-सी।
बने उससे रंजनरत मति।
सरस बन जाए रस बरसे।
रसिक जन की रहस्यमय रति॥1॥

तामसी मानस का तम हर।
जगाये ज्योति अलौकिकतम।
चुराती रहे चित्त चसके।
चमककर चारु चाँदनी-सम॥2॥

सुधा बरसा-बरसा बहुधा।
क वसुधा का बहुत भला।
कलानिधि कान्त कला-सी बन।
कामिनी की कमनीय कला॥3॥

अमरपद

(17)

कवित्ता

कोई काल कैसे नाम उनका कगा लोप।
जिनको प्रसिध्द कर पाती है परम्परा।
जिनकी रसाल रचनाओं से सरस बन
रहता सदैव याद पादप हरा-भरा।
'हरिऔध' होते हैं अमर कविता से कवि।
कमनीय कीत्तिक है अमरता सहोदरा
सुधा हैं बहाते कवि-कुल वसुधातल में।
सुधा कवि-कुल को पिलाती है वसुंधरा॥1॥

चिरजीवी कैसे वे रसिक जन होंगे नहीं
नाना रस ले-ले जो रसायन बनाते हैं।
लोग क्यों सकेंगे भूल उन्हें जो लगन साथ
कीत्तिक-वेलि उर-आलबाल में लगाते हैं।
'हरिऔध' कैसे वे न जीवित रहेंगे सदा
जग में सजीव कविता जो छोड़ जाते हैं।
कैसे वे मरेंगे जो अमर रचनाएँ कर
मर मेदिनी ही में अमरपद पाते हैं॥2॥

जले तन

(18)

बावले बन जाते थे हम।
देख पाते जब नहीं बदन।
याद हैं वे दिन भी हमको।
वारते थे जब हम तन-मन॥1॥

कलेजे छिले पड़े छाले।
हो रही है बेतरह जलन।
आग है सुलग रही जी में।
कहायें क्यों न अब जले तन॥2॥

(19) फूले-फले

बुरों से बुरा नहीं माना।
भले बन उनके किए भला।
हमारी छाया में रहकर।
चाल चलकर भी लोग पले॥1॥

पास आ क्यों कोई हो खड़ा।
हो गये हैं जब हम खोखले।
कहाँ थी पूछ हमारी नहीं।
कभी थे हम भी फूले-फले॥2॥

(20) कलियाँ

बीच में ही जाती हैं लुट।
क्या उन्हें कोई समझाये।
कलेजा मुँह को आता है।
किसलिए सितम गये ढाये॥1॥

बुरी है दुनिया की रंगत।
किसलिए कोई घबराए।
क्या कहे बातें कलियों की।
फूल तो खिलने भी पाए॥2॥

(21) फूल

रंग कब बिगड़ सका उनका।
रंग लाते दिखलाते हैं।
मस्त हैं सदा बने रहते।
उन्हें मुस्काते पाते हैं॥1॥
भले ही जियें एक ही दिन।
पर कहाँ वे घबराते हैं।
फूल हँसते ही रहते हैं।
खिला सब उनको पाते हैं॥2॥

(22) विवशता

मल रहा है दिल मला क।
कुछ न होगा आँसू आये।
सब दिनों कौन रहा जीता।
सभी तो मरते दिखलाये॥1॥
हो रहेगा जो होना है।
टलेगी घड़ी न घबराये।
छूट जायेंगे बन्धान से।
मौत आती है तो आये॥2॥

(23) प्यासी आँखें

कहें क्या बातें आँखों की।
चाल चलती हैं मनमानी।
सदा पानी में डूबी रह।
नहीं रख सकती हैं पानी॥1॥

लगन है रोग या जलन है।
किसी को कब यह बतलाया।
जल भरा रहता है उनमें।
पर उन्हें प्यारेसी ही पाया॥2॥

(24) आँसू और आँखें

दिल मसलता ही रहता है।
सदा बेचैनी रहती है।
लाग में आ-आकर चाहत।
न जाने क्या-क्या कहती है॥1॥

कह सके यह कोई कैसे।
आग जी की बुझ जाती है।
कौन-सा रस पाती है जो।
आँख आँसू बरसाती है॥2॥

(25) आँख का जलना

ललाई लपट हो गयी है।
चमक बन पाई चिनगारी।
आँच-सी है लगने लग गयी।
की गयी जो चोटें कारी॥1॥

फूलना-फलना औरों का।
चाहिए क्या इतना खलना।
बिना ही आग जल रही है।
आँख का देखो तो जलना॥2॥

(26) आँख फूटना

और का देखकर भला होते।
है भलाई उमंग में आती।
है सुजनता बहुत सुखी होती।
रीझ है रंगते दिखा जाती॥1॥

जो न अनदेखपन बुरा होता।
किसलिए डाह कूटती छाती।
तो किसी नीच की बिना फूटे।
किसलिए आँख फूटने पाती॥2॥

(27) आँख की चाल

लाल होती हैं लड़ती हैं।
चाल भी टेढ़ी चलती हैं।
बदलते भी उनको देखा।
बला लाती हैं, जलती हैं॥1॥

बिगड़ती-बनती रहती हैं।
उन्होंने खिंचवाई खालें।
भली हैं कभी नहीं आँखें।
देख ली हैं उनकी चालें॥2॥

(28) आँख और अमृत

करें जो हँस-हँसकर बातें।
बिना ही कुछ बोले-चाले।
पिलायें प्यारे दिखाकर जो।
छलकते प्रिय छवि के प्यारेले॥1॥

बनी आँखें ही हैं ऐसी।
उरों में जो अमृत ढालें।
सदा जो ज्योति जगा करके।
ऍंधो में दीपक बालें॥2॥

(29) आँख और ऍंधोर

दिवाकर की भी हुई कृपा न।
भले ही वे हों किरण-कुबेर।
उसे दिन भी कर सका न दूर।
सामने जो था तम का ढेर॥1॥

ज्योति भी भागी तजकर संग।
दृगों पर हुआ देख ऍंधोर।
कौन किसका देता है साथ।
दिनों का जब होता है फेर॥2॥

(30) नुकीली आँख

प्यारे के रंगों में रँगकर।
अगर बन गयी रँगीली हो।
क्या हुआ तो जो हो चंचल।
फबीली हो, फुरतीली हो॥1॥

चाहते हैं रस हो उसमें।
आँसुओं से वह गीली हो।
अगर है नोक-झोंक तो क्या।
भले ही आँख नुकीली हो॥2॥

(31) नयहीन नयन

दिखाकर लोचन अपना लोच।
नहीं करते किसको आधीन।
किन्तु ऐसा है कौन कठोर।
कौन दृग-सा है दयाविहीन॥1॥

चुराता है चित को चुपचाप।
लिया करता है मन को छीन।
कलेजे में करता है छेद।
नयन कितना है नय से हीन॥2॥

(32) ज्योतिविहीन दृग

उस दिवाकर को जिसका तेज।
दिया करता है परम प्रकाश।
उस दिवस को जो ले दिव-दीप्ति।
किया करता है तम का नाश॥1॥

उस कुमुद को जो है बहु कान्त।
कौमुदी जिसकी है द्युति पीन।
उन ग्रहों को जो हैं अति दिव्य।
क क्या ले दृग ज्योति-विहीन॥2॥

(33) अंधी आँखें

कलेजों को देती है बेधा।
चलाकर तीखे-तीखे तीर।
छातियों को देती है छील।
किसलिए बन-बनकर बेपीर॥1॥

सितम करती है अंधाधुंधा।
तनिक भी नहीं लगाती देर।
किसलिए अंधी बनकर आँख।
मचाती है इतना अंधोर॥2॥

(34) आनन्द

कंज का है दिनमणि से प्यारे।
चन्द्रमा है चकोर-चितचोर।
नवल घन श्यामल कान्ति विलोक।
नृत्य करने लगता है मोर॥1॥

पपीहा है स्वाती-अनुरक्त।
भ्रमर को है जलजात पसन्द।
वही करता है उससे प्रीति।
मिला जिसको जिससे आनन्द॥2॥

(35) बड़ी-बड़ी आँखें

छोड़ सीधी सधी भली राहें।
जब बुरी राह में अड़ी आँखें।
बेकसों और बेगुनाहों पर।
बेतरह जब कड़ी पड़ी आँखें॥1॥

जब न सीधी रहीं बनी टेढ़ी।
लाड़ को छोड़कर लड़ी आँखें।
रह गयी कौन-सी बड़ाई तब।
क्यों न सोचे बड़ी-बड़ी आँखें॥2॥

(36) आँख की कला

बहुत रस बरसाया है तो।
बनाया है मतवाला भी।
तनों में जीवन डाला है।
तो पिलाया विष-प्यारेला भी॥1॥

रखी जो मुँह की लाली तो।
बनाया है मुँह काला भी।
सुधारस जो है आँखों में।
तो हलाहल है, हाला भी॥2॥

(37) बला की पुतली

रीझ को आँख अगर होती।
प्रेम होता न अगर अंधा।
लगन जो लाग में न आती।
समझ सकती अपना धंधा॥1॥

काम ले कई कलाओं से।
किसलिए तो कोई छलता।
बला की पुतली आँखों पर।
भला कैसे जादू चलता॥2॥

(38) आँखों की मचल

कभी है पलक नहीं उठती।
कभी तिरछे चलती हैं वे।
बाँकपन कभी दिखाती हैं।
कभी लड़-भिड़ खलती हैं वे॥1॥

रंगतें बदला करती हैं।
छवि दिखाकर हैं छलती वे।
मचलनेवाली आँखें हैं।
किसलिए नहीं मचलतीं वे॥2॥

(39) आँख की लालिमा

पूत सम्बन्धा दिव्य मन्दिर में।
लाग की आग आ लगाये क्यों।
प्रेम की अति ललाम लाली को।
क्रोधा की लालिमा जलाये क्यों॥1॥

रंग अनुराग का अगर बिगड़ा।
अंधता ही अगर लुभाती है।
था भला आँख फूट जाती जो।
लालिमा कालिमा कहाती है॥2॥

(40) आँख दिखलाना

बेतुकी बात बेतुके मुँह की।
है किसी से नहीं सुनी जाती।
क्यों न जी जायगा बिगड़ कोई।
जो छिनी जाय जन्म की थाती॥1॥

जाति की दृष्टि घिन-भरी ओछी।
जाति से है सही नहीं जाती।
आँख जो देखना पड़ा है तो।
क्यों नहीं आँख आँख दिखलाती॥2॥

(41) लाल-लाल आँखें

भाव ही भाव का विधायक है।
किसलिए हम कहीं दलक देखें।
चित्रा क्यों आँकते रहे अरुचिर।
क्यों नहीं मंजु छवि छलक देखें॥1॥

क्यों विलोकें विरोधिकनी बातें।
क्यों न मनमोहिनी झलक देखें।
क्यों नहीं लाल-लाल आँखों में।
हम किसी लाल की ललक देखें॥2॥

(42) आँसू-भरी आँखें

हैं दिलों को नरम बना देती।
मैल मन का कभी मिलीं धोती।
हैं किसी चित्त में जगह करती।
हैं उरों में भरी कसर खोती॥1॥

आग जी की कहीं बुझाती हैं।
हैं कहीं बीज प्यारे का बोती।
आँसुओं से भरी हुई आँखें।
हैं कहीं पर बखेरती मोती॥2॥

(43) प्यारे और आँख

जो किसी से नहीं भ हैं हम।
क्यों न हित का उभार तो होगा।
चल रहा ठीक-ठीक बेड़ा है।
किसलिए वह न पार तो होगा॥1॥

है कसर जो भरी नहीं जी में।
क्यों न संसार यार तो होगा।
प्यारे से हैं अगर भरी आँखें।
क्यों न दिल में दुलार तो होगा॥2॥

(44) आँखों के डो

रंग रखना पड़ा इसी से ही।
हैं किसी रंग से न को ये।
है लसी लाल लालिमा जिसमें।
हैं उसी रंग-बीच बो ये॥1॥

लोक-अनुराग के रुचिर सर के।
हैं बड़े ही ललित हिलो ये।
हैं लकीरें ललामता-कर की।
आँख के लाल-लाल डो ये॥2॥

(45)

कान्त छवि के विकास अनुपम हैं।
या किसी राग के बसे हैं।
लालसा के सरस नमूने हैं।
या लगन के ललाम घे हैं॥1॥

या रुचिर रस सुचारु कर विचरित।
भाव के कान्ततम फ हैं।
आँख के रंग में रँगे डो।
कौन-से चित्रा के चिते हैं॥2॥

(46) आँख की सितता

है हँसी-सी विकासवाली वह।
है मुकुर-सी मनोज्ञ आभामय।
है दिखा दिव्यता दमक जाती।
है ललिततम ललामता-आलय॥1॥

है सहज भाव के सहित उसमें।
सात्तिवकी वृत्तिक की अपरिमितता।
है सिता-सी मनोहरा सरसा।
है सुधा-सिक्त आँख की सितता॥2॥

(47) काली पुतली

कालिमामयी कहें उसको।
बतायें उसे गरलवाली।
न सुन्दरता होवे उसमें।
ऐंठ लेवे कोई लाली॥1॥

किन्तु उससे ही मिलती है।
लोक-आँखों की उँजियाली।
जगत में ऍंधिकयाला होता।
न होती जो पुतली काली॥2॥

(48) रँगी आँखें

जगमगाती न किसलिए मिलतीं।
ज्योति के जाल से जगी आँखें।
देखने को ललामता भव की।
क्यों ललककर न हों लगी आँखें॥1॥

भूलतीं क्यों भलाइयाँ विभु की।
प्रेम के पाग में पगी आँखें।
क्यों नहीं श्यामता-रता होतीं।
श्याम के रंग में रँगी आँखें॥2॥

(49) आँख की लालिमा

उषा-सी लोक-रंजिनी बन।
साथ लाती है उँजियाली।
अलौकिक कान्ति-कला दिखला।
दूर करती है अंधियारा ।

बना करती है बन-ठन के।
छलकती छविवाली प्यारेली।
लालिमा विलसित आँखों की।
मुँहों की रखती है लाली॥2॥

(50) लसती लालिमा

सुखों को सुखित बनाती है।
ललकते उर में है बसती।
सदा अनुराग-रंग दिखला।
प्यारेवालों को है कसती॥1॥

कभी खिलती मिल जाती है।
कभी दिखलाती है हँसती।
कालिमा को कलपाती है।
लालिमा आँखों में लसती॥2॥

(51) आँख का पानी

मुँह दिखाते बने न औरों को।
और मुँह की सदा पड़े खानी।
पत उतर जाय, हो हँसी, ऐसी
हो किसी से कभी न नादानी॥1॥
बेबसी, बेकसी, खुले खुल ले।
बेहयाई न जाय पहचानी।
बह सके तो घड़ों बहे आँसू।
पर न गिर जाय आँख का पानी॥2॥

(52) लजीली आँख

हो सकी जब कि लाल-पीली तू।
तब कहें क्योंकि तू रसीली है।
जब कटीली कहा गया तुझको।
तब कहें क्यों कि तू छबीली है॥1॥
फबतियाँ लोग जब लगे लेने।
तब कहें क्योंकि तू फबीली है।
जब नहीं लाज रख सकी अपनी।
तब कहाँ आँख तू लजीली है॥2॥

(53) अपने दुखड़े

हम बलाएँ लिया करें उनकी।
और हम पर बलाएँ वे लाएँ।
है यही ठीक तो कहें किससे।
क्या करें चैन किस तरह पाएँ॥1॥

किस तरह रंग में रँगे उनको।
आह को कौन ढंग सिखलाएँ।
जो पसीजे न आँसुओं से वे।
क्यों कलेजा निकाल दिखलाएँ॥2॥

(54) आँसू

साँसतें करके औरों की।
साँसतें सहते हैं आँसू।
अगर कुछ असर नहीं रखते।
किसलिए बहते हैं आँसू॥1॥

क्यों नहीं उसके सब दुखड़े।
किसी से कहते हैं आँसू।
कलेजा मलने ही से तो।
निकलते रहते हैं आँसू॥2॥

(55) आँसू की बूँद

नरम करती है जो मन को।
तो भलाई कर पाती है।
पर गरम बन करके वह क्यों।
किसी का भरम गँवाती है॥1॥

ठीक करती रहती है जो।
कहीं की आग बुझाती है।
बूँद आँसू की पानी हो।
कहीं क्यों आग लगाती है॥2॥

(56) टपकते आँसू

रंग में औरों के दुख के।
कब नहीं रँगते हैं आँसू।
भला औरों का करने को।
सदैव उमगते हैं आँसू॥1॥

पास रहकर आहें सुन-सुन।
प्रेम में पगते हैं आँसू।
बढ़ गये टपक फफोलों की।
टपकने लगते हैं आँसू॥2॥

(57) आँसू

दूसरों का दुख औरों से।
कौन कातर बन कह पाया।
पास सा पीड़ित जन के।
तरस खा-खाकर रह पाया॥1॥

समय की सभी साँसतों को।
कौन साहस कर सह पाया
जगत-दुख की धाराओं में।
कौन आँसू-सा बह पाया॥2॥

(58) आँख का रोना

सामने दुख-रवि को देखे।
कब नहीं बन पाई कोई।
देख करके आहें भरते।
सभी नींदें किसने खोईं॥1॥
न जाने कितनी रातों में।
वे नहीं सुख से हैं सोई।
कौन रोया इतना, जितनी।
आजतक आँखें हैं रोई॥2॥

(59) आँख का जल

पास अपने कोई पापी।
नहीं पाता पावन सोता।
बड़े ही बु-बु धाब्बे।
अधाम प्राणी कैसे धोता॥1॥

कालिमामय कोई कैसे।
कालिमाएँ अपनी खोता।
जलन जी की कैसे जाती।
जो न आँखों का जल होता॥2॥

(60) आँसू का बरसना

जी तड़पता है तो तड़पे।
पता क्यों पाते हैं आँसू।
नहीं रुकते हैं रोके से।
चले दिखलाते हैं आँसू॥1॥

आज क्यों मेरी आँखों में।
उमड़ते आते हैं आँसू।
लगाकर होड़ बादलों से।
क्यों बरस जाते हैं आँसू॥2॥

(61) आँसू और धूल

बूँद बन गये मोतियों-से।
दृगों में हिलते हैं आँसू।
किसी को रस देने के लिए।
आम-से छिलते हैं आँसू॥1॥

प्यारेवाली बहु आँखों में।
बहुत ही खिलते हैं आँसू।
एक दिन ऐसा आता है।
धूल में मिलते हैं आँसू॥2॥

(62) आँख भर आना

सदय निर्दय को करता है।
लोचनों में लाया आँसू।
कठिन को मृदुल बनाता है।
जन-नयन में छाया आँसू॥1॥

द्रवित कर देता है चित को।
दृगों में दिखलाया आँसू।
उरों में भरता है करुणा।
आँख में भर आया आँसू॥2॥

(63) आँसू का तार

रात बीते दिन आता है।
धूप में मिलती है छाया।
तब कहाँ रह जायेगा दुख।
जहाँ मुख सुख ने दिखलाया॥1॥

चाहिए धीरज भी रखना।
बहुत ही जी क्यों घबराया।
पता पा जायेंगे दिल का।
तार आँसू का लग पाया॥2॥

(64) आँसू का चलना

विरह की क्यों कटतीं रातें।
बीतते दुख के दिन कैसे।
जलन किस तरह दूर होती।
क्यों भला मिलते सुख वैसे॥1॥

ह बनकर क्यों हो पाते।
कलेजे जैसे-के-तैसे।
न चलते जो वैसे आँसू।
मिले सोते बहते जैसे॥2॥

(65) आँख की पट्टी

यह कभी समझ नहीं पाते।
वस्तु मीठी है या खट्टी।
पर कमर कस सब लोगों को।
पढ़ाते रहते हैं पट्टी॥1॥

बड़ाई अब इसमें ही है।
बनेंगे धाखे की टट्टी।
भला कैसे खुल पाएँगी।
बँधी है आँखों पर पट्टी॥2॥

(66) आँख में उँगली

बगल में बैठ-बैठ करके।
लगाते रहते हैं बगली।
पर बताते ही रहते हैं।
और की दौलत को कँगली॥1॥

समझ करतूतों को देखे।
बनी ही रहती है पगली।
पर चलेंगे उलटी चालें।
करेंगे आँखों में उँगली॥2॥

(67) जी की गाँठ

ऐंठ दिखलाकर ऐंठेंगे।
सुनेंगे बात नहीं धी की।
बहुत ही गहरी हो रंगत।
पर कहेंगे उसको फीकी॥1॥

पेट जलता ही रहता हो।
पूरियाँ खायेंगे घी की।
करेंगे गँठजोड़ा तो भी।
खुलेगी गाँठ नहीं जी की॥2॥

(68) काल और समय

आँख में जगह मिली जिसको।
कलेजे में जो पल पाया।
अंक में कल कपोल ने ले।
जिसे मोती-सा चमकाया॥1॥

समय की बात निराली है।
काल कब किसका कहलाया।
वही आँसू भूतल पर गिर।
धूल में मिलता दिखलाया॥2॥

(69) आँसू और दिल

आँसुओ, यह बतला दो, क्यों।
कभी झरनों-सा झरते हो।
कभी हो झड़ी लगा देते।
कभी बेतरह बिखरते हो॥1॥

गिर गये जब आँखों से तब।
किसलिए उनको भरते हो।
निकल आये दिल से, तब क्यों।
फिर जगह दिल में करते हो॥2॥

(70) कोई दिल

आग को तब बुझते देखा।
जब बुझाये उसको पानी।
भागना जलते को तजकर।
बताई गयी बेइमानी॥1॥

तुम्हें आता देखे आँसू।
दुखी हो आँख बहुत रोई।
निकल जल रहे कलेजे से।
खोजते हो क्या दिल कोई॥2॥

(71) पानी खोना

कभी है चित्त सुखित होता।
दुखों से सुख का मुख धाोकर।
चमकने लगता है सोना।
आँच खाकर निर्मल होकर॥1॥

कलेजा होता है ठंढा।
बहाकर आँसू रो-रोकर।
आग जी की बुझ जाती है।
बड़ा प्यारा पानी खोकर॥2॥

(72) आँख और कालिमा

कीत्तिक कर वर वितान भव में।
कान्त सितता से तनती हैं।
दिखा स्वाभाविक सुन्दरता।
सरस भावों में सनती हैं॥1॥

लालिमा की ललिताभा से।
रुचिर-रुचियों को जनती हैं।
कालिमा से कलंकिता हो।
कलमुँही आँखें बनती हैं॥2॥

(73) आँसू छनना

कपोलों पर गिर पड़ते हैं।
कभी काजल से सनते हैं।
बाल के फंदों में फँसकर।
बेड़ियाँ कभी पहनते हैं॥1॥

बरौनी से छिद जाते हैं।
कभी बेबस-से बनते हैं।
कौन-सी छान-बीन में पड़।
आँख से आँसू छनते हैं॥2॥

(74) दिल और आँसू

पसीजे उन्हें देख वे भी।
सितम जो करते रहते हैं।
बहे उनके वे भी पिघले।
संगदिल जिनको कहते हैं॥1॥

जले तन को जल बनते हैं।
कलेजा तर कर देते हैं।
आँख में भर-भरकर आँसू।
दिलों में घर कर लेते हैं॥2॥

(75) तिल और आँसू

सामना दुख-लहरों का कर।
सुखों की नावें खेते हैं।
लगे रहते हैं त्यों हित में।
विहग ज्यों अण्डे सेतें हैं॥1॥

दूर कर बला दूसरों की।
बलाएँ सिर पर लेते हैं।
आँख के तिल से मिल आँसू।
मोम सिल को कर देते हैं॥2॥

(76) निकलें आँसू

मकर के हाथ मोह में पड़।
भूल करके बिक लें आँसू।
हँसी के फंदों में फँसकर।
वहाँ कुछ क्षण टिक लें आँसू॥1॥

कहाँ किसने उनको छेंका।
कुछ घड़ी तक छिंक ले आँसू।
छुड़ाना है दुख से दिल को।
क्यों न दृग से निकलें आँसू॥2॥

(77) बूँदों में

बहुत-से खेल मिले महि के।
खेलाड़ी की कुछ कूदों में।
भरा है भव का मीठापन।
फलों के मधुमय गूदों में॥1॥

असुख ऊँचे पहाड़ देखे।
छिपे कुछ छोटे तूदों में।
रहा है दुख-सागर लहरा।
आँसुओं की कुछ बूँदों में॥2॥

(78) दिव्य दृष्टि

किसी में हास मिला हँसता।
किसी में दुख-दल दिखलाया।
किसी में विरह बिलखता था।
किसी में पीड़ा को पाया॥1॥

किसी में खिंची हुई देखी।
कलह की बड़ी कुटिल खा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
दृष्टि को दिव्य बना देखा॥2॥

(79) खुली आँखें

किसी में मकर मिला फिरता।
किसी में भूख भरी पाई।
किसी में चोट तड़पती थी।
किसी में साँसत दिखलाई॥1॥

किसी में लगन की लहर थी।
किसी में था लानत-लेखा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
खोलकर आँखों को देखा॥2॥

(80) आँसू आना

पतित तो पैसे वाले हैं।
पेट पचके जो पाते हैं।
तब कहाँ भलमनसाहत है।
जो नहीं भूखे भाते हैं॥1॥

लोग तो पड़े भूल में हैं।
भले कैसे कहलाते हैं।
देख दुखिया-दुख आँखों में।
जो नहीं आँसू आते हैं॥2॥

(81) आँसू गिरना

किसलिए कढ़ें कलेजे से।
बला से क्यों न घिरें आँसू।
कभी दुख-जल-लहरों में आ।
न तो उभरें न तिरें आँसू॥1॥

किसी की आँखों में आकर।
फिरायें क्यों न फिरें आँसू।
देश की गिरी दशा देखे।
गिराये जो न गिरें आँसू॥2॥

(82) आँसुओं का सागर

अंक में रुचि के भरता है।
मोद मुक्ता-छवि से छहरा।
दिव्यतम भव को करता है।
कीत्तिक का कान्त केतु फहरा॥1॥

भाव पर सरस तरंगों से।
रंग दे देता है गहरा।
प्रेम-परिपूरित आँखों में।
आँसुओं का सागर लहरा॥2॥

(83) शार्दूल-विक्रीडित

थोड़ा ज्ञान हुए, महान बनना, सीधो नहीं बोलना।
मान्यों का करना न मान, सुनना बातें न धीमान की।
बोना बीज प्रपंच का सदन में, बातें बनाना वृथा।
लेना काम न बुध्दि से खल मिले, है बुध्दिमत्तक नहीं॥1॥

देखे दुर्गति देश की, विवशता उत्पीड़िता जाति की।
देखे क्रन्दन क्षुधादग्धा जन का, संताप संत्रास्त का।
देखे धवंस प्रशंसनीय कुल का, निर्वंश सद्वंश का।
जाते हैं जल क्यों नहीं, सजल हो पाते नहीं नेत्र जो॥2॥

तो है व्यर्थ अपूर्व वाक्य-रचना ओजस्विनी वक्तृता।
तो है व्यर्थ गभीर गर्जन, बुरी है दीर्घ आयोजना।
तो है व्यर्थ समस्त व्यंग्य, गहरी आलोचना लोक की।
सेवा हो सकती अनन्य मन से जो मातृ-भू की नहीं॥3॥

है लक्षाधिकप की कमी न, फिर भी कंगाल हैं कोटिश:।
होते हैं व्यय व्यर्थ; किन्तु बहुश: हैं पीच पाते नहीं।
होती है बहु दुर्दशा, पर खड़े होते नहीं रोंगटे।
देती है व्यथिता बना न मति को क्यों भारती-भू-व्यथा॥4॥

भीता है वह सत्प्रवृत्तिक जिससे भू को मिली भव्यता।
त्यक्ता है वह शान्ति जो जगत है क्रान्ति-विधवंसिनी।
देखे दुर्गति नीति की मनुजता अत्यन्त है चिन्तिता।
यों हो मर्दित भारतीय सुत से क्यों भारती-भूतियाँ॥5॥

होवे पावनतारता सुचरिता सद्वृत्तिक से पूरिता।
कान्ता कीत्तिक-कलाप से विलसिता लोकोपकारांकिता।
पा सत्यामृत का प्रवाह सरसा होती रहे सर्वदा।
सद्भावाचल-शृंग से निपतिता हो भारती-भू नहीं॥6॥

पाके श्री सुत सर्वदा सुखित हो होवें यशस्वी सुधी।
ऐसी उत्ताम नीति हो, बन सके जो प्रीति-संवर्ध्दिनी।
होवे मानवता-प्रवृत्तिक प्रबला हो लालसा उज्ज्वला।
होवे भारत-भू भला, उतरती दीखे सदा आरती॥7॥

वेदों से भववंद्य ग्रंथ किसकी सद्वृध्दि के स्वत्व हैं।
पैदा हैं किसने किये सुअन वे जो सत्यसर्वस्व हैं।
ऊँचा है कहता हिमाद्रि किसको सर्वोच्चता को दिखा।
पाके भारत-सा सपूत भव में है भाग्यमाना मही॥8॥

हो पाये-अवतार भार हरने की दृष्टि से जी जहाँ।
भाराक्रान्त जिसे विलोक विधिक भी होते महाभीत थे।
तो होगा बहुदग्धा क्यों न उर, क्यों होगी न पीड़ा बड़ी।
जो भारत के भारभूत नर से हो भारभूता धारा॥9॥

क्यों होगा उसका उभार उसमें होगी न क्यों भीरुता।
होते भी सुविभूतियाँ न वह क्यों होगी व्यथा से भरी।
दैवी भूति-निकेत दिव्यसुर-से प्राणी कहाँ हैं हुए।
भीता भारत-जात भार-भय से क्यों भारती-भूमि हो॥10॥

है औदार्यमयी समस्त भव के सद्भाव से है भरी।
होती है मुदिता विलोक जगती लीलावती मूर्तियाँ।
सारी मोहक मंजु सृष्टि-ममता है मोह लेती उसे।
संसिक्ता रस से महानहृदया है विश्व की बंधुता॥11॥

तो हत्या करतीं कभी न इतनी पापीयसी वृत्तिकयाँ।
हो पाई जितनी जिन्हें सुन किसे होती नहीं है व्यथा।
तो धार्मान्धा नहीं कृतान्त बनते कृत्या कहाती न धीरे।
प्राणी निष्ठुर चित्तमध्य बसती जो विश्व की बन्धुता॥12॥

वे दानव हैं जो अधर्म करते हैं धर्म की ओट में।
वे हैं पामर ढूँढ़ते गरल हैं जो पुण्य-पाथोधिक में।
वे सद्ग्रंथ कदापि हैं न जिनमें है ईदृशी पंक्तियाँ।
जो है धर्म-विहीन, विश्व-ममता के मर्म से वंचिता॥13॥

देते हैं प्रिय ज्योति मंद हँसके हैं मोह लेते उसे।
हैं ता-सम नेत्र के, वसुमती के 'इन्दु' आनन्द हैं।
वे आके रस जो नहीं बरसते, होती रसा क्यों रसा।
तो होती वसुधा न सिक्त, कर में होती सुधा जो नहीं॥14॥

तो होता तम-भरा सर्व महि में होती न दृश्यावली।
तो होती मलिना दिशा न मिलती छाई कहीं भी छटा।
हो जाती मरु-मेदिनी, नयनता पाती महाअंधता।
देते जो न दिनेश दिव्य बनके भू-भूमि को दिव्यता॥15॥

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