द्वेष -वैशेषिक दर्शन
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महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
द्वेष का स्वरूप
- अन्नंभट्ट के अनुसार क्रोध का ही दूसरा नाम द्वेष हैं।
- प्रशस्तपाद के अनुसार द्वेष वह गुण है, जिसके उत्पन्न होने पर प्राणी अपने को प्रज्वलित-सा अनुभव करता है। यह दु:खसापेक्ष अथवा स्मृतिसापेक्ष आत्ममन:संयोग से उत्पन्न होता है और प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का कारण है। द्रोह के भी कई भेद होते हैं, जैसे कि
- द्रोह- उपकारी के प्रति भी अपकार कर बैठना
- मन्यु- अपकारी व्यक्ति के प्रति अपकार करने में असमर्थ रहने पर अन्दर ही अन्दर उत्पन्न होने वाला द्वेष
- अक्षमा दूसरे के गुणों को न सह सकना अर्थात् असहिष्णुता
- अमर्ष- अपने गुणों के तिरस्कार की आशंका से दूसरे में गुणों के प्रति विद्वेष
- अभ्यसूया- अपकार को सहन करने में असमर्थ व्यक्ति के मन में चिरकाल तक रहने वाला द्वेष। यह सभी द्वेष पुन: स्वकीय और परकीय प्रकार से हो सकते हैं। स्वकीय द्वेष का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष से और परकीय द्वेष का ज्ञान अनुमान आदि से होता है।