ग़ालिब

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ग़ालिब
पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब'
जन्म 27 दिसम्बर 1797
जन्म भूमि आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869
पति/पत्नी उमराव बेगम
कर्म भूमि दिल्ली
कर्म-क्षेत्र शायर
मुख्य रचनाएँ 'दीवाने-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
विषय उर्दू शायरी
भाषा उर्दू और फ़ारसी भाषा
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान, जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 ई. में हुआ और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 ई. में हुई। उनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा था। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।

वंश परम्परा

ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में पारसी धर्म के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी'[1] को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)[2] अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।

फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों-एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को ईरान का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।

दादा और पिता

तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ, शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक लाहौर में रहे, और फिर दिल्ली चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे।

अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।[3] अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।

ग़ालिब का जन्म

मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ का जन्म ननिहाल, आगरा में 27 सितम्बर, 1797 ई. को रात के समय हुआ था। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे, इसीलिए ज़्यादातर इनका लालन-पालन ननिहाल में ही हुआ। जब ये पाँच साल के थे, तभी पिता का देहान्त हो गया था। पिता के बाद चचा नसरुल्ला बेग ख़ाँ ने स्वयं इन्हें बड़े प्यार से पाला। नसरुल्ला बेग ख़ाँ मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे, पर जब लॉर्ड लेक ने मराठों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया, तब यह पद भी छूट गया और उसकी जगह एक अंग्रेज़ कमीश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्ला बेग ख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़खउद्दौला अहमदबख़्श ख़ाँ की लॉर्ड लेक से मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्ला बेग अंग्रेज़ी सेना में 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गए। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रुपये तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होल्कर के सिपाहियों से छीन लिए, जो बाद में लॉर्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिए गए। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख-डेढ़ लाख सालाना आमदानी थी।

चचा की मृत्यु और पेंशन

एक ही साल बाद चचा की मृत्यु हो गई[4]। लॉर्ड लेक द्वारा नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ को फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा 25,000 सालाना कर पर मिला हुआ था। नसरुल्ला बेग ख़ाँ की मृत्यु के बाद उन्होंने यह फ़ैसला करा लिया कि, 25,000 का कर माफ़ कर दिया जाए। इसकी जगह 50 सवारों का एक 'रिसाला' (सैनिकों की एक टुकड़ी) रखूँ, जिस पर 15,000 सालाना ख़र्च होगा, और जो आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेज़ सरकार की सेवा के लिए भेजा जाएगा। शेष 10,000 नसरुल्ला बेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों को वृत्ति रूप में दिया जाए। यह शर्त मान ली गई[5]

बचपन एवं प्रारम्भिक शिक्षा

यह ठीक है कि पिता की मृत्यु के बाद चचा ने ही इनका पालन किया था, पर शीघ्र ही इनकी भी मृत्यु हो गई थी और ये अपनी ननिहाल में आ गए। पिता स्वयं घर-जमाई की तरह सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खुशहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन अधिकतर वहीं पर बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी। ग़ालिब ख़ुद अपने एक पत्र में ‘मफ़ीदुल ख़यायक़’ प्रेस के मालिक मुंशी शिवनारायण को, जिनके दादा के साथ ग़ालिब के नाना की गहरी दोस्ती थी, लिखते हैं-
“हमारी बड़ी हवेली वह है, जो अब लक्खीचन्द सेठ ने मोल ली है। इसी के दरवाज़े की संगीन बारहदरी पर मेरी नशस्त थी[6]। और उसी के पास एक ‘खटियावाली हवेली’ और सलीमशाह के तकिया के पास दूसरी हवेली और काले महल से लगी हुई एक और हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा जो की ‘गड़रियों वाला’ मशहूर था और एक दूसरा कटरा जो कि ‘कश्मीरन वाला’ कहलाता था। इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ा करते थे।”

इस प्रकार से ननिहाल में मज़े से गुज़रती थी। आराम ही आराम था। एक ओर खुशहाल, परन्तु पतलशील उच्च मध्यमवर्ग की जीवन विधि के अनुसार इन्हें पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी, दूसरी ओर उच्च कोटि के बुज़ुर्गों की सोहबत का लाभ मिला। इनकी माँ स्वयं शिक्षित थीं, पर ग़ालिब को नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। हाँ, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान 'मौलवी मोहम्मद मोवज्जम' से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द ही वह जहूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे। बल्कि फ़ारसी में ग़ज़लें भी लिखने लगे।

अब्दुस्समद से मुलाक़ात

इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये, इन्हीं के यहाँ दो साल तक वे रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठित और वैभव सम्पन्न व्यक्ति थे, और यज़्द के रहने वाले थे। पहले ज़रतुस्त्र के अनुयायी थे, पर बाद में इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। इनका पुराना नाम 'हरमुज़्द' था। फ़ारसी तो इनकी घुट्टी में थी। अरबी भाषा का भी इन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इस समय मिर्ज़ा 14 वर्ष के थे और फ़ारसी में उन्होंने अपनी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया, और उसमें ऐसे पारंगत हो गए कि जैसे खुद भी ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे, और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उड़ेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गए तब भी दोनों का पत्र व्यवहार जारी रहा।

क़ाज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्ज़ा से स्वयं भी एकाध बार भी सुना गया कि ‘अब्दुस्समद’ एक फ़र्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग 'बे-उस्ताद' (बिन गुरु का) कहते थे। उनका मुँह बन्द करने के लिए मैंने एक फ़र्ज़ी उस्ताद गढ़ लिया है।[7] पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं।

वातावरण का प्रभाव

ग़ालिब में उच्च प्रेरणाएँ जागृत करने का काम शिक्षण से भी ज़्यादा उस वातावरण ने किया, जो इनके इर्द-गिर्द था। जिस मुहल्ले में वह रहते थे, वह (गुलाबख़ाना) उस ज़माने में फ़ारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। रूम के भाष्यकार मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वग़ैरा फ़ारसी के एक-से-एक विद्वान वहाँ रहते थे। वातावरण में फ़ारसीयत भरी थी। इसीलिए यह उससे प्रभावित न होते, यह कैसे सम्भव था। पर जहाँ एक ओर यह तालीम-तर्वियत थी, वहीं ऐशो-इशरत की महफ़िलें भी इनके इर्द-गिर्द बिखरी हुई थीं। दुलारे थे, पैसे-रुपये की कमी नहीं थी। पिता एवं चचा के मर जाने से कोई दबाव रखने वाला न था। किशोरावस्था, तबीयत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमें (जमघट), खाने-पीने शतरंज, कबूतरबाज़ी, यौवनोन्माद सबका जमघट। आदतें बिगड़ गईं। हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा। ऐशो-इशरत का बाज़ार गर्म हुआ। 24-25 वर्ष की आयु तक ख़ूब रंगरेलियाँ कीं, पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया। ज़्यादातर बुरी आदतें दूर हो गईं, पर मदिरा पान की लत लगी सो मरते दम तक न छूटी।

शेरो-शायरी की शुरूआत

इनकी काव्यगत प्रेरणाएँ स्वाभाविक थीं। बचपन से ही इन्हें शेरो-शायरी की लत लगी। इश्क़ ने उसे उभारा, 'गो' (यद्यपि) वह इश्क़ बहुत छिछला और बाज़ारू था। जब यह मोहम्मद मोअज्ज़म के 'मकतबे' (पाठशाला, मदरसा) में पढ़ते थे और 10-11 वर्ष के थे, तभी से इन्होंने शेर कहना आरम्भ कर दिया था। शुरू में बेदिल एवं शौक़त के रंग में कहते थे। बेदिल की छाप बचपन से ही पड़ी। 25 वर्ष की आयु में दो हज़ार शेरों का एक 'दीवान' तैयार हो गया। इसमें वही चूमा-चाटी, वही स्त्रैण भावनाएँ, वही पिटे-पिटाए मज़मून (लेख, विषय) थे। एक बार उनके किसी हितैषी ने इनके कुछ शेर मीर तक़ी ‘मीर’ को सुनाए। सुनकर ‘मीर’ ने कहा, ‘अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जायेगा। बर्ना 'महमिल' (निरर्थक) बकने लगेगा।’ मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई। सचमुच यह महमिल बकने लगे थे, पर अन्त: प्रेरणा एवं बुज़ुर्गों की कृपा से उस स्तर से ऊपर उठ गये। ‘मीर’ की मृत्यु के समय ग़ालिब केवल 13 वर्ष के थे और दो ही तीन साल पहले उन्होंने शेर कहने शुरू किए थे। प्रारम्भ में ही इस छोकरे की (ग़ालिब) कवि की ग़ज़ल इतनी दूर लखनऊ में ‘खुदाए-सखुन’ ‘मीर’ के सामने पढ़ी गई और ‘मीर’ ने, जो बड़ों-बड़ों को ख़ातिरों में न लाते थे, इनकी सुप्त प्रतिभा को देखकर इनकी रचनाओं पर सम्मति दी। इससे ही जान पड़ता है कि प्रारम्भ से ही इनमें उच्च कवि के बीज थे।

विवाह एवं सामाजिक स्थिति

जब असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उपराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
"7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स[8] सादिर[9] हुआ। एक बेड़ी (यानी बीबी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान[10] मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।"
मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो वर्ष के शिक्षण के बाद असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए। दिल्ली में यद्यपि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो निश्चित है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक स्थिति बहुत हलकी थी। इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को राजकुमारों का ऐश्वर्य प्राप्त था। यौवन काल में इलाहीबख़्श की जीवन विधि को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा। असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे। उनके पिता-दादा फ़ौज में उच्चाधिकारी रह चुके थे। इसीलिए ससुर को आशा रही होगी कि, असदउल्ला ख़ाँ भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे एवं बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका। आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए।

दिल्ली आने का कारण

मिर्ज़ा (ग़ालिब) के ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ न केवल वैभवशाली थे, वरन चरित्रवान, धर्मनिष्ठ तथा अच्छे कवि भी थे। वह ‘जौक़’ के शिष्यों में से एक थे। विवाह के दो-तीन वर्ष बाद ही मिर्ज़ा (ग़ालिब) स्थायी रूप से दिल्ली आ गए और उनके जीवन का अधिकांश भाग दिल्ली में ही गुज़रा। ग़ालिब के पिता की अपेक्षा उनके चचा की हालत कहीं अच्छी थी और उनका सम्मान भी अधिक था। पिता का तो अपना घर भी नहीं था। वह जन्म भर इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे, जब तक रहे, घर-जमाई बनकर ही रहे। घर-जमाई का ससुराल में प्रधान स्थान नहीं होता, क्योंकि उसकी सारी स्थिति अपनी पत्नि से पायी हुई स्थिति होती है। मिर्ज़ा का बचपन ननिहाल में आराम से भले ही बीता हो, लेकिन पिता के मरने के बाद उनसे जैसे भावुक बच्चे पर अपनी यतीमी का भी असर पड़ा होगा। उन्होंने कभी यह भी ख़्याल नहीं किया होगा कि मेरा इसमें क्या है। चचा की मृत्यु के बाद ये विचार और प्रबल एवं कष्टजनक हुए होंगे। यतीमी के कारण इनका ठीक राह से भटक जाना और लंफगाई करना स्वाभाविक-सा रहा होगा। दिल्ली आने का भी कारण सम्भत: यही था कि यहाँ कुछ अपना बना सकूँगा। दिल्ली आने पर कुछ समय तक तो माँ कभी-कभी उनकी सहायता करती रहीं, लेकिन मिर्ज़ा के असंख्य पत्रों में कहीं भी मामा वग़ैरा से किसी प्रकार की मदद मिलने का उल्लेख नहीं है। इसीलिए जान पड़ता है कि, धीरे-धीरे इनका सम्बन्ध ननिहाल से बिल्कुल समाप्त हो गया था।

प्रारम्भिक काव्य

दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहाँ उन्हें तसव्वुफ़ (धर्मवाद, आध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा, और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि आगरा में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में दिल्ली में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्ज़ा का वही तर्ज़ रहा, पर बाद में वह सम्भल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियाँ उसके अन्तर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अन्दर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक परदा हो, अन्दर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है। इनके प्रारम्भिक काव्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं-

नियाज़े-इश्क़, [11] ख़िर्मनसोज़ असबाबे-हविस बेहतर।
जो हो जावें निसारे-बर्क़[12] मुश्ते-ख़ारो-ख़स बेहतर।

देखता हूँ उसे थी जिसकी तमन्ना मुझको।
आज बेदारी[13] में है ख़्वाबे-ज़ुलेखा मुझको।

हँसते हैं देख-देख के सब नातवाँ[14] मुझे।
यह रंगे-ज़ुर्द[15] है चमने-ज़ाफ़राँ मुझे।

इक गर्म आह की तो हज़ारों के घर जले।
रखते हैं इश्क़ में ये असर हम जिगर जले।
परवाने का न ग़म हो तो फिर किसलिए ‘असद’
हर रात शमअ शाम से ले तास हर जले।

ऊपर जो शेर दिए गए हैं, उनमें एक संवेदना, रसशीलता तो है पर उनकी अपेक्षा उनमें एक छटपटाहट, बेचैनी, जवानी के उड़ते हुए सपनों की छाया और कृत्रिम और कल्पनाओं की उछल-कूद अधिक है। कोई मौलिक भावना नहीं; कोई उथल-पुथल कर देने वाली प्रेरणा नहीं। हाँ, इतना है कि बचपन से ही इनमें कवि-प्रतिभा के बीज दिखाई पड़ते हैं। 7-8 वर्ष की आयु में यह उर्दू (रेखती) तथा 11-12 वर्ष में फ़ारसी में कविता करने लगे थे।

आर्थिक कठिनाइयाँ एवं मुसीबतें

विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ती ही गईं। आगरा, ननिहाल में इनके दिन आराम व रईसीयत से बीतते थे। दिल्ली में भी कुछ दिनों तक रंग रहा। साढ़े सात सौ सालाना पेंशन नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ के यहाँ से मिलती थी। वह यों भी कुछ न कुछ देते रहते थे। माँ के यहाँ से भी कभी-कभी कुछ आ जाता था। अलवर से भी कुछ मिल जाता था। इस तरह मज़े में गुज़रती थी। पर शीघ्र ही पासा पलट गया। 1822 ई. में ब्रिटिश सरकार एवं अलवर दरबार की स्वीकृति से नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अपनी जायदाद का बँटवारा यों किया, कि उनके बाद फ़ीरोज़पुर झुर्का की गद्दी पर उनके बड़े लड़के शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ बैठे तथा लोहारू की जागीरें उनके दोनों छोटे बेटों अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ और ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ को मिले। शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ की माँ बहूख़ानम थीं, और अन्य दोनों की बेगमजान। स्वभावत: दोनों औरतों में प्रतिद्वन्द्विता थी और भाइयों के भी दो गिरोह बन गए। आपस में इनकी पटती नहीं थी। बाद में झगड़ा न हो इस भय से नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अपने जीवन काल में ही इस बँटवारे को कार्यान्वित कर दिया और स्वयं एकान्तवास करने लगे। इस प्रकार शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ फ़िरोज़पुर झुर्का के नवाब हो गए और दूसरे दोनों भाइयों को लोहारू का इलाक़ा मिल गया।

इस बँटवारे से ‘ग़ालिब’ भी प्रभावित हुए। भविष्य के लिए पेंशन नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ से सम्बद्ध हो गई, जबकि इनका सम्बन्ध अन्य दो भाइयों से अधिक मित्रतापूर्ण था। इसीलिए अब इनकी पेंशन में तरह-तरह के रोड़े अटकाए गए, और अप्रैल 1831 में पेंशन बिल्कुल बन्द कर दी गई। यद्यपि 1835 में चार वर्ष का बकाया पूरे का पूरा मिला। पर बीच में सारी व्यवस्था भंग हो जाने से बड़ा कष्ट हुआ। क़र्ज़ बढ़ा। फिर नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ बीच-बीच में कुछ देते रहते थे, वह भी बन्द हो गया, क्योंकि वे बिल्कुल एकान्तवासी हो गए थे और किसी भी मामले में दख़ल नहीं देते थे। ‘ग़ालिब’ की यह हालत देखकर ऋणदाताओं ने भी अपने रुपये माँगना शुरू किया। तक़ाज़ों से इनकी नाक में दम हो गया। इधर यह हाल था, उधर ‘ग़ालिब’ के छोटे भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ भरी जवानी (28 वर्ष की आयु में) पाग़ल हो गए। चारों ओर से कठिनाइयाँ एवं मुसीबतें एक साथ उठ खड़ी हुईं और ज़िन्दगी दूभर हो गई।

अमीरी शान और प्रतिष्ठा

इधर यह अर्थकष्ट एवं अन्य विपत्तियाँ, उधर ग़रीबी में भी अमीरी शान। ससुराल के कारण मिर्ज़ा (ग़ालिब) का परिचय दिल्ली के अधिक प्रतिष्ठित समाज में हो गया था। बड़ों-बड़ों से उनका मिलना-जुलना और मित्रता थी। उधर साढ़े बासठ रुपये की मासिक आय, इधर ससुराल का वैभवपूर्ण जीवन। मिर्ज़ा शान वाले आदमी थे, वह अपनी पत्नी के मायके में किसी के आगे सिर नीचा न होने देते थे। शेरो-शायरी के कारण भी इनकी प्रतिष्ठा थी। इसीलिए थोड़ी आमदनी में ऊपरी शानो-शौक़त क़ायम रखना और भी मुश्किल हो रहा था। ससुराल की रियासत में से पेंशन का जो इन्तज़ाम था, उसमें से ख़्वाजा हाजी नामक एक और व्यक्ति का हिस्सा था। [16] ख़्वाजा हाजी मिर्ज़ा नसरुल्लाबेग ख़ाँ के अधीन उनके 400 सवारों के रिसाले में एक अफ़सर थे। बाद में जब रिसाला टूटा तो उसमें से पचास सवार नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ को दिए गए थे। ख़्वाजा हाजी इसी पचास सवारों के रिसाले के अफ़सर बना दिए गए थे। मतलब यह कि जब मिर्ज़ा नसरुल्लाबेग ख़ाँ के परिवार एवं आश्रितों के लिए पाँच हज़ार वार्षिक पेंशन तय हुई, तो उसमें दो हज़ार ख़्वाजा हाजी को देने की व्यवस्था नवाब अहमदबख़्श ने कर दी। 1826 ई. में ख़्वाजा हाजी की मृत्यु हो गई। ‘ग़ालिब’ ख़्वाजा हाजी के पेंशन देने के विरोधी थे, पर यह सोचकर चुप हो गए कि पेंशन हाजी की ज़िन्दगी भर के लिए ही है, और उसकी मृत्यु पर हमारे पास ही लौट आवेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हाजी का हिस्सा उनके दोनों बेटों शम्सुद्दीन ख़ाँ (उर्फ़ खाजा जान) और बदरुद्दीन ख़ाँ (उर्फ़ खाजा अमान) के नाम कर दिया गया। इससे वह और भी चिढ़ गए। उन्होंने विरोध भी किया पर उसका कोई परिणाम नहीं हुआ। तब उन्होंने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) जाकर इस निर्णय के विरुद्ध गवर्नर-जनरल की कौंसिल से अपील करने का निश्चय किया।

झगड़े का मूल कारण

इस झगड़े का मूल रूप यह था कि नवाब अहमदबख़्श के तीन पुत्र थे-नवाब अमीनुद्दीन तथा नवाब जियाउद्दीन और इन दोनों के सौतेले भाई और उर्दू के प्रसिद्ध कवि ‘दाग़’ के जनक नवाब शम्सुद्दीन। अहमदबख़्श शम्सुद्दीन को ज़्यादा मानते थे और उन्होंने महाराज अलवर तथा ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति से उन्हीं को अपना उत्तराधिकारी माना था। किन्तु इस निर्णय से दूसरे दो भाई स्वभावत: नाराज़ थे। झगड़ा खड़ा होने के डर से अहमदबख़्श ने इस बात पर शम्सुद्दीन ख़ाँ को राज़ी किया कि परगना लोहारू, कुछ शर्तों के साथ, दूसरे दोनों भाइयों को दे दे। शेष जागीर का प्रबन्ध शम्सुद्दीन ने स्वयं अपने हाथों में ले लिया। 1826 में यही हुआ था।

पर एक और कठिनाई थी। ‘ग़ालिब’ के चचा नसरुल्लाबेग ख़ाँ की जागीर भी नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की जागीर मे शामिल हो गयी थी। इस अन्याय से मिर्ज़ा दुखी थे। नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने नसरुल्लाबेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों के भरण-पोषण के लिए वृत्ति देने का वादा किया था। नसरुल्लाबेग ख़ाँ के कोई सन्तान न थी। इसीलिए स्वाभाविक उत्तराधिकार ‘ग़ालिब’ तथा उनके छोटे भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ तथा उनकी माँ-बहनों को मिलना चाहिए था। नसरुल्लाबेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों के लिए शुरू में दस हज़ार सालाना पेंशन नियत हुई थी। किन्तु नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ सिर्फ़ 3 हज़ार ही देते थे, जिसमें से मिर्ज़ा के हिस्से में केवल साढ़े सात सौ आता था। आरम्भ में तो अहमदबख़्श से इनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे और वह समय-समय पर इन्हें और भी आर्थिक सहायता देते रहते थे। इसीलिए मामले ने तूल नहीं पकड़ा। परन्तु 1826 ई. में ‘ग़ालिब’ के ससुर एवं नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ के छोटे भाई इलाहीबख़्श ख़ाँ की मृत्यु हो गई। स्वभावत: पुराने सम्बन्धों में कड़वाहट आ गई। इस समय ‘ग़ालिब’ 29 वर्ष के थे। उनकी ज़िन्दगी ऐशो-आराम में बीती थी। लोग नवाब के साथ इनके सम्बन्धों के कारण क़र्ज़ भी आसानी से दे देते थे। पर अब जबकि वृत्तियाँ कम कर दी गईं और नवाब से वह सुखद सम्बन्ध भी नहीं रहे तो, ऋणदाताओं ने रुपये माँगना शुरू कर दिया। ‘ग़ालिब’ को अंदरूनी बातें मालूम न थीं और वह यही समझ बैठे थे कि सरकार ने जो परगने दिए थे, वे दस हज़ार सालाना के थे और सिर्फ़ उनके चचा को दिए गए थे। इसीलिए जब हाजी के लड़कों को वारिस बनाया गया तो उन्होंने उसका विरोध किया। नवाब अहमदबख़्श को समझाने के लिए वह ख़ुद फ़ीरोज़पुर झुर्का गए। वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि नवाब साहब अलवर गए हुए हैं। उन्हें वहाँ कुछ दिन टिकना पड़ा। जब नवाब लौटे तब उन्होंने सारी बात कही, लेकिन नवाब ने व्यवस्था में कोई परिवर्तन करने से इन्कार कर दिया। तब वह निराश होकर लौटे और तभी उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से अपील करने का निश्चय कर लिया था।

अहमदबख़्श ख़ाँ द्वारा गुप्त परिवर्तन

असलियत यह थी कि नसरुल्लाबेग की मृत्यु के बाद उनकी जागीर (सोंख और सोंसा) अंग्रेज़ों ने ली थी। बाद में 25 हज़ार सालाना पर अहमदबख़्श को दे दी गई। 4 मई, 1806 को लॉर्ड लेक ने अहमदबख़्श ख़ाँ से मिलने वाली 25 हज़ार वार्षिक मालगुज़ारी इस शर्त पर माफ़ कर दी कि वह दस हज़ार सालाना नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दे। पर इसके चन्द दिनों बाद ही 7 जून, 1806 को नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने लॉर्ड लेक से मिल-मिलाकर इसमें गुपचुप परिवर्तन करा लिया था कि, सिर्फ़ 5 हज़ार सालाना ही नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दिए जायें और इसमें ख़्वाजा हाजी भी शामिल रहेगा। इस गुप्त परिवर्तन एवं संशोधन का ज्ञान ‘ग़ालिब’ को नहीं था। इसलिए फ़ीरोज़पुर झुर्का के शासक पर दावा दायर कर दिया कि उन्होंने एक तो आदेश के विरुद्ध पेंशन आधी कर दी, फिर उस आधी में भी ख़्वाजा जी को शामिल कर लिया।

ग़ालिब का विश्वास

मिर्ज़ा को विश्वास था कि उनके कलकत्ता जाने और गवर्नर-जनरल तथा अन्य उच्चाधिकारियों से मिलने का मुक़दमे पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। उस ज़माने में जब यात्रा के इतने साधन सुलभ नहीं थे, मिर्ज़ा ने बहुत विवश होने पर ही इस लम्बी यात्रा का निश्चय किया होगा। अगस्त 1826 ई. के लगभग वह दिल्ली से कलकत्ता जाने के लिए रवाना हुए। लखनऊ के काव्य प्रेमी एवं विद्वज्जन बहुत समय से ही इन्हें बुला रहे थे। पर मौक़ा न मिलता था। अब वह कलकत्ता के लिए निकले तो कानपुर से लखनऊ होते हुए वहाँ जाना तय किया। लखनऊ वालों ने उनका हार्दिक स्वागत किया; उन्हें सिर आँखों पर बिठाया। निम्नलिखित क़ते में उन्होंने लखनऊ का ज़िक्र इस प्रकार से किया है-

वाँ पहुँचकर जो ग़श आता पैहम है हमको।
सद रहे आहंगे-ज़मीं बोसे क़दम है हमको।
लखनऊ आने का बाइस[17] नहीं खुलता यानी,
हविसे-सैरो-तमाशा सो वह कम है हमको।
ताक़त रंजे सफ़र ही नहीं पाते इतना,
हिज्रे याराने वतन[18] का भी आलम[19] है हमको।

शिक्षा

मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी मुसलमान 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे।

विवाह तथा बच्चों की मृत्यु

जब मिर्ज़ा ग़ालिब 13 वर्ष के थे, तब उनका निकाह 'नवाब इलाही बख्श ख़ान' की बेटी 'उमराव बेगम' से हुआ। उनके सात बच्चे भी हुए थे, पर इन सातों बच्चों की भी एक के बाद एक मोत हो गई। मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी। तभी तो उन्होंने लिखा था कि-

दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.

प्राध्यापकी से इन्कार

जागीर के बदले में मिर्ज़ा को जो पेंशन मिलती थी, वह सन 1829 में बंद हो गई। इसके लिए यह कलकत्ता गए और दो वर्ष इसमें व्यतीत कर असफल लौट आए। लौटते समय यह बनारस तथा लखनऊ होते हुए गए थे। अवध के शाह 'नसीरुद्दीन हैदर' ने एक कसीदे पर प्रसन्न होकर इन्हें पाँच सौ रुपए वार्षिक वृत्ति नियत की थी। सन 1841 ई. में दिल्ली कॉलेज की फ़ारसी की प्राध्यापकी इन्होंने इस कारण अस्वीकर कर दी कि, आगरा सरकार के सेक्रेटरी ने इनको उचित सम्मान नहीं दिया था। जब ग़ालिब पालकी में सवार होकर कॉलेज पहुँचे थे, तब वहाँ पर कोई भी उनके स्वागत और आगवानी के लिए गेट पर नहीं आया। इस पर ग़ालिब भी कॉलेज के अंदर नहीं गए। उन्होंने कहा कि, मेरे स्वागत के लिए कोई बाहर नहीं आया, इसलिए मैं भी अंदर नहीं जाऊँगा। मैं ये नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि, मुझे लगा था कि इससे मेरे खानदान की इज्ज़त बढ़ेगी, इसलिए नहीं की इज्ज़त में कमी आ जाए। ग़ालिब अपनी यह बात कहकर वहाँ से वापस चले आए।

पदवी तथा मासिक वृत्ति

सन 1841 में दिल्ली के दरबार से इन्हें 'नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम जंग पदवी' और पचास रुपए मासिक वृत्ति मिली। रामपुर के नवाब 'यूसुफ़ अली ख़ाँ' इनके शिष्य हो चुके थे। सन 1849 ई. में यह रामपुर गए और कुछ दिन रहकर दिल्ली लौट आए। इन्हें वहाँ से एक सौ रुपए मासिक मिलता था। इनकी पेंशन भी इसी समय मिलने लगी, जिससे यह अंत तक दिल्ली ही में रहे।

काव्यशैली में परिवर्तन

मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू की ‘दीवाने ग़ालिब’ ही है। इन्होंने जब उर्दू में कविता करना आरंभ किया, उसमें फ़ारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि, वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत-सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि, वह सबके समझने योग्य हो गई।

विचार तथा दृष्टिकोण

ग़ालिब की कविता में प्राचीन बातों के सिवा उनके अपने समय के समाज की प्रचलित बातें भी हैं और इससे भी बढ़कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो पहले-पहल उर्दू कविता में दिखलाई पड़ता है। धर्म तथा समाज के बँधें नियमों तथा रीतियों की हँसी उड़ाने का इनमें साहस था और यह अपने समय के तथा भविष्य में आने वाले समाज को अच्छी प्रकार समझते थे। वह मानव जीवन तथा कविता के संबंध को जानते थे और इन सबके वर्णन के लिए इनकी शैली ऐसी अनोखी तथा तीखी थी, जो न पहले और न बाद में दिखलाई पड़ी। मानव जीवन के प्रति इनके विचार बहुत अच्छे हैं।

विनोदप्रिय व मदिरा प्रेमी

मिर्ज़ा ग़ालिब जीवन संघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि, इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। वह मदिरा प्रेमी भी थे, इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि, उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।

नए गद्य के प्रवर्तक

मिर्ज़ा ग़ालिब ने केवल कविता में ही नही, गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिस पर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि, ग़ालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्र-संग्रह, ‘उर्दु-ए-हिन्दी’ तथा ‘उर्दु-ए-मुअल्ला’ ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे फ़ारसी अरबी की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। ग़ालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि, वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक नहीं लिख सका। ग़ालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि, उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कच्चाइयाँ भी, तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।

बेहतरीन शायर

मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।

ग़ालिब का दीवान

उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

रचनाएँ

ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएँ 'लतायफे गैबी', 'दुरपशे कावेयानी', 'नामाए ग़ालिब', 'मेह्नीम' आदि गद्य में हैं। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने 1857 ई. के बलवे का आँखों देखा विवरण फ़ारसी गद्य में लिखा हैं। ग़ालिब ने निम्न रचनाएँ भी की हैं-

  1. 'उर्दू-ए-हिन्दी'
  2. 'उर्दू-ए-मुअल्ला'
  3. 'नाम-ए-ग़ालिब'
  4. 'लतायफे गैबी'
  5. 'दुवपशे कावेयानी' आदि।

इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है।

निधन

ग़ालिब 72 वर्ष की आयु में परलोक सिधारे। दिल्ली में 15 फ़रवरी, सन 1869 ई. को इनकी मृत्यु हुई। निज़ामुद्दीन औलिया के पास चौसठ खंभे में इनका भी मक़बरा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अंगूर से सम्बन्ध रखने वाली या एक प्रकार की मदिरा
  2. 'जामे-जम' कहते हैं- जमशेद ने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था, जिससे संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओं का ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है, इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी, जिसे पीने पर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दिखने लगते होंगे। जामेजम के लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमा, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।
  3. ग़ालिब की रचनाएँ-कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला, देखने से मालूम होता है कि उनके पिता अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, जिन्हें 'मिर्ज़ा दूल्हा' भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौला की सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अलीख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारों के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज़्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँच गए तथा वहाँ के राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 ई. में वहीं गढ़ी की लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। पर पिता की मृत्यु के बाद भी वेतन असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई यूसुफ़ को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला था।
  4. किसी लड़ाई में लड़ते हुए हाथी से गिरकर 1806 ई. में इनका देहान्त हुआ था।
  5. न जाने कैसे, इसके एक मास बाद ही 7 जून, 1806 ई. को, गुप्त रूप से, नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अंग्रेज़ सरकार से एक दूसरा आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया, जिसमें लिखा था कि, ‘नसरुल्ला बेग ख़ाँ के सम्बन्धियों को 5,000 सालाना पेंशन इस रूप में दी जाए-(1.) ख़्वाजा हाजी (जो कि 50 सवारों के अफ़सर थे)- दो हज़ार सालाना। (2.) नसरुल्ला बेग ख़ाँ की माँ और तीन बहनें-डेढ़ हज़ार सालाना। (3.) मीरज़ा नौशा और मीरज़ा यूसुफ़ (नसरुल्ला बेग के भतीजों) को डेढ़ हज़ार सालाना। इस प्रकार 10 हज़ार से 5 हज़ार हुए और 5 हज़ार से भी सिर्फ़ 750-750 सालाना ग़ालिब और उनके छोटे भाई को मिले।
  6. यह बड़ी हवेली.......अब भी पीपलमण्डी आगरा में मौजूद है। इसी का नाम ‘काला’ (कलाँ?) महल है। यह निहायत आलीशान इमारत है। यह किसी ज़माने में राजा गजसिंह की हवेली कहलाती थी। राजा गजसिंह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के बेटे थे और अहदे जहाँगीर में इसी मकान में रहते थे। मेरा ख़्याल है कि मिर्ज़ा ग़ालिब की पैदाइश इसी मकान में हुई होगी। आजकल (1838 ई.) यह इमारत एक हिन्दू सेठ की मिल्कियत है और इसमें लड़कियों का मदरसा है।-‘ज़िक्रे ग़ालिब’ (मालिकराम), नवीन संस्मरण, पृष्ठ 21
  7. ‘आदगारे ग़ालिब’ (हाली)-इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।
  8. स्थायी क़ैद
  9. ज़ारी
  10. कारागार
  11. प्रेम का परिचय
  12. विद्युत पर न्यौछावर
  13. जागरण
  14. दुर्बल
  15. पीत रंग
  16. यह ख़्वाजा हाजी या उनके पिता ख़्वाजा क़ुतुबउद्दीन ग़ालिब के दादा क़ौक़नबेग ख़ाँ के साथ ही हिन्दुस्तान आए थे। कई लोगों ने उन्हें ‘ग़ालिब’ के वंश का ही बताया है। उनका कहना है कि वह ‘ग़ालिब’ के पूर्व पुरुष तरमस ख़ाँ के छोटे भाई रुस्तम ख़ाँ के वंशज थे। इस विषय में कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। ख़ुद ग़ालिब का तो कहना यह था कि, ‘ख़्वाजा हाजी के पिता मेरे दादा क़ौक़नबेग ख़ाँ का साईस था और उसकी औलाद तीन पुश्त से हमारी नमकख़ार हैं।’ पर सम्भव है कि ‘ग़ालिब’ ने जल-भुनकर ऐसा लिखा हो। इतना तो तय है कि दोनों सम्बन्धी थे, क्योंकि जिस मिर्ज़ा जीवनबेग के पुत्र मिर्ज़ा अकबरबेग से ‘ग़ालिब’ की बहन (मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग की भतीजी) छोटी ख़ानम ब्याही थी, उन्हीं जीवनबेग की बेटी अमीरुन्निसा बेगम से ख़्वाजा हाजी की शादी हुई थी।
  17. कारण
  18. वतन के मित्रों के वियोग
  19. दुख

बाहरी कड़ियाँ

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