पितृमेध या अन्त्यकर्म संस्कार

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  • हिन्दू धर्म संस्कारोंमें पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि संस्कार षोदश संस्कार है। यह अन्तिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को पितृमेध, अन्त्कर्म, दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। यह संस्कार भी वेदमंत्रों के उच्चारण के द्वारा होता है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद दाह-संस्कार करने का विधान है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। ये वे सोलह संस्कार हैं, जो हिन्दू धर्म के मेरुदण्ड के समान हैं।[1]
मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि-संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इसलिए बनाया, ताकि सभी स्वजन, संबधी, मित्र, परिचित अपनी विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौक़ा मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।[2] हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परंपरा है, जबकि अन्य धर्मों में प्रायः ज़मीन में गाड‌ने की। जलाने की परंपरा वैज्ञानिक है। शव को जला देने पर मात्र राख बचती है, शेष अंश जलकर समाप्त हो जाते हैं। राख को नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे प्रदूषण नहीं फैलता, जबकि शव को ज़मीन में गाड़ने से पृथ्वी में प्रदूषण फैलता है, दुर्गन्ध फैलती है तथा भूमि अनावश्यक रुप से फंसी रहती है। चूडा‌मण्युपनिषद् में कहा गया है की ब्रह्म से स्वयं प्रकाशरुप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। हिन्दू अंत्येष्टि-संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल, अग्नि और मिट्टी इन्हीं पंचतत्त्वों में पुनः मिला दिया जाता है।

मृतक देह को जलाने यानी शवदाय करने के सबंध में अथर्ववेद में लिखा है -

इमौ युनिज्मि ते वहनी असुनीताय वोढवे।
ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गाच्छ्तात्।।[2]

अर्थात है जीव! तेरे प्राणविहिन मृतदेह को सदगाति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं। अर्थात तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। इन दोनों अग्नियों के द्धारा तू सर्वनियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गातियों के साथ प्राप्त हो।

आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वदधरो अस्तु ते।
शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके।।[2]

अर्थात हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। इसे अपनी शरण में ले। तेरा सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। इस शव को तू जला दे और है अग्निरुप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा।

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम् ।
ओद्दम् क्रतो स्मर। क्लिवे स्मर। कृतं स्मर।।[2]

अर्थात हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। किए हुए अपने कर्मों को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्मपर्यन्त है। भस्मांत होने वाला है। यह शव भस्म करने योग्य है।

हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।[2] अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख गरुड़पुराण में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को घी की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में ब्रह्मा का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।[2]

मृत्यु के उपरान्त मानव का क्या होता है?

यह एक ऐसा प्रश्न है जो आदिकाल से ज्यों-का-त्यों चला आया है; यह एक ऐसा रहस्य है, जिसका भेदन आज तक सम्भव नहीं हो सका है। आदिकालीन भारतीयों, मिस्रियों, चाल्डियनों, यूनानियों एवं पारसियों के समक्ष यह प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा एवं समस्या के रूप में विद्यमान रहा है। मानव के भविष्य, इस पृथिवी के उपरान्त उसके स्वरूप एवं इस विश्व के अन्त के विषय में भाँति-भाँति के मत प्रकाशित किये जाते रहे हैं, जो महत्त्वपूर्ण एवं मनोरम हैं। प्रत्येक धर्म में इसके विषय में पृथक दृष्टिकोण रहा है। इस प्रश्न एवं रहस्य को लेकर एक नयी विद्या का निर्माण भी हो चुका है, जिसे अंग्रेज़ी में इश्चैटॉलॉजी (Eschatology) कहते हैं। यह शब्द यूनानी शब्दों-इश्चैटॉस (Eschatos=Last) एवं लोगिया (Logia=Discourse) से बना है, जिसका तात्पर्य है, अन्तिम बातों, यथा-मृत्यु, न्याय एवं मृत्यु के उपरान्त की अवस्था से सम्बन्ध रखने वाला विज्ञान। इसके दो स्वरूप हैं, जिनमें एक का सम्बन्ध है मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की नियति, आत्मा की अमरता, पाप एवं दण्ड तथा स्वर्ग एवं नरक के विषय की चर्चा से, और दूसरे का सम्बन्ध है अखिल ब्रह्माण्ड, उसकी सृष्टि, परिणति एवं उद्धार तथा सभी वस्तुओं के परम अन्त के विषय की चर्चा से। प्राचीन ग्रन्थों में प्रथम स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है, किन्तु आजकल वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग बहुधा दूसरे स्वरूप पर ही अधिक सोचते हैं।

मृत्यु विलक्षण एवं भयावह

सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बंदीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल की समय की सम्भावित पीड़ा से वे आक्रान्त होते हैं, प्रत्युत उनका भय उस रहस्य से है, जो मृत्यु के उपरान्त की घटनाओं से सम्बन्धित है तथा उनका भय उन भावनाओं से है, जिनका गम्भीर निर्देश जीवनोपरान्त सम्भावित एवं अचिन्त्य परिणामों के उपभोग की ओर है। सी.ई. वुल्लियामी ने अपने ग्रन्थ 'इम्मार्टल मैन'[3] में कहा है-यद्यपि (मृत्युपरान्त या प्रेत) जीवन के सम्बन्ध में अत्यन्त कठोर एवं भयानक कल्पनाओं से लेकर उच्च एवं सुन्दरतम कल्पनाएँ प्रकाशित की गयी हैं, तथापि तात्त्विक बात यही रही है कि शरीर मरता है न कि आत्मा।[4]

मृत्यु के सम्बन्ध में धारणाएँ

मृत्यु के विषय में आदिम काल से लेकर सभ्य अवस्था तक के लोगों में भाँति-भाँति की धारणाएँ रही हैं। कठोपनिषद[5] में आया है-'जब मनुष्य मरता है तो एक सन्देह उत्पन्न होता है, कुछ लोगों के मत से मृत्यूपरान्त जीवात्मा की सत्ता रहती है, किन्तु कुछ लोग ऐसा नहीं मानते हैं।' नचिकेता ने इस सन्देह को दूर करने के लिए यम से प्रार्थना की है। मृत्यूपरान्त जीवात्मा का अस्तित्व मानने वालों में कई प्रकार की धारणाएँ पायी जाती हैं।[6] कुछ लोगों का विश्वास है कि मृतों का एक लोक है, जहाँ मृत्यूपरान्त जो कुछ बच रहता है, वह जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि सुकृत्यों एवं दुष्कृत्यों के फलस्वरूप शरीर के अतिरिक्त प्राणी का विद्यमानांश क्रम से स्वर्ग एवं नरक में जाता है। कुछ लोग आवागमन एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।[7]

ग्रंथों के अनुसार

ब्रह्मपुराण[8] ने ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिन्हें मृत्यु सुखद एवं सरल प्रतीत होती है; न कि पीड़ाजनक एवं चिन्तायुक्त। वह कुछ यों है-'जो झूठ नहीं बोलता, जो मित्र या स्नेही के प्रति कृतघ्न नहीं है, जो आस्तिक है, जो देवपूजा परायण है और ब्राह्मणों का सम्मान करता है तथा जो किसी से ईर्ष्या नहीं करता-वह सुखद मृत्यु पाता है।' इसी प्रकार अनुशासनपर्व[9] ने विस्तार के साथ अकालमृत्यु एवं दीर्घ जीवन के कारणों का वर्णन किया है, वह कुछ यों है-नास्तिक, यज्ञ न करने वाले, गुरुओं एवं शास्त्रों की आज्ञा के उल्लंघनकर्ता, धर्म न जानने वाले एवं दुष्कर्मी लोग अल्पायु होते हैं। जो चरित्रवान् नहीं हैं, जो सदाचार के नियम तोड़ा करते हैं और जो कई प्रकार से सम्भोग क्रिया करते रहते हैं, वे अल्पायु होते हैं और नरक में जाते हैं। जो क्रोध नहीं करते, जो सत्यवादी होते हैं, जो किसी की हिंसा नहीं करते, जो किसी की ईर्ष्या नहीं करते और जो कपटी नहीं होते, वे शतायु होते हैं।[10]

मृत्यु के आगमन के संकेत

बहुत से ग्रन्थ मृत्यु के आगमन के संकेतों का वर्णन करते हैं, यथा-शान्तिपर्व[11]), देवल[12], वायु पुराण[13], मार्कण्डेय पुराण[14], लिंग पुराण[15] आदि पुराणों में मृत्यु के आगमन के संकेतों या चिह्नों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ मिलती हैं। स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता, किन्तु उदाहरणार्थ कुछ बातें दी जा रही हैं।

शान्तिपर्व के अनुसार

शान्तिपर्व[16] के अनुसार जो अरुन्धती, ध्रुव तारा एवं पूर्ण चन्द्र तथा दूसरे की आंखों में अपनी छाया नहीं देख सकते, उनका जीवन बस एक वर्ष का होता है; जो चन्द्रमण्डल में छिद्र देखते हैं, वे केवल छ: मास के शेष जीवन वाले होते हैं; जो सूर्यमण्डल में छिद्र देखते हैं या पास की सुगन्धित वस्तुओं में शव की गन्ध पाते हैं, उनके जीवन के केवल सात दिन बचे रहते हैं। आसन्न मृत्यु के लक्षण ये हैं-कानों एवं नाक का झुक जाना, आंखों एवं दाँतों का रंग परिवर्तन हो जाना, संज्ञाशून्यता, शरीरोष्णता का अभाव, कपाल से धूम निकलना एवं अचानक बायीं आंख से पानी गिरना।

देवल के अनुसार

देवल ने 12, 11 या 10 मास से लेकर एक मास, 15 दिन या 2 दिनों तक की मृत्यु के लक्षणों का वर्णन किया है और कहा है कि जब अँगुलियों से बन्द करने पर कानों में स्वर की धमक नहीं ज्ञात होती या आंख में प्रकाश नहीं दिखता तो समझना चाहिए कि मृत्यु आने ही वाली है।

वायुपुराण एवं लिंगपुराण के अनुसार

अन्तिम दो लक्षणों को वायुपुराण[17] एवं लिंगपुराण[18] ने सबसे बुरा माना है।[19] मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ[20] में डॉ. आर. जी. हर्षे ने कई ग्रन्थों के आधार पर लिखा है कि जब व्यक्ति स्वप्न में गधा देखता है तो उसका मरण निश्चित-सा है, जब वह स्वप्न में बूढ़ी कुमारी स्त्री देखता है तो भय, रोग एवं मृत्यु का लक्षण समझना चाहिए[21] या जब त्रिशूल देखता है तो मृत्यु परिलक्षित होती है।

मरणासन्न प्रथा

भारत के अधिकांश भागों में ऐसी प्रथा है कि जब व्यक्ति मरणासन्न रहता है या जब वह अब-तब रहता है, तो लोग उसे खाट से उतारकर पृथिवी पर लिटा देते हैं। यह प्रथा यूरोप में भी है।[22]

  • कौशिकसूत्र[23] में आया है; जब व्यक्ति शक्तिहीन होता है, अर्थात् मरने लगता है तो (पुत्र या सेवा करने वाला कोई सम्बन्धी) शाला में लगी हुई घास पर कुश बिछा देता है और उसे 'स्योनास्मै भव' मन्त्र के साथ (बिस्तर या खाट से) उठाकर उस पर रख देता है।
  • बौधायनपितृमेधसूत्र[24] के मत से जब यजमान के मरने का भय हो जाए तो यज्ञशाला में पृथिवी पर बालू बिछा देनी चाहिए और उस पर दर्भ फैला देने चाहिए, जिनकी नोंक दक्षिण की ओर होती है, मरणासन्न के दायें कान में 'आयुष: प्राणं सन्तनु' से आरम्भ होने वाले अनुवाक का पाठ (पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धी द्वारा) होना चाहिए।[25]
  • शुद्धिप्रकाश[26] में आया है कि जब कोई व्यक्ति मृतप्राय हो, उसकी आंखें आधी बन्द हो गई हों और वह खाट से नीचे उतार दिया गया हो, तो उसके पुत्र या किसी सम्बन्धी को चाहिए कि वह उससे निम्न प्रकार का कोई एक या सभी प्रकार के दस दान कराये-गौ, भूमि, तिल, सोना, घृत, वस्त्र, धान्य, गुड़, रजत (चाँदी) एवं नमक[27] ये दान गयाश्राद्ध या सैकड़ों अश्वमेधों से बढ़कर हैं। संकल्प इस प्रकार का होता है-'अभ्युदय (स्वर्ग) की प्राप्ति या पापमोचन के लिए मैं दस दान करूँगा।' दस दानों के उपरान्त उत्क्रान्ति-धेनु (मृत्यु को ध्यान में रखकर बछड़े के साथ गौ) दी जाती है, और इसके उपरान्त वैतरणी गौ का दान किया जाता है।[28]
  • अन्त्येष्टिपद्धति एवं शुद्धिप्रकाश[29] में उन मन्त्रों का (जो वैदिक नहीं है) उल्लेख है जो दानों के समय कहे जाते हैं। अन्त्येष्टिपद्धति अन्त्यकर्मदीपक आदि ने व्यवस्था दी है कि जब व्यक्ति आसन्नमृत्यु हो, तो उसके पुत्र या सम्बन्धियों को चाहिए कि वे उससे व्रतोद्यापन, सर्वप्रायश्चित्त एवं दस दानों के कृत्य करायें, किन्तु यदि मरणासन्न इन कृत्यों को स्वयं करने में अशक्त हो तो पुत्र या सम्बन्धी को उसके लिए ऐसा कर देना चाहिए। जब व्यक्ति संकल्पित व्रत नहीं कर पाता तो मरते समय वह व्रतोद्यापन कृत्य करता है।[30]

व्रतोद्यापन

संक्षेप में व्रतोद्यापन यों है-पुत्र या सम्बन्धी मरणासन्न व्यक्ति को स्नान द्वारा या पवित्र जल से मार्जन करके या गंगा जल पिलाकर पवित्र करता है, स्वयं स्नानसन्ध्या से पवित्र हो लेता है, दीप जलाता है, गणेश एवं विष्णु की पूजा-वन्दना करता है, पूजा की सामग्री रखकर संकल्प करता है[31] निमन्त्रित ब्राह्मण को सम्मानित करता है और पहले से संकल्पित सोना उसे देता है और ब्राह्मण घोषित करता है-'सभी व्रत पूर्ण हों। उद्यापन (व्रत-पूर्ति) के फल की प्राप्ति हो।' सर्वप्रायश्चित में पुत्र चार या तीन विद्वान ब्राह्मणों या एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण को 6, 3 या डेढ़ वर्ष वाले प्रायश्चित्तों के निष्क्रिय रूप में सोना आदि का दान देता है और इसकी घोषणा करता है और वह अशौच के उपरान्त प्रायश्चित करता है। मरणासन्न व्यक्ति को या पुत्र या सम्बन्धी को सर्वप्रायश्चित करना पड़ता है। वह क्षीरकर्म करके स्नान करता है, पंचगव्य पीता है, चन्दनलेप एवं अन्य पदार्थों से एक ब्राह्मण को सम्मानित करता है, गोपूजा करके या उसके स्थान पर धन का दान करता है।[32] सर्वप्रायश्चित के उपरान्त दश-दान होते हैं। गरुड़पुराण[33] ने महादान संज्ञक अन्य दानों की व्यवस्था दी है, यथा-तिल, लोहा, सोना, रूई, नमक, सात प्रकार के अन्न, भूमि, गौ; कुछ अन्य दान भी हैं, यथा-छाता, चन्दन, अँगूठी, जलपात्र, आसन, भोजन, जिन्हें पददान कहा जाता है। गरुड़पुराण[34] के मत से यदि मरणासन्न व्यक्ति आतुर-संन्यास नियमों के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लेता है, तो वह आवागमन (जन्म-मरण) से छुटकारा पा जाता है।

आदिकाल से ही ऐसा विश्वास रहा है कि मरते समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार दैहिक जीवन के उपरान्त उसका जीवात्मा आक्रान्त होता है (अन्ते या मति: सा गति:), अत: मृत्यु के समय व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया छोड़कर हरि या शिव का स्मरण करना चाहिए और मन ही मन 'ऊँ नमो वासुदेवाय' का जप करना चाहिए।[35] बहुत से वचनों के अनुसार उसे वैदिक पाठ सुनाना चाहिए।[36]

मरणासन्न व्यक्ति द्वारा स्मरण

हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र[37] के मत से आहिताग्नि के मरते समय पुत्र या सम्बन्धी को उसके कान में (जब वह ब्रह्मज्ञानी हो) तैत्तिरीयोपनिषद के दो अनुवाक (2|1 एवं 3|1) कहने चाहिए। अन्त्यकर्मदीपक[38] का कथन है कि जब मरणासन्न व्यक्ति जप न कर सके तो उसे विष्णु या शिव का रमणीय रूप मन में धारण कर विष्णु या शिव के सहस्र नाम सुनने चाहिए और भगवद्गीता, भागवत, रामायण, ईशावास्य आदि उपनिषदों एवं सामवेदीय मन्त्रों का पाठ सुनना चाहिए।[39]

उपनिषदों में भी मरणासन्न व्यक्ति की भावनाओं के विषय में संकेत मिलते हैं। छान्दोग्योपनिषद[40] में आया है-'सभी ब्रह्म है। व्यक्ति को आदि, अन्त एवं इसी स्थिति के रूप में इसका (ब्रह्म का) ध्यान करना चाहिए। इसी की इच्छा की सृष्टि मनुष्य है। इस विश्व में उसकी जो इच्छा (या भावना) होगी, उसी के अनुसार वह इहलोक से जाने के उपरान्त होगा।'[41] इसी प्रकार की भावना प्रश्नोपनिषद[42] में भी पायी जाती है। वहाँ ऐसा आया है कि विचार-शक्ति आत्मा को उच्चतर उठाती जाती है, जिससे मनुष्य-मन को ऐसा परिज्ञान होना चाहिए कि अखिल ब्रह्माण्ड में जितने भौतिक पदार्थ या अभिव्यक्तियाँ हैं, वे सब एक हैं और उनमें एक ही विभु रूप समाया हुआ है। भगवद्गीता ने यही भावना और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त की है-'वह व्यक्ति, जो अन्तकाल में मुझे स्मरण करता हुआ इस जीवन से विदा होता है, वह मेरे पास आता है, इसमें संशय नहीं है'।[43] किन्तु एक बात स्मरणीय यह है कि अन्तकाल में ही केवल भगवान का स्मरण करने से कुछ न होगा, जब जीवन भर आत्मा ऐसी भावना से अभिभूत रहता है, तभी भगवत्प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है-'व्यक्ति मृत्यु के समय जो भी रूप (या वस्तु) सोचता है, उसी को वह प्राप्त होता है, और यह तभी सम्भव है, जबकि वह जीवन भर ऐसा करता आया हो।'[44]

तीर्थस्थान गमन

पुराणों के आधार पर कुछ निबन्धों का ऐसा कथन है कि अन्तकाल उपस्थित होने पर व्यक्ति को, यदि सम्भव हो तो, किसी तीर्थ-स्थान (यथा गंगा) में ले जाना चाहिए। शुद्धितत्त्व[45] ने कूर्मपुराण को उद्धृत किया है-'गंगा के जल में, वाराणसी के स्थल या जल में, गंगासागर में या उसकी भूमि, जल या अन्तरिक्ष में मरने से व्यक्ति मोक्ष (संसार से अन्तिम छुटकारा) पाता है।' इसी अर्थ में स्कन्दपुराण में आया है-'गंगा के तटों से एक गव्यूति (दो कोस) तक क्षेत्र (पवित्र स्थान) होता है, इतनी दूर तक दान, जप एवं होम करने से गंगा का ही फल प्राप्त होता है; जो इस क्षेत्र में मरता है, वह स्वर्ग जाता है और पुन: जन्म नहीं पाता'।[46] पूजारत्नाकर में आया है-'जहाँ जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ हरि का निवास रहता है; जो शालग्रामशिला के पास मरता है, वह हरि का परमपद प्राप्त करता है।' ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई अनार्य देश (कीकट) में भी शालग्राम से एक कोस की दूरी पर मरता है, वह वैकुण्ठ (विष्णुलोक) पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुलसी के वन में मरता है या मरते समय जिसके मुख में तुलसीदल रहता है, वह करोड़ों पाप करने पर भी मोक्षपद प्राप्त करता है। इस प्रकार की भावनाएँ आज भी लोकप्रसिद्ध हैं।[47]

मृत्यु का उत्तम काल

मृत्यु के उत्तम काल के विषय में भी कुछ धारणाएँ हैं। शान्तिपर्व[48] में आया है-'जो व्यक्ति सूर्य के उत्तर दिशा में जाने पर (उत्तरायण होने पर) मरता है या किसी अन्य शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त में मरता है, वह सचमुच पुण्यवान है।' यह भावना उपनिषदों में व्यक्त उत्तरायण एवं दक्षिणायन में मरने की धारणा पर आधारित है। छान्दोग्योपनिषद[49] में आया है-'अब (यदि यह आत्मज्ञानी व्यक्ति मरता है) चाहे लोग उसकी अन्त्येष्टि क्रिया (श्राद्ध आदि) करें या न करें, वह अर्चि: अर्थात् प्रकाश को प्राप्त होता है, प्रकाश से दिन, दिन से चन्द्र के अर्ध प्रकाश (शुक्ल पक्ष), उससे उत्तरायण के छ: मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र, चन्द्र से विद्युत को प्राप्त होता है। अमानव उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह देवों का मार्ग है; वह मार्ग, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो लोग इस मार्ग से जाते हैं, वे मानव जीवन में पुन: नहीं लौटते। हाँ, वे नहीं लौटते।' ऐसी ही बात छान्दोग्योपनिषद[50] में आयी है, जहाँ कहा गया है कि पंचाग्नि-विद्या जानने वाले गृहस्थ तथा विश्वास (श्रद्धा) एवं तप करने वाले वानप्रस्थ एवं परिव्राजक (जो अभी ब्रह्म को नहीं जानते) भी देवयान (देवमार्ग) से जाते हैं। और जो लोग ग्रामवासी हैं,[51] यज्ञपरायण हैं, दान-दक्षिणायुक्त हैं, धूम को जाते हैं, वे धूम से रात्रि, रात्रि से चन्द्र के अर्ध अंधकार (कृष्ण पक्ष) में, उससे दक्षिणायन के छ: मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश एवं चन्द्र को जाते हैं, जहाँ वे कर्मफल पाते हैं और पुन: उसी मार्ग से लौट आते हैं। छान्दोग्योपनिषद[52] ने एक तीसरे स्थान की ओर संकेत किया है, जहाँ कीट-पतंग आदि लगातार आते-जाते रहते हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद[53] ने भी देवलोग, पितृलोक एवं उस लोक का उल्लेख किया है, जहाँ कीट, पतंग आदि जाते हैं। भगवद्गीता[54] ने भी उपनिषदों के इन वचनों को सूक्ष्म रूप में कहा है-मैं उन कालों का वर्णन करूँगा, जब कि भक्तगण कभी न लौटने के लिए इस विश्व से विदा होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण सूर्य के छ:; जब ब्रह्मज्ञानी इन कालों में मरते हैं, तो ब्रह्मलोक जाते हैं। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन सूर्य के छ: मासों में मरने वाले भक्तगण चन्द्रलोक में जाते हैं और पुन: लौट आते हैं। इस विषय में ये दो मार्ग, जो प्रकाशमान एवं अंधकारमय हैं, सनातन हैं। एक से जाने वाला कभी नहीं लौटता, किन्तु दूसरे से आने वाला लौट आता है। वेदान्तसूत्र[55] ने 'प्रकाश', 'दिन' आदि शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में लेने को नहीं कहा है; अर्थात् उसके मत से ये मार्गों के लक्षण या स्तर नहीं हैं, प्रत्युत ये उन देवताओं के प्रतीक हैं, जो मृतात्माओं को सहायता देते हैं और देवलोक एवं पितृलोक के मार्गों में उन्हें ले जाते हैं, अर्थात् वे आतिवाहिक एवं अभिमानी देवता हैं। शंकर ने वेदान्तसूत्र[56] की व्याख्या में बताया है कि जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो इससे यही समझना चाहिए कि वहाँ अर्चिरादि की प्रशस्ति मात्र है-जो ब्रह्मज्ञानी है, वह यदि दक्षिणायन में मर जाता है तो भी वह अपने ज्ञान का फल पाता है, अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करता है। जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो ऐसा करके उन्होंने केवल लोकप्रसिद्ध प्रयोग या आचरण को मान्यता दी और उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनमें यह शक्ति भी थी कि वे अपनी इच्छाशक्ति से ही मर सकते हैं, क्योंकि उनके पिता ने उन्हें ऐसा वर दे रखा था।[57] शंकर एवं वेदान्तसूत्र के वचनों के रहते हुए भी लोकप्रसिद्ध बात यही रही है कि उत्तरायण में मरना उत्तम है।[58]




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक-कल्याण संस्कार-अंक (जनवरी सन 2006 ई. से
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 अंत्येष्टि-संस्कार (हिन्दी) (ए.एस.पी) पूजा विधि। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2011।
  3. इम्मार्टल मैन (पृष्ठ 2)
  4. अंग्रेज़ी शब्द ‘स्पिरिट’ एवं भारतीय शब्द आत्मा में धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से अर्थ-साम्य नहीं है। प्रथम शब्द जीवनोच्छ्वास का द्योतक है और दूसरे को भारतीय दर्शन में परमात्मा की अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। आत्मा अमर है, शरीर नाशवान्। गीता में आया भी है-

    'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।’ और भी-‘अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराण:........।’

  5. कठोपनिषद (1।1।20)
  6. देखिए सी.ई. वुल्लियामी का इम्मार्टल मैन पृष्ठ 11।
  7. यूनानी लेखक पिण्डार (द्वितीय आलिचिएन ओड), प्लेटो (पीड्रस एवं टिमीएस) एवं हेरोडोटस (2।123)।
  8. ब्रह्मपुराण 214।34-39
  9. अनुशासनपर्व 104।11-12; 144।49-60
  10. अनुशासनपर्व 104।11-12 एवं 14
  11. शान्तिपर्व 318।9-17
  12. कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृष्ठ 248-250
  13. वायु पुराण 19|1-32
  14. मार्कण्डेय पुराण 43।1-33 या 40।1-33
  15. लिंग पुराण पूर्वार्ध, अध्याय 91
  16. शान्तिपर्व अध्याय 318
  17. वायुपुराण 19|28
  18. लिंगपुराण पूर्वार्ध, 91।24
  19. द्वे चात्र परमेऽरिष्टे एतद्रूपं परं भवेत्। घोषं न श्रृणुयात्कर्णे ज्योतिर्नेत्रे न पश्यति।। वायुपुराण (19।27); नग्नं वा श्रमणं दृष्ट्वा विद्यान्मृत्युमुपस्थितम्। लिंगपुराण (पूर्वभाग 91।19)।
  20. मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ पृष्ठ 246-268
  21. पृष्ठ 251
  22. प्रो. एडगर्टन का लेख; ‘दी आवर आव डेथ’, एनल्स आव दी भण्डारकर ओ. आर. इंस्टीट्यूट, जिल्द 8, पृष्ठ 219-249
  23. कौशिकसूत्र 80|3
  24. बौधायनपितृमेधसूत्र 3|1|18
  25. गोभिलस्मृति (3।22), पितृदयिता आदि।

    दुर्बलीभवन्तं शालातृणेषु दर्भानास्तीर्य स्योनास्मै भवेत्यवरोहयति।
    मन्त्रोक्तावनुमन्त्रयते। यत्ते कृष्णेत्यवदीपयति। कौशिक. (80|3-5)। 'स्योनास्मै' मन्त्र के लिए देखिए अथर्ववेद (18-2-19), ऋग्वेद (1|22|15) एवं वाजसनेयीसंहिता (36|13), देखिए निरुक्त (9|32)।

    पितृदयिता (पृष्ठ 74) में आया है-'यदा कण्ठस्थानगतजीवी विह्वलो देही भवति तदा बहिर्गोमयेनोपलिप्तायां भूमौ कुशान्दक्षिणाग्रानास्तीर्य तदुपरि दक्षिणशिरसं स्थापयित्वा सुवर्णरजतगोभूमिदीपतिलपात्राणि दापयेत्।
    गोभिलस्मृति (3।22)-‘दुर्बलं स्नापयित्वा तु शुद्धचैलाभिसंवृतम्। दक्षिणाशिरसं भूमौ बहिष्मत्यां निवेशयेत्।।'

  26. शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 151-152
  27. दानानि च जातूकर्ण्य आह। उत्क्रान्तिवैतरण्यौ च दश दानानि चैव हि। प्रेतेऽपि कृत्वा तं प्रेतं शवधर्मेण दाहयेत्।.....दश दानानि च तेनैवोक्तानि। गोभूतिलहिरण्याज्यवासोधान्यगुडानि च। रूप्यं लवणमित्याहुर्दश दानान्यनुक्रमात्।। शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 152)। और देखिए गरुड़ पुराण (प्रेतखण्ड, 4।4); एपिग्रैफ़िया इण्डिका (जिल्द 19, पृष्ठ 230)।
  28. आसन्नमृत्युना देया गौ: सवत्सा तु पूर्ववत्। तदभावे तु गौरेव नरकोत्तरणाय च।। तदा यदि न शक्नोति दातुं वैतरणीं तु गाम। शक्तोऽन्योऽरुक् तदा दत्त्वा दद्याच्छ्रेयो मृतस्य च।। व्यास (शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 300; शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 153; अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 7)। गरुड़पुराण (प्रेतखण्ड, 4।6) में आया है-'नदीं वैतरणीं तर्तु दद्याद्वैतरणीं च गाम्। कृष्णस्तनी सकृष्णांगी सा वै वैतरणी स्मृता।।' ऐसा आया है कि यम के द्वार पर वैतरणी नाम की नदी है, जो रक्त एवं पैने अस्त्रों से परिपूर्ण है; जो लोग मरते समय गौदान करते हैं, वे उस नदी को गाय की पूँछ पकड़कर पार कर जाते हैं। स्कन्दपुराण 6|226|32-33 जहाँ वैतरणी की चर्चा है; ‘मृत्युकाले प्रचच्छन्ति ये धेनुं ब्राह्मणाय वै। तस्या: पुच्छं समाश्रित्य ते तरन्ति च तां नृप।।’
  29. अन्त्येष्टिपद्धति एवं शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 152-153
  30. अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 3-4
  31. संकल्प यह है-अत्र पृथिव्यां जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तेकदेशे विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्वे.........अमुकतियौ अमुकगोत्र..........अमुकशमहिं ममात्मन: (मम पित्रादे:) व्रतग्रहणदिवसादारभ्य अद्य यावत्फलाभिलाषादिगृहीतानां निष्कामतया गृहीतानां च अमुकामुकव्रतानामकृतोद्यापनदोषपरिहारार्थ श्रुतिस्मृति-पुराणोक्ततत्तदव्रतजन्यसांगफलप्राप्त्यर्थ विष्ण्वादीनां तत्तद्देवानां प्रीपये इदं सुवर्णमग्निदैवतम् (तदभावे इदं रजतं चन्द्रदैवतम्) अमुकगोत्रायामुकशर्मण् ब्राह्मणाय दास्ये ओं तत्सत् न मम इति संकल्प........आदि-आदि (अन्त्यकर्मदीपक, पृष्ठ 4)’।
  32. देशकालौ संकीर्त्य मम (मत्पत्रादेर्वां) ज्ञाताज्ञातकामाकामसकृदसकृत्कायिकवाचिकमानसिकतांसर्गिक-स्पृष्टास्पृष्ट-भुक्ताभुक्त-पीतापीतसकलपातकानुपातकोपपातकलघुपातकसंकरीकरणमलिनीकरणपात्री- करणजातिभ्रंशकरप्रकीर्णकादिनानाविधपातकानां निरासेन देहावसानकाले देहशुद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमिमां सर्वप्रायश्चित्तप्रत्याम्नायभूतां यथाशक्त्यलंकृतां सवत्सां गां रुद्रदेवताममुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे ओं तत्सत् न मम। अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 5)।
  33. गरुड़पुराण 2|4|7-9
  34. गरुड़पुराण 2|4|47
  35. भगवद्गीता (8।5-6) एवं पद्म पुराण (5।47।262)-'मरणे या मति: पुंसां गतिर्भवति तादृशी।'
  36. गौतम-पितृमेधसूत्र 1|1-8
  37. हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र 1|1
  38. अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 18
  39. जपेऽसमर्थश्चेद हृदये चतुर्भुजं शंखचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरकिरीटकेयूरकौस्तुभवनमालाधरं रमणीयरूपं विष्णुं त्रिशूलडमरुधरं त्रिनेत्रं गंगाधरं शिवं वा भावयन् सहस्रनामगीताभागवतभारतरामायणेशावास्याद्युपनिषद: पावमानादीनि सूक्तानि च यथासम्भवं शृणुयात्। अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 18)। विष्णुसहस्रनाम के लिए देखिए अनुशासनपर्व (149|14-120); शिव के 1008 नामों के लिए देखिए वही (17|31-153); और शिव सहस्रनाम के लिए देखिए शान्तिपर्व भी (285|74)।
  40. छान्दोग्योपनिषद (शाण्डिल्य-विद्या, 314|1)
  41. सर्वखल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ खलु क्रतुमय: पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत। छान्दोग्योपनिषद् (3|14|1)। अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।। यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावित:।। भगवद्गीता (8|5-6) देखिए और शंकरभाष्य, वेदान्तसूत्र (1|2|1 एवं 4|1|12)।
  42. प्रश्नोपनिषद 3|10
  43. प्रश्नोपनिषद 8|5
  44. भगवद्गीता 8|6
  45. शुद्धितत्त्व पृष्ठ 299
  46. शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 299-300; शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 155
  47. कूर्मपुराणम्। गंगायां च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले। जले स्थले चान्तरिक्षे गंगासागरसंगमे।। तथा स्कन्दे-तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। अत्र दानं जपो होमो गंगायां नात्र संशय:।। अत्रस्थास्त्रिदिवं यान्ति ये मृता न पुनर्भवा:। शुद्धितत्त्व (पृष्ठ 299-300); शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 155)। पूजारत्नाकरे-शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरि:। तत्सन्निघौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णो: परं पदम्।। लिंगपुराणे-शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्तत:।। कीकटेपि मृतो याति वैकुण्ठभवनं नर:। वैष्णवामृते व्यास:-तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित्। स निर्भर्त्स्य नरं पापी लीलयैव हरिं विशेत्।। प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम्। निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियृतोपि स:।। शुद्धितत्त्व (पृष्ठ 299); शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 155)। कीकट मगध देश का नाम है, जिसे ऋग्वेद (3।53।14) में आर्यधर्म से बाहर की भूमि कहा गया है। और देखिए निरुक्त (6।32) जहाँ कीकट देश को अनार्य निवास कहा गया है। शुद्धिप्रकाश ‘कीकटेपि’ के स्थान पर ‘कीटकोऽपि’ लिखता है जो अधिक समीचीन है, किन्तु यह संशोधन भी हो सकता है।
  48. शान्तिपर्व (298।23, कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृष्ठ 254)
  49. छान्दोग्योपनिषद 4|15|5-6
  50. छान्दोग्योपनिषद 5।10।1-2
  51. छान्दोग्योपनिषद 5|10|3-7
  52. छान्दोग्योपनिषद 5|10|8
  53. बृहदारण्यकोपनिषद 6|2|115-16
  54. भगवद्गीता 8|23-25
  55. वेदान्तसूत्र 4|3|4-6
  56. वेदान्तसूत्र (4|2|20 अतश्चायनेपि दक्षिणे)
  57. याज्ञवल्क्यस्मृति (3|9193-196) 'देवयान' एवं 'पितृयान' के विषय में देखिए ऋग्वेद में भी, यथा-3|58|5; 7|38|8; 7|76|2; 10|51|5; 10|98|11; 10|18|1; 10|2|7 और तैत्तिरीय ब्राह्मण (2|6|3|5); शतपथ ब्राह्मण (1।9।3।2); बृहदारण्यकोपनिषद् (1।5।16)।
  58. बौधायनपितृमेधसूत्र 2।|7|21 एवं गौतमपितृमेधसूत्र 2|7|1-2

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