दिव्यावदान

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दिव्यावदान / Divyavdan

  • इस बौद्धिक ग्रन्थ में पुष्यमित्र को मौर्य वंश का अन्तिम शासक बतलाया गया है ।
  • इसमें महायान एवं हीनयान दोनों के अंश पाए जाते हैं। विश्वास है कि इसकी सामग्री बहुत कुछ मूल सर्वास्तिवादी विनय से प्राप्त हुई है। दिव्यावदान में दीर्घागम, उदान, स्थविरगाथा आदि के उद्धरण प्राय: मिलते हैं। कहीं-कहीं बौद्ध भिक्षुओं की चर्याओं के नियम भी दिये गये हैं, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि दिव्यावदान मूलत: विनयप्रधान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यात्मक है। इसमें 'दीनार' शब्द का प्रयोग कई बार किया गया है। इसमें शुंगकाल के राजाओं का भी वर्णन है।
  • शार्दूलकर्णावदान का अनुवाद चीनी भाषा में 265 ई. में हुआ था।
  • दिव्यावदान में अशोकावदान एवं कुमारलात की कल्पनामण्डितिका के अनेक उद्धरण हैं। इसकी कथाएं अत्यन्त रोचक हैं। उपगुप्त और मार की कथा तथा कुणालावदान इसके अच्छे उदाहरण हैं।
  • अवदानशतक की सहायता से अनेक अवदानों की रचना हुई है, यथा- कल्पद्रुमावदानमाला, अशोकावदानमाला, द्वाविंशत्यवदानमाला भी अवदानशतक की ऋणी हैं। अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और विचित्रकर्णिकावदान हैं। इनमें से प्राय: सभी अप्रकाशित हैं। कुछ के तिब्बती और चीनी अनुवाद मिलते हैं।
  • क्षेमेन्द्र की अवदानकल्पलता का उल्लेख करना भी प्रसंग प्राप्त है। इस ग्रन्थ की समाप्ति 1052 ई. में हुई। तिब्बत में इस ग्रन्थ का अत्यधिक आदर है। इस संग्रह में 107 कथाएं हैं।
  • क्षेमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने न केवल इस ग्रन्थ की भूमिका ही लिखी, अपितु अपनी ओर से एक कथा भी जोड़ी है। यह जीमूतवाहन अवदान है।