अज्ञेय की एक रचना
कई बार आकर्ण तान धनु लक्ष्य साध कर तीर छोड़ता हूँ मैं- कोई गिरता नहीं, किन्तु सद्य: उपलब्धि मुझे होती है : आखेटक का रस सत्वर मुझ को मिल जाता है।