तुलसीदास (खण्डकाव्य)

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तुलसीदास खण्ड काव्य का प्रकाशन सन 1938 ई.में हुआ। यह सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का अंतर्मुखी प्रबंध काव्य है। यह उनकी प्रौढ़तम रचनाओं में से एक है। इसका कथानक जनसामान्य में प्रचलित उस कहानी पर आधृत है जिसमें गोस्वामी जी को अपनी स्त्री पर अत्यधिक आसक्त बताया गया है। इस छोटे से कथासूत्र को तुलसी के मानसिक संघर्ष, मनोवैज्ञानिक तथ्यों के उद्‌घाटन तथा रहस्य भावना के संगुम्फन द्वारा संपुष्ट करते हुए इसे काव्यात्मक उत्कर्ष की अपेक्षित ऊँचाई तक पहुँचा दिया गया है।

कथा

स्थूल रूप से इसकी कथा को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम भाग में, जिसे कथा की पृष्ठभूमि भी कह सकते हैं, भारतीय संस्कृति के ह्रास का बहुत ही प्रभावोत्पादक चित्र प्रस्तुत द्वारा जड़ देश में नवजीवन के संचार का सन्देश मिलता है पर इससे उन्हें अपेक्षित प्रेरणा नहीं मिल पाती। तृतीया भाग में वे अपनी पत्नी को खोजते हुए उसके मायके पहुँच जाते हैं वहाँ पर उसकी कटू क्तियाँ उसके ज्ञान का कपाट खोल देती हैं। फिर तो वह अज्ञात भाव से अनंत की ओर बढ़ते चले जाते हैं। तुलसी की सफलता में ऊर्ध्वमन की प्रतिक्रिया का विशेष योग है। इसी साधना द्वारा जीवन आत्म-साक्षात्कार करता है। अधिकांश भारतीय दार्शनिक ने अंत साधना पर विशेष जोर दिया है। आत्मा और परमात्मा का अभेद एक विशेष आध्यात्मिक प्रक्रिया द्वारा ही सम्पन्न होता है। इसी को 'निराला' ने मन की ऊर्ध्वगति की संज्ञा दी है। जब तक साधक भौतिक संस्कारों से मुक्त होकर निस्संग न होगा, उसे आत्मादर्शन नहीं हो सकता। तुलसी के भी जीवन के द्वन्द्व और बन्धन इसी निस्संगादस्था के कारण टूट गये। दृष्टिभेद से ही व्यक्ति को बन्धन और मोक्ष की प्राप्ति होती है। तुलसी के इस आत्मबोध के पीछे लोक की विपन्नता का प्रभाव था। राम का सम्पूर्ण जीवन आदर्शवादी लोक-जीवन के अनुकूल था। तुलसी की चिंता का मुख्य अंश लोक-वेदना से ही परिचालित था। इसीलिए देश के कल्मष, छल तथा अमंगल को पराभूत करने के लिए उन्होंने रामचरित का आश्रय ग्रहण किया। बीच-बीच में तीखे व्यग्यों के प्रयोग से कथा का सौष्ठव और भी समृद्ध हो गया है। हाँ, अनगढ़ शबदों के व्यवहार से अपेक्षित अर्थ तक पहुँचने में कठिनाई होती है, पर इससे हिन्दी की व्यंजना शक्ति बढ़ी ही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 232-233।

बाहरी कड़ियाँ

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