अरबिंदो घोष

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अरबिंदो घोष
पूरा नाम अरबिंदो घोष
जन्म 15 अगस्त, 1872
जन्म भूमि कोलकाता, भारत
मृत्यु 5 दिसम्बर, 1950
मृत्यु स्थान पाण्डिचेरी, भारत
कर्म भूमि पाण्डिचेरी
कर्म-क्षेत्र कवि, दार्शनिक, स्वतन्त्रता सेनानी
मुख्य रचनाएँ एस्सेज़ आन गीता (1928), द लाइफ़ डिवाइन (1940), कलेक्टेड पोयम्स एण्ड प्लेज (1942), द सिंथेसिस ऑफ़ योगा (1948), द ह्यूमन साइकिल (1949), द आईडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949), ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950) और ऑन द वेदा (1956)।
विषय दार्शनिक चिंतन, कविता, नाटक और अन्य लेख
विद्यालय ईसाई कॉन्वेंट स्कूल, कैंब्रिज विश्वविद्यालय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

अरबिंदो श्री का मूल नाम अरबिंदो घोष (जन्म- 15 अगस्त, 1872, कोलकाता - मृत्यु- 5 दिसम्बर, 1950, पाण्डिचेरी), अरविंद भी कहा जाता है। आधुनिक काल में भारत में अनेक महान क्रांतिकारी और योगी हुए हैं। पहले क्रांतिकारी और बाद में महान योगी बने अरबिंदो घोष उनमें अद्वितीय हैं। अरविंदो घोष कवि और भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से सार्वभौमिक मोक्ष का दर्शन प्रतिपादित किया।

परिचय

अरबिंदो घोष का जन्म बंगाल के कलकत्ता, वर्तमान कोलकाता, भारत में एक सम्पन्न परिवार में 15 अगस्त, 1872 को हुआ। उनके पिता का नाम डॉक्टर कृष्ण धन घोष और माता का नाम स्वर्णलता देवी था। इनके पिता पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए थे। इसलिए उन्होंने अरबिंदो को दो बड़े भाइयों के साथ दार्जिलिंग के एक अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। दो वर्ष बाद सात वर्ष की अवस्था में उनके पिता उन्हें इंग्लैण्ड ले गए।

शिक्षा

अरबिंदो घोष की शिक्षा दार्जिलिंग में ईसाई कॉन्वेंट स्कूल में प्रारम्भ हुई और लड़कपन में ही उन्हें आगे की स्कूली शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया। इंग्लैण्ड में एक अंग्रेज़ परिवार में रहने और पढ़ने की व्यवस्था कर तीनों भाइयों को छोड़ वह वापस आ गये। इंग्लैण्ड में अरबिंदो घोष की भेंट बड़ौदा नरेश से हुई। बड़ौदा नरेश अरबिंदो की योग्यता देखकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अरबिंदो को अपना प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त कर लिया। अत: वह भारत लौट आये। अरबिंदो ने कुछ समय तक तो यह कार्य किया, किन्तु फिर अपनी स्वतंत्र विचारधारा के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। वह बड़ौदा कॉलेज में पहले प्रोफेसर बने और फिर बाद में वाइस प्रिंसीपल भी बने। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहाँ पर वे दो शास्त्रीय और तीन आधुनिक यूरोपीय भाषाओं के कुशल ज्ञाता बन गए। 1892 में भारत लौटने पर उन्होंने बड़ौदा, वर्तमान वडोदरा और कोलकाता में विभिन्न प्रशासनिक व प्राध्यापकीय पदों पर कार्य किया। बाद में उन्होंने अपनी देशज संस्कृति की ओर ध्यान दिया और पुरातन संस्कृत सहित भारतीय भाषाओं तथा योग का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया।

राजनीतिक गतिविधियाँ

अरबिंदो के लिए 1902 से 1910 के वर्ष हलचल भरे थे, क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था। बड़ौदा कॉलेज की नौकरी छोड़कर वह कोलकाता चले गए और कोलकाता के 'नेशनल कॉलेज' के प्रिंसीपल बने। इस समय तक उन्होंने 'सादा जीवन और उच्च विचार' जीवन अपना लिया। उन पर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के साहित्य का बहुत गहन प्रभाव हुआ। सन 1905 में लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल के रूप में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए ताकि हिन्दू और मुसलमानों में फूट पड़ सके। इस बंग-भंग के कारण बंगाल में जन जन में असंतोष फैल गया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर और अरबिंदो घोष ने इस जन आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन के विषय में लोकमान्य तिलक ने कहा - बंगाल पर किया गया अंग्रेज़ों का प्रहार सम्पूर्ण राष्ट्र पर प्रहार है।

अरबिंदो घोष ने राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने तथा अंग्रेज़ों का विरोध प्रदर्शित करने के लिए पत्र - पत्रिकाओं में विचारोत्तेजक और प्रभावशाली लेख लिखे। उनके लेखों से जन जन में जागृति आ गयी। ब्रिटिश सरकार उनके इस क्रिया कलापों से चिंतित हो गई। सरकार ने "अलीपुर बम कांड" के अंतर्गत उन्हें जेल भेज दिया। जेल में उन्हें योग पर चिंतन करने का समय मिला। उन्होंने सन 1907 में राष्ट्रीयता के साथ भारत को "भारत माता" के रूप में वर्णित और प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बंगाल में "क्रांतिकारी दल" का संगठन किया और उसका प्रचार और प्रसार करने को अनेक शाखाएं खोली और वे स्वयं उसके प्रधान संचालक बने रहे। खुदीराम बोस और कनाईलाल दत्त, यह क्रांतिकारी उनके संगठन के ही क्रांतिकारी थे। इन गतिविधियों के कारण अरबिंदो घोष अधिक दिनों तक सरकार की नज़रों से छिपे नहीं रह पाये और उन्हें फिर से जेल जाना पड़ा।

वह अपनी राजनीतिक गतिविधियों और क्रान्तिकारी साहित्यिक प्रयासों के लिए 1908 में बन्दी बना लिए गए। 1906 से 1909 तक सिर्फ तीन वर्ष प्रत्यक्ष राजनीति में रहे। इसी में देश भर के लोगों के प्रिय बन गए। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस लिखते है- जब मैं 1913 में कलकत्ता आया, अरबिंदो तब तक किंवदंती पुरुष हो चुके थे। जिस आनंद तथा उत्साह के साथ लोग उनकी चर्चा करते शायद ही किसी की वैसे करते।[1]

दो वर्ष के बाद ब्रिटिश भारत से भागकर उन्होंने दक्षिण–पूर्वी भारत में फ़्राँसीसी उपनिवेश पाण्डिचेरी में शरण ली, जहाँ उन्होंने अपना शेष जीवन पूरी तरह से अपने दर्शन को विकसित करने में लगा दिया। उन्होंने वहाँ पर आध्यात्मिक विकास के अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में एक आश्रम की स्थापना की, जिसकी ओर विश्व भर के छात्र आकर्षित हुए।

भारत के स्वतन्त्र होते ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का आकलन करते हुए श्री अरबिंदो ने भविष्यवाणी की थी - भारत एक बार फिर एशिया का नेता होकर समस्त भूमंडल को एकात्मा की मूलभूत श्रृंखला में आबद्ध करने का महान कार्य सम्पन्न करेगा। भारत की आध्यात्मिकता यूरोप और अमेरिका में प्रवेश कर रही है। इसकी गति थमेगी नहीं, दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाएगी। वर्तमान विपदाओं के बीच लोगों की आँखें आशा के साथ अधिकाधिक उसकी ओर मुड रही हैं और लोग केवल शास्त्रों का ही नहीं, बल्कि उसकी आन्तरिक और आध्यत्मिक साधना का अधिकाधिक आश्रय ग्रहण कर रहे हैं। [2]

सिद्धान्त

अरबिंदो घोष के सार्वभौमिक मोक्ष के सिद्धान्त के अनुसार, ब्रह्म के साथ एकाकार होने के दोमुखी रास्ते हैं—बोधत्व ऊपर से आता है (प्रमेय), जबकि आध्यात्मिक मस्तिष्क यौगिक प्रकाश के माध्यम से नीचे से ऊपर पहुँचने की कोशिश करता है (अप्रमेय)। जब ये दोनों शक्तियाँ एक–दूसरे में मिलती हैं, तब संशय से भरे व्यक्ति का सृजन होता है (संश्लेषण)। यह यौगिक प्रकाश, तर्क व अंतर्बोध से परे अंततः व्यक्ति को वैयक्तिकता के बंधन से मुक्त करता है। इस प्रकार, अरबिंदो ने न केवल व्यक्ति के लिए, बल्कि समूची मानवता के लिए मुक्ति की तार्किक पद्धति का सृजन किया।

साहित्यिक कृतियाँ

अरबिंदो घोष

अरबिंदो घोष की वृहद और जटिल साहित्यिक कृतियों में दार्शनिक चिंतन, कविता, नाटक और अन्य लेख सम्मिलित हैं। उनकी कृतियाँ हैं—

  • द लाइफ़ डिवाइन (1940),
  • द ह्यूमन साइकिल (1949),
  • द आईडियल आफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949),
  • आन द वेदा (1956),
  • कलेक्टेड पोयम्स एण्ड प्लेज (1942),
  • एस्सेज़ आन गीता (1928),
  • द सिंथेसिस आफ़ योगा (1948) और
  • ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950)।

मृत्यु

पांडिचेरी आने के बाद वे सांसारिक कार्यों से अलग होकर आत्मा की खोज में लग गए। पांडिचेरी आने के बाद अरबिंदो घोष अंत तक योगाभ्यास करते रहे और उन्हें परमात्मा से साक्षात्कार की अनुभूति हुई। उनके आध्यात्मिक अनुभवों से असंख्य लोग प्रभावित हुए। उनका दृढ़ विश्वास था कि संसार के दु:ख का निवारण केवल आत्मा के विकास से ही हो सकता है जिसकी प्राप्ति केवल योग द्वारा ही संभव है। वे मानते थे कि योग से ही नई चेतना आ सकती है। अरबिंदो घोष की मृत्यु 5 दिसम्बर, 1950 में पाण्डिचेरी में हुई थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महान योगी श्री अरविन्द (हिन्दी) (पी.एच.पी.) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 14 मार्च, 2011
  2. युग प्रवर्तक बनेगा भारत (हिंदी) (एच.टी.एम.एल.) lakesparadise। अभिगमन तिथि: 14 मार्च, 2011

बाहरी कड़ियाँ

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