केदारनाथ

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श्री केदारेश्वर / Shri Kedarnath

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हिमालय सदियों से ऋषि-मुनियों तथा देवताओं की तप:स्थली रहा है। महान विभूतियों ने यहाँ तपस्या करके आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की और विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया। उत्तराखण्ड प्रदेश के हिमालय क्षेत्र में चारधाम के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्तरी तथा यमुनोत्तरी प्रसिद्ध हैं। ये तीर्थ देश के सिर-मुकुट मे चमकते हुए बहुमूल्य रत्न हैं। इनमें बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थो के दर्शन का विशेष महत्त्व है। केदारखण्ड में द्वादश (बारह) ज्योतिर्लिंग में आने वाले केदारनाथ दर्शन के सम्बन्ध में लिखा है कि जो कोई व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान का दर्शन किये यदि बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है, तो उसकी यात्रा निष्फल अर्थात व्यर्थ हो जाती है-

अकृत्वा दर्शनं वैश्वय केदारस्याघनाशिन:।
यो गच्छेद् बदरीं तस्य यात्रा निष्फलतां व्रजेत्।।

श्री केदारनाथ जी का मन्दिर पर्वतराज हिमालय के 'केदार' नामक चोटी पर अवस्थित है। इस चोटी के पूर्व की दिशा में कल-कल करती उछलती अलकनन्दा नदी के परम पावन तट पर भगवान बद्री विशाल का पवित्र देवालय स्थित है तथा पश्चिम में पुण्य सलिला मन्दाकिनी नदी के किनारे भगवान श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनन्दा और मंदाकिनी उन दोनों नदियों का पवित्र संगम रूद्रप्रयाग में होता है और वहाँ से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में ‘भागीरथी गंगा’ से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखण्ड के पवित्र तीर्थ 'गंगोत्तरी' से निकल कर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनन्दा और मंदाकिनी का अस्तित्त्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती हैं। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है। और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिव पुराण के कोटि रूद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है-

तस्यैव रूपं दृष्ट्वा च सर्वपापै: प्रमुच्यते।
जीवन्मक्तो भवेत् सोऽपि यो गतो बदरीबने।।
दृष्ट्वा रूपं नरस्यैव तथा नारायणस्य च।
केदारेश्वरनाम्नश्च मुक्तिभागी न संशय:।।<balloon title="शिव पुराण, कोटि रूद्र संहिता, 19/20-21" style=color:blue>*</balloon>

वास्तु शिल्प

केदारेश्वर (केदारनाथ) ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मन्दिर का निर्माण पाण्डवों ने कराया था, जो पर्वत की 11750 फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। पौराणिक प्रमाण के अनुसार ‘केदार’ महिष अर्थात भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। केदारनाथ मन्दिर की ऊँचाई 80 फुट है, जो एक विशाल चौकोर चबूतरे पर खड़ा है। इस मन्दिर के निर्माण में भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि प्राचीन काल में यान्त्रिक साधनों के अभाव में ऐसे दुर्गम स्थल पर उन विशाल पत्थरों को लाकर कैसे स्थापित किया गया होगा? यह भव्य मन्दिर पाण्डवों की शिव भक्ति, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनके बाहुबल का जीता जागता प्रमाण है।

इस मन्दिर में उत्तम प्रकार की कारीगरी की गई है। मन्दिर के ऊपर स्तम्भों में सहारे लकड़ी की छतरी निर्मित है, जिसके ऊपर ताँबा मढ़ा गया है। मन्दिर का शिखर (कलश) भी ताँबे का ही है, किन्तु उसके ऊपर सोने की पॉलिश की गयी है। मन्दिर के गर्भ गृह में केदारनाथ का स्वयंमभू ज्योतिर्लिंग है, जो अनगढ़ पत्थर का है। यह लिंगमूर्ति चार हाथ लम्बी तथा डेढ़ हाथ मोटी है, जिसका स्वरूप भैंसे की पीठ के समान दिखाई पड़ता है। इसके पास-पास में सँकरी परिक्रमा बनी हुई है, जिसमें श्रद्धालु भक्तगण प्रदक्षिणा करते हैं। इस ज्योतिर्लिंग के सामने जल, फूल, बिल्वपत्र आदि को चढ़ाया जाता है और इसके दूसरे भाग में यात्रीगण घी पोतते हैं। भक्त लोग इस लिंगमूर्ति को अपनी बाँहों मे भरकर भगवान से मिलते भी हैं।

अन्य मंदिर और कुण्ड

मन्दिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। केदारनाथ-मन्दिर के प्रवेश द्वार पर नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित है और वहाँ से दक्षिण की ओर एक पहाड़ी पर श्री भैरव जी का एक सुन्दर मन्दिर है। केदारनाथ-मन्दिर के द्वार पर दोनों ओर द्वारपालों की मूर्तियाँ हैं। केदारनाथ की श्रृंगार मूर्ति पाँच मुखवाली है और इसे हमेशा वस्त्र तथा आभूषणों से सजाया जाता है। मन्दिर में उक्त मूर्तियों के अतिरिक्त पन्द्रह अन्य देवमूर्तियाँ भी स्थापित हैं। मन्दिर से पीछे लगभग तीन हाथ लम्बा एक कुण्ड है, जिसे 'अमृतकुण्ड' कहा जाता है। इस अमृतकुण्ड में दो शिवलिंग हैं। इनके पूर्व और उत्तर भाग में 'हंसकुण्ड' और 'रेतसकुण्ड' स्थित हैं। यहाँ की परम्परा है कि रेतसकुण्ड में पैर (जंघा) टेककर बायें हाथ से तीन आचमन किये जाते हैं। यहीं पर ईशानेश्वर-महादेव की प्रतिमा विराजमान है।

केदारनाथजी के मन्दिर के सामने एक छोटे मन्दिर में 'उदक कुण्ड' है। इस कुण्ड में भी रेतसकुण्ड के समान ही आचमन लेने की प्रथा प्रचलित है। इस मन्दिर के पीछे मीठे जल का एक कुण्ड स्थित है, जिसका पानी भक्तगण पीते हैं। श्रावण के महीने में केदारेश्वर की पूजा गंगा जल, बिल्वपत्र तथा ब्रह्मकमल के फूलों से की जाती है। केदारघाटी के इस क्षेत्र में पंचकेदार (पाँच केदारनाथ) प्रसिद्ध हैं, जिनके स्थान मन्दिर और शिवलिंगों का अपना-अपना विशेष महत्त्व है। भगवान केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव के सम्बन्ध में शिव महापुराण की कथा इस प्रकार है-

शिव पुराण में कथा

भगवान विष्णु के नर और नारायण नामक दो अवतार हुए हैं। नर और नारायण इन दोनों ने पवित्र हिमालय के बदरिकाश्रम में बड़ी तपस्या की थी। उन्होंने पार्थिव (मिट्टी) का शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। पार्थिव लिंग में शिव के विद्यमान होने पर दोनों (नर व नारायण) ने शास्त्र-विधि से उनकी पूजा-अर्चना की। प्रतिदिन निरन्तर शिव का पार्थिव-पूजन करना और उनके ही ध्यान में मग्न रहना उन तपस्वियों की संयमित दिनचर्या थी। बहुत दिनों के बाद उनकी आराधना से सन्तुष्ट परमेश्वर शंकर भगवान ने कहा कि मैं तुम दोनों पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम लोग मुझसे वर माँगो। भगवान शंकर की बात सुनकर प्रसन्न नर और नारायण ने जनकल्याण की भावना से कहा- 'देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो आप अपने स्वरूप से पूजा स्वीकार करने हेतु सर्वदा के लिए यहीं स्थित हो जाइए।'

जगत का कल्याण करने वाले भगवान शंकर उन दोनों तपस्वी-बन्धुओं के अनुरोध को स्वीकारते हुए हिमालय के केदारतीर्थ मे ज्योतिर्लिंग के रूप मे स्थित हो गये। उन दोनों अनन्य भक्तों से पूजित हो सम्पूर्ण भय और दु:ख का नाश करने हेतु तथा अपने भक्तों को दर्शन देने की इच्छा से केदारेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव वहाँ सदा ही विद्यमान रहते हैं। भगवान केदारनाथ दर्शन-पूजन करने वाले प्रदान करते हैं। नर-नारायण की तपस्या के आधार पर विराजने वाले केदारेश्वर की जिसने भी भक्तिभाव से पूजा की, उसे स्वप्न में भी दु:ख और कष्ट के दर्शन नहीं हुए। शिव का प्रिय भक्त केदारलिंग के समीप शिव का स्वरूप अंकित (जिस वलय / कंकण पर शिव की आकृति बनी हो) कड़ा चढ़ाता है, वह उस वलय से सुशोभित भगवान शिव का दर्शन करके इस भवसागर से पार हो जाता है अर्थात वह जीवनमुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य बदरीवन की यात्रा करके नर तथा नारायण और केदारेश्वर शिव के स्वरूप का दर्शन करता है, नि:सन्देह वह मोक्ष पद का भागी बन जाता है। ऐसा मनुष्य जो केदारनाथ ज्योतिर्लिंग में भक्ति-भावना रखता है और उनके दर्शन के लिए अपने स्थान से प्रस्थान करता है, किन्तु रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो जाती है, जिससे वह केदारेश्वर का दर्शन नहीं कर पाता है, तो समझना चाहिए कि निश्चित ही उस मनुष्य की मुक्ति हो गई। शिव पुराण का यह भी अभिमत है कि केदारतीर्थ में पहुँचकर, वहाँ केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का पूजन कर जो मनुष्य वहाँ का जल पी लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह भक्ति-भाव पूर्वक भगवान नर-नारायण और केदारेश्वर शिवलिंग की पूजा-अर्चना करे। श्री शिव महापुराण के कोटि रूद्र संहिता में इसी बात को निम्नलिखित प्रकार कहा गया है-

केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:।
तेऽपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्य्या विचारणा।।
तत्वा तत्र प्रतियुक्त: केदारेशं प्रपूज्य च।
तत्रत्यमुदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विन्दति।।<balloon title="शिव पुराण, कोटि रूद्र संहिता, 20/22-23" style=color:blue>*</balloon>

अन्य कथा

शिव महापुराण में एक अन्य कथा का भी संकेत प्राप्त होता है। उसके अनुसार जब महाभारत-युद्ध समाप्त हो गया और पाण्डव विजयी हो गये, उस समय भारतवर्ष की वीरता महाभारत के समर (युद्ध) में विलीन हो गई, युद्ध का परिणाम भय़ंकर हुआ क्योंकि क्षत्रिय योद्धाओं का संहार हो गया। कौरवों के साथ-साथ पाण्डवो पर भी उस युद्ध की जिम्मेदारी कम न थी यद्यपि महाभारत का युद्ध न्याय और अन्याय का संघर्ष था, किन्तु उसका दुष्परिणाम समूचे राष्ट्र को भुगतना पड़ा। युद्ध समाप्त होने के बाद जब पाण्डवों ने उस पर विचार मन्थन किया, तो वे दु:ख से अत्यन्त व्याकुल हो उठे। उन्होने स्वयं अपने ही हाथों अपने सगे-सम्बन्धियों तथा कुल के लोगों का नाश कर डाला था। पाण्डवों ने आत्मकुल-नाश और गोत्र-हत्या के पाप से पीछा छुड़ाने हेतु अर्थात मुक्ति प्राप्त करने हेतु वेदव्यासजी से प्रायश्चित का विधान जानना चाहा। व्यास जी ने उन पाण्डवों को बताया कि संसार में सबका भला होता देखा गया है, किन्तु अपने वंश की हत्या करने वाले कुलघाती का कभी कल्याण नहीं होता है। उन्होंने कहा कि यदि तुम लोग इस पाप से मुक्त होना चाहते हो, तो केदार क्षेत्र में जाकर भगवान केदारनाथ का दर्शन और पूजा करो। केदारेश्वर शिवलिंग के दर्शन के बिना तुम लोगों को मुक्ति नहीं मिलेगी। केदार क्षेत्र का वर्णन करते हुए व्यास जी ने बताया कि जिस क्षेत्र में नदियों में श्रेष्ठ मंदाकिनी अनेक धाराओं में विभक्त होकर बहती हैं, जहाँ भगवान महेश, पार्वती के संग अपने सैकड़ों महान वीर गणों के साथ निवास करते हैं और उनके दर्शनों के लिए कर्मनिष्ठ तपेव्रती ब्रह्मा आदि देवता उपस्थित होते हैं, जहाँ विविध प्रकार के वाद्ययन्त्रों की ध्वनियाँ तथा वेदों की ऋचाएँ अनवरत सुनायी पड़ती हैं, उस महापथ नाम से निर्मित देवस्थान में तुम लोग चले जाओं। व्यास जी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर प्रसन्नचित्त पाण्डव भगवान शिव के दर्शन हेतु तीर्थयात्रा पर निकल पड़े।

पाण्डव सर्वप्रथम काशी की यात्रा पर श्री विश्वनाथ भोलेनाथ का दर्शन करने हेतु पहुँचे, किन्तु इन कुलघाती पापियों को भगवान शिव प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देना चाहते थे। इसलिए पाण्डव निराश होकर श्री व्यास जी द्वारा निर्देशित केदार क्षेत्र की ओर मुड़ गये। इन्हे केदारखण्ड में आते देख भगवान शंकर गुप्तकाशी में जाकर अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर और आगे जाकर महादेव जी ने एक भैंसे का रूप धारण किया और विचरण करने लगे। पाण्डव दल को इस प्रकरण का ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा हो गया। जब भगवान शिव ने पाण्डवों के मन की बात जान ली, तब वे भैंसा रूपी शिव भूमिगत होने के लिए दलदली धरती में धँसने लगे। महान बलशाली और पराक्रमी भीम ने भैंसा रूपी शिव की पूँछ पकड़ ली। इसी परिस्थिति में अन्य सभी पाण्डव करूणापूर्वक क्रन्दन करते हुए विविध प्रकार से भगवान भोलेनाथ श्री केदारेश्वर की स्तुति करने लगे।

उनकी श्रद्धा-भक्ति और स्तुति से आशुतोष भगवान शिव प्रभावित होकर उन पर प्रसन्न हो गये। उन पाण्डवों की प्रार्थना पर भैंसा के पृष्ठभाग (पीठ) के यप में सर्वदा के लिए शंकर जी वहीं स्थित हो गये, जिनकी पूजा पाण्डवों ने विधिपूर्वक की। वहाँ पर भी पाण्डवों को नभ वाणी सुनाई पड़ी– 'पाण्डवों! मेरी इस पूजा से तुम्हारे सकल मनोरथ सिद्ध हो जाएँगें।' शिव को भैंसा के पृष्ठ के रूप में पूजन कर पाण्डव गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हो गये। इसी कथा के आधार पर केदार घाटी में पाँच स्थानों पर पाँच केदार का दर्शन-पूजन करने का प्रचलन है।

भैंसा रूपी शिव के अंगों के आधार पर ये केदार-स्थान इस प्रकार हैं–

  1. केदारनाथ प्रमुख तीर्थ में भैंसा के पीठ के रूप में।
  2. मध्य महेश्वर में उसकी नाभि के यप में।
  3. तुंगनाथ में उसकी भुजाएँ और हृदय के रूप में।
  4. रूद्रनाथ में मुख के रूप में और
  5. कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में प्रतिष्ठिता हैं।

उत्तराखंड के इन पाँचो केदारों के दर्शन का विशेष महत्त्व है। यहाँ एक बूढ़ा केदार भी हैं। इनके सम्बन्ध मे कहा जाता है कि जब पाण्डव तीर्थयात्रा पर निकले थे, तो उन्होंने भगवान शिव के दर्शन हेतु बूढा केदार में जाकर दर्शन किया था। शिव के भैंसा रूप का वर्णन जो पाण्डवों से सम्बन्धित है, शिव महापुराण के कोटि रूद्र संहिता में इस प्रकार किया गया है–

यो वै हि पाण्डवान्दृष्ट्वा महिषं रूपमास्थित:।
मायामास्थाय तत्रैव पलायनपरोऽभवत्।।
धृतश्च पाण्डवैस्तत्र ह्मवांगमुखतया स्थित:।
पुच्छं चैव धृतं तैस्तु प्रर्थितश्च पुन:।।
तद्रूपेण स्थितस्तत्र भक्तवत्सलनामभाक्।
नयपाले शिरोभागो गतस्तद्रूपत: स्थित:।।
तथैव पूजनान्नित्यामाज्ञां चैवाप्यदात्तथा।
पूजयित्वा गतास्ते तु पाण्डवा मुदितास्तदा।
लब्ध्वा चित्तोप्सितं सर्व विमुक्ता: सर्वदु:खत:।।<balloon title="शिव पुराण, कोटि रूद्र संहिता, 19/13-17" style=color:blue>*</balloon>

स्कन्द पुराण में यात्रा का महात्मय

भगवान शंकर को मंदाकिनी गंगा, मधुगंगा, क्षीर गंगा आदि नदियों से सिंचित और सैकड़ों शिवलिंगों से सुशोभित तथा हिमखण्डों से आच्छादित यह केदार क्षेत्र अतिशय प्रिय है। स्कन्द पुराण की कथा के अनुसार माँ पार्वती के द्वारा केदार क्षेत्र की महिमा पूछने पर भगवान शिव ने उन्हें बताया कि यह क्षेत्र अधिक प्रिय होने के कारण वे इसे कभी नहीं छोड़ते हैं। उन्होंने पार्वती जी से कहा कि मैंने जब सृष्टि-कार्य के लिए ब्रह्माजी का रूप धारण किया था, तभी से परब्रह्म को जीतने के लिए मैं इस क्षेत्र मे सर्वदा निवास करता हूँ। इस क्षेत्र के द्वार पर नन्दी, भृँगी आदि प्रहरी (द्वारपाल) बनकर खड़े रहते हैं। जो मनुष्य अपने निवास पर रहते हुए इस केदार यात्रा का विचार करता है, इसके लिए कार्यक्रम बनाता है, उसके तीन सौ पीढ़ियों के पितर शिव लोक में निवास प्राप्त करते है। जो व्यक्ति मन, वाणी और कर्म से मेरे प्रति समर्पित होकर श्री केदारनाथ जी का दर्शन करता है, तो यदि उसे ब्रह्महत्या के समान भी पाप लगा हो, वे सब दर्शनमात्र से ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों मे हिमालय, भक्तों में नारद, गऊओं में कामधेनु और सभी पुरियों में कैलाश श्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है।

स्कन्द पुराण की कथा

इस प्रकार केदार क्षेत्र के बखान में आनन्दित भगवान शंकर ने माता गौरी को एक कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि एक गाँव में एक हिंसक बहेलिया (पक्षियों और वन्य प्राणियों का शिकार करने वाला) रहता था। उसे मृगों का मांस बहुत प्रिय था और मांसाहारी होने के कारण वह दुराचार भी बहुत करता था। वह प्रतिदिन मृगों का शिकार करता था और उन्हें अपना आहार बना लेता था। एक दिन वह शिकार के सिलसिले में केदारतीर्थ में पहुँच गया। जब वह सघन जंगलों से होकर शिकार की खोज में पर्वतों पर विचरण कर रहा था, तब उसे मुनि नारद दिखाई दिये जिनको स्वर्ण मृग समझ लिया, क्योंकि वह बहुत दूर से उन्हें देख रहा था। उसने अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। जब वह ऋषि नारद को बाण से मारने के लिए उद्यत हुआ, तब तक सूर्यास्त हो चला था।

उस समय उस बहेलिए ने वहाँ देखा कि एक साँप मेंढक को निगल गया है, किन्तु वह मृत्यु प्राप्त मेढ़क शिव के स्वरूप में हो गया। जब वह कुछ दूर और आगे गया, तो देखा कि उस बाघ ने हिरण को मार डाला है, किन्तु वह हिरण शिव गणों के साथ शिवलोक में जा रहा है। इन सब दृश्यों को देखकर वह बहेलिया भ्रमित और चकित हो उठा। इतने में ऋषि नारद जी उस बहेलिये के पास पहुँच गये। मनुष्य के रूप में नारद को अपने पास आया देख उस शिकारी ने उपर्युक्त घटित घटनाओं के सम्बन्ध में उनसे जानने की इच्छा प्रकट की। नारद मुनि ने उससे कहा कि तुम बहुत सौभाग्यशाली हो, जो इस परम पवित्र तीर्थ में पधारे हो। जैसा कि तुमने देखा है, इस कल्याणकारक शुभ तीर्थ में निकृष्ट जीव भी तुम्हारे देखते-देखते शिवतत्त्व को प्राप्त हो गये हैं।