मख़दूम मोहिउद्दीन
अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मोहीउद्दीन हुज़री (अंग्रेज़ी: Abu Sayeed Mohammad Makhdoom Mohiuddin Huzri, जन्म- 4 फ़रवरी, 1908; मृत्यु- 25 अगस्त, 1969) प्रसिद्ध क्रांतिकारी भारतीय शायर थे। उन्होंने हैदराबाद में प्रोग्रेसिव राइटर्स यूनियन की स्थापना की थी। वह कॉमरेड एसोसिएशन और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सक्रिय सदस्य थे। मख़दूम मोहीउद्दीन सन 1946-1947 के पूर्व में हैदराबाद राज्य के निजाम के खिलाफ तेलंगाना विद्रोह के अग्रभाग में सम्मिलित थे। सन 1940 के आस-पास वह अपनी रोमानी इंक़लाबी शायरी को लेकर जब शायरी में दाखिल हुए तो मशहूर होते देर न लगी।
परिचय
1936 का साल अदब के लिए ऐसा साल रहा है जिसने उर्दू अदब की दिशा और दशा को नया मोड़ दिया। इसी साल अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन की बुनियाद लखनऊ में पड़ी। पहले कॉन्फ्रेंस की सदारत मुंशी प्रेमचंद ने की। 1936 के बाद समाजी और सियासी फ़िक्र के लिहाज से जो बुसअत और गहराई उर्दू शायरी में देखी गई पहले कभी नहीं देखी गई थी। ये एक तहरीक थी जो मुसलसल आज तक जारी है, जिसने उर्दू शायरी को एक से बढ़कर एक अदीब दिए। क्या आपने “बाज़ार” फिल्म देखी है? अच्छी फिल्म है। जिन्होंने देखा होगा वो ये गाना तो जरूर सुनें होंगे- फिर छिड़ी रात बात फूलों की, या 'गमन' फिल्म का ये गाना आपकी याद आती रही रात भर/चश्में नम मुस्कराती रही रात भर या फिर ‘चा चा चा’ फिल्म का ये गाना एक चमेली के मंडवे तले।[1]
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इन ग़ज़लों के शायर का नाम मख़दूम मोहिउद्दीन है। 1936 में जिस दरख़्त को मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर ने लगाया था वो दरख़्त 1942 के आस-पास छतनार शक्ल अख्तियार कर लेता है। इसी छतनार दरख़्त की एक शाख का नाम है मख़दूम। 1940 के आस-पास मख़दूम अपनी रोमानी इंक़लाबी शायरी को लेकर जब शायरी में दाखिल हुए तो मशहूर होते देर न लगी। अपने शे’री मजमुआ ‘आहंग’ के पेशलफ्ज़ में मजाज़ ने मख़दूम मोहीउद्दीन के बारे में लिखा है- ‘फैज़ और जज़्बी मेरे दिल-ओ-जिगर हैं और सरदार (जाफ़री) और मख़दूम मेरे दस्तो-बाज़ू’।
जन्म
सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने वाला एक अध्यापक 1946 में हैदराबाद निज़ाम के खिलाफ किसानों की अगुवाई करने लगा। ये अध्यापक मख़दूम थे। हैदराबाद रियासत के मेडक जिले के अन्दोल गांव में 4 फरवरी, 1908 को गौस मोहिउद्दीन के घर अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मोहिउद्दीन हुज़री की पैदाईश हुई। 5 साल की कम उम्र में ही पिता के गुज़र जाने की वजह से इनकी परवरिश इनके चाचा वशिरुद्दीन ने की। अपने चाचा से ही इन्होंने रूसी इंक़लाब के बारे में जाना। मख़दूम मोहीउद्दीन ने उस्मानिया यूनिवर्सिटी से 1934 में बी.ए. और 1936 में एम.ए. किया और 1939 में सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने के लिए बहैसियत लैक्चरर नियुक्त हुए।
जेलयात्रा
इससे पहले जब 1930 में कॉमरेड एसोसिएशन की बुनियाद पड़ी तो मख़दूम मोहीउद्दीन इससे बावस्ता हुए। सिब्ते हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी, डॉ। जय सूर्या नायडू, एम। नरसिंह राव के साथ मख़दूम ने प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन की बुनियाद हैदराबाद में डाली। इनकी बैठकें अक्सर सरोजनी नायडू के घर हुआ करती थीं। कॉमरेड एसोसिएशन के जरिए ही मख़दूम कम्युनिस्टों के सम्पर्क में आए और साल 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य बने। 1943 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और मजदूरों, किसानों के हक़ लड़ाई में शामिल हो गए। 1941 में पहली बार वो जेल गए और 1946 में राज बहादुर गौड़ और रवि नारायण रेड्डी के साथ आर्म स्ट्रगल में शरीक होकर अंडरग्राउंड हो गए। वो गिरफ्तार होते रहे। जेल जाते रहे। आज़ाद हिंदुस्तान में भी वो गिरफ्तार हुए। 1951 में वो आख़िरी बार जेल गए और 1952 में बाहर आए।[1]
राजनीति
जेल से आने के बाद 1952 में मख़दूम मोहिउद्दीन ने हुज़ूरनगर से चुनाव लड़ा और हारे। फिर इसी सीट से उपचुनाव जीते। 1953 में वो एटक (ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) के सदर चुने गए। 1956 में आंध्र प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हुए और विपक्ष के नेता चुने गए।
शायरी की दुनिया में आगामन
मख़दूम मोहीउद्दीन शायरी की दुनिया में तब आये जब देश में साम्राज्यवाद विरोधी लहर चल रही थी। जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो मख़दूम की नज़्म ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’ उस वक्त आज़ादी का तराना बन गया था। ‘रौशनाई’ में सज्जाद ज़हीर ने इस नज़्म के बारे में लिखा है कि यह तराना, हर उस गिरोह और मजमें में आज़ादी चाहने वाले संगठित आवाम के बढ़ते हुए कदमों की आहट उनके दिलों की पुरजोश धड़कन और उनके गुलनार भविष्य की रंगीनी पैदा करता था, जहां ये तराना उस ज़माने में गाया जाता था। इसी ज़माने में कैफ़ी आज़मी की नज़्म ‘मकान’ बेहद मक़बूल हुई थी। कैफ़ी की नज़्म मकान और मख़दूम की नज़्म ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’ दोनों में एक उम्मीद है एक रौशनी है कि आज़ादी अब बेहद करीब है-
लो सुर्ख सवेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का
गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का
देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का
सुर्ख सवेरा
‘सुर्ख सवेरा’ नाम से 1944 में मख़दूम का पहला शेरी मजमुआ छ्पा। 1946 में जब तेलंगाना के किसानों ने सामंतों के खिलाफ अपने खुदमुख्तारी की लड़ाई शुरू की तो मख़दूम उसमें किसानों के साथ पेश-पेश थे। मख़दूम मोहीउद्दीन अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के जरिए आन्दोलन में गर्मी पैदा कर देते थे। मख़दूम हाथ में कलम तो कंधे पर बंदूक लिए निज़ाम के खिलाफ लड़ रहे थे। निज़ाम ने उन पर पांच हजार रुपये का इनाम घोषित किया था। मख़दूम की जिंदगी का ज्यादा हिस्सा सियासी सरगर्मियों में बीता। उन्होंने सियासी नज़्में खूब कही हैं। जंग उनकी पहली सियासी नज़्म है। उनकी शायरी में इश्क़ और इंक़लाब इस तरह एक साथ नुमाया हुए हैं कि जब वो इश्क़ की बात भी करते हैं तो इंक़लाब की आवाज़ आती है। जब इंक़लाब की बात करते हैं तो इश्क़ की आवाज़ भी अपना असर छोड़ती है। मसलन मख़दूम की एक नज़्म है[1]-
ए जाने नग़मा, जहां सोगवार कब से है
तेरे लिए ये जमीं बेकरार कब से है
हुजूमे शौक सरे रहगुज़ार कब से है
गुज़र भी जा कि तेरा इंतज़ार कब से है
जाने वाले सिपाही से पूछो
विमल रॉय ने जब चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की मशहूर कहानी ‘उसने कहा था‘ पर इसी नाम से फिल्म बनायी, तो उसमें मख़दूम की नज़्म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो’ बतौर गीत इस्तेमाल किया था। इस नज़्म का पसमंजर आलमी जंग है। अपने बच्चे और बीवी को छोड़कर सिपाही जंग में जा रहा है। वो वापस आएगा भी या नहीं ये कहना नामुमकिन है। उसके जाते वक्त उसके घर का माहौल कैसा है वो इस नज़्म में दिखलाई पड़ता है। इस नज़रिए से उर्दू क्या हिंदी में भी शायद ही कोई कविता लिखी गई हो-
जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहां जा रहा है
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िंदगी है कि चिल्ला रही है
जाने वाले सिपाही से पूछो
नज़्म
उर्दू के मशहूर अफसानानिगार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनके बारे में लिखा है, ‘मख़दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूंदे भी। वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूक थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।” मख़दूम ने ग़ज़ल से ज्यादा नज़्में लिखी हैं। अपनी नज़्मों में बिलकुल नई इमेजरी पेश की है।[1]
आपकी याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कराती रही रात भर
रात भर दर्द की शमां जलती रही
गम की लौ थरथराती रही रात भर
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर
मृत्यु
बाद में उर्दू के ही उपन्यासकार कृश्न चंदर ने मख़दूम मोहीउद्दीन के जीवन और संघर्ष पर एक नॉवेल लिखा ‘जब खेत जागे‘। इसी नॉवेल पर तेलुगू में गौतम घोष ने एक फिल्म बनायी थी ‘मां भूमि‘। मख़दूम के तीन कलेक्शन प्रकाशित हुए हैं। पहला 1944 में ‘सुर्ख सवेरा’ नाम से, दूसरा ‘गुलेत्तर’ 1961 में और तीसरा ‘बिसाते-रक़्स’ 1966 में। ‘बिसाते-रक़्स’ के लिए ही 1969 में उनको अकेडमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। 25 अगस्त, 1969 को मख़दूम मोहीउद्दीन की वफ़ात हो गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 वो शायर जो क्रांतिकारी छापामार की बंदूक था और संगीतकार का सितार भी (हिंदी) thelallantop.com। अभिगमन तिथि: 27 नवंबर, 2021।
बाहरी कड़ियाँ
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