पंडिता रमाबाई

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पंडिता रमाबाई (जन्म अप्रैल, 1858 ई.-निधन 5 अप्रैल, 1922 ई.) प्रख्यात विदुषी समाजसुधारक और भारतीय नारियों को उनकी पिछड़ी हुई स्थिति से ऊपर उठाने के लिए समर्पित थीं। पंडिता रमाबाई का जन्म अप्रैल, 1858 ई. में मैसूर रियासत में हुआ था। उनके पिता 'अनंत शास्त्री' विद्वान और स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे। परन्तु उस समय की पारिवारिक रूढ़िवादिता इसमें बाधा बनी रही। पिता रमा के बचपन में ही साधु-संतों की मेहमानदारी के कारण निर्धन हो गए और उन्हें पत्नी तथा रमा की एक बहन और भाई के साथ गांव-गांव में पौराणिक कथाएँ सुनाकर पेट पालना पड़ा।

विद्वान रमा

रमाबाई असाधारण प्रतिभावान थी। अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके 12 वर्ष की उम्र में ही 20 हजार श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण उसने मराठी के साथ-साथ कन्नड़, हिन्दी, तथा बंगला भाषाएँ भी सीख लीं। उसके संस्कृत के ज्ञान के लिए रमाबाई को सरस्वती और पंडिता की उपाधियाँ प्राप्त हुई। तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी गई। 1876-77 के भीषण अकाल में दुर्बल पिता और माता का शीघ्र ही देहांत हो गया। अब ये बच्चे पैदल भटकते रहे और तीन वर्ष में इन्होंने 4 हजार मील की यात्रा की।

समाज सुधारक

22 वर्ष की उम्र में रमाबाई कोलकाता पहुंची। उन्होंने बाल विधवाओं और विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। उनके संस्कृत ज्ञान और भाषणों से बंगाल के समाज में हलचल मच गई। भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने 'विपिन बिहारी' नामक अछूत जाति के एक वकील से विवाह किया, परन्तु एक नन्हीं बच्ची को छोड़कर डेढ़ वर्ष के बाद ही हैजे की बीमारी में वह भी चल बसा। अछूत से विवाह करने के कारण रमाबाई को कट्टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और वह पूना आकर स्त्री-शिक्षा के काम में लग गई। उसकी स्थापित संस्था आर्य महिला समाज की शीघ्र ही महाराष्ट्र भर में शाखाएँ खुल गईं।

विधवाओं के लिए कार्य

अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पंडिता रमाबाई 1883 ई. में इंग्लैण्ड गईं। वहां दो वर्ष तक संस्कृत की प्रोफेसर रहने के बाद वे अमेरिका पहुंचीं। उन्होंने इंग्लैंड में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। अमेरिका में उनके प्रयत्न से रमाबाई एसोसिएशन बना जिसने भारत के विधवा आश्रम का 10 वर्ष तक खर्च चलाने का जिम्मा लिया। इसके बाद वे 1889 में भारत लौटीं और विधवाओं के लिए शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक और महिला आश्रम बनाया।

आत्मनिर्भरता की शिक्षा

पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सकें। पंडिता रमाबाई का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति दृढ़ निश्चय कर ले तो गरीबी, अभाव, दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। उनकी सफलता का रहस्य था - प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना।

निधन

5 अप्रैल, 1922 ई. को पंडिता रमाबाई का देहांत हो गया।


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