सदस्य:तीसरी आंख

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पौराणिक व ऐतिहासिक तीर्थराज पुष्कर अजमेर से मात्र 11 किलोमीटर दूर तीर्थराज पुष्कर विश्वविख्यात है और पुराणों में वर्णित तीर्थों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अनेक पौराणिक कथाएं इसका प्रमाण हैं।यहां से प्रागैतिहासिककालीन पाषाण निर्मित अस्त्र-शस्त्र मिले हैं, जो उस युग में यहां पर मानव के क्रिया-कलापों की ओर संकेत करते हैं। पौराणिक दृष्टि से पुष्कर के निर्माण की गाथाएं रहस्य और रोमांच से परिपूर्ण हैं। इनका उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है। पद्मपुराण के सृष्टि खंड में लिखा है कि किसी समय वज्रनाभ नामक एक राक्षस इस स्थान में रह कर ब्रह्माजी के पुत्रों का वध किया करता था। ब्रह्माजी ने क्रोधित हो कर कमल का प्रहार कर इस राक्षस को मार डाला। उस समय कमल की जो तीन पंखुडिय़ां जमीन पर गिरीं, उन स्थानों पर जल धारा प्रवाहित होने लगी। कालांतर में ये ही तीनों स्थल ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर व कनिष्ठ पुष्कर के नाम से विख्यात हुए। ज्येष्ठ पुष्कर के देवता ब्रह्मा, मध्य के विष्णु व कनिष्ठ के देवता शिव हैं। मुख्य पुष्कर ज्येष्ठ पुष्कर है और कनिष्ठ पुष्कर बूढ़ा पुष्कर के नाम से विख्यात हैं, जिसका हाल ही जीर्णोद्धार कराया गया है। इसे बुद्ध पुष्कर भी कहा जाता है। पुष्कर के नामकरण के बारे में कहा जाता है कि ब्रह्माजी के हाथों (कर) से पुष्प गिरने के कारण यह स्थान पुष्कर कहलाया। राक्षस का वध करने के बाद ब्रह्माजी ने इस स्थान को पवित्र करने के उद्देश्य से कार्तिक नक्षत्र के उदय के समय कार्तिक एकादशी से यहां यज्ञ किया, जिसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया। उसकी पूर्णाहुति पूर्णिमा के दिन हुई। उसी की स्मृति में यहां कार्तिक माह एकादशी से पूर्णिमा तक मेला लगने लगा। पद्म पुराण के अनुसार यज्ञ को निर्विघ्न पूरा करने के लिए ब्रह्माजी ने दक्षिण दिशा में रत्नागिरी, उत्तर में नीलगिरी, पश्चिम में सोनाचूड़ और पूर्व दिशा में सर्पगिरी (नाग पहाड़) नामक पहाडिय़ां बनाईं थीं। परम आराध्या देवी गायत्री का जन्म स्थान भी पुष्कर ही माना जाता है। कहते हैं कि यज्ञ शुरू करने से पहले ब्रह्माजी ने अपनी पत्नी सावित्री को बुला कर लाने के लिए अपने पुत्र नारद से कहा। नारद के कहने पर जब सावित्री रवाना होने लगी तो नारद ने उनको देव-ऋषियों की पत्नियों को भी साथ ले जाने की सलाह दी। इस कारण सावित्री को विलंब हो गया। यज्ञ के नियमों के तहत पत्नी की उपस्थिति जरूरी थी। इस कारण इन्द्र ने एक गुर्जर कन्या को तलाश कर गाय के मुंह में डाल कर पीठ से निकाल कर पवित्र किया और उसका ब्रह्माजी के साथ विवाह संपन्न हुआ। इसी कारण उसका नाम गायत्री कहलाया। जैसे ही सावित्री यहां पहुंची और ब्रह्माजी को गायत्री के साथ बैठा देखा तो उसने क्रोधित हो कर ब्रह्माजी को श्राप दिया कि पुष्कर के अलावा पृथ्वी पर आपका कोई मंदिर नहीं होगा। इन्द्र को श्राप दिया कि युद्ध में तुम कभी विजयी नहीं हो पाआगे। ब्राह्मणों को श्राप दिया कि तुम सदा दरिद्र रहोगे। गाय को श्राप दिया कि तू गंदी वस्तुओं का सेवन करेगी। कुबेर को श्राप दिया कि तुम धनहीन हो जाओगे। यज्ञ की समाप्ति पर गायत्री ने सभी को श्राप से मुक्ति दिलाई और ब्राह्मणों से कहा कि तुम संसार में पूजनीय रहोगे। इन्द्र से कहा कि तुम हार कर भी स्वर्ग में निवास करोगे।

वाल्मिकी रामायण में भी पुष्कर का उल्लेख है। अयोध्या के राजा त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग में भेजने के लिए अपना सारा तप दाव लगा देने के लिए विश्वामित्र ने यहां तप किया था। यह उल्लेख भी मिलता है कि अप्सरा मेनका भी पुष्कर के पवित्र जल में स्नान करने आयी थी। उसको देख कर ही विश्वामित्र काम के वशीभूत हो गए थे। वे दस साल तक मेनका के संसर्ग में रहे, जिससे शकुन्तला नामक पुत्र की जन्म हुआ। भगवान राम ने अपने पिताश्री दशरथ का श्राद्ध मध्य पुष्कर के निकट गया कुंड में ही किया था। महाभारत के वन पर्व के अनुसार श्रीकृष्ण ने पुष्कर में दीर्घकाल तक तपस्या की।  

महाभारत में महाराजा युधिष्ठिर के यात्रा वृतांत के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि महाराजा को जंगलों में होते हुए छोटी-छोटी नदियों को पार करते हुए पुष्कर के जल में स्नान करना चाहिए। महाभारत काल की पुष्टि करते कुछ सिक्के भी खुदाई में मिले हैं। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास काल के कुछ दिन पुष्कर में ही बिताए थे। उन्हीं के नाम पर यहां पंचकुंड बना हुआ है। सुभद्रा हरण के बाद अर्जुन ने पुष्कर में कुछ समय विश्राम किया था। अगस्त्य, वामदेव, जामदग्रि, भर्तृहरि ऋषियों की तपस्या स्थली के रूप में उनकी गुफाएं आज भी नाग पहाड़ में हैं। बताया जाता है कि पाराशर ऋषि भी इसी स्थान पर उत्पन्न हुए थे। उन्हीं के वशंज पाराशर ब्राह्मण कहलाते हैं। पुष्कर में है लुप्त सरस्वती! ऐसी मान्यता है कि वेदों में वर्णित सरस्वती नदी पुष्कर तीर्थ और इसके आसपास बहती है। पुष्कर के समीपर्ती गनाहेड़ा, बांसेली, चावंडिया, नांद व भगवानपुरा की रेतीली भूमि में ही सरस्वती का विस्तार था। पद्म पुराण के अनुसार देवताओं ने बड़वानल को पश्चिमी समुद्र में ले जाने के लिए जगतपिता ब्रह्मा की निष्पाप कुमारी कन्या सरस्वती से अनुरोध किया तो वह सबसे पहले ब्रह्माजी के पास यहीं पुष्कर में आशीर्वाद लेने पहुंची। वह ब्रह्माजी के सृष्टि रचना यज्ञ स्थली की अग्रि को अपने साथ लेकर आगे बढ़ीं। महाभारत के शल्य पर्व (गदा युद्ध पर्व) में एक श्लोक है-पितामहेन मजता आहूता पुष्करेज वा सुप्रभा नाम राजेन्द्र नाम्नातम सरस्वती। अर्थात पितामह ब्रह्माजी ने सरस्वती को पुष्कर में आहूत किया। बताते हैं कि नांद, पिचौलिया व भगवानपुरा जिस नदी से सरसब्ज रहे, वह नंदा सरस्वती ही मौलिक रूप से सरस्वती नदी है। इसके बारे में पद्म पुराण में रोचक कथा है। इसके अनुसार राजा प्रभंजन कुमार ने बच्चे को दूध पिलाती एक हिरणी को तार दिया तो हिरणी के श्राप से एक सौ साल तक नरभक्षी बाघ बने रहे। उसने श्राप मुक्ति का उपाय पूछा तो हिरणी ने बताया कि नंदा नाम की गाय से वार्तालाप से मुक्ति मिलेगी। एक सौ साल पूरे होने पर बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। गाय ने जैसे ही बताया कि वह नंदा है तो बाघ वापस राजा प्रभंजन के रूप में अवतरित हो गया। गाय की सच्चाई से प्रसन्न हो धर्मराज ने वचन दिया यहां वन में बहने वाली सरस्वती नदी नंदा के नाम से पुकारी जाए। ऐसी मान्यता है कि लुप्त सरस्वती नदी ही पुष्कर में पांच धाराओं सुप्रभा, सुधा, कनका, नन्दा व प्राची सरस्वती के रूप में प्रकट हुई है। इस पांच धाराओं में से प्रथम तीन तो क्रमश: ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ पुष्कर में गिरती है और शेष को नन्दा व प्राची सरस्वती नन्दा के पास मिलती है और आगे यही धारा लूनी नदी के नाम से जानी जाती है। ऐतिहासिक पुष्कर बताया जाता है कि कभी इस स्थान पर मेड़ (मेर) जाति के आदिवासी निवास करते थे। उनके नाम पर इस पूरे प्रदेश का नाम मेरवाड़ा कहा जाता था। ईस्वी शताब्दी के प्रारंभ में यह क्षेत्र तक्षकों के अधिकार में रहा। इन तक्षकों को नाग भी कहा जाता था। इनका बौद्धों से वैमनस्य था। बौद्धों व हूणों के बार-बार आक्रमण के कारण ये पहाडिय़ां बदल-बदल कर आखिर वहां पहुंचे, जहां पुष्कर तीर्थ था। उन्होंने यहां से मेड़ों को मार भगाया। नाग पर्वत उनकी स्मृति का प्रतीक है। इतिहास की करवट के साथ यह आदिवासी क्षेत्र राजपूतकाल में परमार शासकों के अधीन आ गया। उस समय इस क्षेत्र को पद्मावती कहा जाने लगा। नाग व परमार दोनों ही जैन धर्मानुयायी जातियां रहीं। ब्राह्मणों से उनके संघर्ष के अनेक उदाहरण पुराणों में उपलब्ध हैं। जोधपुर के निकट मंडोर के परिहार राजपूत राजाओं व मेरवाड़ा के गुर्जर राजाओं व जागीरदारों की मदद से ब्राह्मणों ने इन जैन परमारों को सत्ताच्युत कर दिया। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के कुछ शिलालेख मिले हैं, जिनमें वर्णित प्रसंगों के आधार पर कहा जाता है कि हिंदुओं के समान ही बौद्धों के लिए भी पुष्कर पवित्र स्थान रहा है। भगवान बुद्ध ने यहां ब्राह्मणों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। फलस्वरूप बौद्धों की एक नई शाखा पौष्करायिणी स्थापित हुई। शंकराचार्य, जिनसूरी जिन वल्लभ सूरी, हिमगिरि, पुष्पक, ईशिदत्त आदि विद्वानों के नाम पुष्कर से जुड़े हुए हैं। चौहान राजा अरणोराज के काल में विशाल शास्त्रार्थ हुआ था। इसमें अजमेर के जैन विद्वान जिन सूरी और जिन वल्लभ सूरी ने भाग लिया था। पांच सौ साल पहले निम्बार्काचार्य परशुराम देवाचार्य निकटवर्ती निम्बार्क तीर्थ से रोज यहां स्नानार्थ आते थे। वल्लभाचार्य महाप्रभु ने यहां श्रीमद्भागवत कथा की। गुरुनानक देव ने यहां ग्रंथ साहब का पाठ किया और सन् 1662 में गुरु गोविंद सिंह ने भी गऊघाट पर संगत की। ईसा पश्चात 1809 में मराठा सरदारों ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। यही वह स्थान है, जहां गुुरु गोविंदसिंह ने संवत् 1762 (ईसा पश्चात 1705) में गुरुग्रंथ साहब का पाठ किया। सन् 1911 ईस्वी बाद अंग्रेजी शासनकाल में महारानी मेरी ने यहां महिलाओं के लिए अलग से घाट बनवाया। इसी स्थान पर महात्मा गांधी की अस्थियां प्रवाहित की गईं, तब से इसे गांधी घाट भी कहा जाता है। मारवाड़ मंडोर के प्रतिहार नरेश नाहडऱाव ने पुष्कर के जल से कुष्ठ रोग से मुक्ति पर पुष्कर सरोवर की खुदाई की, घाट व धर्मशाला बनवाई। हर्षनाथ मंदिर (सीकर) में मिले सन् 1037 के एक शिलालेख के अनुसार चौहान राजा सिंहराज ने हर्षनाथ मंदिर बनवाया। राणा मोकल ने वराह मंदिर में अपने को स्वर्ण से तुलवा कर ब्राह्मणों को दान में दिया। जोधपुर, जयपुर, कोटा, भरतपुर आदि रियासतों के राजाओं ने घाट बनवाए। पुष्कर जैनों को भी पवित्र तीर्थ रहा है। जैनों की पट्टावलियों व वंशावलियों में यह क्षेत्र पद्मावती के नाम से विख्यात था। जिनपति सूरी ने ईसा पश्चात 1168, 1188 व 1192 में इस स्थान की यात्रा की और अनेक लोगों को दीक्षा दी। वराह मंदिर के पास हुआ घमासान पुष्कर में पौराणिक महत्व का वराह मंदिर एक घमासान युद्ध का गवाह रहा है। यहां औरंगजेब और जोधपुर के महाराज अजीत सिंह के बीच हुए युद्ध में दोनों ओर के सात हजार सैनिक शहीद हुए थे। अजमेर के सूबेदार तहव्वुर खान को विजय मिली और उत्सव मनाने के लिए उसने एक हजार गायें काटने का ऐलान किया। इस पर राजपूतों ने फिर युद्ध कर तहव्वुर को भगा दिया। जीत की खुशी में गाय की प्रतिमा स्थापित की। यही प्रतिमा आज गऊ घाट पर विद्यमान है। गऊ घाट के पास शाही मस्जिद तहव्वुर ने बनवाई थी। युद्ध में कईं झुंझार भी हुए जो सिर कटने के बाद भी तलवारबाजी करते रहे। उनके स्थान हायर सेकंडरी स्कूल के पास बने हुए हैं। ह्न