सावित्री

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
सावित्री एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- सावित्री (बहुविकल्पी)

सावित्री तथा सत्यवान की कथा

धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय ऋषि से कहा, "हे ऋषिश्रेष्ठ! मुझे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है, किन्तु इस द्रौपदी के कष्ट को देखकर अत्यन्त क्लेश होता है। जितना कष्ट यह उठा रही है, क्या और किसी अन्य पतिव्रता नारी ने कभी उठाया है?" तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, "हे धर्मराज! तुम्हारे इस प्रश्नै के उत्तर में मैं तुम्हें पतिव्रता सावित्री की कथा सुनाता हूँ।। मद्र देश के राजा का नाम अश्वपति था। उनके कोई भी सन्तान न थी इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये सावित्री देवी की बड़ी उपासना की जिसके फलस्वरूप उनकी एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई। सावित्री देवी की कृपा से उत्पन्न उस कन्या का नाम अश्वपति ने सावित्री ही रख दिया।

"सावित्री की उम्र, रूप, गुण और लावण्य शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगी और वह युवावस्था को प्राप्त हो गई। अब उसके पिता राजा अश्वेपति को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि पुत्री! तुम अत्यन्त विदुषी हो अतः अपने अनुरूप पति की खोज तुम स्वयं ही कर लो। पिता की आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने घर लौटी तो उस समय सावित्री के पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चा कर रहे थे। सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया और कहा कि हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का चुनाव करने के लिये अनेक देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे अन्धे हो गये। जब वे अन्धे हुये उस समय उनके पुत्र की बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन के अनधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका राज्य छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और कठोर व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं, वे सर्वथा मेरे योग्य हैं इसलिये उन्हीं को मैंने पतिरूप में चुना है। "सावित्री की बातें सुनकर देवर्षि नारद बोले कि हे राजन्! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके सावित्री ने बड़ी भूल की है। नारद जी के वचनों को सुनकर अश्ववपति चिन्तित होकर बोले के हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं? इस पर नारद जी ने कहा कि राजन्! सत्यवान तो वास्तव में सत्य का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। "देवर्षि की बातें सुनकर राजा अश्वैपति ने सावित्री से कहा कि पुत्री! तुम नारद जी के वचनों को सत्य मान कर किसी दूसरे उत्तम गुणों वाले पुरुष को अपना पति के रूप में चुन लो। इस पर सावित्री बोली कि हे तात्! भारतीय नारी अपने जीवनकाल में केवल एक ही बार पति का वरण करती है। अब चाहे जो भी हो, मैं किसी दूसरे को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती। सावित्री द‍ृढ़ता को देखकर देवर्षि नारद अत्यन्त प्रसन्न हुये और उनकी सलाह के अनुसार राजा अश्व्पति ने सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ कर दिया ।

"विवाह के पश्चात सावित्री अपने राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा वल्कल धारण कर अपने पति एवं सास श्वीसुर के साथ वन में रहने लगी। पति तथा सास श्विसुर की सेवा ही उसका धर्म बन गया। किन्तु ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था, सावित्री के मन का भय बढ़ता जाता था। अन्त्ततः वह दिन भी आ गया जिस दिन सत्यवान की मृत्यु निश्चिनत थी। उस दिन सावित्री ने द‍ृढ़ निश्चनय कर लिया कि वह आज अपने पति को एक भी पल अकेला नहीं छोड़ेगी। जब सत्यवान लकड़ी काटने हेतु कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर वन में जाने के लिये तैयार हुये तो सावित्री भी उसके साथ जाने के लिये तैयार हो गई। सत्यवान ने उसे बहुत समझाया कि वन का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है और वहाँ जाने में तुम्हें बहुत कष्ट होगा किन्तु सावित्री अपने निश्चतय पर अडिग रही और अपने सास श्वकसुर से आज्ञा लेकर सत्यवान के सा गहन वन में चली गई।

"लकड़ी काटने के लिये सत्यवान एक वृक्ष पर जा चढ़े किन्तु थोड़ी ही देर में वे अस्वस्थ होकर वृक्ष से उतर आये। उनकी अस्वस्थता और पीड़ा को ध्यान में रखकर सावित्री ने उन्हें वहीं वृक्ष के नीचे उनके सिर को अपनी जंघा पर रख कर लिटा लिया। लेटने के बाद सत्यवान अचेत हो गये। सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान का अन्तिम समय आ गया है इसलिये वह चुपचाप अश्रु बहाते हुये ईश्वमर से प्रार्थना करने लगी। अकस्मात् सावित्री ने देखा कि एक कान्तिमय, कृष्णवर्ण, हृष्ट-पुष्ट, मुकुटधारी व्यक्तिय उसके सामने खड़ा है। सावित्री ने उनसे पूछा कि हे देव! आप कौन हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि सावित्री! मैं यमराज हूँ। और तुम्हारे पति को लेने आया हूँ। सावत्री बोली हे प्रभो! सांसारिक प्राणियों को लेने के लिये तो आपके दूत आते हैं किन्तु क्या कारण है कि आज आपको स्वयं आना पड़ा? यमराज ने उत्तर दिया कि देवि! सत्यवान धर्मात्मा तथा गुणों का समुद्र है, मेरे दूत उन्हें ले जाने के योग्य नहीं हैं। इसीलिये मुझे स्वयं आना पड़ा है।

"इतना कह कर यमराज ने बलपूर्वक सत्यवान के शरीर में से पाश में बँधा अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला जीव निकाला और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा। सावित्री अपने पति को ले जाते हुये देखकर स्वयं भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद जब यमराज ने सावित्री को अपने पीछे आते देखा तो कहा कि हे सवित्री! तू मेरे पीछे मत आ क्योंकि तेरे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है और वह अब तुझे वापस नहीं मिल सकता। अच्छा हो कि तू लौट कर अपने पति के मृत शरीर के अन्त्येष्टि की व्यवस्था कर। अब इस स्थान से आगे तू नहीं जा सकती। सावित्री बोली कि हे प्रभो! भारतीय नारी होने के नाते पति का अनुगमन ही तो मेरा धर्म है और मैं इस स्थान से आगे तो क्या आपके पीछे आपके लोक तक भी जा सकती हूँ क्योंकि मेरे पातिव्रत धर्म के बल से मेरी गति कहीं भी रुकने वाली नहीं है।

"यमराज बोले कि सावित्री! मैं तेरे पातिव्रत धर्म से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसलिये तू सत्यवान के जीवन को छोड़कर जो चाहे वह वरदान मुझसे माँग ले। इस पर सावित्री ने कहा कि प्रभु! मेरे श्वमसुर नेत्रहीन हैं। आप कृपा करके उनके नेत्रों की ज्योति पुनः प्रदान कर दें। यमराज बोले कि ऐसा ही होगा, लेकिन अब तू वापस लौट जा। सावित्री ने कहा कि भगवन्! जहाँ मेरे प्राणनाथ होंगे वहीं मेरा निश्च ल आश्रम होगा। इसके सिवा मेरी एक बात और सुनिये। मुझे आज आप जैसे देवता के दर्शन हुये हैं और देव-दर्शन तथा संत-समागम कभी निष्फल नहीं जाते। इस पर यमराज ने कहा कि देवि! तुमने जो कहा है वह मुझे अत्यन्त प्रिय लगा है। अतः तू फिर सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक वर माँग ले।

सावित्री बोली, हे देव! मेरे श्वेसुर राज्य-च्युत होकर वनवासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मुझे यह वर दें कि उनका राज्य उन्हें वापस मिल जाये। यमराज बोले 'तथास्तु'। अब तू लौट जा। सावित्री ने फिर कहा कि हे प्रभो! सनातन धर्म के अनुसार मनुष्यों का धर्म है कि वह सब पर दया करे। सत्पुरुष तो अपने पास आये हुये शत्रुओं पर भी दया करते हैं। यमराज बोले कि हे कल्याणी! तू नीति में अत्यन्त निपुण है और जैसे प्यासे मनुष्य को जल पीकर जो आनन्द प्राप्त होता है तू वैसा ही आनन्द प्रदान करने वाले वचन कहती है। तेरी इस बात से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें पुनः एक वर देना चाहता हूँ किन्तु तू सत्यवान का जीवन वर के रूप में नहीं माँग सकती। तब सावित्री ने कहा कि मेरे पिता राजा अश्वेपति के कोई पुत्र नहीं है। अतः प्रभु! कृपा करके उन्हें पुत्र प्रदान करें। यमराज बोले कि मैंने तुझे यह वर भी दिया, अब तू यहाँ से चली जा। सावित्री ने फिर कहा कि हे यमदेव! मैं अपने पति को छोड़ कर एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकूँगी। आप तो संत-हृदय हैं और सत्संग से सहृदयता में वृद्धि ही होती है। इसीलिये संतों से सब प्रेम करते हैं। यमराज बोले कि कल्याणी तेरे वचनों को सुनकर मैं तुझे सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक और अन्तिम वर देना चाहता हूँ किन्तु इस वर के पश्चारत् तुम्हें वापस जाना होगा। सावित्री ने कहा कि प्रभु यदि आप मुझसे इतने ही प्रसन्न हैं तो मेरे श्वासुर द्युमत्सेन के कुल की वृद्धि करने के लिये मुझे सौ पुत्र प्रदान करने की कृपा करें। यमराज बोले कि ठीक है, यह वर भी मैंने तुझे दिया, अब तू यहाँ से चली जा।

"किन्तु सावित्री यमराज के पीछे ही चलती रही। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि सावित्री तू मेरा कहना मान कर वापस चली जा और सत्यवान के मृत शरीर के अन्तिम संस्कार की व्यवस्था कर। इस पर सावित्री बोली कि हे प्रभु! आपने अभी ही मुझे सौ पुत्रों का वरदान दिया है, यदि मेरे पति का अन्तिम संस्कार हो गया तो मेरे पुत्र कैसे होंगे? और मेरे श्व सुर के कुल की वृद्धि कैसे हो पायेगी? सावित्री के वचनों को सुनकर यमराज आश्च्र्य में पड़ गये और अन्त में उन्होंने कहा कि सावित्री तू अत्यन्त विदुषी और चतुर है। तूने अपने वचनों से मुझे चक्कर में डाल दिया है। तू पतिव्रता है इसलिये जा, मैं सत्यवान को जीवनदान देता हूँ। इतना कह कर यमराज वहाँ से अन्तर्धान हो गये और सावित्री वापस सत्यवान के शरीर के पास लौट आई। सावित्री के निकट आते ही सत्यवान की चेतना लौट आई।" इतनी कथा सुनाकर मार्कण्डेय मुनि बोले, "हे युधिष्ठिर! इस प्रकार उस पतिव्रता नारी ने अपने श्वयसुर कुल के साथ ही साथ अपने पिता के कुल का भी उद्धार किया। इसी प्रकार यह पतिव्रता द्रौपदी भी आप सब का उद्धार करेगी। इसलिये आप समस्त चिन्ताओं को भूल कर अच्छे दिन आने की प्रतीक्षा करें।"

ब्रह्म वैवर्त पुराण

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! जब राजा अश्वपति ने विधि पूर्वक भगवती सावित्री की पूजा करके इस स्तोत्र से उनका स्तवन किया, तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हज़ारों सूर्य एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानो माता अपने पुत्र से बात कर रही हो। उस समय देवी सावित्री की प्रभा से चारों दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं।

देवी सावित्री ने कहा-- महाराज! तुम्हारे मन की जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी के सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे नहीं हैं। अत: सब कुछ देने के लिये मैं निश्चित रूप से प्रस्तुत हूँ। राजन्! तुम्हारी परम साध्वी रानी कन्या की अभिलाषा करती है और तुम पुत्र चाहते हो; क्रम से दोनों ही प्राप्त होंगे।

सावित्री नामक कन्या की उत्पत्ति, विवाह, सत्यवान् की मृत्यु

इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये। यहाँ समयानुसार पहले कन्या का जन्म हुआ। भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई लक्ष्मी की कलास्वरूपा उस कन्या का नाम राजा अश्वपति ने सावित्री रखा। वह कन्या समयानुसार शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी। समय पर उस सुन्दरी कन्या में नवयौवन के लक्षण प्रकट हो गये। द्युमत्सेनकुमार सत्यवान् का उसने पतिरूप में वरण किया; क्योंकि सत्यवान् सत्यवादी, सुशील एवं नाना प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न थे। राजा ने रत्नमय भूषणों से अलंकृत करके अपनी कन्या सावित्री सत्यवान् की समर्पित कर दी। सत्यवान् भी श्वशुर की ओर से मिले हुए बड़े भारी दहेज के साथ उस कन्या को लेकर अपने घर चले गये। एक वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात सत्य पराक्रमी सत्यवान् अपने पिता की आज्ञा के अनुसार हर्षपूर्वक फल और ईंधन लाने के लिये अरण्य में गये। उनके पीछे-पीछे साध्वी सावित्री भी गयी। दैववश सत्यवान् वृक्ष से गिरे और उनके प्राण प्रयाण कर गये। मुने! यमराज ने उनके अंगष्ठ-सदृश जीवात्मा को सूक्ष्म शरीर के साथ बाँधकर यमपुरी के लिये प्रस्थान किया। तब साध्वी सावित्री भी उनके पीछे लग गयी। संयमनीपुरी के स्वामी साधुश्रेष्ठ यमराज ने सुन्दरी सावित्री को पीछे-पीछे आती देख मधुर वाणी में कहा।

सावित्री और यमराज का संवाद

धर्मराज ने कहा- अहो सावित्री! तुम इस मानव-देह से कहाँ जा रही हो? यदि पतिदेव के साथ जाने की तुम्हारी इच्छा है तो पहले इस शरीर का त्याग कर दो। मर्त्यलोक का प्राणी इस पाञ्चभौतिक शरीर को लेकर मेरे लोक में ही जाने का अधिकारी है। साध्वि! तुम्हारा पति सत्यवान् भारतवर्ष में आया था। उसकी आयु अब पूर्ण हो चुकी, अतएव अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिये अब वह मेरे लोक को जा रहा है। प्राणी का कर्म से ही जन्म होता है और कर्म से ही उसकी मृत्यु भी होती है। सुख, दु:ख, भय और शोक- ये सब कर्म के अनुसार प्राप्त होते रहते हैं। कर्म के प्रभाव से जीव इन्द्र भी हो सकता है। अपना उत्तम कर्म उसे ब्रह्मपुत्र तक बनाने में समर्थ है। अपने शुभ कर्म की सहायता से प्राणी श्रीहरि का दास बनकर जन्म आदि विकारों से मुक्त हो सकता है। सम्पूर्ण सिद्धि, अमरत्व तथा श्रीहरि के सालोक्यादि चार प्रकार के पद भी अपने शुभ कर्म के प्रभाव से मिल सकते हैं। देवता, मनु, राजेन्द्र, शिव, गणेश, मुनीन्द्र, तपस्वी, क्षत्रिय, वैश्य, म्लेच्छ, स्थावर, जंगम, पर्वत, राक्षस, किन्नर, अधिपति, वृक्ष, पशु, किरात, अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु कीड़े, दैत्य, दानव तथा असुर- ये सभी योनियाँ प्राणी को अपने कर्म के अनुसार प्राप्त होती हैं। इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इस प्रकार सावित्री से कहकर यमराज मौन हो गये।

भगवान् नारायण कहते हैं- मुने! पतिव्रता सावित्री ने यमराज की बात सुनकर परम भक्ति के साथ उनका स्तवन किया; फिर वह उनसे पूछने लगी।

सावित्री ने पूछा- भगवन्! कौन कार्य है, किस कर्म के प्रभाव से क्या होता है, कैसे फल में कौन कर्म हेतु है, कौन देह है और कौन देही है अथवा संसार में प्राणी किसकी प्रेरणा से कर्म करता है? ज्ञान, बुद्धि, शरीरधारियों के प्राण, इन्द्रियाँ तथा उनके लक्षण एवं देवता, भोक्ता, भोजयिता, भोज, निष्कृति तथा जीव और परमात्मा- ये सब कौन और क्या हैं? इन सबका परिचय देने की कृपा कीजिये।

धर्मराज बोले- साध्वी सावित्री! कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ और अशुभ। वेदोक्त कर्म शुभ हैं। इनके प्रभाव से प्राणी कल्याण के भागी होते हैं। वेद में जिसका स्थान नहीं है, वह अशुभ कर्म नरकप्रद है। भगवान् विष्णु की जो संकल्परहित अहैतु की सेवा की जाती है, उसे 'कर्म-निर्मूलरूपा' कहते हैं। ऐसी ही सेवा 'हरि-भक्ति' प्रदान करती है। कौन कर्म के फल का भोक्ता है और कौन निर्लिप्त- इसका उत्तर यह है। श्रुति का वचन है कि श्रीहरि का जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय- ये उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। साध्वि! श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बतायी गयी है, जो सर्वसम्मत है। एक को 'निर्वाणप्रदा' कहते हैं और दूसरी को 'हरिभक्तिप्रदा'। मनुष्य इन दोनों के अधिकारी हैं। वैष्णव पुरुष हरिभक्तिस्वरूपा मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु-जन निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं। कर्म का जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करने वाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप है। वे भगवान् प्रकृति से परे हैं। कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतु रूप हैं। जीव कर्म का फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है। देही आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव है। देह तो सदा से नश्वर है। पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश- ये पाँच भूत उसके उपादान हैं। परमात्मा के सृष्टि- कार्य में ये सूत्ररूप हैं। कर्म करने वाला जीव देही है। वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दु:ख के साक्षात् स्वरूप वैभवका ही दूसरा नाम भोग है। निष्कृति मुक्ति को ही कहते हैं। सदसत्सम्बन्धी विवेक के आदिकारण का नाम ज्ञान है। इस ज्ञान के अनेक भेद हैं। घट-पटादि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा जाता है। विवेचनमयी शक्तिको 'बुद्धि' कहते हैं। श्रुति में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है। वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं। इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्तिका संचार होता है। जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक, कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका एक भेद है, उसे 'मन' कहा गया है। यह शरीरधारियों का अंग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है। यही इन्द्रियों को विषयों में लगाकर दु:खी बनाने के कारण शत्रुरूप हो जाता है और सत्कार्य में लगाकर सुखी बनाने के कारण मित्ररूप है। आँख, कान, नाम, त्वचा, और जिह्वा आदि इन्द्रियाँ हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी और वाणी आदि इन्द्रियों के देवता कहे गये हैं। जो प्राण एवं देहादिकों धारण करता है, उसी की 'जीव' संज्ञा है। प्रकृति से परे जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म हैं, उन्हीं को 'परमात्मा' कहते हैं। ये कारणों के भी कारण हैं। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं।

वत्से! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने शास्त्रानुसार बतला दिया। यह विषय ज्ञानियों के लिये परम ज्ञानमय है। अब तुम सुखपूर्वक लौट जाओ।

सावित्री ने कहा- प्रभो! आप ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। अब मैं इन अपने प्राणनाथ और आपको छोड़कर कैसे कहाँ जाऊँ? मैं जो-जो बातें पूछती हूँ, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें। जीव किस कर्म के प्रभाव से किन-किन योनियों में जाता है? पिताजी! कौन कर्म स्वर्गप्रद है और कौन नरकप्रद? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी मुक्त हो जाता है तथा श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने के लिये कौन-सा कर्म कारण होता है? किस कर्म के फलस्वरूप प्राणी रोगी होता है और किस कर्मफल से नीरोग? दीर्घजीवी और अल्पजीवी होने में कौन-कौन से कर्म प्रेरक हैं? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी सुखी होता है और किस कर्म के प्रभाव से दु:खी? किस कर्म से मनुष्य अंगहीन, एकाक्ष, बधिर, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल तथा अत्यन्त लोभी और नरघाती होता है एवं सिद्धि और सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होने में कौन कर्म सहायक है? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से तपस्वी? स्वर्गादि भोग प्राप्त होने में कौन कर्म साधन है? किस कर्म से प्राणी वैकुण्ठ में जाता है? ब्रह्मन्! गोलोक निरामय और सम्पूर्ण स्थानों से उत्तम धाम है। किस कर्म के प्रभाव से उसकी प्राप्ति हो सकती है? कितने प्रकार के नरक हैं और उनकी कितनी संख्या और उनके क्या-क्या नाम हैं? कौन किस नरक में जाता है और कितने समयतक वहाँ यातना भोगता है? किस कर्म के फल से पापियों के शरीर में कौन-सी व्याधि उत्पन्न होती है? भगवन्! मैंने ये जो-जो प्रश्न किये हैं, इन सबके उत्तर देने की आप कृपा करें। (अध्याय 24-25)

सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर, सावित्री को वरदान

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! सावित्री के वचन सुनकर यमराज के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हँसकर प्राणियों के कर्मविपाक कहने के लिये उद्यत हो गये।

धर्मराज ने कहा- प्यारी बेटी! अभी तुम हो तो अल्प वय की बालिका, किंतु तुम्हें पूर्ण विद्वानों, ज्ञानियों और योगियों से भी बढ़कर ज्ञान प्राप्त है। पुत्री! भगवती सावित्री के वरदान से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम उन देवी की कला हो। राजा ने तपस्या के प्रभाव से सावित्री-जैसी कन्यारत्न को प्राप्त किया है। जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान् विष्णु के, भवानी शंकर के, राधा श्रीकृष्ण के, सावित्री ब्रह्मा के, मूर्ति धर्म के, शतरूपा मनु के, देवहूति कर्दम के, अरून्धती वसिष्ठ के, अदिति कश्यप के, अहिल्या गौतम के, शची इन्द्र के, रोहिणी चन्द्रमा के, रति कामदेव के, स्वाहा अग्नि के, स्वधा पितरों के, संज्ञा सूर्य के, वरुणानी वरुण के, दक्षिण यज्ञ के, पृथ्वी वाराह के और देवसेना कार्तिकेय के पास सौभाग्यवती प्रिया बनकर शोभा पाती हैं, तुम भी वैसी ही सत्यवान् की प्रिया बनो। मैंने यह तुम्हें वर दे दिया। महाभागे! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर माँगो। मैं तुम्हें सभी अभिलाषित वर देने को तैयार हूँ।

सावित्री बोली- महाभाग! सत्यवान् के औरस अंश से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों- यही मेरा अभिलषित वर है। साथ ही, मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों। मेरे श्वशुर को नेत्र-लाभ हों और उन्हें पुन: राज्यश्री प्राप्त हो जाय, यह भी मैं चाहती हूँ। जगत्प्रभो! सत्यवान् के साथ मैं बहुत लंबे समय तक रहकर अन्त में भगवान् श्रीहरि के धाम में चली जाऊँ, यह वर भी देने की आप कृपा करें।

प्रभो! मुझे जीव के कर्मका विपाक तथा विश्वसे तर जाने का उपाय भी सुनने के लिये मनमें महान कौतूहल हो रहा है; अत: आप यह भी बतावें।

धर्मराज ने कहा- महासाध्वि! तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे। अब में प्राणियों का कर्म-विपाक कहता हूँ, सुनो। भारतवर्ष में ही शुभ-अशुभ कर्मों का जन्म होता है- यहीं के कर्मों को 'शुभ' या 'अशुभ' की संज्ञा दी गयी है। यहाँ सर्वत्र पुण्यक्षेत्र है, अन्यत्र नहीं; अन्यत्र प्राणी केवल कर्मों का फल भोगते हैं। पतिव्रते! देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा मनुष्य- ये सभी कर्म के फल भोगते हैं। परंतु सबका जीवन समान नहीं है। उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात् मनुष्ययोनिमें ही शुभाशुभ कर्म किये जाते हैं; जिनका फल सर्वत्र सभी योनियों में भोगना पड़ता है। विशिष्ट जीवधारी- विशेषत: मानव ही सब योनियों में कर्मों का फल भोगते हैं और सभी योनियों में भटकते हैं। वे पूर्व-जन्म का किया हुआ शुभाशुभ कर्म भोगते हैं। शुभ कर्म के प्रभाव से वे स्वर्गलोक में जाते हैं और अशुभ कर्म से उन्हें नरक में भटकना पड़ता है। कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति होती है। साध्वि! मुक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है- एक निर्वाणस्वरूपा और दूसरी परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवारूपा। बुरे कर्म से प्राणी रोगी होता है और शुभ कर्म से आरोग्यवान्। वह अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी एवं दु:खी होता है। कुत्सित कर्म से ही प्राणी अंगहीन, अंधे-बहरे आदि होते हैं। उत्तम कर्म के फलस्वरूप सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है।

देवि! सामान्य बातें बतायी गयीं; अब विशेष बातें सुनो। सुन्दरि! यह अतिशय दुर्लभ विषय शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है। इसे सबके सामने नहीं कहना चाहिये। सभी जातियों के लिये भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाना परम दुर्लभ है। साध्वि! उन सब जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माना जाता है। वह समस्त कर्मों में प्रशस्त होता है। भारतवर्ष में विष्णुभक्त ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है। पतिव्रते! वैष्णव के भी दो भेद हैं- सकाम और निष्काम। सकाम वैष्णव कर्म प्रधान होता है और निष्काम वैष्णव केवल भक्त। सकाम वैष्णव कर्मों का फल भोगता है और निष्काम वैष्णव शुभाशुभ भोग के उपद्रव से दूर रहता है।

धर्म का पालन

साध्वि! ऐसा निष्काम वैष्णव शरीर त्यागकर भगवान् विष्णु के निरामय पद को प्राप्त कर लेता है। ऐसे निष्काम वैष्णवों का संसार में पुनरागमन नहीं होता। द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमेश्वर हैं। उनकी उपासना करने वाले भक्तपुरुष अन्त में दिव्य शरीर धारण करके गोलोक में जाते हैं। सकाम वैष्णव पुरुष उच्च वैष्णव लोकों में जाकर समयानुसार पुन: भारतवर्ष में लौट आते हैं। द्विजातियों के कुल में उनका जन्म होता है। वे भी कालक्रम से निष्काम भक्त बन जाते और भगवान् उन्हें निर्मल भक्ति भी अवश्य देते हैं। वैष्णव ब्राह्मण से भिन्न जो सकाम मनुष्य हैं, वे विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण किसी भी जन्म में विशुद्ध बुद्धि नहीं पा सकते। साध्वि! जो तीर्थस्थान में रहकर सदा तपस्या करते हैं, वे द्विज ब्रह्मा के लोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात पुन: भारतवर्ष में आ जाते हैं। भारत में रहकर अपने कर्तव्य-कर्मों में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण तथा सूर्यभक्त शरीर त्यागने पर सूर्यलोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात पुन: भारतवर्ष में जन्म पाते हैं। अपने धर्म में निरत रहकर शिव, शक्ति तथा गणपति की उपासना करने वाले ब्राह्मण शिवलोक में जाते हैं; फिर उन्हें लौटकर भारतवर्ष में आना पड़ता है। जो धर्मरहित होने पर भी निष्कामभाव से श्रीहरि का भजन करते हैं, वे भी भक्ति के बल से श्रीहरि के धाम में चले जाते हैं।

साध्वि! जो अपने धर्म का पालन नहीं करते, वे आचारहीन, कामलोलुप लोग अवश्य ही नरक में जाते हैं। चारों ही वर्ण अपने धर्म में कटिबद्ध रहने पर ही शुभकर्म का फल भोगने के अधिकारी होते हैं। जो अपना कर्तव्य-कर्म नहीं करते, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं। कर्म का फल भोगने के लिये वे भारतवर्ष में नहीं आ सकते। अतएव चारों वर्णों के लिये अपने धर्म का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है।

निष्कामभाव

अपने धर्म में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, स्वधर्मनिरत विप्र को अपनी कन्या देने के फलस्वरूप चन्द्रलोक को जाते हैं और वहाँ चौदह मन्वन्तर काल तक रहते हैं। साध्वि! यदि कन्या को अलंकृत करके दान में दिया तू उससे दुगुना फल प्राप्त होता है। उन साधु पुरुषों में यदि कामना हो तब तो वे चन्द्रमा के लोक में जाते हैं। निष्कामभाव से दान करें तो वे भगवान् विष्णु के परम धाम में पहुँच जाते हैं। गव्य (दूध), चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र, घृत, फल और जल ब्राह्मणों को देने वाले पुण्यात्मा पुरुष चन्द्रलोक में जाते हैं। साध्वि! एक मन्वन्तरतक वे वहाँ सुविधापूर्वक निवास करते हैं। उस दान के प्रभाव से उन्हें वहाँ सुदीर्घ काल तक निवास प्राप्त होता है। पतिव्रते! पवित्र ब्राह्मण को सुवर्ण, गौ और ताम्र आदि द्रव्य का दान करने वाले सत्पुरुष सूर्यलोक में जाते हैं। वे भय-बाधा से शून्य हो, उस विस्तृत लोक में सुदीर्घ काल तक वास करते हैं। जो ब्राह्मणों को पृथ्वी अथवा प्रचुर धान्य दान करता है, वह भगवान् विष्णु के परम सुन्दर श्वेतद्वीप में जाता है और दीर्घकाल तक वहाँ वास करता है। भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गृह-दान करने वाले पुरुष स्वर्गलोक में जाते और वहाँ दीर्घकाल तक निवास करते हैं; वे उस लोक में उतने वर्षों तक रहते हैं, जितनी संख्या में उस दान-गृह के रज:कण हैं। मनुष्य जिस-जिस देवता के उद्देश्य से गृह-दान करता है, अन्त में उसी देवता के लोक में जाता है और घर में जितने धूलिकण हैं, उतने वर्षों तक वहाँ रहता है। अपने घर पर दान करने की अपेक्षा देव मन्दिर में दान करने से चौगुना, पूर्तकर्म (वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माण)- के अवसर पर करने से सौगुना तथा किसी श्रेष्ठ तीर्थस्थान में करने से आठ गुना फल होता है- यह ब्रह्माजी का वचन है।

दान, शुभ और अशुभ कर्मों का फल

समस्त प्राणियों के उपकार के लिये तड़ाग का दान करने वाला दस हज़ार वर्षों की अवधि लेकर जनलोक में जाता है। बावली का दान करने से मनुष्य को सदा सौगुना फल मिलता है। वह सेतु (पुल)- का दान करने पर तड़ाग के दान का भी पुण्यफल प्राप्त कर लेता है। तड़ाग का प्रमाण चार हज़ार धनुष चौड़ा और उतना ही लंबा निश्चित किया गया है। इससे जो लघु प्रमाण में है, वह वापी कही जाती है। सत्पात्र को दी हुई कन्या दस वापी के समान पुण्यप्रदा होती है। यदि उस कन्या को अलंकृत करके दान किया जाय तो दुगुना फल मिलता है। तड़ाग के दान से जो पुण्यफल प्राप्त होता है, वही उसके भीतर से कीचड़ और मिट्टी निकालने से सुलभ हो जाता है। वापी के कीचड़ को दूर कराने से उसके निर्माण कराने-जितना फल होता है। पतिव्रते! जो पुरुष पीपल का वृक्षा लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह हज़ारों वर्षों के लिये भगवान् विष्णु के तपोलोक में जाता है।

सावित्री! जो सबकी भलाई के लिये पुष्पोद्यान लगाता है, वह दस हज़ार वर्षों तक ध्रुवलोक में स्थान पाता है। पतिव्रते! विष्णु के उद्देश्य से विमान का दान करने वाला मानव एक मन्वन्तरतक विष्णुलोक में वास करता है। यदि वह विमान विशाल और चित्रों से सुसज्जित किया गया हो तो उसके दान से चौगुना फल प्राप्त होता है। शिविका-दान में उससे आधा फल होना निश्चित है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरि के उद्देश्य से मन्दिराकार झूला दान करता है, वह अति दीर्घकाल तक भगवान् विष्णु के लोक में वास करता है। पतिव्रते! जो सड़क बनवाता और उसके किनारे लोगों के ठहरने के लिये महल (धर्मशाला) बनवा देता है, वह सत्पुरुष हज़ारों वर्षों तक इन्द्र के लोक में प्रतिष्ठित होता है। ब्राह्मणों अथवा देवताओं को दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है। जो पूर्वजन्म में दिया गया है, वही जन्मान्तर में प्राप्त होता है। जो नहीं दिया गया है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है? पुण्यवान् पुरुष स्वर्गीय सुख भोगकर भारतवर्ष में जन्म पाता है। उसे क्रमश: उत्तम-से-उत्तम ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है। पुण्यवान् ब्राह्मण स्वर्गसुख भोगने के अनन्तर पुन: ब्राह्मण ही होता है। यही नियम क्षत्रिय आदि के लिये भी है। क्षत्रिय अथवा वैश्य तपस्या के प्रभाव से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है- ऐसी बात श्रुति में सुनी जाती है। धर्मरहित ब्राह्मण नाना योनियों में भटकते हैं और कर्मभोग के पश्चात फिर ब्राह्मणकुल में ही जन्म पाते हैं। कितना ही काल क्यों न बीत जाय, बिना भोग किये कर्म क्षीण नहीं हो सकते। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल प्राणियों को अवश्य भोगना पड़ता है। देवता और तीर्थ की सहायता तथा कायव्यूह से प्राणी शुद्ध हो जाता है।

साध्वि! ये कुछ बातें तो तुम्हें बतला दीं, अब आगे और क्या सुनना चाहती हो? (अध्याय 26)

धर्मराज की व्याख्या तथा सावित्री द्वारा धर्मराज को प्रणाम-निवेदन

सावित्री ने कहा- धर्मराज! जिस कर्म के प्रभाव से पुण्यात्मा मनुष्य स्वर्ग अथवा अन्य लोक में जाते हैं, वह मुझे बताने की कृपा करें।

दान

धर्मराज बोले- पतिव्रते! ब्राह्मण को अन्न दान करने वाला पुरुष इन्द्रलोक में जाता है और दान किये हुए अन्न में जितने दाने होते हैं उतने वर्षों तक वह वहाँ निवास पाता है। अन्नदान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। इसमें न कभी पात्र की परीक्षा की आवश्यकता होती है और न समय की[1]। साध्वि! यदि ब्राह्मणों अथवा देवताओं को आसन दान किया जाय तो हज़ारों वर्षों तक अग्निदेव के लोक में रहने की सुविधा प्राप्त हो जाती है। जो पुरुष ब्राह्मण को दूध देने वाली गौ दान करता है, वह गौके शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक वैकुण्ठलोक में प्रतिष्ठित रहता है। यह गोदान साधारण दिनों की अपेक्षा पर्व के समय चौगुना, तीर्थ में सौगुना और नारायण क्षेत्र में कोटिगुना फल देने वाला होता है। जो मानव भारतवर्ष में रहकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गौ प्रदान करता है, वह हज़ारों वर्षों तक चन्द्रलोक में रहने का अधिकारी बन जाता है। दुग्धवती गौ ब्राह्मण को देने वाला पुरुष उसके रोम पर्यन्त वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो ब्राह्मण को वस्त्रसहित शालिग्राम-शिला का दान करता है, वह चन्द्रमा और सूर्य के स्थितिकाल तक वैकुण्ठ में सम्मान पूर्वक रहता है। ब्राह्मण को सुन्दर स्वच्छ छत्र दान करने वाला व्यक्ति हज़ारों वर्षों तक वरुण के लोक में आनन्द करता है। साध्वि! जो ब्राह्मण को दो पादुकाएँ प्रदान करता है, उसे दस हज़ार वर्ष तक वायुलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। मनोहर दिव्य शय्या ब्राह्मण को देने से दीर्घ काल तक चन्द्रलोक में प्रतिष्ठा होती है। जो देवताओं अथवा ब्राह्मणों को दीप-दान करता है, वह ब्रह्मलोक में वास करता है। उस पुण्य से उसके नेत्रों में ज्योति बनी रहती है तथा वह यमलोक में नहीं जाता। भारतवर्ष में जो मनुष्य ब्राह्मण को हाथी दान करता है, वह इन्द्र की आयुपर्यन्त उनके आधे आसन पर विराजमान होता है। ब्राह्मण को घोड़ा देने वाला भारतवासी मनुष्य वरुणलोक में आनन्द करता है। ब्राह्मण को उत्तम शिविका- पालकी प्रदान करने वाला विष्णुलोक में जाता है। जो ब्राह्मण को पंखा तथा सफ़ेद चँवर अर्पण करता है, वह वायुलोक में सम्मान पाता है। जो भारतवर्ष में ब्राह्मण को धान का पर्वत देता है, वह धान के दानों के बराबर वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। दाता और प्रतिगृहीता दोनों ही वैकुण्ठलोक में चले जाते हैं।

जो भारतवर्ष में निरन्तर भगवान् श्रीहरि के नाम का कीर्तन करता है, उस चिरञ्चीवी मनुष्य को देखते ही मृत्यु भाग जाती है। भारतवर्ष में जो विद्वान् मनुष्य पूर्णिमा को रातभर दोलोत्सव मनाने का प्रबन्ध करता है, वह जीवन्मुक्त है। इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह भगवान् विष्णु के धाम को प्राप्त होता है। उत्तराफाल्गुनी में उत्सव मनाने से इससे दुगुना फल मिलता है। जो भारतवर्ष में ब्राह्मण को तिलदान करता है, वह तिल के बराबर वर्षों तक विष्णुधाम में सम्मान पाता है। उसके बाद उत्तम योनि में जन्म पाकर चिरजीवी हो सुख भोगता है। ताँबे के पात्र में तिल रखकर दान करने से दूना फल मिलता है। जो मनुष्य ब्राह्मण को फलयुक्त वृक्ष प्रदान करता है, वह फल के बराबर वर्षों तक इन्द्रलोक में सम्मान पाता है। फिर उत्तम योनि में जन्म पाकर वह सुयोग्य पुत्र प्राप्त करता है। फल वाले वृक्षों के दान की महिमा इससे हज़ार गुना अधिक बतायी गयी है। अथवा ब्राह्मण को केवल फल का भी दान करने वाला पुरुष दीर्घकाल तक स्वर्ग में वास करके पुन: भारतवर्ष में जन्म पाता है।


भारतवर्ष में रहनेवाला जो पुरुष अनेक द्रव्यों से सम्पन्न तथा भाँति-भाँति के धान्यों से भरे-पूरे विशाल भवन ब्राह्मण को दान करता है, वह उसके फलस्वरूप दीर्घकाल तक कुबेर के लोक में वास पाता है। तत्पश्चात उत्तम योनि में जन्म पाकर वह महान धनवान् होता है। साध्वि! हरी-भरी खेती से युक्त सुन्दर भूमि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को अर्पण करने वाला पुरुष निश्चयपूर्वक वैकुण्ठधाम में प्रतिष्ठित होता है। फिर, जहाँ की उत्तम प्रजाएँ हों, जहाँ की भूमि पकी हुई खेतियों से लहलहा रही हो, अनेक प्रकार की पुष्करिणियों से संयुक्त हो तथा फल वाले वृक्ष और लताएँ जिसकी शोभा बढ़ा रही हों, ऐसा श्रेष्ठ नगर जो पुरुष भारतवर्ष में ब्राह्मण को दान करता है, वह बहुत लंबे समय पर्यन्त वैकुण्ठधाम में सुप्रतिष्ठित होता है। फिर भारतवर्ष में उत्तम जन्म पाकर राजेश्वर होता है। उसे लाखों नगरों का प्रभुत्व प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं है। निश्चितरूप से सम्पूर्ण ऐश्वर्य भूमण्डल पर उसके पास विराजमान रहते हैं।

अत्यन्त उत्तम अथवा मध्यम श्रेणी का भी नगर प्रजाओं से सम्पन्न हो, वापी, तड़ाग तथा भाँति-भाँति के वृक्ष जिसकी शोभा बढ़ाते हों, ऐसे सौ नगर ब्राह्मण को दान करने वाला पुण्यात्मा वैकुण्ठलोक में सुप्रतिष्ठित होता है। जैसे इन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर स्वर्गलोक में शोभा पाते हैं, वैसे ही भूमण्डल पर उस पुरुष की शोभा होती है। दीर्घ काल तक पृथ्वी उसका साथ नहीं छोड़ती। वह महान सम्राट् होता है। अपना सम्पूर्ण अधिकार ब्राह्मण को देने वाला पुरुष चौगुने फल का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है। पतिव्रते! जो पुरुष ब्राह्मण को जम्बूद्वीप का दान करता है, उसे निश्चितरूप से सौगुने फल प्राप्त होते हैं। जो सातों द्वीपों की पृथ्वी का दान करने वाले, सम्पूर्ण तीर्थों में निवास करने वाले, समस्त तपस्याओं में संलग्न, सम्पूर्ण उपवास-व्रत के पालक, सर्वस्व दान करने वाले तथा सम्पूर्ण सिद्धियों के पारगंत तथा श्रीहरि के भक्त हैं, उन्हें पुन: जगत् में जन्म धारण करना नहीं पड़ता। उनके सामने असंख्य ब्रह्माओं का पतन हो जाता है, परंतु वे श्रीहरि के गोलोक या वैकुण्ठधाम में निवास करते रहते हैं। विष्णु-मन्त्र की उपासना करने वाले पुरुष अपने मानव शरीर का त्याग करने के पश्चात जन्म, मृत्यु एवं जरा से रहित दिव्य रूप धारण करे श्रीहरि का सारूप्य पाकर उनकी सेवा में संलग्न हो जाते हैं। देवता, सिद्ध तथा अखिल विश्व- ये सब-के-सब समयानुसार नष्ट हो जाते हैं, किंतु श्रीकृष्णभक्तों का कभी नाश नहीं होता। जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था उनके निकट नहीं आ सकती।

जो पुरुष कार्तिक मास में श्रीहरि को तुलसी अर्पण करता है, वह पत्र-संख्याके बराबर युगों तक भगवान् के धाम में विराजमान होता है। फिर उत्तम कुल में उसका जन्म होता और निश्चितरूप से भगवान् के प्रति उसके मन में भक्ति उत्पन्न होती है, वह भारत मं सुखी एवं चिरञ्चीवी होता है। जो कार्तिक में श्रीहरि को घीका दीप देता है, वह जितने पल दीपक जलता है, उतने वर्षों तक हरिधाम में आनन्द भोगता है। फिर अपनी योनि में आकर विष्णुभक्ति पाता है; महाधनवान् नेत्र की ज्योति से युक्त तथा दीप्तिमान् होता है। जो पुरुष माघ में अरुणोदय के समय प्रयाग की गंगा में स्नान करता है, उसे दीर्घकाल तक भगवान् श्रीहरि के मन्दिर में आनन्द लाभ करने का सुअवसर मिलता है। फिर वह उत्तम योनि में आकर भगवान् श्रीहरि की भक्ति एवं मन्त्र पाता है; भारत में जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। पुन: यथा समय मानव-शरीर को त्यागकर 'भगवद्धाम' में जाता है। वहाँ से पुन: पृथ्वीतल पर आने की स्थिति उसके सामने नहीं आती। भगवान् का सारूप्य प्राप्त कर वह उन्हीं की सेवा में सदा लगा रहता है। गंगा में सर्वदा स्नान करने वाला पुरुष सूर्य की भाँति भूमण्डल पर पवित्र माना जाता है। उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है, यह निश्चित है। उसकी चरण-रज से पृथ्वी तत्काल पवित्र हो जाती है। वह वैकुण्ठलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। उस तेजस्वी पुरुष को जीवन्मुक्त कहना चाहिये। सम्पूर्ण तपस्वी उसका आदर करते हैं। जो पुरुष मीन और कर्क के मध्यवर्तीकाल में भारतवर्ष में सुवासित जल का दान करता है, वह वैकुण्ठ में आनन्द भोगता रहता है। फिर उत्तम योनि में जन्म पाकर रूपवान्, सुखी, शिवभक्त, तेजस्वी तथा वेद और वेदांग का पारगामी विद्वान् होता है। वैशाख मास में ब्राह्मण को सत्तू दान करने वाला पुरुष सत्तूकण के बराबर वर्षों तक विष्णु मन्दिर में प्रतिष्ठित होता है।

व्रत

भारतवर्ष में रहने वाला जो प्राणी श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें संशय नहीं है। वह दीर्घकाल तक वैकुण्ठलोक में आनन्द भोगता है। फिर उत्तम योनि में जन्म लेने पर उसे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न हो जाती है- यह निश्चित है। इस भारतवर्ष में ही शिवरात्रि का व्रत करने वाला पुरुष दीर्घकाल तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र चढ़ाता है, वह पत्र-संख्या के बराबर युगों तक कैलास में सुखपूर्वक वास करता है। पुन: श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर भगवान् शिव का परम भक्त होता है। विद्या, पुत्र, सम्पत्ति, प्रजा और भूमि- ये सभी उसके लिये सुलभ रहते हैं। जो व्रती पुरुष जैत्र अथवा माघ मास में शंकर की पूजा करता है तथा बेंत लेकर उनके सम्मुख रात-दिन भक्ति पूर्वक नृत्य करने में तत्पर रहता है, वह चाहे एक मास, आधा मास, दस दिन, सात दिन अथवा दो ही दिन या एक ही दिन ऐसा क्यों न करे, उसे दिन की संख्या के बराबर युगों तक भगवान् शिव के लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है।

साध्वि! जो मनुष्य भारत में रामनवमी का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों तक विष्णुधाम में आनन्द का अनुभव करता है, फिर अपनी योनि में आकर रामभक्ति पाता और जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। जो पुरुष भगवती की शरत्कालीन महापूजा करता है; साथ ही नृत्य, गीत तथा वाद्य आदि के द्वारा नाना प्रकार के उत्सव मनाता है, वह पुरुष भगवान् शिव के लोक में प्रतिष्ठित होता है। फिर श्रेष्ठ योनि में जन्म पाकर वह निर्मल बुद्धि पाता है। अतुल सम्पत्ति, पुत्र-पौत्रों की अभिवृद्धि, महान प्रभाव तथा हाथी-घोड़े आदि वाहन- ये सभी उसे प्राप्त हो जाते हैं। वह राजराजेश्वर भी होता है। इसमें कोई संशय नहीं है। जो पुरुष पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में रहकर भाद्रपद मास की शुक्लाष्टमी के अवसर पर एक पक्ष तक नित्य भक्ति-भाव से महालक्ष्मी जी की उपासना करता है, सोलह प्रकार के उत्तम उपचारों से भलीभाँति पूजा करने में संलग्र रहता है, वह वैकुण्ठधाम में रहने का अधिकारी होता है।

भारतवर्ष में कार्तिक की पूर्णिमा के अवसर पर सैकड़ों गोप एवं गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाने की बड़ी महिमा है। उस दिन पाषाणमयी प्रतिमा में सोलह प्रकार के उपचारों द्वारा श्रीराधा-कृष्ण की पूजा करे। इस पुण्यमय कार्य को सम्पन्न करने वाला पुरुष गोलोक में वास करता है और भगवान् श्रीकृष्ण का परम भक्त बनता है। उसकी भक्ति क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होती है। वह सदा भगवान् श्रीहरि का मन्त्र जपता है। वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके उनका प्रमुख पार्षद होता है। जरा और मृत्यु को जीतने वाले उस पुरुष का पुन: वहाँ से पतन नहीं होता।

जो पुरुष शुक्ल अथवा कृष्ण-पक्ष की एकादशी का व्रत करता है, उसे वैकुण्ठ से रहने की सुविधा प्राप्त होती है। फिर भारतवर्ष में आकर वह भगवान् श्रीकृष्ण का अनन्य उपासक होता है। क्रमश: भगवान् श्रीहरि के प्रति उसकी भक्ति सुदृढ़ होती जाती है। शरीर त्यागने के बाद पुन: गोलोक में जाकर वह भगवान् श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त करके उनका पार्षद बन जाता है। पुन: उसका संसार में आना नहीं होता। जो पुरुष भाद्रपदमास की शुक्ल द्वादशी तिथि के दिन इन्द्र की पूजा करता है, वह सम्मानित होता है। जो प्राणी भारतवर्ष में रहकर रविवार, संक्रान्ति अथवा शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को भगवान् सूर्य की पूजा करके हविष्यान्न भोजन करता है, वह सूर्यलोक में विराजमान होता है। फिर भारतवर्ष में जन्म पाकर आरोग्यवान् और धनाढय पुरुष होता है। ज्येष्ठ महीने की कृष्ण-चतुर्दशी के दिन जो व्यक्ति भगवती सावित्री की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के लोक में प्रतिष्ठित होता है। फिर वह पृथ्वी पर आकर श्रीमान् एवं अतुल पराक्रमी पुरुष होता है। साथ ही वह चिरंजीवी, ज्ञानी और वैभव सम्पन्न होता है। जो मानव माघमास के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि के दिन संयमपूर्वक उत्तम भक्ति के साथ षोडशोपचार से भगवती सरस्वती की अर्चना करता है, वह वैकुण्ठधाम में स्थान पाता है। जो भारतवासी व्यक्ति जीवनभर भक्ति के साथ नित्यप्रति ब्राह्मण को गौ और सुवर्ण आदि प्रदान करता है, वह वैकुण्ठ में सुख भोगता है। भारतवर्ष में जो प्राणी ब्राह्मणों को मिष्टान्न भोजन कराता है, वह ब्राह्मण की रोम संख्या के बराबर वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। जो भारतवासी व्यक्ति भगवान् श्रीहरि के नामका स्वयं कीर्तन करता है अथवा दूसरे को कीर्तन करने के लिये उत्साहित करता है, वह नाम-संख्या के बराबर युगों तक वैकुण्ठ में विराजमान होता हैं यदि नारायण क्षेत्र में नामोच्चारण किया जाय तो करोड़ों गुना अधिक फल मिलता है। जो पुरुष नारायण क्षेत्र में भगवान् श्रीहरि के नाम का एक करोड़ जप करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूटकर जीवन्मुक्त हो जाता है- यह ध्रुव सत्य है। वह पुन: जन्म न पाकर विष्णुलोक में विराजमान होता है[2]। उसे भगवान् सारूप्य प्राप्त हो जाता है। वहाँ से फिर गिर नहीं सकता।

जो पुरुष प्रतिदिन पार्थिव मूर्ति बनाकर शिवलिंग की अर्चना करता है और जीवन भर इस नियम का पालन करता है, वह भगवान शिव के धाम में जाता है और लंबे समय तक शिवलोक में प्रतिष्ठित रहता है; तत्पश्चात भारतवर्ष में आकर राजेन्द्रपद को सुशोभित करता है। निरन्तर शालिग्राम की पूजा करके उनका चरणोदक पान करने वाला पुण्यात्मा पुरुष अति दीर्घकाल पर्यन्त वैकुण्ठ में विराजमान होता है। उसे दुर्लभ भक्ति सुलभ हो जाती है। संसार में उसका पुन: आना नहीं होता। जिसके द्वारा सम्पूर्ण तप और व्रत का पालन होता है, वह पुरुष इन सत्कर्मों के फलस्वरूप वैकुण्ठ में रहने का अधिकार पाता हैं पुन: उसे जन्म नहीं लेना पड़ता। जो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है, उसे निर्वाणपद मिल जाता है। पुन: संसार में उसकी उत्पत्ति नहीं होती।

यज्ञ

भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेधयज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है। सुन्दरि! सम्पूर्ण यज्ञों से भगवान् विष्णु का यज्ञ श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्मा ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पतिव्रते! उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान् शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला। पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चितरूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।

भामिनि! जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णवपुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूलप्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में विष्णुयज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है। सम्पूर्ण तीर्थों का स्नान, अखिल यज्ञों की दीक्षा तथा व्रतों एवं तपस्याओं और चारों वेदों के पाठ का तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा का फल अन्त में यही है कि भगवान् श्रीकृष्ण की मुक्तिदायिनी सेवा सुलभ हो। पुराणों, वेदों और इतिहास में सर्वत्र श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की अर्चना को ही सारभूत माना गया है। भगवान् के स्वरूप का वर्णन, उनका ध्यान, उनके नाम और गुणों का कीर्तन, स्तोत्रों का पाठ, नमस्कार, जप, उनका चरणोदक और नैवेद्य ग्रहण करना- यह नित्यका परम कर्तव्य है। साध्वि! इसे सभी चाहते हैं और सर्वसम्मति से यही सिद्ध भी है।

वत्से! अब तुम प्रकृति से परे तथा प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म श्रीकृष्ण की निरन्तर उपासना करो। मैं तुम्हारे पतिदेव को लौटा देता हूँ। इन्हें लो और सुखपूर्वक अपने घर को जाओ। मनुष्यों का यह मगंलमय कर्म-विपाक मैंने तुमको सुना दिया। यह प्रसंग सर्वेप्सित, सर्वसम्मत तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करनेवाला है।

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! धर्मराज के मुख से उपर्युक्त वर्णन सुनकर सावित्री की आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। उसका शरीर पुलकायमान हो गया। उसने पुन: धर्मराज से कहा।

सावित्री बोली- धर्मराज! वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! मैं किस विधि से प्रकृति से भी पर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करूँ, यह बताइये। भगवन्! मैं आपके द्वारा मनुष्यों के मनोहर शुभकर्म का विपाक सुन चुकी। अब आप मुझे अशुभकर्म विपाक की व्याख्या सुनाने की कृपा करें।

धर्मराज की स्तुति

ब्रह्मन्! सती सावित्री इस प्रकार कहकर फिर भक्ति से अत्यन्त नम्र हो वेदोक्त स्तुति का पाठ करके धर्मराज की स्तुति करने लगी।

सावित्री ने कहा- प्राचीनकाल की बात है, महाभाग सूर्य ने पुष्कर में तपस्या के द्वारा धर्म की आराधना की। तब धर्म के अंशभूत जिन्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, उन भगवान् धर्मराज को मैं प्रमाण करती हूँ। जो सबके साक्षी हैं, जिनकी सम्पूर्ण भूतों में समता है, अतएव जिनका नाम शमन है, उन भगवान् शमन को मैं प्रणाम करती हूँ। जो कर्मानुरूप काल के सहयोग से विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करते हैं, उन भगवान् कृतान्त को मैं प्रणाम करती हूँ। जो पापीजनों को शुद्ध करने के निमित्त दण्डनीय के लिये ही हाथ में दण्ड धारण करते हैं तथा जो समस्त कर्मों के उपदेशक हैं, उन भगवान् दण्डधर को मेरा प्रणाम है। जो विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनकी समूची आयु का निरन्तर परिगणन करते रहते हैं, जिनकी गति को रोक देना अत्यन्त कठिन है, उन भगवान् काल को मैं प्रणाम करती हूँ। जो तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, देने को उद्यत हैं, उन भगवान् यम को मैं प्रणाम करती हूँ। जो अपनी आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्मा पुरुषों के मित्र तथा पापियों के लिये कष्टप्रद हैं, उन 'पुण्यमित्र' नाम से प्रसिद्ध भगवान् धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ। जिनका जन्म ब्रह्माजी के वंश में हुआ है तथा जो ब्रह्मतेज से सदा प्रज्वलित रहते हैं एवं जिनके द्वारा परब्रह्म का सतत ध्यान होता रहता है, उन ब्रह्मवंशी भगवान् धर्मराज को मेरा प्रणाम है।[3]

मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके सावित्री ने धर्मराज को प्रणाम किया। तब धर्मराज ने सावित्री को विष्णु-भजन तथा कर्म के विपाक का प्रसंग सुनाया। जो मनुष्य प्रात: उठकर निरन्तर इस 'यमाष्टक' का पाठ करता है, उसे यमराज से भय नहीं होता और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि महान पापी व्यक्ति भी भक्ति से सम्पन्न होकर निरन्तर इसका पाठ करता है तो यमराज अपने कायव्यूह से निश्चित ही उसकी शुद्धि कर देते हैं। (अध्याय 27-28)


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्नदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। नात्र पात्रपरीक्षा स्यान्न कालनियम: व्कचित्॥ (प्रकृतिखण्ड 27।3)
  2. नाम्रां कोटिं हरेर्यो हि क्षेत्रे नारायणे जपेत्॥ सर्वपापविनिर्मुक्तो जीवन्मुक्तो भवेद्ध्रुवम्। लभते न पुनर्जन्म वैकुण्ठे स महीयते॥ (प्रकृतिखण्ड 27। 110-111)
  3. तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्कर: पुरा । धर्माशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्॥ समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिण: । अतो यन्नाम शमन इति तं प्रणमाम्यहम्॥ येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्॥ बिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे । नमामि तं दण्डधरं य: शास्ता सर्वकर्मणाम्॥ विश्वं य: कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्॥ तपस्वी वैष्णवो धर्मी संयमी संजितेन्द्रिय:। जीविनां कर्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम्॥ स्वात्मारामश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यमित्रं नमाम्यहम्॥ यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम्॥(प्रकृतिखण्ड 28 । 8-15)


संबंधित लेख