साईं चालीसा

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:59, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण (Text replace - "नही " to "नहीं ")
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
साईं बाबा
Sai Baba

पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नवाऊँ मैं|
कैसे शिर्डी साईं आए, सारा हाल सुनाऊँ मैं|| (1)
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना|
कहाँ जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना || (2)
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान है|
कोई कहे साईं बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं|| (3)
कोई कह्ता मंगलमूर्ति, श्री गजानन हैं साईं|
कोई कह्ता गोकुल मोहन-देवकी नंदन है साईं|| (4)
शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते|
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते|| (5)
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं है सच्चे भगवान|
बडे‌ दयालु, दीनबंधु, कितनो को दिया जीवनदान|| (6)
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात|
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात|| (7)
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुंदर|
आया, आकार वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर|| (8)
कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर|
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर|| (9)
जैसे-जैसे उमर बढी, वैसे ही बढती गई शान|
घर-घर होने लगा नगर में, साईंबाबा का गुणगान|| (10)
दिग दिगंत में लगा नगर में, फिर तो साईं जी का नाम|
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम|| (11)
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन|
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन|| (12)
कभी कीसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान|
एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान|| (13)
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुखीजन का लख हाल|
अंतःकरन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल|| (14)
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बडा धनवान|
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं तो बस संतान|| (15)
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो|
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्ही मेरी पार करो|| (16)
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे|
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे|| (17)
कुलदीपक के इस अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया|
आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया|| (18)
दे दो मुझको पुत्र दान, मैं ऋणी रहुँगा जीवन भर|
और किसी की आस न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर|| (19)
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर कर के शीश|
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष|| (20)
अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर|
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर|| (21)
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार|
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार|| (22)
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार|
साँच को आँच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार|| (23)
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास|
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस|| (24)
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं थी मुझे भी रोटी||
तन से कपडा दूर रहा था, शेष रही थी नन्ही सी लंगोटी|| (25)
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था|
दुर्दिन मेरा मेरे उपर, दावाग्नि बरसाता था|| (26)
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्बन न था|
बना भिखारी मैं दुनियाँ मैं, दर-दर ठोकर खाता था|| (27)
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था|
जंजालो से मुक्त, मगर इस, जगत में वह भी मुझसा था|| (28)
बाबा के दर्शन के खातिर, मिल दोनो ने किया विचार|
साईं जैसे दयामूर्ति के, दर्शन को हो गये तैयार|| (29)
पावन शिर्डी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मुरति|
धन्य जनम हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति|| (30)
जब से किए है दर्शन हमन, दुःख सारा काफूर हो गया|
संकट सारे मिटे और, विपदाओ का हो अंत गया|| (31)
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से|
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से|| (32)
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में|
इसका ही सम्बल ले मैं, हंसता जाऊँगा जीवन में|| (33)
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ|
लगता, जगत के कण-कण में, साईं हो बसा हुआ|| (34)
काशीराम भक्त बाबा का, इस शिर्डी में रहता थ|
मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता थ|| (35)
सींकर स्वंय वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में|
झंकृत उसकी हदय तंत्री थी, साईं की झन्कारों से|| (36)
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे|
नहीं सूझता वहां हाथ को हाथ तिमिर के मारे || (37)
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से �काशी�|
विचित्र बडा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी|| (38)
घेर राह में खडे हो गये, उसे कुटिल, अन्यायी|
मारो काटो लूटो इसकी, ही ध्वनि पडी सुनाई|| (39)
लुट पीट कर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो|
आघातो से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो|| (40)
बहुत देर तक पडा रहा वह, वहीं उसी हालत में|
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में|| (41)
अनजाने ही उसके मुहँ से, निकल पडा था साईं|
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पडी सुनाई|| (42)
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गये विकल हो|
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो|| (43)
उन्मादी से इधर उधर तब, बाबा लगे भटकने|
हुए सशंकित सभी वहाँ, देख ताण्डव नृत्य निराला|| (45)
समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पडा संकट में|
क्षुभित खडे थे सभी वहाँ पर, पडे हुए विस्मय में|| (46)
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं|
उसकी ही पीडा से पीडित उनका अंतःस्तल है|| (47)
इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई|
देख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई|| (48)
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाडी एक वहाँ आई|
सन्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आँखे भर आई|| (49)
शांत, धीर, गम्भीर सिंधु-स, बाबा का अंतःस्तल|
आज न जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल|| (50)
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी|
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी|| (51)
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी|
उसके ही दर्शन के खातिर, उमडे थे नगर-निवासी|| (52)
जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पडे सकंट में|
उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पल भर में|| (53)
युग-युग का है सत्य यही, नहीं कोई नयी कहानी|
आपद्ग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अंतर्यामी|| (54)
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं|
जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख-ईसाई|| (55)
भेद-भाव, मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला|
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण, करीम अल्लाताला|| (56)
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूँजा, मस्जिद का कोना-कोना|
मिले परस्पर हिन्दु-मुस्लिम, प्यार बढा दिन-दिन दूना|| (57)
चमत्कार था कितना सुंदर, परिचय इस काया ने दी|
और नीम की कड़वाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी|| (58)
सब को स्नेह दिया साईं ने, सबको संतुल प्यार किया|
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया|| (59)
ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे|
पर्वत जैसा दुःख क्यों न हो, पलभर में वह दूर करे|| (60)
साईं जैसा दाता हमने, अरे! नहीं देखा कोई|
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई|| (61)
तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो|
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो|| (62)
जब तुम अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा|
और रात दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा|| (63)
तो बाबा को अरे! विनश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी|
तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी|| (64)
जंगल-जंगल भटक न पागल, और ढूंढने बाबा को|
एक जगह केवल शिर्डी में तूं पायेगा बाबा को || (65)
धन्य जगत के प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया|
दुःख में सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया|| (66)
गिरें संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पडे‌|
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अडे‌|| (67)
इस बूढे‌ की सुन करामात, तुम हो जाओगे हैरान|
दंग रह गये सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान|| (68)
एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया|
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया|| (69)
जडी-बूटियाँ उन्हें दिखा कर, करने लगा वहाँ भाषण|
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन|| (70)
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शाक्ति|
इसके सेवन करने से ही, हो जाती हर दुःख से मुक्ति|| (71)
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से|
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से|| (72)
लो खरीद तुम इसकी, सेवन विधियाँ है न्यारी|
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण इसके हैं अतिशय भारी|| (73)
जो हैं संतति हीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खायें|
पुत्र रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुहँ माँगा फल पायें|| (74)
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछ्तायेगा|
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा|| (75)
दुनियाँ दो दिन मेला है, मौज शोक तुम भी कर लो|
अगर इससे मिलता है सब कुछ, तुम भी इसको ले लो|| (76)
हैरानी बढ्ती जनता की, देख इसकी कारस्तानी|
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, देख लोगों की नादानी|| (77)
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौडकर सेवक एक|
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मृत हो गया सभी विवेक|| (78)
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दृष्ट को लाओ|
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ|| (79)
मेरे रह्ते भोली-भाली, शिरडी की जनता को|
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को|| (80)
पलभर में हि ऐसे ढोंगी, कपटी, नीच, लुटेरे को|
महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को|| (81)
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को|
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को|| (82)
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर|
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर|| (83)
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में|
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में|| (84)
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभुषण धारण कर|
बढता इस दुनिया में जो भी, मानव-सेवा के पथ पर|| (85)
वही जीत लेता है जगती के, जन-जन का अंतःस्तल|
उसकी एक उदासी ही जग, को कर देती है विहल|| (86)
जब-जब जग में भार पाप का, बढता ही जाता है|
उसे मिटाने के ही खातिर, अवतारी हो आता है|| (87)
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के|
दूर भागा देता दुनियाँ के, दनाव को क्षण भर में|| (88)
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती हैं दुनियाँ में|
गले परस्पर मिलने लगते, है जन-जन आपस में|| (89)
ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्यु लोक में आ कर|
समता का पाठ पढाया, सबका अपना आप मिटाकर|| (90)
नाम द्रारका मस्जिद का, रक्खा शिरडी में साईं ने|
दाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने|| (91)
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रह्ते थे साईं|
पहर आठ ही राम नाम का, भजते रह्ते थे साईं|| (92)
सूखी-रुखी, ताजी-बासी, चाहे या होवे पकवान|
सदा प्यार के भूखे साईं सबके, खातिर एक समान|| (93)
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे|
बडे‌ चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे|| (94)
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे|
प्रमुदित मन में, निरख प्रकृति, आनंदित वे हो जाते थे|| (95)
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके|
बीहड़ वीराने मन में भी, स्नेह सलिल भर जाते थे|| (96)
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुःख, आपद, विपदा के मारे|
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रह्ते बाबा को घेरे|| (97)
सुनकर जिनकी करुणा कथा को, नयन कमल भर आते थे|
दे विभुति हर व्यथा शांति, उनके उर में भर देते थे|| (98)
जाने क्या अदभुत शाक्ति, उस विभुति में होती थी|
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी|| (99)
धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये|
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये|| (100)
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता|
वर्षों से उजडा‌ चमन अपना, फिर से आज खिल जाता|| (101)
गर पकडता मैं चरण श्री के, नहीं छोंडता उम्र भर|
मना लेता मैं जरुर उनको, गर रुठते साईं मुझ पर|| (102)


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ