शबरीमलै मंदिर

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शबरीमलै मंदिर या श्री अय्यप्पा मंदिर केरल राज्य के पतनमतिट्टा ज़िले में स्थित यहाँ के प्राचीनतम प्रख्यात मंदिर में से एक माना जाता है। घनाच्छदित आकाश, पहाड़ियों से घिरी मनोहर घाटी, नीचे पंपा नदी की अठखेलियाँ करती निर्मल जलधारा, पहाड़ियों के बीच सर्प आकृति-सी सड़क, सिर पर इरुमुडी धारण किये भक्तों की टोली अपने इष्टदेव शबरीमलै के मंदिर की ओर जाती है। कहा जाता है कि इस मंदिर में भगवान की स्थापना स्वयं परशुराम ने की थी और यह विवरण रामायण में भी मिलता है।

मान्यता

तीर्थ यात्री पंपा में आकर मिलते हैं। पंपा त्रिवेणी का महत्व उत्तर हिन्दुस्तान के प्रयाग त्रिवेणी से कम नहीं है और इस नदी को गंगा सद्दश समझा गया है। भक्तजन पंपा त्रिवेणी में स्नान करते हैं और दीपक जलाकर बहाते हैं। इसके बाद ही शबरीमलै की ओर प्रस्थान करते हैं।

पंपा त्रिवेणी में स्नान के बाद भग्तगण यहाँ गणपति की पूजा करते हैं। मान्यता है कि पंपा त्रिवेणी ही वह जगह है, जहाँ पर भगवान श्रीराम को उनके पिता राजा दशरथ के देहावसान की सूचना मिली थी और उन्होंने यहीं पर उनकी आत्मा की शांती के लिए पूजा भी की थी। गणपति पूजा के बाद तीर्थ यात्री चढ़ाई शुरू करते हैं। पहला पड़ाव है शबरी पीठम। कहा जाता है कि रामावतार युग में शबरी नामक भीलनी से इसी स्थान पर तपस्या की थी। श्री अय्यप्पा के अवतार के बाद ही शबरी को मुक्ति मिली थी।

उपासना

मुरकुडम यहाँ सुब्रह्मण्यम मार्ग और नीलगिरी के मार्ग आपस में मिलते हैं। आगे हैं, शरणमकुट्टी। पहली बार आने वाले भक्त यहाँ पर शर (बाण) गाड़ते हैं। शबरीमलै मंदिर परिसर में श्री अय्यप्पा स्वामी का मंदिर मुख्य है, जिसके सामने पवित्र अठारह सीढ़ियाँ हैं। ऊपरी सतरह पर कन्नीमेल गणपति और नागराज की प्रतिमा है। निचली सतह पर एक मुसलमान संत बाबर स्वमी (जो भगवान अय्यप्पा के भक्त थे) और कुरुप स्वामी कीए प्रतिमा है। उत्तर पश्चिम की ओर श्री मल्किकापुरतम्मा देवी, नवग्रह देवत, मलनटयिल भगवती, नाग देवता इत्यादि के मंदिर हैं। अठारह पवित्र सीढ़ियों के पास भक्तजन घी से भरा हुआ नारियल फोड़ते हैं। इसके पास ही एक हवन कुण्ड है। घृताभिषेक के लिए जो नारियल लाया जाता है, उसका एक टुकड़ा इस हवन कुण्ड में भी डाला जाता है और एक अंश भगवान के प्रसाद के रूप में लोग अपने घर ले जाते है।

दर्शन की विधियाँ

सीढियों से चढ़कर, भक्तजन सबसे पहले एक ध्वजदंड के नीचे पहुँचते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए शिल्पकार का प्रबंध स्वयं भगवान देवेन्द्र ने किया था। इसका निर्माण कार्य विश्वकर्मा के के सान्निध्य में पूरा हुआ। बाद में श्री परशुराम ने भगवान की स्थापना यहाँ मकर संक्रांति के दिन की। इस मंदिर में दर्शन की विधियाँ निधीरिम हैं। भक्तों को यहाँ आने से पहले इकतालीस दिन तक समस्त लौकिक बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है।

इस अवधि में उन्हें नीले अथवा काले कपड़े ही पहनने की अनुमति है। गले में तुलसी की माला रखनी होती है। पूरे दिन में केवल एक बार ही साधारण भोजन का प्रावधान है। शाम को पूजा अर्चना करनी होती है और जमीन पर ही सोना होता है।

इस व्रत की पूणार्हूति पर एक गुरु स्वामी के निर्देशन में पूजा करनी होती है। मंदिर यात्रा के दौरान उन्हें सिर पर इरुमुडी रखनी होती है। इरुमुड़ी का अर्थ है दो थैलियाँ, एक थैला। एक में घी से भरा हुआ नारियल व पूजा सामग्री होती है तथा दूसरे में भोजन सामग्री, उन्हें शबरी पीठ की परिक्रमा भी करनी होती है, तब जाकर अठारह सीढियों से होकर मंदिर में प्रवेश मिलता है। धारणा है कि भगवान श्री अय्यप्पा ने महिषी से वादा किया था कि जिस वर्ष कोई नया अय्यप्पा भक्त शबरीमलै नहीं आएगा, उसी वर्ष उससे विवाह करेंगे।

महिलाओं का प्रवेश निषेध

श्री शबरीमलै मंदिर में दस वर्ष से पचास वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश निषेध है। अठारह सीड़ियों से होकर जाने का अधिकार भी केवल कठिन व्रत रखने वाले भक्तों के लिए ही है, शेष लोग दूसरे रास्ते से मंदिर परिसर में प्रवेश कर सकते हैं।

घी का अभिषेक

शबरीमलै मंदिर में भगवान की पूजा का एक प्रसिद्ध अंश है- घी का अभिषेक। श्रद्धालुओं द्वारा लाए गए घी को सबसे पहले एक सोपन में इकट्ठा किया जाता है, फिर इस घी से भगवान का अभिषेक किया जाता है।

भगवान के आभूषण

पूजा के समय भगवान के आभूषण पंतलम नरेश के महल से सन्निधाम मंदिर में भक्तों की शोभा यात्रा के साथ लाये जाते हैं। यह शोभा देखते ही बनती है। माना जाता है कि जब यह आभूषण मंदिर की ओर ले जाये जाते हैं, उस समय अविश्वसनीय रूप से एक बाज आकाश में घेरा डालकर उड़ता रहता है। भगवा पर आभूषण चढ़ाने के पक्षात यह बाज मंदिर की तीन बार परिक्रमा कर गायब हो जाता है। मंदिर परिसर में उत्तर ई ओर नागराज और नागयक्ष की मूर्तियाँ है। संतान प्राप्ति के लिए यहाँ सर्पगीत गंवाने की परिपाटी है।

आस्था

शबरीमलै तीर्थ मनुष्य की आत्मा की यात्रा है। प्रत्येक जाति, धर्म के लोग (हिन्दु-मुसलमान-ईसाई), सब सम भक्ति भाव से यहाँ आते हैं। बच्चे, बूढ़े, नवयुवक सभी स्वामी शरणम का उच्चारण करते हुए यहाँ आते हैं। यहाँ शेष सारी बातें गौण हो जाती है, भक्ति, आस्था, लगन ही द्दष्टिगोचर होती है। यहा अपूर्व श्रद्धा, भक्ति, सहिणष्णुता, त्याग व धर्म निरपेक्षता की झांकी देखने को मिलती है।


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