वैदिककालीन कृषि

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ऋग्वैदिक काल में राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था। वह विशेष रूप से युद्धकालीन स्वामी होता था। ऋग्वेद में दो प्रकार के सिंचाई का उल्लेख है-

  1. खनित्रिमा (खोदकर प्राप्त किया गया जल)
  2. स्वयंजा (प्राकृतिक जल)

ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कथन है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना सिखाया। ऋग्वेद में एक स्थान पर अपाला ने अपने पिता अत्रि से खेतों की समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में हांसिया (दात्र, सृणि), कोठार (स्थिति), गठ्टर (वर्ष), चलनी (तिउत), सूप (शूर्प), अनाज का ओसने वाला (धान्यकृत) आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में खेती की प्रक्रिया का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में 5 प्रकार के चावल का उल्लेख है। महाब्राहि, कृष्णव्रीहि, शुक्लव्रीही, आशुधान्य और हायन। अथर्ववेद में यह उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम पृथुवेन्य ने ही कृषि कार्य किया था। शतपथ ब्राह्मण मे कृषि विषय पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है। इसी के खेत जोतने के लिए कर्षण, बोने के लिए (वपन), कटाने के लिए (कर्तन) तथा माड़ने के लिए मर्दन का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में 6,8 और 12 बैलों को हल में जोते जाने का वर्णन है तथा शतपथ ब्राह्मण में 6 से 24 बैलों को हल द्वारा चलाने की बात है। अथर्ववेद में कृषि दासियों का उल्लेख मिलता है, इसी में सिंचाई के लिए नहर खोदने तथा टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने की जानकारी मिलती है। श्रमिक वर्ग के अन्तर्गत भूसी साफ करने वाले को उपप्रक्षणी कहा जाता था। खिल्य भूमि की माप ईकाई थी। भूमिकर व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हो गया था जिसके लिए -उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति शब्द वैदिक संहिताओं में मिलते हैं। पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिह्न लगा दिये जाते थे। गाय को अवट कर्णी कहा जाता था। वैदिक काल में राज कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध में विजय की कामना से राजा प्रजा के साथ एक ही थाली में भोजन करता था।


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