किसान आन्दोलन

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1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेज़ों ने कुछ देशी रियासतों की सहायता से दबा तो दिया, लेकिन इसके पश्चात भी भारत में कई जगहों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में दहकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आन्दोलन हुए। इनमें से अधिकांश आन्दोलन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किये गए थे। कितने ही समाचार पत्रों ने किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को अपने पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित किया था। नील विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आन्दोलन, चम्पारन सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आन्दोलन के रूप में जाने जाते हैं। जहाँ 1918 ई. का खेड़ा सत्याग्रह गाँधीजी द्वारा शुरू किया गया, वहीं 'मेहता बन्धुओं' (कल्याण जी तथा कुँवर जी) ने भी 1922 ई. में बारदोली सत्याग्रह को प्रारम्भ किया था। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के हाथों में रहा।

प्रमुख किसान आन्दोलन

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन इस प्रकार थे-

नील आन्दोलन (1859-1860 ई.)

यह आन्दोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के ख़िलाफ़ बंगाल में किया गया। अपनी आर्थिक माँगों के सन्दर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आन्दोलन उस समय का एक विशाल आन्दोलन था। अंग्रेज़ अधिकारी बंगाल तथा बिहार के ज़मींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रक़म अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाज़ार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था, जबकि किसान अपनी उपजाऊ ज़मीन पर चावल की खेती करना चाहते थे। इस आन्दोलन की सर्वप्रथम शुरुआत सितम्बर, 1859 ई. में बंगाल के 'नदिया ज़िले' के गोविन्दपुर गाँव से हुई। भारतीय किसानों ने अंग्रेज़ों द्वारा अपने साथ दासों जैसा व्यवहार करने के कारण ही विद्रोह किया। यह आन्दोलन 'नदिया', 'पाबना', 'खुलना', 'ढाका', 'मालदा', 'दीनाजपुर' आदि स्थानों पर फैला था। किसानों की आपसी एकजुटता, अनुशासन एवं संगठित होने के बदौलत ही आन्दोलन पूर्णरूप से सफल रहा। इसकी सफलता के सामने अंग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा और रैय्यतों की स्वतन्त्रता को ध्यान में रखते हुए 1860 ई. के नील विद्रोह का वर्णन 'दीनबन्धु मित्र' ने अपनी पुस्तक 'नील दर्पण' में किया है। इस आन्दोलन की शुरुआत 'दिगम्बर' एवं 'विष्णु विश्वास' ने की थी। 'हिन्दू पैट्रियट' के संपादक 'हरीशचन्द्र मुखर्जी' ने नील आन्दोलन में काफ़ी काम किया। किसानों के शोषण, सरकारी अधिकारियों के पक्षपात ओर इसके विरुद्ध विभिन्न स्थानों पर चल रहे किसानों के संघर्ष में उन्होने अख़बार में लगातार ख़बरें छापीं। मिशनरियों ने भी नील आन्दोलन के समर्थन में सक्रिय भूमिका निभाई। इस आन्दोलन के प्रति सरकार का भी रवैया काफ़ी संतुलित रहा। 1860 ई. तक नील की खेती पूरी तरह ख़त्म हो गई।

पाबना विद्रोह (1873-1876 ई.)

पाबना ज़िले के काश्तकारों को 1859 ई. में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बाबजूद भी ज़मींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी ज़मीन के अधिकार से वंचित किया। ज़मींदार को ज़्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना के युसुफ़ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभायें आयोजित करना होता था।

कालान्तर में पूर्वी बंगाल के अनेक ज़िले ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बेकरगंज, फ़रीदपुर, बोगरा एवं राजशाही में इस तरह के आन्दोलन हुए। किसान संघ ने बढ़े लगान की अदायगी रोककर पैमाइश की माप में परिवर्तन एवं अवैधानिक करों की समाप्ति तथा लगान में कमी करवाने की अपनी माँगों को पूरा करवाना चाहा। यह आन्दोलन कुछ मामलों में अहिंसक था। यह ज़मींदारों के विरुद्ध किया गया आन्दोलन था, न कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध। पाबना के किसानों ने अपनी माँग में यह नारा दिया कि, 'हम महामहिम महारानी की और केवल उन्हीं की रैय्यत होना चाहते हैं'। तत्कालीन गवर्नर कैम्पबेल ने एक घोषणा में इनकी माँगों को उचित ठहराया। इस आन्दोलन में रैय्यतों अधिकतर मुसलमान एवं ज़मींदारों में अधिकतर हिन्दू थे। इस आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेताओं में ईशान चन्द्र राय, शंभुपाल आदि थे। पाबना विद्रोह का समर्थन कई युवा बुद्धिजीवियों ने किया, जिनमें बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और आर.सी. दत्त शामिल थे। 1880 ई. के दशक में जब बंगाल काश्तकारी विधेयक पर चर्चा चल रही थी, तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस और द्वारका नाथ गांगुली ने एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया। इन लोगों ने माँग की थी, कि ज़मीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए, जो वस्तुतः उसे जोतते हों।

दक्कन विद्रोह

महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर ज़िलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकण्डे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसम्बर 1874 ई. में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के ख़िलाफ़ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत 1874 ई. में शिरूर तालुका के करडाह गाँव से हुई। 1875 ई. तक यह आन्दोलन पूना, अहमदाबाद, सतारा, शोलापुर आदि ज़िलों में फैल गया। किसानों ने साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। सरकार ने 'दक्कन उपद्रव आयोग' का गठन किया। किसानों की स्थिति में सुधार हेतु 1876 ई. में 'दक्कन कृषक राहत अधिनियम' को पारित किया गया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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