श्रीनिवास अयंगर रामानुजन

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श्रीनिवास अयंगर रामानुजन
पूरा नाम श्रीनिवास अयंगर रामानुजन
जन्म 22 दिसम्बर, 1887
जन्म भूमि तमिलनाडु में इरोड नामक एक छोटे से गांव में
मृत्यु 26 अप्रैल, 1920
मृत्यु कारण तपेदिक से
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि गणितीय कार्यों में
पद गणितीय वैज्ञानिक
शिक्षा स्नातक

परिचय

कभी कभी ऐसी विलक्षण प्रतिभाएं जन्म लेती हैं जिनके बारे में दुनिया आश्चर्य चकित रह जाती है। श्रीनिवास अयंगर रामानुजन (Srinivasa Ayengar Ramanujan) (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) एक ऐसी ही भारतीय प्रतिभा का नाम है जिनके बारे में न केवल भारत को वरन पूरे विश्व को गर्व है। श्रीनिवास अयंगर रामानुजन आधुनिक काल के एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। गणित के क्षेत्र में रामानुजन किसी भी प्रकार से गौस, यूलर और आर्किमिडीज से कम न थे। किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा न लेने के बावजूद रामानुजन ने उच्च गणित के क्षेत्र में ऐसी विलक्षण खोजें कीं कि इस क्षेत्र में उनका नाम अमर हो गया। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।

आरंभिक जीवन

आधुनिक भारत के महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को भारत के दक्षिणी भूभाग में स्थित तमिलनाडु राज्य में मद्रास से 400 किमी. दूर दक्षिण-पश्चिम में कोयंबटूर के ईरोड नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। वह पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनकी की माता का नाम कोमलताम्मल और इनके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर था। रामानुजन के पिता यहाँ एक कपड़ा व्यापारी की दुकान में मुनीम का कार्य करते थे। रामानुजान जब एक वर्ष के थे तभी उनका परिवार कुंभकोणम आ गया था। इनका बचपन मुख्यतः कुंभकोणम में बीता था जो कि अपने प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। बचपन में रामानुजन का बौद्धिक विकास सामान्य बालकों जैसा नहीं था। यह तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं सीख पाए थे। जब इतनी बड़ी आयु तक जब रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो सबको चिंता हुई कि कहीं यह गूंगे तो नहीं हैं। बचपन में ही रामानुजन को गणित के प्रति विशेष अनुराग उत्पन्न हो गया थे।

रामानुजन को प्रश्न पूछना बहुत पसंद था। उनके प्रश्न अध्यापकों को कभी-कभी बहुत अटपटे लगते थे। जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? जब वे तीसरे फार्म में थे तो एक दिन गणित के अध्यापक ने पढ़ाते हुए कहा, ‘‘यदि तीन केले तीन व्यक्तियों को बाँटे जायें तो प्रत्येक को एक केला मिलेगा। यदि 1000 केले 1000 व्यक्तियों में बाँटे जायें तो भी प्रत्येक को एक ही केला मिलेगा। इस तरह सिद्ध होता है कि किसी भी संख्या को उसी संख्या से भाग दिया जाये तो परिणाम ‘एक’ मिलेगा। रामानुजन ने खड़े होकर पूछा, ‘‘शून्य को शून्य से भाग दिया जाये तो भी क्या परिणाम एक ही मिलेगा?’’

रामानुजन जब विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त न कर सकें। गणित में तो वे पूरे के पूरे नम्बर ले आते थे लेकिन अन्य विषय में वे फेल हो जाते थे। गणित के प्रति उनका लगाव दीवानगी स्तर पर था कि गणित के प्रति तो उनमें ज्ञान व अन्य के प्रति वैराग्य था। ऐसे में उन्हें अपने घर पर बैठना पड़ा। उनके माता पिता ही उन्हें पागल कहने लगे, उपेक्षित करने लगे व कमेंटस तथा नुक्ताचीनी करने लगे। रामानुजन हमेशा संख्याओं से खिलवाड़ करते रहते थे। 13 साल की अवस्था में इन्होने लोनी द्वारा रचित विश्व प्रसिद्ध ट्रिगनोमेट्री को हल कर डाला था।

शिक्षा

बाद के वर्षों में जब उन्होंने विद्यालय में प्रवेश लिया तो भी पारंपरिक शिक्षा में इनका कभी भी मन नहीं लगा। पाँच वर्ष की आयु में रामानुजन का दाखिला कुम्भकोड़म् के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया गया। रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अंक प्राप्त किया। आगे की शिक्षा के लिए सन् 1898 में इन्होंने टाउन हाईस्कूल में प्रवेश लिया और सभी विषयों में अच्छा प्रदर्शन किया। यहीं 15 साल की अवस्था में रामानुजन जब मैट्रिक कक्षा में पढ़ रहे थे उसी समय उन्हें स्थानीय कालेज की लाइब्रेरी से गणित का एक ग्रन्थ मिला, ‘सिनोप्सिस ऑफ एलीमेन्टरी रिजल्ट्‌स इन प्योर मैथमैटिक्स (Synopsis of Elementary Results in Pure and Applied Mathematics)’ लेखक थे ‘जार्ज एस. कार्र (George Shoobridge Carr) ।’ रामानुजन ने जार्ज एस. कार्र की गणित के परिणामों पर लिखी किताब पढ़ी और इस पुस्तक से प्रभावित होकर स्वयं ही गणित पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया। इस पुस्तक में उच्च गणित के कुल 6165 फार्मूले दिये गये थे। रामानुजन ने कुछ ही दिनों में सभी फार्मूलों को बिना किसी की मदद लिये हुए सिद्ध कर लिया। इस ग्रन्थ को हल करते समय उन्होंने अनेक नयी खोजें (नयी प्रमेय) कर डालीं। आगे के वर्षों में रामानुजन कार्र की पुस्तक को मार्गदर्शक मानते हुए गणित में कार्य करते रहे और अपने परिणामों को लिखते गए जो कि 'नोटबुक' नाम से प्रसिद्ध हुए। बाद में जब रामानुजन इंग्लैण्ड गये तो उनका गणितीय ज्ञान तत्कालीन गणितीय ज्ञान से अधिक उन्नत था।

रामानुजन का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। इनका सामान्य से कुछ अधिक स्थूल शरीर और जिज्ञासा से चमकती आखें इन्हें एक अलग ही पहचान देती थीं। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला।

कुम्भकोड़म् के शासकीय महाविद्यालय में अध्ययन के लिए रामानुजन को छात्रवृत्ति मिलती थी परंतु रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। सन् 1905 में रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित हुए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए। कुछ समय बाद 1906 एवं 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की इतिश्री हो गई।

संघर्ष का समय

विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर गरीबी थी। ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था। रामानुजन का यह जीवन काल बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। इन्हें हमेशा अपने भरण-पोषण के लिए और अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और अनेक लोगों से असफल याचना भी करनी पड़ी। रुपयों के अभाव में इनकी स्थिति यहां तक पर पहुंच गयी थी कि वे सड़कों पर पड़े कागज उठाने लगे। कभी कभी तो वे अपना काम करने के लिए नीली स्याही से लिखे कागजों पर लाल कलम से लिखते थे।

विवाह और गणित साधना

वर्ष 1908 में इनके माता पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। विवाह हो जाने के बाद अब इनके लिए सब कुछ भूल कर गणित में डूबना संभव नहीं था। अतः वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली और उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। इसी समय किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव ('इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक) से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। रामानुजन ने रामचंद्र राव के साथ एक वर्ष तक कार्य किया। इन्होंने 'इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी' की पत्रिका (जर्नल) के लिए प्रश्न एवं उनके हल तैयार करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था बरनौली संख्याओं के कुछ गुण और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। सन् 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली और मद्रास में गणित के विद्वान के रूप में पहचाने जाने लगे। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने सन् 1912 में रामचंद्र राव की सहायता से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में लिपिक की नौकरी करने लगे। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते थे और फिर थोड़ी देर तक आराम कर के फिर दफ्तर के लिए निकल जाते थे। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर में लिख लेते थे। रात को रामानुजन के स्लेट और खड़िए की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती थी।

रामानुजन की प्रतिभा को सही तौर पर पहचाना कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हार्डी ने। उन्होंने उन्हें समुचित मान्यता और सम्मान दिलाया। बाद में दोनों ने मिलकर अनेक रिसर्च पेपर प्रकाशित कराये।

रामानुजन ने गणित में शोध करना जारी रखा और सन् 1913 में इन्होने अपनी 120 प्रमेयों की एक लम्बी सूची को अच्छे कागजों पर लिखकर एक पत्र के साथ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विख्यात गणतिज्ञ जी. एच. हार्डी (G.H.HARDY) को भेजी। ये पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे बिना उत्पत्ति के प्रमेय लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को ये सब बकवास लगा। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति (रामानुजन) या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को 9 बजे हार्डी ने अपने एक शिष्य लिटिलवुड के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नही बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उन्हें कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं। हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली।

भारतीय डाकटिकट में रामानुजन

सन् 1913 में हार्डी के पत्र के आधार पर रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय से छात्रवृत्ति मिलने लगी। अगले वर्ष 17 मार्च 1914 में हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज आने की व्यवस्था की। इस प्रकार रामानुजन ब्रिटेन के लिए जलयान से रवाना हो गये थे। फिर सिलसिला शुरु हुआ उनके सम्मान व पुरस्कार का। रामानुजन ने गणित में जो कुछ भी किया था वो सब अपने बल पर किया था। रामानुजन को गणित की कुछ शाखाओं का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था पर कुछ क्षेत्रों में उनका कोई सानी नहीं था इसलिए हार्डी ने रामानुजन को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया। स्वयं हार्डी ने इस बात को स्वीकार किया कि जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया उससे कहीं ज्यादा रामानुजन ने उन्हें सिखाया। सन् 1916 में रामानुजन ने केम्ब्रिज से बी. एस. सी. की उपाधि प्राप्त की।

रामानुजन और हार्डी के कार्यों ने शुरू से ही महत्वपूर्ण परिणाम दिये। यद्यपि सन् 1917 से ही रामानुजन बीमार रहने लगे थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। रामानुजन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह धर्म-कर्म को मानते थे और कड़ाई से उनका पालन करते थे। रामानुजन शाकाहारी थे और इंग्लैण्ड में रहते समय वह अपना भोजन स्वयं पकाते थे। इंग्लैण्ड की कड़ी सर्दी और उस पर कड़ा परिश्रम। फलस्वरूप रामानुजन का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई देने लगे, तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। इधर उनके लेख उच्चकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। सन् 1918 में, एक ही वर्ष में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज तीनों का फेलो चुन गया। इससे रामानुजन का उत्साह और भी अधिक बढ़ा और वह खोजकार्य में जोर-शोर से जुट गए। सन् 1919 में स्वास्थ बहुत खराब होने की वजह से उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।

रामानुजन की गणितीय सूत्रों को निकालने की विधियाँ इतनी जटिल होती थीं कि गणित की पत्रिकाएं भी उन्हें ज्यों की त्यों प्रकाशित करने में असमर्थ होती थीं। बरनॉली संख्याओं पर उनका पहला रिसर्च पेपर जो इंडियन मैथेमैटिक सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था, सम्पादक ने तीन बार लौटाया था।

रामानुजन की स्मरण शक्ति गजब की थी। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और एक महान गणितज्ञ थे। एक बहुत ही प्रसिद्ध घटना है। जब रामानुजन अस्पताल में भर्ती थे तो डॉ. हार्डी उन्हें देखने आए। डॉ. हार्डी जिस टैक्सी में आए थे उसका नं. था 1729 । यह संख्या डॉ. हार्डी को अशुभ लगी क्योंकि 1729 = 7 x 13 x 19 और इंग्लैण्ड के लोग 13 को एक अशुभ संख्या मानते हैं। परंतु रामानुजन ने कहा कि यह तो एक अद्भुत संख्या है। यह वह सबसे छोटी संख्या है, जिसे हम दो घन संख्याओं के जोड़ से दो तरीके में व्यक्त कर सकते हैं।

1729 = 123 + 13 1729 = 103 + 93

इलिनॉय विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट ने रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया और इस शोध का निष्कर्ष पाँच पुस्तकों के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ है। ब्रूस सी. बनोड्ट कहते हैं, "मुझे यह सही नहीं लगता जब लोग रामानुजन की गणितीय प्रतिभा को किसी दैवीय या आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ कर देखते हैं। यह मान्यता ठीक नहीं है। उन्होंने बड़ी सावधानी से अपने शोध निष्कर्षों को अपनी पुस्तिकाओं में दर्ज किया है।" सन् 1903 से 1914 के बीच, कैम्ब्रिज जाने से पहले रामानुजन अपनी पुस्तिकाओं में 3,542 प्रमेय लिख चुके थे। उन्होंने ज्यादातर अपने निष्कर्ष ही दिए थे, उनकी उत्पत्ति नहीं दी। शायद इसलिए कि वे कागज खरीदनें में सक्षम नहीं थे और वे अपना कार्य पहले स्लेट पर करते थे। बाद में बिना उपपत्ति दिए उसे पुस्तिका में लिख लेते थे।

सन् 1967 में प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को प्रोफेसर आर. ए. रेंकिन ने 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च बाम्बे (मुम्बई)' द्वारा प्रकाशित 'रामानुजन नोट बुक्स' दिखाई पर उस समय प्रोफेसर बर्नाड्ट की इस पुस्तक में कोई रुचि नहीं थी। सन् 1974 में इन्होनें एमिल ग्रॉसवॉल्ड के दो पत्रों को पढ़ा जिनमें ग्रॉसवॉल्ड ने रामानुजन के कुछ प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दी थीं। प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को लगा कि वह भी रामानुजन के प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दे सकते हैं और वह 'रामानुजन नोट बुक्स' के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए। प्रोफेसर बर्नाड्ट प्रिंसटन विश्वविद्यालय गए और वहाँ से 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च' द्वारा प्रकाशित 'रामानुजन नोट बुक्स' की एक प्रति ले आए। यह देखकर प्रोफेसर बर्नाड्ट रोमांचित हो गए कि वह कुछ और प्रमेयों की उत्पत्ति देने में सक्षम थे परंतु उस पुस्तक में ऐसे हजारों प्रमेय थे जिनकी उत्पत्ति वे नहीं दे सकते थे और इस तरह प्रोफेसर बर्नाड्ट ने अपना पूरा ध्यान रामानुजन की पुस्तकों के शोध में लगा दिया।

रामानुजन के प्रमुख गणितीय कार्यों में एक है किसी संख्या के विभाजनों की संख्या ज्ञात करने के फार्मूले की खोज। उदाहरण के लिए संख्या 5 के कुल विभाजनों की संख्या 7 है इस प्रकार : 5, 4+1, 3+2, 3+1.1, 2+2+1, 2+1+1+1, 1+1+1+1+1। रामानुजन के फार्मूले से किसी भी संख्या के विभाजनों की संख्या ज्ञात की जा सकती है। उदाहरण के लिए संख्या 200 के कुल विभाजन होते है - 3972999029388, हाल ही में भौतिक जगत की नयी थ्योरी ‘सुपरस्ट्रिंग थ्योरी’ में इस फार्मूले का काफी उपयोग हुआ है। रामानुजन ने उच्च गणित के क्षेत्रों जैसे संख्या सिद्धान्त, इलिप्टिक फलन, हाईपरज्योमैट्रिक श्रेणी इत्यादि में अनेक महत्वपूर्ण खोजें कीं।

सन् 1919 में इंग्लैण्ड से वापस आने के पश्चात् रामानुजन कोदमंडी गाँव में रहने लगे। रामानुजन का अंतिम समय चारपाई पर ही बीता। वे चारपाई पर पेट के बल लेटे-लेटे कागज पर बहुत तेज गति से लिखते रहते थे मानो उनके मस्तिष्क में गणितीय विचारों की आँधी चल रही हो। रामानुजन स्वयं कहते थे कि उनके द्वारा लिखे सभी प्रमेय उनकी कुल देवी नामागिरि की प्रेरणा हैं। इंग्लैण्ड का मौसम उन्हें रास नहीं आया। भारत लौटने के पश्चात् भी उनके स्वास्थ में कोई सुधार नही हुआ और 26 अप्रैल 1920 को महज 33 वर्ष की अल्प आयु में तपेदिक से श्रीनिवास रामानुजन का स्वर्गवास हो गया। आज भी गणितज्ञ रामानुजन की क्षमताओं से हैरान हैं। वे उनके द्वारा दी गई कई प्रमेयों को कम्प्यूटर की मदद से भी नहीं सुलझा पाते जिन्हें रामानुजन एक कागज और पेंसिल की मदद से हल करते थे।


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