त्रिपक्षीय संघर्ष

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हर्षवर्धन के शासन काल से ही 'कन्नौज' पर नियंत्रण उत्तरी भारत पर प्रभुत्व का प्रतीक माना जाता था। अरबों के आक्रमण के उपरान्त भारतीय प्रायद्वीप के अन्तर्गत तीन महत्वपूर्ण शक्तियाँ थीं- गुजरात एवं राजपूताना के गुर्जर-प्रतिहार, दक्कन के राष्ट्रकूट एवं बंगाल के पाल। कन्नौज पर अधिपत्य को लेकर लगभग 200 वर्षों तक इन तीन महाशक्तियों के बीच होने वाले संघर्ष को ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा गया है। इस संघर्ष में अन्तिम सफलता गुर्जर-प्रतिहारों को मिली।

संघर्ष का कारण

छठी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद ही राजनीतिक शक्ति के केन्द्र के रूप में 'पाटिलिपुत्र' का महत्व समाप्त हो गया। फलस्वरूप इसका स्थान उत्तर भारत में स्थित कन्नौज ने ले लिया। प्रश्न उठता है कि, कन्नौज संघर्ष का कारण क्यों बना। हर्षवर्धन के बाद उत्तर भारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नगर होने, गंगा नदी के किनारे स्थित होने के कारण व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने, गंगा तथा यमुना के बीच में स्थित होने के कारण उत्तर भारत का सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र होने एवं तीनों महाशक्तियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति उपयुक्त क्षेत्र होने के कारण ही कन्नौज संघर्ष का क्षेत्र बना।

  • 'त्रिपक्षीय संघर्ष' में शामिल होकर राष्ट्रकूट शक्ति ने, दक्षिण से उत्तर पर आक्रमण करने वाली एवं उत्तर भारत की राजनीति में दखल देने वाली दक्षिण की प्रथम शक्ति बनने का गौरव प्राप्त किया।

धर्मपाल की विजय

'त्रिपक्षीय संघर्ष' की शुरुआत प्रतिहार शासक वत्सराज ने की, जब उसने कन्नौज पर शासन करने वाले तत्कालीन 'आयुध' शासक इन्द्रायुध को परास्त कर उत्तर भारत पर अपना अधिपत्य जमाने का प्रयास किया। संघर्ष के प्रथम चरण में प्रतिहार नरेश वत्सराज, पाल नरेश धर्मपाल एवं राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव में संघर्ष हुआ। धर्मपाल को पराजित करने के उपरान्त वत्सराज का ध्रुव से संघर्ष हुआ, इसमें ध्रुव विजयी रहा। ध्रुव उत्तर भारत में अधिक दिनों तक न रुककर वापस दक्षिण चला गया। राष्ट्रकूट नरेश से हारने के उपरान्त कुछ समय तक प्रतिहार शासक हतोत्साहित रहे। इस समय का फायदा उठाकर पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर 'इन्द्रायुध' को अपदस्थ करके अपने संरक्षण में 'चक्रायुध' को राजगद्दी पर बैठाया।

प्रतिहारों का अधिकार

पाल शासक की सफलता प्रतिहार शासकों के लिए असहनीय थी, अतः वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। धर्मपाल को परास्त करने के कुछ दिन बाद ही नागभट्ट द्वितीय को राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय से परास्त होना पड़ा। इस पराजय से गुर्जर-प्रतिहार की शक्ति काफ़ी क्षीण हो गई। कालान्तर में पाल शासक धर्मपाल की मृत्यु के उपरान्त एक बार फिर नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर अधिकार का प्रयास किया। वह सफल भी हुआ और उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

संघर्ष के इस दौर में राष्ट्रकूट शासक आन्तरिक कठिनाइयों के कारण मैदान से बाहर रहे। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष अपने पिता के समान पराक्रमी नहीं था। अतः राष्ट्रकूट की भूमिका इस संघर्ष में समाप्त हो गई। प्रतिहार शासक भोज के उपरान्त महेन्द्र पाल शासक बना, जिसने बंगाल पर विजय प्राप्त की। उसके पश्चात् महिपाल प्रथम के समय तक पालों की शक्ति का अन्त हो चुका था। इसलिए यह युद्ध प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों की बीच हुए। अतएव यह युद्ध अब 'त्रिभुजाकार युद्ध' न रहा। कन्नौज पूर्ण रूप से प्रतिहारों के अधिकार में आ गया, वैसे छिट-पुट संघर्ष 9वीं शताब्दी तक चलते रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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