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(पुस्तक "भारतीय इतिहास कोश" भाग-2) पृष्ठ संख्या 650 पर से   सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला   हिन्दी के छायावादी कवियों में 'सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला' कई दृष्टियों से विशेष महत्वपूर्ण हैं। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के स्रष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक ग़लत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों-छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योग दिया। इसलिए घिसी-पिटी परम्पराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत का न होना स्वाभाविक था। पर प्रतिभा का प्रकाश उपेक्षा और अज्ञान के कुहासे से बहुत देर तक आच्छन्न नहीं रह सकता।

जन्म

'निराला' का जन्म महिषादल स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी, संवत् 1953, कवि.......ई. की बसन्त पंचमी को हुआ था। यों इनका अपना घर उन्नाव ज़िले के गढ़ाकोला गाँव में है। बंगाल में बसने का परिणाम यह हुआ कि बंगला एक तरह से इनकी मातृभाषा हो गयी। मैट्रीकुलेशन कक्षा में पहुँचते-पहुँचते इनकी दार्शनिक रुचि का परिचय मिलने लगा। 16-17 वर्ष की उम्र से ही इनके जीवन में विपत्तियाँ आरम्भ हो गयीं, पर अनेक प्रकार के दैवी, सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों को झेलते हुए भी इन्होंने कभी अपने लक्ष्य को नीचा नहीं किया। माँ पहले ही गत हो चुकी थीं, पिता का भी असामायिक निधन हो गया। इनफ्लुएँजा के विकराल प्रकोप में घर के अन्य प्राणी भी चल बसे। पत्नी की मृत्यु से तो ये टूट से गये। पर कुटुम्ब के पालन-पोषण का भार स्वयं झेलते हुए वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इन विपत्तियों से त्राण पाने में इनके दार्शनिक ने अच्छी सहायता पहुँचायी।

सन् 1916 ई. में 'निराला' की अत्यधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना 'जुही की कली' लिखी गयी। यह उनकी प्राप्त रचनाओं में पहली रचना है। यह उस कवि की रचना है, जिसने 'सरस्वती' और 'मर्यादा' की फ़ाइलों से हिन्दी सीखी, उन पत्रिकाओं के एक-एक वाक्य को संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी व्याकरण के सहारे समझने का प्रयास किया। इस समय वे महिषादल में ही थे। 'रवीन्द्र कविता कानन' के लिखने का समय यही है। सन् 1916 में इनका 'हिन्दी-बंगला का तुलनात्मक व्याकरण' 'सरस्वती' में प्रकाशित हुआ।

एक सामान्य विवाद पर महिषादल की नौकरी छोड़कर वे घर वापस चले आये। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रामकृष्ण मिशन के पत्र 'समन्वय' में वे सन् 1922 में चले गये। 'समन्वय' के सम्पादन काल में उनके दार्शनिक विचारों के पुष्ट होने का बहुत ही अच्छा अवसर मिला। इस काल में जो दार्शनिक चेतना उनको प्राप्त हुई, उससे उनकी काव्यशक्ति और भी समृद्ध हुई। सन् 1923-24 ई. में महादेव बाबू ने उन्हें 'मतवाला' के सम्पादन मण्डल में बुला लिया। फिर तो काव्य प्रतिभा को प्रकाश में ले आने का सर्वाधिक श्रेय 'मतवाला' को ही है। 'मतवाला' में भी ये 2-3 वर्षों तक ही रह पाये। इस काल की लिखी गयी अधिकांश कविताएँ 'परिमल' में संगृहीत हैं। सन् 1927-30 ई. तक वे बराबर अस्वस्थ रहे। फिर स्वेच्छा से गंगा पुस्तक माला का सम्पादन तथा 'सुधा' में सम्पादकीय का लेखन करने लगे। सन् 1930 से 42 तक उनका अधिकांश समय लखनऊ में ही बीता। यह समय उनके घोर आर्थिक संकट का काल था। इस समय जीवकोपार्जन के लिए उन्हें जनता के लिए लिखना पड़ता था। सामान्य जनरुचि कथा साहित्य के अधिक अनुकूल होती है। उनके कहानि संग्रह 'लिली', 'चतुरी चमार', 'सुकुल की बीबी', (1941 ई.) और सखी की कहानियाँ तथा 'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती', (1946 ई.) 'निरुपमा' इत्यादि उपन्यास उनके अर्थ संकट के फलस्वरूप प्रणीत हुए। वे समय-समय पर फ़ुटबॉल लेख भी लिखते रहे। इन लेखों का संग्रह 'प्रबन्ध पद्म' के नाम से इसी समय में प्रकाशित हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे जनरुचि के कारण अपने धरातल से उतर कर सामान्य भूमि पर आ गये। उनके काव्यगत प्रयोग चलते रहे। सन् 1936 ई. में स्वरताल युक्त उनके गीतों का संग्रह 'गीतिका' नाम से प्रकाशित हुआ। दो वर्ष के बाद अर्थात् सन् 1938 ई. में उनका 'अनामिका' काव्य संग्रह प्रकाश में आया। यह संग्रह सन् 1922 ई. में प्रकाशित 'अनामिका' संग्रह से बिल्कुल भिन्न है। सन् 1938 ई. ही उनके अंतमुर्खी प्रबन्ध काव्य 'तुलसीदास' का भी प्रकाशन हुआ। हिन्दीकाव्य क्षेत्र में 'निराला' का पदार्पण मुक्त वृत्त के साथ होता है। वे इस वृत्त के प्रथम पुरस्कर्त्ता हैं। वास्तव में 'निराला' की उद्दाम भाव धारा को छन्द के बन्धन बाँध नही सकते थे। गिनी-गिनाई मात्राओं और अन्त्यानुप्रासों के बँधे घाटों के बीच उनका भावोल्लास नहीं बँट सकता था। ऐसी स्थिति में काव्याभिव्यक्ति के लिए मुक्त वृत्त की अनिवार्यता स्वत: ही सिद्ध है। उन्होंने 'परिमल' की भूमिका में लिखा है-"मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन में छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।" 'मेरे गीत और कला' शीर्षक निबिन्ध में उन्होंने लिखा है-"भावों की मुक्ति छन्दों की मुक्ति चाहती है। यहाँ भाषा, भाव और छन्द तीनों स्वछन्द हैं।" रीतिकाल की कृत्रिम छन्दोबद्ध रचना के विरुद्ध यह नवीन उन्मेषशील काव्य की पहली विद्रोह वाणी है। भाव-व्यंजना की दृष्टि से मुक्तछन्द कोमल और परुष दोनों प्रकार की भावाभिव्यक्ति के लिए समान रूप से समर्थ हैं, यद्यपि 'निराला' का कहना है कि, "यह कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवित्त्व का पुरुष गर्व है", किन्तु 'जूही की कली' जैसी उत्कृष्ट कोटि कोह श्रृंगारिक रचना इसी वृत्त में लिखी गयी है। 'निराला' द्वारा प्रस्तुत मुक्त छन्द का आधार कवित्त छन्द है। इसमें कवि को भावानुकूल चरणों के प्रसार की खुली छूट है। भाव की पूर्णता के साथ वृत्त भी समाप्त हो जाता है। आज तो मुक्त वृत्त काव्य-रचना का मुख्य छन्द हो गया है, पर अपनी विशिष्ट नादयोजना के कारण 'निराला' ने उसमें प्रभावपूर्ण संगीतात्मकता ला दी है। 'शेफ़लिका का पत्र' आदि रचनाएँ इसी छन्द में लिखी गयी हैं। 'पंचवटी प्रसंग'-गीति नाट्य के लिए इससे अधिक उपयुक्त और कोई छन्द नहीं हो सकता था। ये समस्त रचनाएँ 'परिमल' के तृतीय खण्ड में संगृहीत हैं। 'परिमल' के द्वितीय खण्ड की रचनाएँ स्वच्छन्द छन्द में लिखी गयी हैं, जिसे 'निराला' मुक्तिगीत कहते हैं। इन गीतों में तुक का आग्रह तो है पर मात्राओं का नहीं। पन्त के 'आँसू', 'उच्छवास' और 'परिवर्तन' भी इसी छन्द में लिखे गये हैं। 'परिमल' के प्रथम खण्ड में सममात्रिक तुकान्त कविताएँ हैं। मुक्त वृत्तात्मक कविताएँ आख्यान प्रधान हैं तो मुक्तगीत चित्रण प्रधान और मात्रिक छन्द में लिखी गयी कविताओं में भाव और कल्पना की प्रधानता देखी जा सकती है। उनकी बहु-वस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा का परिचय आरम्भ से ही मिलने लगता है-विशेष रूप से सड़ी-गली मान्यताओं के प्रति तीव्र विद्रोह तथा निम्नवर्ग के प्रति गहरी सहनुभूति उनमें प्रारम्भ से ही दिखाई देती है। छायावादी कवियों ने मुख्यत: प्रगीतों की रचना की है। ये प्रगीत गेय तो होते हैं पर ये शास्त्रानुमोदित ढंग पर नहीं गाये जा सकते हैं। नाद-योजना की ओर अधिक झुकाव होने के कारण 'निराला' ने नये स्वर-ताल से युक्त गीतों की सृष्टि की। अंग्रेज़ी स्वर-मैत्री का प्रभाव बंगला के गीतों पर पड़ चुका था, उसके रंग-ढंग पर बंगला गीतों की स्वर लिपियाँ भी तैयार की गयीं। हिन्दी के कवियों में 'निराला' इस दिशा में भी अग्रसर हुए। उन्हें हिन्दी संगीत की शब्दावली और गाने के ढंग दोनों खटकते थे। इसके फलस्वरूप 'गीतिका' की रचना हुई। उनके गीत गायकों के गीतों की भाँति राग-रागनियों की रुढ़ियों से बँधे हुए नहीं हैं। उच्चारण का नया आधार लिये हुए सभी गीत एक अलग भूमि पर प्रतिष्ठित हैं। इनके स्वर, ताल और लय अंग्रेज़ी गीतों से प्रभावित हैं। पियानों पर गाये जाने वाले धार्मिक गीतों की झलक इन गीतों में मिलती है। इसलिए इन गीतों की गायन-पद्धति और भावविन्यास में पवित्रता का स्पष्ट संकेत मिलता है। यद्यपि 'गीतिका' की मूल भावना श्रृंगारिक है, फिर भी बहुत से गीतों में माधुर्य भाव से आत्मनिवेदन किया गया है। जगह-जगह मनोरम प्रकृति-वर्णन तथा उत्कृष्ट देश-प्रेम का चित्रण भी मिलता है। इस संग्रह की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें संगीतात्मकता के नाम पर काव्य पक्ष को कहीं पर भी विकृत नहीं होने दिया गया है। 1935 ई. से 1938 ई. तक 'निराला' कि काव्य रचना को प्रौढ़काल कहा जा सकता है। इस बीच लिखी हुई कविताएँ 'अनामिका' में संगृहीत हैं। 'अनामिका' का प्रकाशन 1938 ई. में हुआ। 'अनामिका' में संगृहीत अधिकांश रचनाएँ 'निराला' की उत्कृष्ट भाव-व्यंजना तथा कलात्मक प्रौढ़ता की द्योतक हैं। 'प्रेयसी', 'रेखा', 'सरोजस्मृति', 'राम की शक्तिपूजा' आदि उनकी श्रेष्ठतम रचनाएँ हैं। 'सरोजस्मृति' हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ शोक-गीत है तो 'राम की शक्तिपूजा' आदि उनकी श्रेष्ठतम रचनाएँ हैं। 'सरोजस्मृति' में करुणा की पृष्ठभूमि पर श्रृंगार, हास्य, व्यंग्य इत्यादि अनेक भावों का काव्यात्मक संगुम्फन किया गया है। नाटकीय गुणों से ओत-प्रोत होने के कारण वह और भी प्रभावपूर्ण हो उठी है। काव्य में कर्ता के जिस निर्लेप व्यक्तित्व का महत्व टी.एस. इलियट ने स्थापित किया है, वह इस कविता में चरम ऊँचाई पर पहुँचा हुआ है। 'राम की शक्तिपूजा' में कवि का पौरुष और ओज चरमोत्कर्ष के साथ अभिव्यक्त हुआ है। महाकाव्य में भावगत औदात्य के अनुकूल कलागत औदात्य आवश्यक है। इस कविता में दोनों प्रकार की उदात्तताओं का नीर-क्षीर सम्मिश्रण हुआ है। 'तुलसीदास' में कथा की अपेक्षा चिन्तन का विस्तार अधिक है। इस प्रबन्ध में तुलसी के मानस पक्ष का उद्धाटन करते हुए तत्कालीन परिवेश का पूरा सहारा लिया गया है। चित्रकूट कानन की छवि की चिन्ताधारा का प्रथम प्रेरणा केन्द्र है। प्रकृति का जो चित्र कवि के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है, उसको दो पक्ष हैं-प्रकृति का स्वयं का पक्ष और तत्कालीन समाज का निरूपण। कवि ने इन दोनों पक्षों का निर्वाह बहुत कुशलतापूर्वक किया है। भारत के सांस्कृतिक ह्रास के पुनरुद्धार की प्रेरणा तुलसी को प्रकृति के माध्यम से ही मिलती है। इसे देखकर उनकी अन्तर्वृत्तियाँ मन्थित हो उठी हैं। इन्हीं अन्तर्वृत्तियों का निरूपण पुस्तक की मूल चिन्ताधारा है। इस प्रबन्ध में भी उनके शिल्पी का रूप सहज ही भासित हो जाता है। छन्दों की बंदिश, रूपकों की विशद योजना, नवीन शब्द-विन्यास आदि उनके अपने हैं। पर इस ग्रन्थ में ऐसे शब्दों का व्यवहार भी हुआ है, जो अर्थ की दृष्टि से इसे दुरूह बना देते हैं। फिर भी जो लोग काव्य में बुद्धि-तत्त्व की अहमियत स्वीकार करेंगे, वे इसे निविर्वाद रूप से एक श्रेष्ठ रचना मानेंगे। प्रौढ़ कृतियों की सर्जना के साथ ही 'निराला' व्यंग्यविनोद पूर्ण कविताएँ भी लिखते रहे हैं। जिनमें से कुछ 'अनामिका' में संगृहीत हैं। पर इसके बाद बाह्य परिस्थितियों के कारण, जिनमें उनके प्रति परम्परावादियों का उग्र विरोध भी सम्मिलित है, उनमें विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। 'निराला' और पन्त मूलत: अनुभूतिवादी कवि हैं। ऐसे व्यक्तियों को व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत प्रभावित करती हैं। इसके फलस्वरूप उनकी कविताओं में व्यंग्योक्तियों के साथ-साथ निषेधात्मक जीवन की गहरी अभिव्यक्ति होने लगी। 'कुकुरमुत्ता' तक पहुँचते-पहुँचते वह प्रगतिवाद के विरोध में तर्क उपस्थित करने लगता है। उपालम्भ और व्यंग्य के समाप्त होते-होते कवि में विषादात्मक शान्ति आ जाती है। अब उनके कथन में दुनिया के लिए सन्देश भगवान के प्रति आत्मनिवेदन है और है साहित्यिक-राजनीतिक महापुरुषों के प्रशस्ति अंकन का प्रयास। 'अणिमा' जीवन के इन्हीं पक्षों की द्योतक है, पर इसकी कुछ अनुभूतियों की तीव्रता मन को भीतर से कुरेद देती है। 'बेला' और 'नये पत्ते' में कवि की मुख्य दृष्टि उर्दू और फ़ारसी के बन्दों को हिन्दी में डालने की ओर रही है। इसके बाद के उनके दो गीत-संग्रहों-'अर्चना' और 'गीतगुंज' में कहीं पर गहरी आत्मानुभूति की झलक है तो कहीं व्यंग्योक्ति की। उनके व्यंग्य की बानगी देखने के लिए उनकी दो गद्य की रचनाओं 'कुल्लीभाँट' और 'बिल्लेसुर बकरिहा' को भुलाया नहीं जा सकता। सब मिलाकर 'निराला' भारतीय संस्कृति के द्रष्टा कवि हैं-वे गलित रुढ़ियों के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरूप पक्षों के उदघाटक और पोषक रहे हैं। पर काव्य तथा जीवन में निरन्तर रुढ़ियों का मूलोच्छेद करते हुए इन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मध्यम श्रेणी में उत्पन्न होकर परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मोर्चा लेता हुआ आदर्श के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने वाला महापुरुष जिस मानसिक स्थिति को पहुँचा, उसे बहुत से लोग व्यक्तित्व की अपूर्णता कहते हैं। पर जहाँ व्यक्ति के आदर्शों और सामाजिक हीनताओं में निरन्तर संघर्ष हो, वहाँ व्यक्ति का ऐसी स्थिति में पड़ना स्वाभाविक ही है। हिन्दी की ओर से 'निराला' को यह बलि देनी पड़ी। जागृत और उन्नतिशील साहित्य में ही ऐसी बलियाँ सम्भव हुआ करती हैं-प्रतिगामी और उद्देश्यहीन साहित्य में नहीं। 'निराला' की मृत्यु अक्टूबर, 1961 ई. में प्रयाग में हुई। -सहायक ग्रन्थ-क्रान्तिकारी कवि 'निराला': बच्चन सिंह, निराला की साहित्य-साधना: रामविलास शर्मा।    

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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' अधुनिक हिन्दी साहित्य के महान महान स्तन्भ थे। वे एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनके जीवन काल में उनकी प्रतिभा को पहचाना नहीं गया। उनके क्रान्तिकारी और स्वच्छन्द लेखन के कारण उनका साहित्य अप्रकाशित ही रहा। निराला का पूरा जीवन, एक थोङे समय को छोङकर, दुर्भाग्य और विपत्ति का अनुक्रम था। उनका जन्म उन्नाव जिले के गढाकोला गांव के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में, बसन्त पञ्चमी के दिन, १८९७ में हुआ। उनके पिता का नाम पं रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी मां की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया। निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरु हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही राम चरित मानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा में निपुण थे और श्री राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से विशेष रूप से प्रभावित थे। निराला स्वच्छन्द प्रकृति के थे और स्कूल में पढने से अधिक उनकी रुचि घुमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लङने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन में उनका विशेष मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता कभी-कभी उनसे कठोर व्यवहार करते थे, जबकिउनके हृदय में अपने एकमात्र पुत्र के लिये विशेष स्नेह था। हाईस्कूल करने के पश्चात वे लखनऊ और उसके बाद गढकोला (उन्नाव) आ गये। पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली जिले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के जोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी। इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने बंगला के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरु कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये., किन्तु यह सुख ज्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी २० वर्ष की अवस्था मॆं ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऎसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाषकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप मॆं काम किया, उन्होंने 'समन्वय' का भी सम्पादन किया। निराला को सम्मान बहुत मिला। परन्तु उनके संघर्ष के स्तर और संदर्भ को समझना उनके विरोधियों के लिये जितना मुश्किल था, उतना ही उनके प्रशंसको के लिये भी। अंततः अपने मानसिक और शारीरिक संघर्ष को झेलते हुये निराला की मृत्यु दारागंज ( इलाहाबाद) में १५ अक्टूबर १९६१ में हो गयी। प्रमुख कृतियां:- कविता संग्रह: परिमल,अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नये पत्त्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास, जन्मभूमि। उपन्यास: अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्च्श्रंखलता, काले कारनामे। कहानी संग्रह: चतुरी चमार, शुकुल की बीवी, सखी, लिली, देवी। निबन्ध संग्रह: प्रबन्ध-परिचय, प्रबन्ध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चरन, प्रबन्ध पद्य, प्रबन्ध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संघर्ष। आलोचना: रविन्द्र-कविता-कन्नन। अनुवाद: आनन्द मठ, विश्व-विकर्ष, कृष्ण कान्त का विल, कपाल कुण्डला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राज रानी, देवी चौधरानी, युगलंगुलिया, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्णा वचनामृत, भारत में विवेकानन्द, राजयोग।

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http://www.hindisamay.com/kavita/Nirala.htm

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी कविता के छायावादी युग के प्रमुख कवियों में से थे। हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों मे से एक सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म सन् 1896 ई० में हुआ था। निश्चित तिथि के अभाव में इनका जन्मदिवस माघ मास में वसन्त पंचमी के दिन मनाया जाता है। 11 जनवरी 1921 ई० को पं० महावीर प्रसाद को लिखे अपने पत्र में निराला जी ने अपनी उम्र 22 वर्ष बताई है। रामनरेश त्रिपाठी ने कविता कौमुदी के लिए सन् 1926 ई० के अन्त में जन्म सम्बंधी विवरण माँगा तो निराला जी ने माघ शुक्ल 11 सम्वत् 1955 अपनी जन्म तिथि लिखकर भेजी। यह विवरण निराला जी ने स्वयं लिखकर दिया था। महिषादल के विद्यालय में प्रवेश पंजिका के अनुसार 13 सितम्बर 1907 ई० को आठवें दर्जे में भर्ती हुए। तब उनकी उम्र लिखाई गई 10 साल 8 महीने। यदि पंजी में दर्ज की गई उम्र को सही मानी जाए तो निराला जी का जन्म वर्ष होगा 1897 ई०। निराला जी का जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। • जन्म: २१ फरवरी १८९६ को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में. • मूल निवास: उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव. • शिक्षा: हाई स्कूल तक हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्यन। • कार्यक्षेत्र: 1918 से 1922 तक महिषादल राज्य की सेवा। उसके बाद संपादन स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य । 1922 से 23 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन। 1923 के अगस्त से 'मतवाला' के संपादक मंडल में । इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहाँ से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'सुधा' से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य । वे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है। 15 अक्तूबर 1961 को इलाहाबाद में उनका निधन हुआ।

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जन्म : २१ फरवरी १८९६ को पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में। मूल निवास : उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले का गढ़कोला नामक गांव। शिक्षा : हाई स्कूल तक हिन्दी संस्कृत बंगला व अंग्रेज़ी का स्वतंत्र अध्ययन। कार्यक्षेत्र : १९१८ से १९२२ तक महिषादल राज्य की सेवा की। उसके बाद से संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। १९२२-२३ में समन्वय (कलकत्ता) का संपादन। १९२३ के अगस्त से मतवाला के मंडल में। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहां से निकलने वाली मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य। वे प्रसाद पंत और महादेवी के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के एक प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरूप से कविता के कारण ही है। १५ अक्तूबर १९६१ को इलाहाबाद में उनका निधन हुआ। प्रमुख कृतियाँ : काव्यसंग्रह : परिमल, गीतिका, द्वितीय अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत गुंज, सांध्य काकली। उपन्यास : अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरूपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा। कहानी संग्रह : लिली, चतुरी चमार। निबंध : रवींद्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह। पुराण कथा : महाभारत

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http://www.indianetzone.com/9/suryakant_tripathi_nirala.htm

http://kalptaru.blogspot.com/2010/07/blog-post.html

http://www.kritya.in/10/hn/editors_choice.html

कृष्ण कुमार यादव   फक्कड़ कवि थे निराला वरिष्ठ डाक अधीक्षक भारतीय डाक सेवा, कानपुर मण्डल, कानपुर - 208001   निराला सम्भवत: हिन्दी के पहले व अन्तिम कवि हैं, जिनकी लोकप्रियता व फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक नहीं पाया है। निराला से ज़्यादा लोकप्रिय सिर्फ़ कबीर थे । यद्यपि अर्थाभाव के कारण निराला को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर न तो वे कभी झुके और न ही अपने उसूलों से समझौता किया। यही कारण है कि उन पर अराजक और आक्रमण होने तक के आरोप लगे, पर वे इन सबसे बेपरवाह अपने फक्कड़पन में मस्त रहे।


महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में 21 फरवरी 1897 को पं. रामसहाय त्रिपाठी के पुत्र रूप में हुआ था। कालान्तर में आप इलाहाबाद के दारागंज की तंग गलियों में बस गये और वहीं पर अपने साहित्यिक जीवन के तीस-चालीस वर्ष बिताए। निराला जी ग़रीबों और शोषितों के प्रति काफ़ी उदार व करूणामयी भावना रखते थे और दूसरों की सहायता के प्रति सदैव तत्पर रहते थे। चाहे वह अपनी पुस्तकों के बदले मिली रायल्टी का ग़रीबों में बाँटना हो, चाहे सम्मान रूप में मिली धनराशि व शाल ज़रूरतमंद वृद्धा को दे देना हो, चाहे इलाहाबाद में अध्ययनरत विद्यार्थियों की ज़रूरत पड़ने पर सहायता करना हो अथवा एक बैलगाड़ी के एक सरकारी अधिकारी की कार से टकरा जाने पर अधिकारी द्वारा किसान को चाबुकों से पीटा जाना हो और देखते-ही- देखते निराला द्वारा उक्त अधिकारी के हाथ से चाबुक छीनकर उसे ही पीटना हो। ये सभी घटनायें निराला जी के सम्वेदनशील व्यक्तित्व का उदाहरण कही जा सकती हैं।


जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के सशक्त स्तम्भ रहे निराला ने 1920 के आस-पास कविता लिखना आरम्भ किया और 1961 तक अबाध गति से लिखते रहे। इसमें प्रथम चरण (1920-38 में उन्होंने अनामिका, परिमल व गीतिका की रचना की तो द्वितीय चरण (1939-49 में वे गीतों की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। मतवाला पत्रिका में वाणी शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों की परम्परा में उन्होंने लम्बी कविताएँ लिखना आरम्भ किया तो 1934 में उनकी तुलसीदास नामक प्रबंधात्मक कविता सामने आई। इसके बाद तो मित्र के प्रति, सरोज-स्मृति, प्रेयसी, राम की शक्ति-पूजा, सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति, भिखारी, गुलाब, लिली, सखी की कहानियाँ, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, जागो फिर एक बार और वनबेला जैसी उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ सामने आयीं। निराला ने कलकत्ता पत्रिका, मतवाला, समन्वय इत्यादि पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास और सरोज-स्मृति को निराला के काव्य शिल्प का श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है। निराला की कविता सिर्फ़ एक मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं थी, वरन् अपनी कविताओं में वे अन्त तक संशोधन करते रहते थे। तभी तो उन्होंने लिखा कि- अभी न होगा मेरा अंत/ अभी-अभी तो आया है, मेरे वन मृदुल वसन्त/अभी न होगा मेरा अन्त।


निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका ज़ोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाँकन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है –

वह तोड़ती पत्थर

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर

वह तोड़ती पत्थर

कोई न छायादार पेड़

वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार

श्याम तन, भर बंधा यौवन

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन

गुरू हथौड़ा हाथ

करती बार-बार प्रहार

सामने तरू-मालिका अट्टालिका प्राकार


इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा - पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को/मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता पछताता।


राम की शक्ति पूजा के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं - होगी जय, होगी जय/हे पुरुषोत्तम नवीन/कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन। सौ पदों में लिखी गयी तुलसीदास निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बख़ूबी दिखाया है –

जागा जागा संस्कार प्रबल

रे गया काम तत्क्षण वह जल

देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह

इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान

हो गया भस्म वह प्रथम भान

छूटा जग का जो रहा ध्यान।


निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की जूही की कली कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है –

विजन-वन वल्लरी पर

सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली

दृग बंद किये, शिथिल पत्रांक में

वासन्ती निशा थी


यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता-पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढें। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बांग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अभिव्यक्ति दी –

यमुना की ध्वनि में

है गूँजती सुहाग-गाथा

सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ

आज वह फिरदौस, सुनसान है पड़ा

शाही दीवान आम स्तब्ध है हो रहा है

दुपहर को, पार्श्व में

उठता है झिल्ली रव

बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में

लीन हो गया है रव

शाही अँगनाओं का

निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मकबरे


निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तनिZहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। वसन्त पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा-

रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है

यौवन-मद की बाढ़ नदी की

किसे देख झुकती है

गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो

अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।


यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा -

छोटे से घर की लघु सीमा में

बंधे हैं क्षुद्र भाव

यह सच है प्रिय

प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है

सदा ही नि:सीम भूमि पर।


निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी ख़ूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला सरोज-स्मृति में लिखते हैं –

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल

युग वर्ष बाद जब हुयी विकल

दुख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।


15 अक्टूबर 1961 को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा –

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा

पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा

गृह-गृह की पार्वती

पुन: सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती

उर-उर की बनो आरती

भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।

Pasted from <http://www.srijangatha.com/Hastakshar4_Feb2k9>


 निराला सम्भवतः हिन्दी के पहले व अन्तिम कवि हैं, जिनकी लोकप्रियता व फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक नहीं पाया है। निराला से ज्यादा लोकप्रियता सिर्फ कबीर को मिली। यद्यपि अर्थाभाव के कारण निराला को अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर न तो वे कभी झुके और न ही अपने उसूलों से समझौता किया। यही कारण है कि उन पर अराजक और आक्रमण होने तक के आरोप लगे, पर वे इन सबसे बेपरवाह अपने फक्कड़पन में मस्त रहे।  महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में २१ फरवरी १८९७ को पं० रामसहाय त्रिपाठी के पुत्र रूप में हुआ था। कालान्तर में आप इलाहाबाद के दारागंज की तंग गलियों में बस गये और वहीं पर अपने साहित्यिक जीवन के तीस-चालीस वर्ष बिताए। निराला जी गरीबों और शोषितों को प्रति काफी उदार व करुणामयी भावना रखते थे और दूसरों की सहायता के प्रति सदैव तत्पर रहते थे। चाहे वह अपनी पुस्तकों के बदले मिली रायल्टी का गरीबों में बाँटना हो, चाहे सम्मान रूप में मिली धनराशि व शाल ज़रूरतमंद वृद्धा को दे देना हो, चाहे इलाहाबाद में अध्ययनरत विद्यार्थियों की ज़रूरत पड़ने पर सहायता करना हो अथवा एक बैलगाड़ी के एक सरकारी अधिकारी की कार से टकरा जाने पर अधिकारी द्वारा किसान को चाबुकों से पीटा जाना हो और देखते ही देखते निराला द्वारा उक्त अधिकारी के हाथ से चाबुक छीनकर उसे ही पीटना हो। ये सभी घटनायें निराला जी के सम्वेदनशील व्यक्तित्व का  उदाहरण कही जा सकती हैं।  जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के सशक्त स्तम्भ रहे निराला ने १९२० के आस-पास कविता लिखना आरम्भ किया और १९६१ तक अबाध गति से लिखते रहे। इसमें  प्रथम चरण (१९२०-३८) में उन्होंने ‘अनामिका’, ‘परिमल’ व ‘गीतिका’ की रचना की तो द्वितीय चरण (१९३९-४९) में वे गीतों की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। ‘मतवाला’ पत्रिका में ‘वाणी’ शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों की परम्परा में उन्होंने लम्बी कविताएँ लिखना आरम्भ किया तो १९३४ में उनकी ‘तुलसीदास’ नामक प्रबंधात्मक कविता सामने आई। इसके बाद तो मित्र के प्रति, सरोज-स्मृति, प्रेयसी, राम की शक्ति-पूजा, सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति, भिखारी, गुलाब, लिली, सखी की कहानियाँ, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, जागो फिर एक बार और वनबेला जैसी उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ सामने आयीं। निराला ने कलकत्ता पत्रिका, मतवाला, समन्वय इत्यादि पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास और सरोज-स्मृति को निराला के काव्य शिल्प का श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है। निराला की कविता सिर्फ एक मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं थी, वरन् अपनी कविताओं में वे अन्त तक संशोधन करते रहते थे। तभी तो उन्होंने लिखा कि- ‘अभी न होगा मेरा अंत          अभी-अभी तो आया है, मेरे वन मृदुल वसन्त                अभी न होगा मेरा अन्त।’   निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी में भी कविताएँ ढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका जोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाकंन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है -    वह तोड़ती पत्थर          देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर                वह तोड़ती पत्थर                कोई न छायादार पेड़                वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार    श्याम तन, भर बंधा यौवन          नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन                गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार                      सामने तरू- मल्लिका अट्टालिका, प्राकार। इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा-    पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक    चल रहा लकुटिया टेक    मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को    मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता    दो टूक कलेजे के करता पछताता।   ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं-   होगी जय, होगी जय    हे पुरुषोत्तम नवीन          कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।   सौ पदों में लिखी गयी ‘तुलसीदास’ निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि १९३४ में लिखी गयी और १९३५ में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बखूबी दिखाया है- जागा, जागा संस्कार प्रबल रे गया काम तत्क्षण वह जल देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान हो गया भस्म वह प्रथम भान छूटा जग का जो रहा ध्यान।                     निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की ‘जूही की कली’ कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है-   विजन-वन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली दृग बंद किये, शिथिल पत्ांक में वासन्ती निशा थी।   यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता-पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढ़ें। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बंग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी- यमुना की ध्वनि में है गूँजती सुहाग-गाथा सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ आज वह ‘फिरदौस’, सुनसान है पड़ा शाही दीवान, आम स्तब्ध है हो रहा है दुपहर को, पार्श्व में उठता है झिल्ली रव बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में लीन हो गया है रव शाही अँगनाओं का निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मकबरे।   निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्‌भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तर्निहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। वसन्त पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्‌भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा- रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है यौवन-मद की बाढ़ नदी की किसे देख झुकती है गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।   यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा-   छोटे से घर की लघु सीमा में बंधे हैं क्षुद्र भाव यह सच है प्रिय प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है सदा ही निःसीम भूमि पर।   निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान  स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी खूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला ‘सरोज-स्मृति’ में लिखते हैं-   मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल युग वर्ष बाद जब हुयी विकल दुख ही जीवन की कथा रही क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।                १५ अक्टूबर १९६१ को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर  मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा-   तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा गृह-गृह की पार्वती पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती उर-उर की बनो आरती भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।

Pasted from <http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/K/KKYadav/fakkad_kavi_the_Nirala_Alekh.htm>


http://kalptaru.wordpress.com/2010/07/05/%E2%80%9C%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B2-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%97%E2%80%9D-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE/