(1) दिल्ली (नवनीत पाण्डे द्वारा)
दिल्ली
केवल नाम नहीं है किसी शहर का
पहचान है एक देश की
प्राण है एक देश का
यह अलग बात है-
दिल्ली में एक नहीं
कई दिल्लियां हैं-
पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली,
दिल्ली कैंट, दिल्ली सदर आदि- आदि
हर दिल्ली के अपने रंग,
अपने क़ानून - क़ायदे
आपकी दिल्ली, मेरी दिल्ली
ज़ामा मस्ज़िद वाली दिल्ली
बिड़ला मंदिर वाली दिल्ली
शीशगंज गुरुद्वारे वाली दिल्ली
चर्चगेट वाली दिल्ली
साहित्य अकादमी वाली दिल्ली
हिन्दी ग्रंथ अकादमी वाली दिल्ली
एनएसडी वाली दिल्ली
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वाली दिल्ली
महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वाली दिल्ली
दिल्ली की सोच में
दिल्ली दिल वालों की है
दिल्ली से बाहर की खबर के अनुसार
दिल्ली दिल्ली वालों की है
दिल्ली किसकी है?
इस प्रश्न का सही- सही उत्तर
स्वयं दिल्ली के पास भी नहीं है
वह तो सभी को अपना मानती है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
पहुंचता है दिल्ली का अख़बार
हर गली, गांव, शहर की दीवारें उठाए हैं
दिल्ली के इष्तहार
आंखे देखती हैं- दिल्ली
कान सुनते हैं- दिल्ली
होंठ बोलते हैं- दिल्ली
सब करते हैं-
दिल्ली का एतबार
दिल्ली का इंतज़ार
दिल्ली की जयकार
पैरों में पंख लग जाते हैं
सुनते ही दिल्ली की पुकार
दुबक जाते हैं सुनते ही
दिल्ली की फटकार
दिल्ली की ललकार
सब को जानती है दिल्ली
सब को छानती है दिल्ली
सब को पालती है दिल्ली
सब को ढालती है दिल्ली
दिल्लीः
अर्थात् प्रेयसी का दिल
दिल्लीः
अर्थात् प्रेमी की मंजिल
दिल्लीः
अर्थात् सरकार
दिल्लीः
अर्थात् दरबार।[1]
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(2) दिल्ली (ग़ुलाम मोहम्मद शेख द्वारा)
टूटे टिक्कड़ जैसे किले पर
कच्ची मूली के स्वाद की-सी धूप
तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन
परछाइयों में कमान, कमान में परछाइयाँ;
खिड़की मस्जिद
आँखों को बेधकर सुई की मानिंद
आर-पार निकलती
जामा-मस्जिद की सीढ़ियों की क़तार
पेड़ की जड़ों से अन्न नली तक उठ खड़ा होता क़ुतुब
चारों ओर महक
अनाज की, माँस की, ख़ून की, जेल की, महल की
बीते हुए कल की, सदियों की
साँस इस क्षण की
आँख आज की उड़ती है इतिहास में
उतरती है दरार में ग़ालिब की मजार की
भटकती है ख़ानखानान की अधखाई हड्डी की खोज में
ओढ़ जहाँआरा की बदनसीबी को
निकल पड़ती है मक़बरा दर मक़बरा ।
अभी भी धूल, अभी भी कोहरा
अब भी नहीं आया कोई फ़र्क माँस ओर पत्थर में
लाल किले की पश्चिमी कमान में सोई
फ़ाख्ता की योनि की छत से होती हुई
घुपती है मेरी आँख में
किरण एक सूर्य की।
अभी तो भोर ही है
सत्य को संभोगते हैं स्वप्न
सवेरा कैसा होगा ?[2]
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