मेधा पाटकर

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मेधा पाटकर
पूरा नाम मेधा पाटकर
जन्म 1 दिसंबर, 1945
जन्म भूमि मुंबई
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि नर्मदा घाटी आंदोलन में सक्रिय
पद सामाजिक कार्यकर्ता
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
शिक्षा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से 1976 में समाज सेवा की मास्टर डिग्री हासिल की।

जीवन परिचय

  • मेधा पाटकर का जन्म 1 दिसम्बर 1954 में मुंबई के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। परिवार में पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री वसंत खानोलकर और मां सामाजिक कार्यकर्ता इंदु खानोलकर जो महिलाओं के शैक्षिक, आर्थिक और स्वास्य के विकास के लिए काम करती थीं - की इस बेटी की परवरिश मुंबई के सामाजिक - राजनीतिक परिवेश में हुई। माता-पिता की प्रेरणा से वह उपेक्षितों की आवाज बनीं।
  • शुरू से ही समाजिक कार्य में रुचि के कारण मेधा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से 1976 में समाज सेवा की मास्टर डिग्री हासिल की। तत्पश्चात् पांच साल तक मुंबई और गुजरात की कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ जुड़कर काम करना शुरू किया। साथ ही टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को पढ़ाने लगी। तीन साल 1977-1979 तक उन्होंने इस संस्थान में अध्यापन का काम किया। विद्यार्थियों को समाज विज्ञान के मैदानी क्षेत्र में काम करने का तरीका भी उन्होंने सिखाया। अध्यापन के दौरान ही शहरी और ग्रामीण सामुदायिक विकास में पीएचडी के लिए पंजीकृत हुई। इस बीच वे परिणय-सूत्र में बंधी, लेकिन यह रिश्ता ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाया और दोनों आपसी सहमति से अलग हो गए। समाज कार्य में सक्रिय मेधा की पीएचडी की तैयारी भी चल रही थी, लेकिन पढ़ाई को अपने काम में बाधक बनते देख उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह समाज सेवा में जुट गई।
  • सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर को नर्मदा घाटी की आवाज़ के रूप में पूरी दुनिया में जाना जाता है। इनकी जिंदगी का ओर-छोर नर्मदा ही है। वह भी भूल गई हैं कि वह मुंबई की रहने वाली हैं। सूती साड़ी और हवाई चप्पल में वह साधारण स्त्री ही नजर आती हैं। जब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना शुरू करती हैं तो समझ आता है कि वह घाट की रहने वाली नहीं हैं। जब भाषण देती है तो वहां जमा होने वाली भीड़ को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी बातों का कितना असर घाटवासियों पर है। मेधा ने सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में गहन शोध किया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित मेधा पाटकर ने सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित होने वाले लगभग 37 हजार गांवों के लोगों को अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ी है। बाद में वे महेश्वर बांध के विस्थापितों के आंदोलन का नेतृत्व भी करने लगीं। 1985 से वह नर्मदा से जुड़े हर आंदोलन में सक्रिय रही हैं, लेकिन चुनावी राजनीति से दूर रहीं। उत्पीडि़तों और विस्थापितों के लिए समर्पित मेधा पाटकर का जीवन शक्ति, उर्जा और वैचारिक उदात्तता की जीती-जागती मिसाल है। उनके संघर्षशील जीवन ने उन्हें पूरे विश्व के महत्त्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किया है। उन्होंने 16 साल नर्मदा घाटी में बिताए हैं। वे ज्यादातर समय घाटी पर ही रहती हैं। कई ऐसे मौक़े आए हैं जब जनता ने मेधा का जुझारू रूप देखा है। 1991 में उन्होंने 22 दिनों का अनशन किया, तब उनकी हालत बहुत बिगड़ गई थी। 1993 और 1994 में भी उन्होंने लंबे उपवास किए। घाटी के लोगों के लिए कम से कम दस बार जेल जा चुकी हैं। उनकी लड़ाई मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सरकार के अलावा विश्व बैंक से भी है। विश्व बैंक को खुली चुनौती देने वाली मेधा पाटकर को अब विश्व बैंक ने अपनी एक सलाहकार समिति का सदस्य बनाया है। उनके संगठन ने बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल की स्थिति में सुधार के लिए काफ़ी काम किया है। मेधा पाटकर ने भारत के सभी जनांदोलनों को एक-दूसरे से जोड़ने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। उन्होंने एक नेटवर्क की शुरूआत की जिसका नाम है - नेशनल एलांयस फॉर पीपुल्स मूवमेंट। मेधा पाटकर देश में जनांदोलन को एक नई परिभाषा देने वाली नेताओं में हैं।

नर्मदा घाटी आंदोलन

  • साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम भारत में क्षेत्र के विकास की बातें चल रही थी। सरकार को लगा, बड़े-बड़े बांध बना देने से नर्मदा घाटी क्षेत्र का विकास होगा। इसी योजना के तहत 1979 में सरदार सरोवर परियोजना बनाई गई। परियोजना के अंतर्गत 30 बड़े, 135 मझोले और 3000 छोटे बांध बनाये जाने का प्रावधान था। परियोजना के अवलोकन के लिए 1985 में मेधा पाटकर ने अपने कुछ सहकर्मियों के साथ नर्मदा घाटी क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने पाया, कि परियोजना के अंतर्गत बहुत सी जरूरी चीजों को नजर-अंदाज किया जा रहा है। मेधा इस बात को पर्यावरण मंत्रालय के संज्ञान में लाई। फलस्वरूप परियोजना को रोकना पड़ा, क्योंकि पर्यावरण के निर्धारित मापदण्डों पर वह खरी नहीं उतर रही थी और बांध निर्माण में व्यापक तौर पर क्षेत्र का अध्ययन नहीं किया गया था।
  • मेधा ने यह भी पाया, कि बांध के कारण डूब में आने वाले इलाकों के लोग अपने अस्तित्व को लेकर सशंकित थे। मेधा ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए उनकी चिंताओं से सरकार को अवगत कराया तथा सरकार की बात लोगों तक पहुंचाई। मेधा ने सार्वजनिक रूप में कहा कि वह बांध का विरोध नहीं कर रही हैं, विस्थापितों के समुचित पुर्नवास के लिए सरकार से उनकी लड़ाई जारी रहेगी। देखते ही देखते मेधा नर्मदा घाटी आंदोलन की सर्वेसर्वा बन गई।
  • 1986 में जब विश्व बैंक ने राज्य सरकार और परियोजना के प्रमुख लोगों को परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता मुहैया कराने की बात की तो मेधा पाटकर ने सोचा कि बिना संगठित हुए विश्व बैंक को नहीं हराया जा सकता। उन्होंने मध्य प्रदेश से सरदार सरोवर बांध तक अपने साथियों के साथ मिलकर 36 दिनों की यात्रा की। यह यात्रा राज्य सरकार और विश्व बैंक को खुली चुनौती थी। इस यात्रा ने लोगों को विकास के वैकल्पिक स्रोतों पर सोचने के लिए मजबूर किया। यह यात्रा पूरी तरह गांधी के आदर्श अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित थी। यात्रा में शामिल लोग सीने पर दोनों हाथ मोड़कर चलते थे। जब यह यात्रा मध्य प्रदेश से गुजरात की सीमा पर पहुंचीं तो पुलिस ने यात्रियों के ऊपर हिंसक प्रहार किए और महिलाओं के कपड़े भी फाड़े। यह सारी बातें मीडिया में आते ही मेधा के संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान गया और उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत की। मेधा पाटकर ने परियोजना रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के सामने धरना-प्रदर्शन करना शुरू किया। सात सालों तक लगातार विरोध के बाद विश्व बैंक ने हार मान ली और परियोजना को आर्थिक सहायता देने से मना कर दिया। लेकिन विश्व बैंक के हाथ खींच लेने के बाद केंन्द्र सरकार अपनी ओर से परियोजना को आर्थिक मदद देने के लिए आगे आ गई।
  • जब नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे बांध की ऊंचाई बढ़ाने का सरकार ने फैसला लिया, तो इसके विरोध में मेधा पाटकर 28 मार्च,2006 को अनशन पर बैठ गईं। उनके इस कदम ने एक बार फिर पूरी दुनिया का ध्यान उनकी तरफ खींचा। उन्होंने बांध बनाए जाने के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन वह खारिज कर दी गई। मध्य प्रदेश और गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र के जरिए नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया कि वे प्रभावित परिवारों के लिए चल रहे राहत व पुर्नवास कार्यों में विदेशियों की मदद से बाधा पहुंचा रहे हैं। दोनों राज्य सरकारों ने उनपर राष्टद्रोह का आरोप लगाते हुए सीबीआई से जांच की मांग की। आज भी मेधा विस्थापितों की लड़ाई लड़ रही हैं। उनका कहना है कि सालों से चल रही यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक सभी प्रभावित परिवारों का पुर्नवास सही ढंग से नहीं हो जाता।

पुरस्कार एवं सम्मान

  1. निसर्ग प्रतिष्ठान, सांगली द्वारा निसर्ग भूषण पुरस्कार - 1994
  2. श्रीमती राजमति नेमगोण्डा पाटिल ट्रस्ट द्वारा जनसेवा पुरस्कार - 1995
  3. स्व. श्री रामचंद्र रघुवंशी काकाजी स्मृति, उज्जैन की ओर से राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवार्ड - 2008
  4. रूईया कॉलेज एल्यूमिनी एसो. की ओर से वैल ऑफ रूईया - 2009
  5. सोसाइटी ऑफ वैनगार्ड, औरंगाबाद की ओर से श्री प्रकाश चिरगोपेकर स्मृति पुरस्कार - 1995
  6. जस्टिस केएस हेगडे फाउण्डेशन अवार्ड, मैंगलोर - 1994
  7. प्रेस क्लब, अंजड़ की ओर से अवार्ड ऑफ ऑनर - 1994
  8. स्व. जमुनाबेन कुटमुटिया महाराष्ट गो विज्ञान समिति, मालेगांव, नासिक की ओर से लोक सेवक पुरस्कार - 1995
  9. स्वर्गीय बेरिस्टर नाथ पई अवार्ड
  10. छात्र भारती अवार्ड
  11. प्रभा पुरस्कार
  12. जमुनाबेन कुटमुटिया स्त्री शक्ति पुरस्कार - 1995
  13. निसर्ग सेवक पुरस्कार - 1995
  14. डॉ एमए थॅमस ह्यूमन राइट्स अवार्ड - 1999
  15. महात्मा फुले अवार्ड - 1999
  16. दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड - 1999
  17. जनसेवा पुरस्कार - 1995
  18. राइट लाइफहुड अवार्ड (आल्टरनेटिव नोबेल प्राइज), स्वीडेन - 1992
  19. गोल्डन एन्वायरमेंट अवार्ड - 1993
  20. बेस्ट इंटरनेशनल पॉलिटिकल केम्पेनर, बीबीसी, इंग्लैण्ड की ओर से ग्रीन रिवन अवार्ड - 1995
  21. एमीनेस्टी इंटरनेशनल, जर्मनी की ओर से ह्यूमन राइट्स डिफेन्डर अवार्ड - 1999



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