केदारनाथ
श्री केदारेश्वर / Shri Kedarnath
हिमालय सदियों से ऋषि-मुनियों तथा देवताओं की तप:स्थली रहा है। महान विभूतियों ने यहाँ तपस्या करके आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की और विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया। उत्तराखण्ड प्रदेश के हिमालय क्षेत्र में चारधाम के नाम से बद्रीनाथ, [[केदारनाथ[[, गंगोत्तरी तथा यमुनोत्तरी प्रसिद्ध हैं। ये तीर्थ देश के सिर-मुकुट मे चमकते हुए बहुमूल्य रत्न हैं। इनमें बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थो के दर्शन का विशेष महत्त्व है। केदारखण्ड में द्वाद्वश (बारह) ज्योतिर्लिंग में आने वाले केदारनाथ दर्शन के सम्बन्ध में लिखा है कि जो कोई व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान का दर्शन किये यदि बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है, तो उसकी यात्रा निष्फल अर्थात व्यर्थ हो जाती है-
अकृत्वा दर्शनं वैश्वय केदारस्याघनाशिन:।
यो गच्छेद् बदरीं तस्य यात्रा निष्फलतां व्रजेत्।।
श्री केदारनाथ जी का मन्दिर पर्वतराज हिमालय के 'केदार' नामक चोटी पर अवस्थित है। इस चोटी के पूर्व की दिशा में कल-कल करती उछलती अलकनन्दा नदी के परम पावन तट पर भगवान बद्री विशाल का पवित्र देवीलय स्थित है तथा पश्चिम में पुण्यसलिला मन्दाकिनी नदी के किनारे भगवान श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनन्दा और मंदाकिनी अन दोनां नदियों का पवित्र संगम रूद्रप्रयाग में होता है और वहाँ से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में ‘भागीरथी गंगा’ से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखण्ड के पवित्र तीर्थ ‘गंगोत्तरी’ से निकल कर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनन्दा और मंदाकिनी का अस्तित्त्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती हैं। भगवान् केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्रीक्षेत्र में भगवान् नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है। और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिवपुराण के कोटिरूद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है- तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते। जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।। दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च। केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।
(शि. को. सं.-19/20-21) केदारेश्वर (केदारनाथ) ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मन्दिर केा निर्माण पाण्डवों ने कराया था, जो पर्वत की 11750 फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। पौराणिक प्रमाणके अनुसर ‘केदार’ महिष अर्थात भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। केदारनाथमन्दिर की ऊँचाई 80 फुट है, जो एक विशाल चौकोर चबूतरे पर खड़ा है। इस मन्दिर के निर्माण में भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह है कि प्राचीनकाल में यान्त्रिक साधनों के अभाव में ऍसे दुर्गम स्थल पर उन विशाल पत्थरों को लाकर कैसे स्थापित किया गया होगा? यह भव्यमन्दिर पाण्डवों की शिवभक्ति, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनके बाहुबल का जीता जागता प्रमाण है। इस मन्दिर में उत्तम प्रकार की करीगरी की गई है। मन्दिर के ऊपर स्तम्भों में सहारे लकड़ी की छतरी निर्मित है, जिसके ऊपर ताँबा मढ़ा गया है। मन्दिर का शिखर (कलश) भी ताँबे का ही है, किन्तु उसके ऊपर सोने का पालिश चढ़ाया गया है।। मन्दिर के गर्भगृह में केदारनाथ का रूवयम्भू ज्योतिर्लिंग है, जो अनगढ़ पत्थर का है। यह लिंग मूर्ति चार हाथ लम्बी तथा डेढ़ हाथ मोटी है, जिसका स्वरूप भैंसे की पीठ के समान दिखाई पड़ता है। इसके पास-पास में सँकरी परिक्रमा बनी हुई है, जिसमें श्रद्धालु भक्तगण प्रदक्षिणा करते हैं। इस ज्योतिर्लिंग के सामने जल, फूल, बिल्वपत्र आदि चढ़ाया जाता है और इसके दूसरे भाग में यात्रीगण घी पोतते हैं। भक्त लोग इस लिंगमूर्ति को अपनी बाँहों मे भरकर भगवान् से मिलते भी हैं। मन्दिर के जगमोहन में द्रोपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। केदारनाथ-मन्दिर के प्रवेशद्वार पर नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित है और वहाँ से दक्षिण की ओर एक पहाड़ी पर श्री भैरवजी का एक सुन्दर मन्दिर है। केदारनाथ-मन्दिर के द्वार पर दोनो ओर द्वारपालों की मूर्तियाँ हैं। केदारनाथकी श्रृंगार मूर्ति पाँच मुखवाली है और इसे हमेशा वस्त्र तथा आभूषणों से सजाया गया रहता है। मन्दिर में उक्त मूर्तियों के अतिरिक्त पन्द्रह अन्य देवमूर्तियाँ भी स्थापित हैं। मन्दिर से पीछे लगभग जीन हाथ लम्बा एक कुण्ड है, जिसे अमृतकुण्ड कहा जाता है। इस अमृतकुण्डमें दो शिवलिंग हैं। इनके पूर्व और उत्तर भाग में हंसकुण्ड और रेतसकुण्ड स्थित हैं। यहाँ की परम्परा है कि रेतसकुण्ड में पैर (जंघा) टेककर बायें हाथ से जीन आचमन किये जाते हैं। यहीं पर ईशानेश्वर-महादेव की प्रतिमा विराजमान है। केदारनाथजी के मन्दिर के सामने एक छोटे मन्दिर में उदक कुण्ड है। इस कुण्ड में भी रेतसकुण्ड के समान ही आचमन लेने की प्रथा प्रचलित है। इस मन्दिर के पीछे मीठे जल का एक कुण्ड स्थित है, जिसका पानी भक्तगण पीते हैं। श्रावण के महीने में केदारेश्वर की पूजा गंगाजल, बिल्वपत्र तथा ब्रह्मकमल के फूलों से की जाती है। केदारघाटी के इस क्षेत्र में पंचकेदार (पाँच केदारनाथ) प्रसिद्ध हैं, जिनके स्थान मन्दिर और शिवलिंगों का अपना-अपना विशेष महत्त्व है। भगवान् केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव के सम्बन्ध में शिवमहापुराण की कथा इस प्रकार है- भगवान् विष्णु के नर और नारायण नामक दो अवतार हुए हैं। नर और नारायण इन दोनों ने पवित्र हिमालय के बदरिकाश्रम में बड़ी तपस्या की थी। उन्होंने पार्थिव (मिट्टी) का शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान् शिव से प्रार्थना क। पार्थिवलिंग में शिव के विद्यमान होने पर दोनों (नर व नारायण) ने शास्त्र-विधि से उनकी पूजा-अर्चना की। प्रतिदिन निरन्तर शिव का पार्थिव-पुजन करना और उनके ही ध्यान में मग्न रहना उन तपस्वियों की संयमित दिनचर्या थी। बहुत दिनों के बाद उनकी आराधना से सन्तुष्ट परमेश्वर शंकर भगवान् ने कहा कि मैं तुम दोनों पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम लोग मुझसे वर माँगो। भगवान् शंकर की बात सुनकर प्रसन्न नर और नारायण ने जनकल्याण की भावना से कहा- ‘देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो आप अपने स्वरूप से पूजा स्वीकार करने हेतु सर्वदा के लिए यहीं स्थित हो जाइए।’ जगत् का कल्याण करने वाले भगवान् शंकर उन दोनों तपस्वी-बन्धुओं के अनुरोध को स्वीकारते हुए हिमालय के केदारतीर्थ मे ज्योतिर्लिंग के रूप मे स्थित हो गये। उन दोनों अनन्य भक्तों से पूजित हो सम्पूण भय और दु:ख का नाश करने हेतु तथा अपने भक्तों को दर्शन देने की इच्छा से केदारेश्वर महादेव के नाम से प्रसकद्ध भगवान् शिव वहाहँ सदा ही विद्यमान रहते हैं। भगवान् केदारनाथ दर्शन-पूजन करने वाले प्रदान करते हैं। नर-नारायण की तपस्या के आधार पर विराजने वाले केदांश्वर की जिसने भी भक्तिभाव से पूजा की, उसे स्वप्न में भी दु:ख और कष्ट के दर्शन नहीं हुए। शिव का प्रिय भक्त केदारलिंग के समीप शिव का स्वरूप अंकित (जिस वलय/ कंकण पर शिव की आकृति बनी हो) कड़ा चढ़ाता है, वह उस वलय से सुशोभित भगवान् शिव का दर्शन करके इस भवसागर से पार हो जाता है, अर्थात् वह जीवनमुक्त हो जाता है। जो मनुष्य बदरीवन की यात्रा करके नर तथा नारायण और केदारेश्वर शिव के स्वरूप का दर्शन करता है, निस्सन्देह वह मोक्षपद का भागी बन जाता है। ऍसा मनुष्य जो केदारनाथ ज्योतिर्लिंग में भक्ति-भावना रखता है और उनके दर्शन के लिए अपने स्थान से प्रस्थान करता है, किन्तु रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो जाती है, जिससे वह केदारेश्वर का दर्शन नहीं कर पाता है, तो समझना चहिए कि निश्चियत ही उस मनुष्य की मुक्ति हो गई। शिवपुराण का यह भी अभिमत है कि केदारतीर्थ में पहुँचकर, वहाँ केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का पूजन कर जो मनुष्य वहाँ का जल पी लेता है, उसका पुर्नजन्म (दुबारा माँ के गर्भ आना) नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह भक्ति-भाव पूर्वक भगवान् नर-नारायण और केदारेश्वर शिवलिंग की पूजा-अर्चना करे। श्री शिवमहापुराण के कोटिरूद्र संहिता में इसी बात को निम्नलिखित प्रकार कहा गया है-
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:। तेऽपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्य्या विचारणा।। तत्वा तत्र प्रतियुक्त: केदारेशं प्रपूज्य च। तत्रत्यमुदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विन्दति।।
(शि. को. सं. 20/22-23) शिवमहापुराणमें एक अन्य कथा का भी संकेत प्रापत होता है। उसके अनुसार जब महाभारत-युद्ध समाप्त होगया और पाण्डव विजयी हो गये, उस समय भारतवर्ष की वीरता महाभारत के समर (यूद्ध) में विलीन होई, युद्ध का परिणाम भय़ंकर हुआ, क्योंकि क्षत्रिय योद्धाओं का संहार हो गया। कौरवों के साथ-साथ पाण्डवो पर भी उस युद्ध की जिम्मेदारी कम न थी यद्यपि महाभारत का युद्ध न्याय और अन्याय का संघर्ष था, किन्तु उसका दुष्परिणाम समूचे राष्ट्र को भुगतना पड़ा। युद्ध समाप्त होने के बाद जब से पाण्डवों ने उस पर विचार मन्थन किया, तो वे दु:ख से अत्यंन्त व्याकुल हो उठे। उन्होने स्वयं अपने ही हाथों अपने सगे-सम्बन्धियों तथा कुल के लोगों का नाश कर डाला था। पाण्डवों ने आत्मकुल-नाश और गोत्र-हत्या के पाप से पीछा छुड़ाने हेतु अर्थात् मुक्ति प्राप्त करने हेतु वेदव्यासजी से प्रायश्चित का विधान जानना चाहा। व्यासजी ने उन पाण्डवों को बताया कि संसार में सबका भला होता देखा गया है, किन्तु अपने वंश की हत्या करने वाले कुलघाती का कभी कल्याण नहीं होता है। अन्होंने कहा कि यदि तुम लोग इस पाप से मुक्त होना चाहते हो, तो केदारक्षेत्र में जाकर भगवान् केदारनाथ का दर्शन और पूजा करो। केदारेश्वर शिवलिंग के दर्शन के बिना तुम लोगों को मुक्ति नहीं मिलेगी। केदार क्षेत्र का वर्णन करते हुए व्यास जी ने बताया कि जिस क्षेत्र में नदियों में श्रेष्ठ मंदाकिनी अनेक धाराओं में विभक्त होकर बहती हैं, जहाँ भगवान् महेश, पार्वती के संग अपने सैकड़ों महान् वीर गणों के साक निवास करते हैं और उनके दर्शनों के लिए कर्मनिष्ठ तपेव्रती ब्रह्मा आदि देवता उपस्थित होते हैं, जहाँ विविध प्रकार के वाद्ययन्त्रों की ध्वनियाँ तथा वेदों की ऋचाएँ अनवरत सुनायी पड़ती हैं, उस महापथ नाम से निर्मित देवस्थान में तुम लोग चले जाओं। व्यासजी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर प्रसन्नचित पाण्डव भगवान् शिव के दर्शन हेतु तीर्थयात्रा पर नकिलन पड़े। पाण्डव सर्वप्रथम काशी की यात्रा पर श्री विश्वनाथ भोलेनाथ का दर्शन करने हेतु पहुँचे, किन्तु इन कुलघाती पापियों को भगवान् शिव प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देना चाहते थे। इसलिए पाण्डव निराश होकर श्री व्यासजी द्वारा निर्देशित केदारक्षेत्र की ओर मुड़ गये। इन्हे केदारखण्ड में आते देख भगवान् शंकर गुप्तकाशी में जाकर अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर और आगे जाकर महादेवजी ने एक भैंसे का रूप धारण किया और विचरण करने लगे। पाण्डव दल को इस प्रकरण का ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा हो गया। जब भगवान् शिव ने पाण्डवों को मन की बात जान ली, तब वे भैंसारूपी शिव भूमिगत होने के लिए दलदली धरती में धँसने लगे। महान् बलशाली और पराक्रमी भीम ने भैंसारूपी शिव की पूँछ पकड ली। इसी परिस्थित में अन्य सभी पाण्डव करूणापुर्वक क्रन्दन करते हुए विविध प्रकार से भगवान् भोलेनाथ श्री केदारेश्वर की सतुति करने लगे। उनकी श्रद्धा-भक्ति और स्तुति से आशुतोष भगवान् शिव प्रभावित होकर उन पर प्रसन्न हो गये। उन पाण्डवों की प्रार्थना पर भैंसा के पृष्ठभाग (पीठ) के यप में सर्वदा के लिए शंकरजी वहीं स्थित हो गये, जिनकी पूजप पाण्डवों ने विधिपूर्वक की। वहाँ पर भी पाण्डवों को नभवाणी सुनाई पड़ी– ‘पाण्डवों! मेरी इस पूजा से तुम्हारे सकल मनोरथ सिद्ध हो जाएँगें।’ शिव को भैंसा के पृष्ठ के रूप में पूजन कर पाण्डव गोत्रहत्या के पाप से मुक्त हो गये। इसी कथा के आधार पर केदारघाटी में पाँच स्थानों पर पाँच केदार का दर्शन-पूजन करने का प्रचलन है। भैंसा रूपी शिव के अंगों के आधार पर ये केदार-स्थान इस प्रकार हैं–
1. केदारनाथ प्रमुख तीर्थ में भैंसा के पीठ के रूप में। 2. मध्य महेश्वर में उसकी नाभि के यप में। 3. तुंगनाथ में उसकी भुजाएँ और हृदय के रूप में। 4. रूद्रनाथ में मुख के रूप में और 5. कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में प्रतिष्ठिता हैं।
उत्तराण्ड के इन पाँचो केदारों के दर्शन का विशेष महत्त्व है। यहाँ एक बूढ़ा केदार भी हैं। इनके सम्बन्ध मे कहा जाता है कि जब पाण्डव तीर्थयात्रा पर निकले थे, तो उन्होंने भगवान् शिव के दर्शन हेतु बूढा केदार में जाकर दर्शन किया था। शिव के भैंसा रूप का वर्णन जो पाण्डवों से सम्बन्धित है, शिवमहापुराण के कोटि रूद्रसंहिता में इस प्रकार किया गया है–
यो वै हि पाण्डवान्दृष्ट्वा महिषं रूपमास्थित:। मायामास्थाय तत्रैव पलायनपरोऽभवत्।। धृतश्च पाण्डवैस्तत्र ह्मवांगमुखतया स्थित:। पुच्छं चैव धृतं तैस्तु प्रर्थितश्च पुन:।। तद्रूपेण स्थितस्तत्र भक्तवत्सलनामभाक्। नयपाले शिरोभागो गतस्तद्रूपत: स्थित:।। तथैव पूजनान्नित्यामाज्ञां चैवाप्यदात्तथा। पूजयित्वा गतास्ते तु पाण्डवा मुदितास्तदा। लब्ध्वा चित्तोप्सितं सर्व विमुक्ता: सर्वदु:खत:।।
(शि. पु. को. रू. सं. 19/13-17) भगवान शंकर को मंदाकिनी गंगा, मधुगंगा, क्षीर गंगा आदि नदियों से सिंचित और सैकड़ों शिवलिंगों से सुशोभित तथा हिमखण्डों से आच्छादित यह केदारक्षेत्र अतिशय प्रिय है। सकन्दपुराण की कथा के अनुसार माँ पार्वती के द्वारा केदारक्षेत्र की महिमा पूछने पर भगवान् शिव ने उन्हें बताया कि यह क्षेत्र अधिक प्रिय होने के कारण वे इसे कभी नहीं छोड़ते हैं। उन्होंने पार्वतीजी से कहा कि मैंने जब सृष्टि-कार्य के लिए ब्रह्माजी का रूप धारण किया था, तभी से परब्रह्मम को जीतने के लिए मैं इस क्षेत्र मे सर्वदा निवास करता हूँ। इस क्षेत्र के द्वार पर नन्दी, भृँगी आदि प्रहरी (द्वारपाल) बनकर खड़े रहते हैं। जो मनुष्य अपने निवास पर रहते हुए इस केदारयात्रा का विचार करताहै, इसके लिए कार्यक्रम बनाता है, उसके तीन सौ पीढ़ियों के पितर शिवलोक में निवास प्राप्त करते है। जो व्यक्ति मन, वाणी और कर्म से मेरे प्रति समर्पित होकर श्री केदारनाथजी का दर्शन करता है, तो यदि उसे ब्रह्महत्या के समान भी पाप लगा हो, वे सब दर्शनमात्र से ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे देवताओं में भगवान् विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों मे हिमालय, भक्तों में नारद, गऊओं में कामधेनु और सभी पुरियों में कैलास श्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण खेत्रों में केदारक्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार केदारक्षेत्र के बखान में आनन्दित भगवान् शंकर ने माता गौरी को एक कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि एक गाँव में एक हिंसक बहेलिया (पक्षियों और वन्य प्राणियों का शिकार करने वाला) रहता था। उसे मृगों का मांस बहुत प्रिय था और मांसाहारी होने के कारण वह दुराचार भी बहुत करता था। वह प्रतिदिन मृगां का शिकार करता था और उन्हें अपना आहार बना लेता था। एक दिन वह शिकार के सिलसिले में केदारतीर्थ में पहुँच गया। जब वह सघन जंगलों से होकर शिकार की खोज में वर्वतों पर विचरणकर रहा था, तब उसे मुनि नारद दिखाई को स्वर्णमृग समझ लिया, क्योंकि वह बहुत दूर से दन्हें देख रहा था। उस ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। जब वह ऋषि नारद को बाणसे मारने के लिए उद्यत हुआ, तब तक सूर्यास्त हो चला था। उस समय उस बहेलिए ने वहाँ देखा कि एक साँप मेढक को निगल गया है, किन्तु वह मृत्यु प्राप्त मेडक शिव के स्वरूप में हों गया। जब वह कुछ दूर और आगे गया, तो देखा कि उस बाघ ने हिरण को मार डाला है, किन्तु वह हिरण शिवगणों के साथ शिवलोक में जा रहा है। इन सब दृश्यों को देखकर वह बहेलिया भ्रमित और चकित हो उठा। इतने में ऋषि नारदजी उस बहेलिये के पास पहुँच गये। मनुष्य के रूप में नारद को अपने पास आया देख उस शिकारी ने उपर्युक्त घटित घटनाओं के सम्बन्ध में उनसे जानने की इच्छा प्रकट की। नारदमुनि ने उससे कहा कि तुम बहुत सौभाग्यशाली हो, जोइस परम पवित्र तीर्थ में पधारे हो। जैसा कि तुमने देखा है, इस कल्याणकारक शुभतीर्थ में निकृष्ट जीव भी तुम्हारे देखते-देखते शिवतत्त्व को प्राप्त हो गये हैं। उसके बाद उस बहेलिए (व्याध) ने घोर आश्चर्य में पड़कर मुनिश्रेष्ठ नारद के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया। उसने अपने उद्धार हेतु नारदजी से बड़ी विनती की। नारदजी ने भगवान् शिव के सम्बन्ध में उसे उपदेश तथा निर्देश दिया। उनके उपदेशानुसर वह शिकार उसी केदारक्षेत्र का निवासी बन गया और केदारेश्वर भगवान् के भजन-चिन्तन में जन हो गया। घोर हिंसा करने वाला वह बहेलिया केदारनाथ की भक्ति करने से अन्त में परमगति (मुक्ति) को प्राप्त हुआ। स्कन्दपुराणमें महिषरूपधारी भगवान् शिव की एक भिन्न कथा भी आती है। केदारक्षेत्र में देवराज इन्द्र ने भगवान् शंकर की तपरस्या की थी। उस प्रकरणमें महाबलशाली दैत्सय हिरण्याक्ष उत्पन्न हुआ था। उस दैत्य ने युद्ध में देवताओं के राजा इन्द्र को पराजित कर स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया था। पराजित इन्द्र ने देवताओं सहित देवाधिदेव महादेव की श्रद्धा-भक्ति पूर्वक आराधना की। दनकी तपस्या से आशुतोष भगवान् शिव प्रसन्न हो उठे। वे उक दिन महिष (भैसा) का रूप धारण करके इन्द्र के समक्ष ही धरती से निकल पड़े। उन्होंने कहा- ‘देवेन्द्र! मैं इस रूप में किसको-किसको पानी में फेंक कर विदीर्ण कर डाँलू अर्थात मार डाँलू?’ भगवान् शिव के द्वारा ऍसा पूछने पर इन्द्र ने हिरण्याक्ष सहित पाँच राक्षसों का नाम बताया। इन्द्र द्वारा बताया इन्द्र द्वारा बताये गये उन बलशाली पाँच दैत्यों के स्थान पर भोलेनाथ शिव गये। वहाँ पर उन दैत्यों के अन्य भी भयंकर पराक्रमी साथी विद्यमान् थे। वे सभी अस्त्र-शस्त्र लेकर भैसारूपी शिव की ओर दौड़ पड़े, जिन्हें महादेवजी ने अपनी सींगों से मार-मारकर जल में डुबोया ओर यमलोक पहुँचा दिया। उसके बाद उन्होंने इन्द्र से वर माँगने के लिए कहा। इन्द्र ने पिनाकधारी शिव से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप धर्म तथा तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए इसी क्षेत्र में सर्वदा निवास करें। भगवान् शिव ने इन्द्र की याचना को स्वीकार कर लिया। इन्द्र से शिवजी ने पूछा था– ‘के दरयामि?’ यहाँ ‘कं जलम्’ अर्थात् ‘कम्’ जल को कहा जाता है ‘के’। इसी प्रकार ‘छिदिर-भिदिर विदारणे’ धातु से ‘विदारयामि’ अर्थात् फाड़ डालूँ ऍसा वाक्य तैयार होता है। इसका तात्पर्य यह कि जल में फेंककर कार (विदीर्ण) डालता हूँ। इन्द्र ने भगवान् शिव से कहा कि आपने ‘के दरयामि’ ऍसा वाक्य प्रयोग किया है, इसीलिए इस क्षेत्र का नाम ‘कदार’ शब्द से प्रसिद्ध होगा। श्री केदारनाथ और श्री बदरीनाथ के मन्दिरों के संचालन हेतु प्रदेश की सरकार ने मन्दिर-समिति बनाई है। मन्दिर-समिति के माध्यम से मन्दिरों का संचालन होता है तथा उनके आय-व्याय और सर्व प्रकार की व्यवस्था का दायित्व उसी पर होता है। आम जनता द्वारा मन्दिरों में पूजा, भोग-राग, आरती आदि करवाने हेतु मन्दिर-समिति ने दक्षिणा (शुक्ल) निर्धारित किया है। दक्षिण भारत के रावल (ब्राह्मण) मन्दिर के प्रमुख पुजारी होते हैं। मन्दिर के सभी कर्मचारियों को समिति द्वारा वेतन दिया जाता है। केदारनाथजी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 7:00 बजे खुलता है। दोपहर एक से दो बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है। पाँच मुख वाली भगवान् शिव की प्रतिमा का विधिवत् श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है। रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। शीतकाल में केदारघाटी बर्फ से ढँक जाती है। यद्यपि केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यतया नवम्बर ताह के 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रान्ति से दो दिन पूर्व) बन्द हो जाता है और छ: माह बाद अर्थात वैशाखी (13-14 अप्रैल) के बाद कपाट खुलता है। ऍसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ‘ऊखीमठ’ में लाया जाता हैं। केदारनाथ मे जनता शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करती है और उसके अनुसार ही वह मन्दिर की पूजा-आरती कराती है अथवा भोग-प्रसाद ग्रहण करती है। भगवान् की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिंषेक, लघुरूद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूज, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वतीजी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम् आदि प्रमुख हैं। मन्दिर-समिति द्वारा केदारनाथ मन्दिर में पूजा कराने हेतु जनता से जो दक्षिणा (शुल्क) लिया जाता है, उसकी तालिका निम्नलिखित प्रकार जानी जा सकती है, किन्तु समिति समय-समय से इनमें परिर्वतन भी करती है।
प्रात: कालिक पूजा 11 00 साधारण शिवपूजन 2 00 बालभोग 21 00 समूचे दिन का पूजन 501 00 महाभिषेक 301 00 सम्पूर्ण आरती 51 00 अभिषेक 151 00 पाण्डव पूजन 1 00 लघुरूद्राभिषेक 101 00 गणेश-पूजन 1 00 षोडशोपचार पूजन 51 00 भैरव पूजा 5 00 अष्टोपचार पूजन 25 00 पार्वती पूजा 2 00 पंचोपचार पूजा 11 00 शिव अष्टोत्तरशत पाठ 15 00 शिव नामावली पाठ 25 00 अपराध क्षमापन स्तोत्र 21 00 शिव ताण्डव स्तोत्र का पाठ 21 00 एकान्त सेवा 15 00
मन्दिर-समिति ने भगवान् के भोग-प्रसाद आदि की भी शुल्क निर्धारित किया है, जिसकी तालिका इस प्रकार है–
उत्तम भोग 251 00 विशेष भोग 51 00 साधारण भोग 101 00 खिचड़ी का भोग 251 00 नित्य भोग 5 00 अटका भोग 5 00 नित्य यज्ञ का भेंट 11 00 सोमवार व संक्रन्ति भेंट 21 00 श्रावणी तथा अन्नकूट 700 00 दीपदान 6 00 अखण्ड ज्योति 21 00 कीर्तन-भजन 7 00
हिमालय के पवित्र तीर्थो के दर्शन करने हेतु तीर्थयात्रियों को रेल, बस, टैक्सी आदि के द्वारा हरिद्वार आना चाहिए। हरिद्वार से उत्तराखण्ड की यात्राओं के लिए साधन उपलब्ध होते हैं। हरिद्वार से केदारनाथ की दूरी 247 किलोमीटर है। हरद्वार से गौरीकुण्ड 233 किलोमीटर की यात्रा मोटरमार्ग से की जाती है, जबकि गौरीकुण्ड से केदारनाथ तक 14 किलोकीटर की दूरी पैदलमार्ग से जाना पड़ता है। पैदल चलने में असमर्थ व्यक्ति के लिए गौरीकुण्ड से घोड़ा, पालकी, पिट्ठू आदि के साधन मिलते हैं। यह यात्रा हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, तिलवाड़ा, अगस्त्यमुनि कुण्ड, गूप्तकाशी, नाला, फाटा, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड,रामबाढ़ा और गरूड़चट्टी होते हुए श्रीकेदारनाथ तक पहुँचती है। उत्तराखण्ड के चारें धाम की यात्रा में पहले यमुनोत्तरी की यात्रा का विधान है। गंगोत्री, यमुनोत्री तीर्थो के बाद भक्तगण केदारनाथ का दर्शन करते हैं, फिर अन्त में बद्रीनाथ जाते हैं। गंगोत्री से केदारनाथ जाने के लिए दो मोटर मार्ग हैं। प्रथम मार्ग गंगोत्री से भैरोघाटी, हरसिल, भटवाड़ी, उत्तरकाशी, धरासू, टिहरी, घनसाली, चिरबटिया, अगस्त्यमुनि, गुप्तकाशी, फोटा, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड तथा गरूड़चट्टी होकर केदारनाथ पहुँचता है। इस रास्ते की कुल दूरी 348 किलोमीटर बैठती है। गंगोत्री से केदारनाथ जाने के लिए एक दूसरी मार्ग भी है, जिसकी कुल दूरी 343 किलोमीटर पड़ती है। गंगोत्री से भैरवघाटी, उत्तरकाशी, धरासू, टिहरी, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, तिलवाड़ा और गौरी कुण्ड होते हूए केदारनाथ पहुँचा जाता है। कोटद्वार से दुगड्डा, पौडी, श्रीनगर, गुप्तकाशी और गौरीकुण्ड हाकर केदारनाथ जाने का भी मार्ग है। रूद्रप्रयाग 171 किलोमीटर पड़ता है, जबकि रूद्रप्रयाग से गौरीकुण्ड की दूरी 70 किलोमीटर। गुप्तकाशी की ऊँचाई समुद्रतल से 1479 मीटर है। केदारनाथ के लिए यावियों को गाकचर सके हेलिकाप्टर-सेवा भी उपलब्ध है। किसी भी मार्ग से यात्रा की जाय, किन्तु गौरीकुण्ड चौदह किलोमीटर पैदल चलकर ही केदारनाथ पहुँचना पड़ता हैं। गौरीकुण्ड में हिमालयकन्या गौरी (पार्वती) ने भगवान् शंकर को पति के रूप मे प्राप्त करने हेतु तप किया था। कठोर नियम वाली गौरी कमजोन-शरीर हो गयी थीं और सर्दी के कारण व्यथित थीं। वहाँ भगवान् रूद्र ने अग्नि के रूप मे प्रकट होकर जल को गर्म कर दिया था, जिसमें गौरी ने स्नान किया। आज भी तीर्थयात्री उस तप्तकुण्ड मे स्नान करके श्रीकेदारनाथ के दर्शन के लिए जाते हैं। गौरीकुण्ड पर ही माता ने गणेशजी को जन्म दिया था। यहाँ वैनायिकी (मुंडाकटा) मन्दिर आज भी विद्यमान है। भगवान् श्रीकेदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर एक सुरम्य प्रकृति की शाभा है, उसके माँग का सिन्दूर है। नीचे मंदाकिनी का कल-कल निनाद, ऊपर पहाड़ों पर बर्फ की सफेद चादरें, उस रात को छिटकती चन्द्रमा संगीत, वेदमन्त्रों के घोष और बीच-बीच में हर-हर महादेव तथा ‘नम: शिवाय’ की ध्वनि, रोम-रोम में साक्षात् शिवलोक का अनुभव कराती है।