श्रीकांत उपन्यास भाग-16

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इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श पर कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ।

बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? सनकीपन में कुछ कह दिया तो क्या उसका यह मतलब है कि दाता कर्ण बनना ही पड़ेगा? न जाने कहाँ की इस लड़की ने बिना माँगे ही ट्रेन में पेड़े और दही खिलाकर मुझे तो अच्छा फन्दे में फाँसा! एक फन्दे को काटते हुए एक दूसरे फन्दे में फँस गया। बचने का उपाय सोचते हो दिमाग गर्म हो गया, और उस निरीह लड़की के प्रति क्रोध और विरक्ति की सीमा न रही। और यह शैतान बाबा! मनाने लगा कि वह अब घर न पहुँच सके, रास्ते में ही सर्दी-गर्मी से मर जाय। पर यह आशा भित्तिहीन है। अच्छी तरह जानता हूँ कि वह आदमी किसी तरह भी नहीं मरेगा और जब उसे मेरे मकान का पता एक बार चल गया है तो फिर आयेगा, तथा चाहे जैसे भी हो, रुपये वसूल करेगा। हो सकता है कि इस बार उन्हीं हाकिम फूफा महाशय को भी साथ लावे। एक ही उपाय है- य: पलायति स जीवति। टिकिट खरीदने गया, पर जहाज में स्थानाभाव- सब टिकिट पहले से ही बिक गये हैं। अत: दूसरी मेल का इनतजार करना होगा और उसमें अभी छह-सात दिन की देर है।

एक उपाय और है, कि मकान बदल दिया जाय, बाबा को खोजने पर भी न मिले। पर इतनी अच्छी जगह इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? किन्तु शिकारी के हाथों प्राण बचाने के सम्बन्ध में हालत ऐसी नाजुक हो गयी है कि अच्छे-बुरे का प्रश्न ही गौण है- यथारण्यं तथा गृहम्।

डर है कि मेरा गुप्त उद्वेग कहीं रतन की नज़रों में न आ जाय। पर मुश्किल तो यह है कि वह यहाँ से टलना ही नहीं चाहता। काशी की अपेक्षा उसे कलकत्ता ज्यादा पसन्द आ गया है। पूछा, "चिट्ठी का जवाब लेकर क्या तुम कल ही जाना चाहते हो, रतन?"

रतन ने फौरन ही जवाब दिया, "जी नहीं। आज दोपहर को मैंने माँ को एक पोस्ट कार्ड डाल दिया है कि लौटने में मुझे चार-पाँच दिन की देर होगी। मृत सोसायटी (=अजायबघर) और जीवित सोसायटी (=चिड़ियाखाना) बिना देखे नहीं जाऊँगा। अब फिर कब आना हो, इसका तो कोई ठिकाना नहीं।"

मैंने कहा, "पर वे तो उद्विग्न हो सकती हैं?"

"जी नहीं। लिख दिया है कि गाड़ी में लगे हुए धक्कों की थकान अभी तक दूर नहीं हुई है।"

"पर चिट्ठी का जवाब..."

"जी, दीजिए न। कल ही रजिस्ट्री से भेज दूँगा। उस मकान में माँ की चिट्ठी खोलने का साहस यम भी नहीं करेगा।"

चुपचाप बैठा रहा। नाई-बेटे के सामने एक भी तरकीब नहीं चली। सब प्रस्तावों को रद्द कर दिया।

जाते वक्त बाबा रुपयों की बात प्रचार कर गये थे। परन्तु कोई इस बात का भ्रम न कर ले कि उन्होंने हृदय की उदारता या अधिक सरलता के कारण ऐसा किया हो। वे तो ऐसा करके गवाह बना गये हैं!

रतन ने ठीक इसी बात का अन्दाज लगाया। कहा, "बाबू, अगर आप नाराज़ न हों तो एक बात कहूँ।"

"क्या बात रतन?"

रतन ने कुछ संकोच के साथ कहा, "ढाई हजार रुपये तो कम रकम नहीं है बाबू, वे कौन होते हैं जिनकी शादी के लिए आपने इतना रुपया खामख्वाह देने को कहा है? इसके अलावा वह बूढ़ा बाबा हो या और कोई, लेकिन अच्छा आदमी नहीं है। उसे देने कहना अच्छा नहीं हुआ बाबू।"

उसका मन्तव्य सुनकर जैसे अनिर्वचनीय आनन्द मिला वैसे ही मन को जोर भी मिला और यही मैं चाहता था। तथापि, अपनी आवाज में किंचित् सन्देह का आभास देकर बोला, "कहना ठीक नहीं हुआ- क्यों रतन?"

रतन बोला, "हाँ बाबू, निश्चय ठीक नहीं हुआ। रुपये भी तो कम नहीं हैं, और फिर किसलिए, कहिए तो?"

"ठीक तो है।" मैंने कहा, "तो नहीं देंगे।"

आश्चर्य से थोड़ी देर तक देखने के बाद रतन ने कहा, "वह छोड़ेगा क्यों?"

मैंने कहा, "नहीं छोड़ेगा तो क्या करेगा? लिखकर तो दिया ही नहीं है और फिर, यही कौन जानता है कि उस वक्त मैं यहाँ रहूँगा या बर्मा चला जाऊँगा?"

रतन क्षणभर चुप रहकर हँसा। बोला, "बाबू आप बूढ़े को पहिचान नहीं सके। उस आदमी को शर्म और मान-अपमान छू तक नहीं गया है। रो-धोकर, भीख माँगकर या डरा-धमकाकर वह रुपये किसी-न-किसी तरह लेगा ही। अगर यहाँ आपसे मुलाकात न होगी तो लड़की को साथ लेकर वह काशी जायेगा और माँ से रुपया वसूल करके छोड़ेगा! माँ को बहुत शर्म आयेगी बाबू, यह तरीका ठीक नहीं है।"

यह सुनकर निस्तब्ध हो बैठा रहा। रतन मुझसे बहुत ज्यादा बुद्धिमान है। अर्थहीन आकस्मिक करुणा की हठ का जुर्माना मुझे देना ही पड़ेगा, कोई निस्तार नहीं।

रतन ने गाँव के बाबा को पहचानने में गलती नहीं की, यह तब समझ में आया जबकि चौथे दिन वे फिर लौटकर आये। आशा थी कि इस बार हाकिम फूफा भी उनके साथ अवश्य आवेंगे- पर हाजिर हुए वे अकेले ही। बोले, "बेटा, दस गाँवों में धन्य-धन्य हो रहा है। सब कहते हैं कि कलियुग में ऐसा कभी नहीं सुना। गरीब ब्राह्मण की कन्या का ऐसा उद्धार कभी किसी ने नहीं देखा। आशीर्वाद देता हूँ कि तुम चिरंजीवी होओ।"

पूछा, "शादी कब है?"

"इसी महीने की पच्चीस तारीख ठीक हुई है, बीच में दस दिन बाकी हैं। कल 'देखना' पक्का हो जायेगा, आशीर्वाद-करीब तीन बजे के बाद मुहूर्त नहीं है, इसके भीतर ही सब शुभ कार्य पूरे कर लेने होंगे। पर बिना तुम्हारे गये सब बन्द रहेगा, कुछ भी नहीं हो सकेगा। यह लो अपनी पूँटू की चिट्ठी, उसने अपने हाथ से लिखकर भेजी है। पर यह भी कहे देता हूँ बेटा, कि जिस रत्न को तुमने अपनी इच्छा से खो दिया, उसका जोड़ नहीं है।" यह कहकर उन्होंने एक पीले रंग का मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा मेरे हाथों में दे दिया।

कुतूहलवश चिट्ठी पढ़ने की कोशिश की। बाबा ने अचानक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर कहा, "कालिदास रुपये वाला है तो क्या हुआ, बिल्कुाल नीच है- चमार। उसके लिए ऑंख की शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं। कल ही रुपया-पैसा सब नकद चुकाना होगा- गहने वगैरह अपने सुनार से बनवायेगा। वह किसी का विश्वास नहीं करता, यहाँ तक कि मेरा भी नहीं।"

उस आदमी में बड़ी खराबी है। बाबा तक का विश्वास नहीं करता- आश्चर्य।

पूँटू ने अपने हाथ से पत्र लिखा है। एक-दो पेज नहीं, बल्कि ठसाठस भरे हुए चार पेज। चारों पेजों में कातरता के साथ विनती है। ट्रेन में राँगा दीदी ने कहा था कि आजकल के नाटक-नॉविल भी हार मान लें। केवल आजकल के ही क्यों, सर्वकाल के नाटक-नॉविल हार मान लेंगे- यह अस्वीकार नहीं करूँगा। इस बात का विश्वास हो गया कि इस लिखने के प्रभाव से ही नन्दरानी का पति चौदह दिन की छुट्टी लेकर सातवें दिन ही आकर हाजिर हो गया था।

अतएव, दूसरे दिन सुबह मैं भी चल दिया और बाबा ने इसकी जाँच खुद अपनी ऑंखों से कर ली कि मैंने रुपये सचमुच ही अपने साथ ले लिये हैं, कोई प्रतारणा तो नहीं कर रहा हूँ। बोले-

"रास्ता चलना देखकर, रुपया लेना ठोक कर। अरे भाई, हम देवता तो हैं नहीं, आदमी हैं- भूल होते क्या देर लगती है?"

ठीक तो है! रतन कल रात को ही काशी चला गया है। उसके हाथों चिट्ठी का जवाब भेज दिया है। लिख दिया है- तथास्तु। पता इस वजह से न दे सका कि कोई ठीक नहीं है। इस त्रुटि के लिए अपने गुण से क्षमा कर नेकी भी प्रार्थना कर दी है।

यथासमय गाँव पहुँचा, मकान के सब आदमियों की दुश्चिन्ता दूर हुई। जो आदर और सम्मान मिला, उसे बताने के लिए कोश में शब्द नहीं हैं।

सम्बन्ध पक्का करने और आशीर्वाद देने के उपलक्ष्य में कालिदास बाबू से परिचय हुआ। वह जैसे सूखे मिजाज के हैं वैसे ही दम्भी भी। सबको यह स्मरण कराने के अलावा कि वे बहुत रुपये वाले हैं, ऐसा नहीं मालूम पड़ा कि संसार में और कोई दूसरा कर्त्तव्य उनका है। सारा धन खुद उन्हीं का कमाया हुआ है। बड़े घमण्ड से कहा, "जनाब, किस्मत को मैं नहीं मानता, जो कुछ करूँगा वह सब अपने बाहुबल से। देवी-देवताओं के अनुग्रह की भिक्षा भी मैं नहीं माँगता। मैं कहता हूँ कि देवता की दुहाई कापुरुष देते हैं।"

बड़े आदमी और छोटे-मोटे ताल्लुकेदार होने के कारण उनके यहाँ गाँव के प्राय: सब आदमी उपस्थित थे, और शायद अधिकांश के वे महाजन थे और बहुत कड़े महाजन- अतएव सबने ही एक स्वर से उनकी बातें मान लीं। तर्करत्न महाशय ने एक संस्कृत का श्लोक सुनाया, और आसपास से उसके सम्बन्ध में दो-एक पुरानी कहानियों का भी सूत्रपात हुआ।

उन्होंने एक अपरिचित और साधारण व्यक्ति समझकर मेरी ओर असम्मान पूर्ण दृष्टि से देखा। उस वक्त रुपयों के दु:ख से मेरा हृदय जल रहा था। वह दृष्टि मुझे सहन नहीं हुई। मैं एकाएक बोल उठा, "यह तो नहीं जानता किस परिमाण में आप में बाहुबल है, पर यह मैं स्वीकार करता हूँ कि रुपये कमाने का जहाँ तक सवाल है, आपका बाहुबल प्रबल है।"

"इसके मानी?"

मैंने कहा, "मानी खुद मैं। न तो वर को पहचानता हूँ और न कन्या को, फिर भी रुपये मेरे खर्च हो रहे हैं और आपके सन्दूक में पहुँच रहे हैं। इसे तकदीर नहीं कहते तो और क्या कहते हैं? आपने अभी कहा कि आप देवी-देवताओं का अनुग्रह नहीं लेते, लेकिन आपके लड़के के हाथ की अंगूठी से लेकर बहु के गले का हार तक मेरे अनुग्रह के दान से बनेगा। हो सकता है कि बहू-भात की दावत तक का इन्तजाम मुझे ही करना पड़े।"

कमरे में वज्रपात होने पर भी शायद सब लोग इतने व्याकुल और विचलित न होते। बाबा ने न जाने क्या कहने की कोशिश की, पर कुछ भी सुस्पष्ट था, सुव्यक्त न हो सका। क्रोध में कालिदास बाबू ने भीषण मूर्त्ति धारण कर कहा, "आप रुपये दे रहे हैं, यह मुझे कैसे मालूम हो? और दे ही क्यों रहे हैं?"

कहा, "क्यों दे रहा हूँ यह आप नहीं समझ सकते, आपको समझाना भी नहीं चाहता। पर सारा गाँव सुन चुका है कि मैं रुपये दे रहा हूँ, सिर्फ आपने ही नहीं सुना? लड़की की माँ ने आपके सारे घरवालों के हाथ-पैर जोड़े, पर आप अपने बी.ए. पास लड़के का मूल्य ढाई हजार से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं हुए। लड़की का बाप चालीस रुपये महीने की नौकरी करता है, चालीस पैसे देने की भी उसमें शक्ति नहीं- तब आपने यह नहीं सोचा कि आपके लड़के को खरीदने के लिए अचानक उसके पास इतना रुपया कहाँ से आ गया? कुछ भी हो, लड़के बेचने के रुपये बहुत लोग लेते हैं, आप भी लें तो इसमें बुराई नहीं। पर इसके बाद गाँव वालों को अपने मकान में बुलाकर रूपयों का घमण्ड और न कीजिएगा। और यह भी याद रखिएगा कि आपने एक बाहर के आदमी के भिक्षा-दान से लड़के की शादी की है।"

उद्वेग और डर से सबका मुँह काला हो गया। शायद सबने यह सोचा कि अब कुछ भयंकर घटना होगी और कालिदास बाबू फाटक बन्द करवाकर लाठियों से पीटे बिना किसी को भी घर से वापस न जाने देंगे। पर, थोड़ी देर तक चुप बैठे रहने के बाद उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर कहा, "मैं रुपये नहीं लूँगा।"

मैंने कहा, "इसके मानी यह कि आप लड़के की शादी यहाँ नहीं करेंगे।"

कालिदास बाबू ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं, यह नहीं। मैंने वचन दिया है कि शादी करूँगा- इसमें जरा भी फर्क न होगा। कालिदास मुखर्जी कही हुई बात के खिलाफ काम नहीं करता। आपका नाम क्या है?"

बाबा ने व्यग्र कण्ठ से मेरा परिचय दिया। कालिदास बाबू ने पहिचानकर कहा, "ओ:-ठीक है। इनके बाप के साथ एक बार मेरा बहुत जबरदस्त फौजदारी मामला चला था।"

बाबा ने कहा, "जी हाँ आप कुछ भी नहीं भूलते। ये उन्हीं के लड़के हैं और रिश्ते में मेरे नाती होते हैं।"

कालिदास बाबू ने प्रसन्न कण्ठ से कहा, "ठीक है। मेरा बड़ा लड़का अगर जिन्दा रहता तो इतना ही बड़ा होता। शशधर की शादी में आना, बेटा। हमारी ओर से उस दिन तुम्हारा निमन्त्रण रहा।"

शशधर उपस्थित था। उसने एक बार कृतज्ञ नेत्रों से मेरी ओर देखा और फौरन ही मुँह नीचा कर लिया।

मैंने उठकर प्रणाम किया। कहा, "चाहे जहाँ भी रहूँ, लेकिन कम-से-कम बहू-भात के दिन आकर नववधू के हाथ का अन्न खा जाऊँगा। पर मैंने बहुत-सी अप्रिय बातें कही हैं, आप मुझे क्षमा करेंगे।"

कालिदास बाबू बोले, "यह सच है कि अप्रिय बातें कही हैं, पर मैंने क्षमा भी कर दिया है। अभी जाने का काम नहीं श्रीकान्त, शुभ कार्य के उपलक्ष में मैंने थोड़ा-सा खाने का भी आयोजन किया है। तुम्हें खाकर जाना होगा।"

"जैसा कहेंगे वही होगा," कहकर फिर बैठ गया।

उस दिन पात्र को आशीर्वाद देने से लेकर उपस्थित अभ्यागतों के खाने-पीने तक के सारे काम निर्विघ्न सुसम्पन्न हो गये। इस अध्याञय के प्रारम्भ में सदुपदेशक के बारे में जिस नियम का उल्लेख किया था, उसके व्यतिक्रम का एक उदाहरण पूँटू का विवाह है। संसार में सिर्फ यही एक उदाहरण अपनी ऑंखों से देखा है। कारण, नि:सम्पर्कीय, अपरिचित, अभागी लड़की के बाप का कान ऐंठते ही जहाँ रुपये वसूल होते हों, वहाँ वैष्णव बनकर हाथ जोड़ने पर बाघ के ग्रास से निस्तार नहीं मिलता। निष्ठुर, निर्दय इत्यादि गाली-गलौज करके समाज और तकदीर को धिक्कारने पर किंचित् क्षोभ मिट सकता है, पर प्रतिकार नहीं होता, क्योंकि दूल्हे के बाप के हाथ में प्रतीकार नहीं है, वह तो लड़की के बाप के हाथों में ही है।

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गौहर की खोज में आने पर नवीन से मुलाकात हुई। वह मुझे देखकर खुश हुआ। लेकिन उसका मिजाज बहुत रूखा था। बोला, "जाकर वैष्णवियों के आश्रम में देखिए, कल से तो घर ही नहीं आये हैं।"

"यह क्या माजरा है नवीन! यह वैष्णवी कहाँ से आ गयी?"

"एक वैष्णवी नहीं, पूरा का पूरा एक दल आ जुटा है!"

"वे कहाँ रहती हैं?"

"यहीं मुरारीपुर के अखाड़े में।" कहकर नवीन ने एक नि:श्वास छोड़ा, फिर कहा, "हाय बाबू, अब न तो वे राम हैं और न वह अयोधया। बूढ़े मथुरादास बाबाजी के मरते ही उनकी जगह एक छोकरा वैरागी आ गया है, उसके कोई चार गण्डा सेवा-दासी हैं। द्वारिकादास वैरागी से हमारे बाबू की बड़ी मित्रता है- वहीं तो प्राय: रहते हैं।"

चकित होकर पूछा, "पर तुम्हारे बाबू तो मुसलमान हैं। वैष्णव-वैरागी अपने आश्रम में उन्हें रहने कैसे देंगे?"

नवीन ने नाराज होकर कहा, "इन सब बाउल सन्यासियों को क्या धर्माधर्म का ज्ञान है? ये जाति-जन्म कुछ भी नहीं मानते। जो भी कोई उन्हें मिलता है, वे उसे ही अपने दल में खींच लेते हैं, सोच-विचार कुछ नहीं करते।"

पूछा, "पर उस बार जब मैं तुम्हारे यहाँ छह-सात दिन था, तब तो गौहर ने उनके बारे में कुछ नहीं कहा?"

नवीन बोला, "कहते तो कमललता के गुण-अवगुण जाहिर नहीं हो जाते? सिर्फ उन कई दिनों ही बाबू अखाड़े के पास नहीं गये। पर जैसे ही आप गये वैसे ही कॉपी और कलम लिए बाबू अखाड़े अखाड़ेगें में जा धामके।"

प्रश्न करने पर मालूम हुआ कि द्वारिका बाउल गाना गाने और दोहे बनाने में सिद्धहस्त है। गौहर इस प्रलोभन में फँस गया। उसको कविता सुनाता है, उससे अपनी गलतियों का संशोधन करा लेता है और कमललता एक युवती वैष्णवी है- उसी आश्रम में रहती है। वह देखने में अच्छी है, गाना अच्छा गाती है। उसकी बातें सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं। कभी-कभी वैष्णवों की सेवा के लिए गौहर रूपये-पैसे भी देता है। अखाड़े की पुरानी दीवार जीर्ण होकर गिर गयी थी, गौहर ने अपने खर्चे से उसकी मरम्मत करा दी है। यह काम उसने उस सम्प्रदाय के लोगों के अगोचर चुपचाप ही किया है।

मुझे याद आया कि बचपन में इस अखाड़े के बारे में बातें सुनी थीं। पुराने जमाने में महाप्रभु के एक भक्त शिष्य ने इस अखाड़े की प्रतिष्ठा की थी। तब से शिष्य-परम्परा के अनुसार वैष्णव इसमें वास करते आ रहे हैं। अत्यन्त कुतूहल पैदा हुआ। कहा, "नवीन, मुझे एक बार अखाड़ा दिखा सकोगे?"

नवीन ने सिर हिलाकर इनकार किया। बोला, "मुझे बहुत काम है और आप तो इसी देश के आदमी हैं, खुद ही न खोज सकेंगे? आधा कोस से ज्यादा दूर नहीं, इस सामने के रास्ते से उत्तर की ओर सीधे जाने पर ही आपको दिखाई दे जायेगा, किसी से पूछना नहीं पड़ेगा। सामने वाले तालाब के नीचे वृन्दावन-लीला हो रही होगी। दूर से ही कानों में आवाज पहुँच जायेगी-ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।"

मेरे जाने का प्रस्ताव नवीन ने शुरू से ही पसन्द नहीं किया। मैंने पूछा, "वहाँ क्या होता है- कीर्तन?"

नवीन ने कहा, "हाँ, दिन-रात ख्रजड़ी और करताल को चैन नहीं मिलती।"

मैंने हँसकर कहा, "यह तो अच्छा ही है नवीन। जाऊँ, गौहर को पकड़ लाऊँ।"

इस बार नवीन भी हँसा, बोला, "हाँ, जाइए। पर देखिएगा कि वहाँ कमललता का कीर्तन सुनकर कहीं आप खुद ही न अटक जाँय।"

"देखूँ, क्या होता है।" कहकर हँसता हुआ तीसरे पहर कमललता वैष्णवी के अखाड़े में जाने के लिए चल दिया।

अखाड़े का पता जब चला तब शायद शाम हो चुकी थी। दूर से कीर्तन या खंजड़ी-करताल की ध्वंनि तो सुनाई नहीं दी, पर सुप्राचीन बकुल का वृक्ष फौरन ही नजर आ गया, जिसके नीचे टूटी हुई वेदी है। पर एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। एक क्षीण पथ की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होकर परकोटे के किनारे-किनारे नदी की ओर चली गयी है। अनुमान किया कि उधर शायद किसी से कुछ खबर मिले, अतएव उधर ही पैर बढ़ाये। गलती नहीं की। शीर्ण-संकीर्ण शैवाल से ढकी हुई नदी के किनारे एक परिष्कृत और गोबर से पुती हुई कुछ उच्च भूमि पर गौहर और दूसरे एक व्यक्ति बैठे हैं। अन्दाज लगाया कि ये ही वैरागी द्वारिकादास हैं- अखाड़े के वर्तमान अधिकारी। नदी का किनारा होने की वजह से वहाँ उस वक्त तक संध्या् का अन्धकार घना नहीं हुआ था, बाबाजी को बहुत अच्छी तरह से देख सका। देखने में वह आदमी भद्र और ऊँची जाति का ही जान पड़ा। वर्ण श्याम, दुबला-पतला होने के कारण कुछ लम्बा मालूम होता है, माथे के बाल जटा की तरह सामने की ओर बँधे हुए हैं, मूँछ-दाढ़ी ज्यादा नहीं है-थोड़ी है। ऑंखों में और मुँह पर एक स्वाभाविक हँसी का भाव है। उम्र का ठीक अन्दाज नहीं लगा सका, तो भी पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा नहीं जान पड़ी। दोनों में किसी ने भी मेरे आगमन और उपस्थिति पर लक्ष्य नहीं किया, दोनों ही नदी के उस पार पश्चिम दिगन्त में ऑंखें गड़ाये स्तब्ध बने रहे। वहाँ नाना रंग और नाना प्रकार के मेघों के टुकड़ों के बीच तृतीया का क्षीण पांडुरंग चन्द्रमा चमक रहा है। मानो उसके कपाल के बीच में अत्युज्वल सांध्यं-तारा उदित हो रहा है। बहुत नीचे दिखाई देते हैं दूर ग्रामों के नीले पेड़-पौधों-का मानों इनका कहीं अन्त नहीं, सीमा नहीं। काले, सफेद, पीले-नाना रंगों के टूटे-फटे बादलों पर उस वक्त भी अस्तंगत सूर्य की शेष दीप्ति खेल रही थी- ठीक वैसे ही जैसे कि किसी दुष्ट लड़के के हाथ में रंग की तूलिका पड़ जाने से तसवीर का पूरा श्राद्ध हो रहा हो। यह आनन्द क्षणभर ही रहा- क्योंकि इतने में ही चित्रकार ने आकर कान मल दिये और हाथ से तूलिका छीन ली।

उस स्वल्पतोया नदी का थोड़ा-सा हिस्सा शायद गाँव वालों ने साफ कर लिया है। सामने के उस स्वच्छ काले और थोड़े पानी पर छोटी-छोटी रेखाओं में चन्द्रमा और सांध्यी तारे का प्रकाश पास-पास ही पकड़कर झिलमिला रहा है- मानो सुनार कसौटी पर सोना घिसकर दाम जाँच रहा हो। पास ही कहीं वन में सैकड़ों वन-मल्लिकाएँ खिली हैं और मानो उनकी गन्ध से सारी वायु भारी हो उठी है। निकट के ही किसी पेड़ के असंख्य चिड़ियों के घोंसलों से उनके बच्चों की एक-सी चीं-चीं विचित्र मधुरता से कानों में अविराम आ रही है। यह सब ठीक है, और तद्गत-चित्त जो दो आदमी जड़-भरत की तरह बैठे हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं, वे भी कवि हैं। पर शाम के वक्त इस जंगल में मैं यह सब देखने नहीं आया हूँ। नवीन ने कहा था कि वैष्णवियों का एक दल का दल यहाँ है और उनमें कमललता वैष्णवी सबसे श्रेष्ठ हैं। वे कहाँ हैं? पुकारा, "गौहर।" ध्यातन भंगकर गौहर हतबुद्धि की तरह मेरी ओर ताकता रह गया।

बाबाजी ने उसे जरा हिलाकर कहा, "गुसाईं, ये ही तुम्हारे श्रीकान्त हैं न?"

गौहर ने तेजी से उठकर मुझे बड़े जोर से बाहुपाश में आबद्ध कर लिया, इस तरह कि जैसे उसका वह आवेग रुकना ही नहीं चाहता हो। किसी तरह मैं अपने को मुक्त कर बैठ गया। बोला, "गुसाईं जी ने मुझे एकाएक कैसे पहिचान लिया?"

बाबा जी ने हाथ हिलाया, "यह नहीं होगा गुसाईं, इसमें से आदर-वाचक 'जी' बाद देना होगा। तब ही तो रस आयेगा।"

मैंने कहा, "अच्छा, बाद दे दिया। लेकिन एकाएक मुझे कैसे पहिचाना?"

बाबाजी ने कहा, "एकाएक कैसे पहचानूँगा? तुम तो वृन्दावन के हमारे पहचाने हुए हो गुसाईं, और तुम्हारी दोनों ऑंखें तो रस की समुद्र हैं जो देखते ही ऑंखों में भर जाती हैं। जिस दिन कमललता आई थी, उसकी दोनों ऑंखें भी ऐसी ही थीं, उसे देखते ही पहिचान गया और बोल उठा, 'कमललता, कमललता, इतने दिनों कहाँ थी?" कमल आकर जो अपनी हो गयी तो उसका आदि-अन्त, विरह-विच्छेद नहीं रहा। यही तो साधना है गुसाईं, इसी को तो कहता हूँ रस की दीक्षा।"

मैंने कहा, "कमललता देखने ही तो आया हूँ गुसाईं, वह कहाँ है?"

बाबाजी बहुत खुश हुए। बोले, "उसे देखोगे? पर गुसाईं, तुम उससे अपरिचित नहीं हो, वृन्दावन में उसे अनेक बार देखा है। शायद भूल गये हो, पर देखते ही पहिचान जाओगे कि वह कमललता है। गुसाईं, उसे एक बार पुकारो न!" कहकर बाबाजी ने गौहर को पुकारने का इशारा किया। इनके निकट सब 'गुसाईं' हैं। बोले, "कहो कि श्रीकान्त तुम्हें देखने आया है।"

गौहर के चले जाने के बाद पूछा, "गुसाईं, मेरे बारे में सारी बातें शायद गौहर ने तुम्हें बताई हैं?"

बाबाजी ने सिर हिलाकर कहा, "हाँ, सब बताया है। जब उससे पूछा कि 'गुसाईं, तुम छह-सात दिन क्यों नहीं आये? तो उसने कहा कि श्रीकान्त आये थे।" यह भी उसने कहा कि 'तुम फिर जल्दी ही आओगे।" यह भी मालूम हुआ कि तुम बर्मा जाने वाले हो।"

सुनकर सन्तोष की साँस छोड़कर मन ही मन मैंने कहा, रक्षा हुई। डर था कि वास्तव में किसी अलौकिक आध्‍यात्मिक शक्ति-बल के कारण तो ये मुझे देखते ही नहीं पहिचान गये हैं। कुछ भी हो, यह मानना ही पड़ेगा कि मेरे बारे में इस क्षेत्र में उनका अन्दाज गलत नहीं है।

बाबाजी अच्छे ही जान पड़े। कम-से-कम असाधु प्रकृति के नहीं मालूम हुए। बहुत सरल। यह बाबाजी ने सरलता से स्वीकार कर लिया कि न जाने क्यों गौहर ने मेरी सब बातें- अर्थात् जितना वह जानता है, इन लोगों से कह दी हैं। कविता और वैष्णव-रस-चर्चा में वे कुछ-कुछ सनकी-से-कुछ विभ्रान्त से मालूम हुए।

थोड़ी देर बाद ही गौहर- गुसाईं के साथ कमललता आकर हाजिर हुई। उम्र तीस से ज्यादा नहीं होगी-श्यामवर्ण, इकहरा बदन, हाथ में कुछ चूड़ियाँ हैं पीतल की- सोने की भी हो सकती हैं। बाल छोटे-छोटे नहीं हैं, गिरह देकर पीठ पर झूल रही हैं। गले में तुलसी की माला और हाथ की थैली के भीतर भी तुलसी की जपमाला हैं। छापे-आपे का बहुत ज्यादा आडम्बर नहीं है, अथवा सुबह के वक्त तो था, पर इस वक्त कुछ मिट गया है। उसके मुँह की ओर देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो गया। सविस्मय यह खयाल होने लगा कि इन ऑंखों का और चेहरे का भाव तो जैसे परिचित है, और चलने का ढंग भी जैसे पहले कहीं देखा है।

वैष्णवी ने बात शुरू की। फौरन ही समझ गया कि वह नीचे के स्तर की प्राणी नहीं है। उसने किसी तरह की भूमिका नहीं बाँधी। मेरी ओर सीधे देखकर कहा, ?"कहो गुसाईं, पहिचान सकते हो?"

मैंने कहा, "नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे कहीं देखा है।"

वैष्णवी ने कहा, "वृन्दावन में देखा था। बड़े गुसाईं जी से नहीं सुना?"

मैंने कहा, "सो सुना है। पर मैं तो जन्म-भर कभी वृन्दावन नहीं गया।"

वैष्णवी ने कहा, "गये कैसे नहीं? बहुत पुरानी बात है, इसलिए अचानक याद नहीं आ रही है। वहाँ गायें चराते, फल तोड़कर लाते, वन-फूलों की माला गूँथकर हमारे गले में पहनाते-सब भूल गये?" यह कहकर वह होठों को दबाकर धीरे-धीरे हँसने लगी।

मैंने यह तो समझा कि मजाक कर रही है। पर यह ठीक नहीं कर सका कि मेरा या बड़े गुसाईं जी का, बोली, "रात हो रही है, अब जंगल में क्यों बैठे हो? भीतर चलो।"

मैंने कहा, "जंगल के रास्ते हमें बहुत दूर जाना होगा। कल फिर आयेंगी।"

वैष्णवी ने पूछा, "यहाँ का पता किसने बताया? नवीन ने?"

"हाँ, उसी ने।"

कमललता की बात नहीं बताई?"

"हाँ, बताई थी।"

इस बारे में तुम्हें सावधान नहीं किया कि वैष्णवी का जाल तोड़कर अचानक बाहर नहीं जाया जा सकता?"

हँसते हुए बोला, "हाँ, यह भी कहा है।"

वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, "नवीन होशियार माँझी है। उसकी बातें न मानकर अच्छा नहीं किया।"

"क्यों भला?"

वैष्णवी ने इसका जवाब नहीं दिया। गौहर को दिखाते हुए कहा, "गुसाईं ने कहा था कि नौकरी करने के लिए विदेश जा रहे हो। पर तुम्हारे तो कोई नहीं है, फिर नौकरी क्यों करोगे?"

"तब क्या करूँ?"

"हम जो करती हैं। गोविन्दजी का प्रसाद तो कोई छीन नहीं सकता!"

"यह जानता हूँ। पर वैरागगीरी मेरे लिए नयी नहीं है।"

वैष्णवी ने हँसकर कहा, "समझती हूँ। शायद प्रकृति सहन नहीं करती?"

"नहीं, ज्यादा दिन सहन नहीं करती।"

वैष्णवी होठ दबाकर हँसी। बोली, "तुम्हारा काम अच्छा है। भीतर आओ, उन लोगों से तुम्हारा परिचय करा दूँ। यहाँ कमलों का वन है।"

"सुना है, पर अंधेरे में लौटेंगे कैसे?"

वैष्णवी फिर हँसी, बोली, "अंधेरे में हम लौटने ही क्यों देंगी? अन्धकार दूर तो होगा ही। तब जाना। आओ।"

'चलो।"

वैष्णवी ने कहा, "गौर! गौर!"

"गौर-गौर" कहते हुए मैंने भी अनुसरण किया।

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हालाँकि धर्माचरण में मेरी रुचि और विश्वास नहीं है, किन्तु जिनका विश्वास है उनको बाधा नहीं पहुँचाता। मन में बिना संशय के जानता हूँ कि मैं इस गुरुतर विषय का ओर-छोर कभी न खोज पाऊँगा। तथापि, धार्मिकों की मैं भक्ति करता हूँ। विख्यात स्वामीजी और सुख्यात साधूजी- किसी की भी छोआ नहीं कहता, दोनों की ही वाणी मेरे कानों में समान मधु की वर्षा करती है।

विशेषज्ञों के मँह से सुना है कि बंगाल की आध्‍यात्मिक साधना का निगूढ़ रहस्य वैष्णव सम्प्रदाय में ही सुगुप्त है, और यही बंगाल की खालिस अपनी चीज है। इसके पहले सन्यासी और साधुओं की थोड़ी-बहुत संगत की है। फल-लाभ का विवरण जाहिर करने की इच्छा नहीं है। पर इस दफा अगर दैवात् खालिस चीज नसीब होती हो तो संकल्प किया कि इस मौके को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। पूँटू के बहू-भात के निमन्त्रण में मुझे जाना ही होगा। कम-से-कम कलकत्ते के नि:संग मैस के बदले ये कई दिन अगर इस वैष्णवी-अखाड़े के आसपास कहीं काटने पड़ें तो और चाहे जो हो, जीवन के संचय में विशेष नुकसान न होगा।

अन्दर आकर देखा कि कमललता का कहना झूठ नहीं था। वहाँ वाकई कमलों का ही वन है, पर दलित-विदलित। मत्त हाथियों से साक्षात तो नहीं हुआ, पर उनके बहुत से पदचिह्न विद्यमान थे। नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की वैष्णवियाँ नाना कामों में लगी हुई हैं- कोई लड्डू बना रही है, कोई मैदा गूँधा रही है, कोई फल-मूल तराश रही हैं- यह सब ठाकुरजी के रात के भोग की तैयारियाँ हैं। एक अपेक्षाकृत छोटी उम्र की वैष्णवी ध्यारनमग्न हो फूलों की माला गूँथ रही है और एक उसी के निकट बैठी हुई नाना रंग के छपे हुए छोटे-छोटे कपड़ों के टुकड़े सावधानी से कुंचित करके ढंग से रख रही है। सम्भवत: श्रीगोविन्दजी कल स्नान के बाद उन्हें पहनेंगे। कोई भी खाली नहीं है। उनका काम में आग्रह और एकाग्रता देखकर आश्चर्य होता है। सबने मेरी ओर ताका, पर निमेष-मात्र के लिए। कुतूहल का अवसर नहीं है। सबके होठ हिल रहे हैं, शायद मन ही मन जप हो रहा है। इधर समय खत्म हो गया है। एक-एक करके दिये जलने शुरू हो गये हैं। कमललता ने कहा, "चलो भगवान को नमस्कार कर आयें। किन्तु, अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ? 'नये गुसाईं' कहकर पुकारूँ तो कैसा?"

¹ 'गौर' का मतलब यहाँ गौरांग-महाप्रभु या चैतन्यदेव से है।

मैंने कहा, "क्यों नहीं पुकारतीं? तुम्हारे यहाँ जब गौहर तक 'गौहर गुसाईं' हो गया है, तब मैं तो कम-से-कम ब्राह्मण का लड़का हूँ। पर मेरे अपने नाम ने क्या बुराई की है? उसी के साथ 'गुसाईं' जोड़ दो न।"

कमललता ने होठ दबाकर हँसते हुए कहा, "यह नहीं होगा ठाकुर, नहीं होगा। वह नाम मैं नहीं ले सकती- अपराध होता है। आओ।"

"आता हूँ, पर अपराध किसका?"

"किसका-यह सुनकर तुम क्या करोगे; तुम तो खूब हो!"

जो वैष्णवी माला गूँथ रही थी वह हँस पड़ी और उसने मुँह नीचा कर लिया। ठाकुरजी के कमरे में काले पत्थर और पीतल की राधा-कृष्ण की युगल मूर्तियाँ हैं। एक नहीं, बहुत-सी। यहाँ भी पाँच-छह वैष्णवियाँ काम में लगी हुई हैं। आरती का वक्त हो रहा है, साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है।

भक्तिपूर्वक यथारीति प्रणाम कर बाहर आ गया। ठाकुरजी के कमरे के अलावा और सब कमरे मिट्टी के हैं, पर सँभाल-सफाई की सीमा नहीं है। बिना आसन के कहीं भी बैठते संकोच नहीं होता, तथापि कमललता ने सामने के बरामदे में एक ओर आसन बिछा दिया। कहा, "बैठो, तुम्हारे रहने का कमरा जरा ठीक कर आऊँ।"

"मुझे क्या आज यहीं रहना पड़ेगा?"

"क्यों, डर क्या है? मेरे रहते तुम्हें तकलीफ नहीं होगी।"

मैंने कहा, "तकलीफ के लिए नहीं कहता, पर गौहर जो नाराज होगा।"

वैष्णवी ने कहा, "यह भार मेरे ऊपर है। मेरे रखने पर तुम्हारा मित्र जरा भी नाराज न होगा।" कहकर वह हँसती हुई चली गयी।

मैं अकेला बैठा हुआ अन्यान्य वैष्णवियों का काम देखने लगा। सचमुच ही उनके पास नष्ट करने को जरा भी वक्त नहीं है। मेरी ओर किसी ने घूमकर भी नहीं देखा। करीब दस मिनट बाद जब कमललता लौटकर आयी तब काम खत्म कर सब उठ गयी थीं। पूछा, "तुम इस मठ की अधिकारिणी हो क्या?"

कमललता ने जीभ काटकर कहा, "हम सब गोविन्दजी की दासी हैं- कोई छोटा-बड़ा नहीं है। एक-एक पर एक एक का भार है। मेरे ऊपर प्रभू ने यह भार दिया है।" कहकर उसने मन्दिर के उद्देश्य से हाथ जोड़कर सिर से लगा लिये। कहा, "अब कभी ऐसी बात जबान पर मत लाना।"

मैंने कहा, "ऐसा ही होगा। अच्छा, बड़े गुसाईं और गौहर गुसाईं क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं?"

वैष्णवी ने कहा, "वे अभी आते ही होंगे। नदी में स्नान करने गये हैं।"

"इतनी रात को? और इस नदी में?"

वैष्णवी ने कहा, "हाँ।"

"गौहर भी?"

"हाँ, गौहर गुसाईं भी।"

"पर मुझे ही क्यों नहीं स्नान कराया?"

"वैष्णवी ने हँसकर कहा, "हम किसी को स्नान नहीं करातीं। वे अपने आप करते हैं। भगवान की दया होने पर एक दिन तुम भी करोगे और उस दिन मना करने पर भी नहीं मानोगे।"

मैंने कहा, "गौहर भाग्यवान है। पर मेरे पास तो रुपया नहीं है। मैं गरीब आदमी हूँ, इस कारण शायद मेरे प्रति परमात्मा की दया न हो।"

वैष्णवी शायद इशारा समझ गयी, और नाराज होकर कुछ कहने वाली ही थी पर कहा नहीं। फिर बोली, "गौहर गुसाईं कुछ भी हों पर तुम भी गरीब नहीं हो। जो आदमी ढेर रुपया देकर दूसरे की लड़की का उद्धार करता है, भगवान उसे गरीब नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर भी दया होना आश्चर्य नहीं है।"

मैंने कहा, "तब तो वह डर की बात है। तो भी, किस्मत में जो लिखा है वह होगा ही, टाला नहीं जा सकता- पर पूछता हूँ कि कन्या के उद्धार की खबर तुम्हें कहाँ से मिली?"

वैष्णवी ने कह, "हमें चार जगह से भीख माँगनी पड़ती है, इसलिए हमें सब खबरें मिल जाती हैं।"

"पर यह खबर शायद अभी तक नहीं मिली है कि मुझे रुपये देकर लड़की का उद्धार नहीं करना पड़ा?"

वैष्णवी कुछ विस्मित हुई। बोली, "नहीं, यह खबर नहीं मिली। पर हुआ क्या, शादी टूट गयी?"

"शादी नहीं टूटी, लेकिन कालिदास बाबू टूट गये हैं- खुद दूल्हा के बाप ही। लड़के को बेचकर दूसरे की भिक्षा के दान से मिले हुए दहेज को हाथ पसारकर लेने में उन्हें शर्म आई। इससे मैं भी बच गया।" कहकर मैंने सारा मामला संक्षेप में बता दिया। वैष्णवी ने सविस्मय कहा, "कहते क्या हो जी, यह तो बिल्कुंल अनहोनी बात हुई!"

"ईश्वर की दया। सिर्फ गौहर गुसाईं ही क्या अंधेरे में गन्दी नदी के पानी में गोते लगायेगा, संसार में और कहीं भी कुछ अनहोनी बात नहीं होगी? उनकी लीला ही फिर किस तरह जाहिर होगी, बोलो?" कहकर जैसे ही मैंने वैष्णवी का मुँह देखा वैसे ही समझ गया कि यह ठीक नहीं हुआ- सीमा लाँघ गया हूँ। वैष्णवी ने किन्तु प्रतिवाद नहीं किया, मन्दिर की ओर हाथ उठाकर उसने सिर्फ नि:शब्द नमस्कार कर लिया। मानो अनपराधा को क्षमा करने की भिक्षा माँगी।

एक वैष्णवी एक बड़े थाल में मैदा की पूरियाँ लिये हुए सामने से ठाकुरजी के कमरे की ओर निकल गयी। उसे देखकर कहा, "आज तुम्हारे यहाँ समारोह है। शायद कोई खास त्यौहार है-नहीं?"

वैष्णवी ने कहा, "नहीं, आज कोई त्यौहार नहीं है। यह हमारे यहाँ का रोज का हिस्सा है। ठाकुरजी की दया से कभी कमी नहीं होती।"

"खुशी की बात है। पर आयोजन शायद रात को ही ज्यादा होता है?"

वैष्णवी बोली, "सो भी नहीं। सेवा में सुबह-शाम का कोई सवाल ही नहीं है। यदि दया करके दो दिन रह जाओ तो खुद ही सब देख लोगे। हम सब दासी की दासी हैं, उनकी सेवा करने के अलावा संसार में हमारा और कोई काम तो है ही नहीं।" कहकर उसने मन्दिर की ओर हाथ जोड़कर फिर एक बार नमस्कार किया।

पूछा, "दिनभर तुम लोगों को क्या-क्या करना होता है?"

वैष्णवी ने कहा, "आकर जो देखा, वही।"

"आकर देखा मसाला कूटना, रसोई के लिए तरकारी बनाना, दूध दुहना माला गूँथना, कपड़े रंगना-ऐसे ही और बहुत से काम। तुम सब दिनभर क्या सिर्फ यही किया करती हो?"

वैष्णवी ने कहा, "हाँ, दिनभर सिर्फ यही करती हैं।"

"पर यह सब तो केवल घर-गृहस्थी के काम हैं, सभी औरतें करती हैं। तुम भजन-साधन कब करती हो?'

वैष्णवी बोली, "यही हमारी भजन-साधना है।"

"यह रसोई बनाना, पानी भरना, कूटना-फटकना, माला गूँथना, कपड़े रंगना- इसी को 'साधना' कहते हैं?"

वैष्णवी ने कहा, "हाँ, इसी को साधना कहते हैं। दास-दासियों की इससे बढ़कर साधना हमें और कहाँ मिलेगी गुसाईं?" कहते-कहते उसकी दोनों सजल ऑंखें मानो अनिर्वचनीय मधुरता से परिपूर्ण हो उठीं। एकाएक मुझे खयाल हुआ कि इस अपिरिचित वैष्णवी का मुँह जितना सुन्दर है, उतना सुन्दर मुँह मैंने संसार में कभी नहीं देखा। कहा, "कमललता, तुम्हारा मकान कहाँ है?"

वैष्णवी ने ऑंचल से ऑंखें पोंछकर हँसते हुए कहा, "पेड़ की छाया।"

"पर पेड़ की छाया तो हमेशा न थी?"

वैष्णवी ने कहा, "तब था ईंट और काठ के बने हुए किसी मकान का एक छोटा-सा कमरा। पर कहानी सुनाने का वक्त तो अब नहीं है गुसाईं । मेरे साथ आओ, तुम्हारा नया कमरा दिखा दूँ।"

कमरा बढ़िया है। उसने बाँस की खूँटी पर टँगा हुआ एक साफ रेशम का कपड़ा दिखाते हुए कहा, "यह पहनकर ठाकुरजी के कमरे में आना। देखो, देर न करना।" कहकर वह तेजी से चली गयी।

एक ओर एक छोटे से तख्त पर बिछौना बिछा है। निकट ही एक चौकी पर कुछ किताबें और एक थाली में बकुल-फूल रखे हैं। अभी-अभी कोई प्रदीप जलाकर शायद धूप जला गया है, कमरा अब भी उसकी गन्ध और धुएँ से भरा हुआ था- बहुत अच्छा लगा। दिनभर की क्लान्ति तो थी ही- ठाकुर-देवताओं से हमेशा दूर-दूर रहता आया हूँ; उधर आकर्षण नहीं था- अत: कपड़े उतार कर धप से बिछौने पर लेट गया। जाने यह किसका कमरा है, एक रात के लिए वैष्णवी ने जाने किसकी शय्या मुझे उधार दे गयी है- अथवा शायद यह उसी की है- इन सब विचारों से मेरा मन स्वभावत: ही बहुत संकोच अनुभव करता है। पर आज कुछ भी खयाल न हुआ, मानो न जाने कब से परिचित अपने ही आदमियों के पास आ पहुँचा हूँ। शायद कुछ तन्द्रा आ गयी थी कि इतने में ही जैसे किसी ने दरवाजे के बाहर से आवाज दी, "नये गुसाईं, मन्दिर नहीं जाओगे? वे तुम्हें बुला जो रहे हैं।"

चटपट उठ बैठा। मंजीरे के साथ-साथ कीर्तन के गाने की आवाज भी कानों में पहुँची। बहुत से आदमियों का समवेत कोलाहल ही नहीं था; गेय वस्तु भी जितनी मधुर थी उतनी ही स्पष्ट थी। स्त्री का कण्ठ था- बिना ऑंखों से देखे ही निस्सन्देह अनुमान किया कि कमललता है। नवीन का विश्वास है कि इस मीठे स्वर ने ही उसके मालिक को फाँस लिया है। सोचा कि यह असम्भव नहीं है और बहुत असंगत भी नहीं है।

मन्दिर में घुसकर एक ओर चुपचाप बैठ गया, किसी ने फिरकर नहीं देखा। सबकी दृष्टि राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति पर लगी थी। बीच में खड़ी हुई कमललता कीर्तन कर रही है-

मदन गोपाल जय जय यशोदा के लाल की,

यशोदा के लाल जय जय, जय नन्दलाल की।

नन्दलाल जय जय गिरिधारी लाल की,

गिरिधारी लाल जय जय गोविन्द-गोपाल की ॥

इन थोड़े-सहज और साधारण शब्दों के आलोड़न से भक्तों का गम्भीर वक्ष:स्थल मथित होकर कौन-सा अमृत तरंगित हो उठता है, यह मेरे लिए उपलब्ध करना कठिन है। पर देखा कि उपस्थित व्यक्तियों में से किसी की भी ऑंखें शुष्क नहीं हैं। गायिका की दोनों ऑंखों को प्लावित कर झर-झर अश्रु झर रहे हैं और भावों के गुरुभार से बीच-बीच में उसका कण्ठ-स्वर जैसे टूट जाता है। मैं इन राब रसों का रसिक नहीं हूँ, लेकिन मेरे मन के भीतर भी एकाएक न जाने कैसा होने लगा। द्वारिकादास बाबाजी ऑंखें मूँदे एक दीवार का सहारा लिये बैठे थे। यह पता नहीं चला कि वे सचेत हैं या अचेत। और सिर्फ थोड़ी देर पहले की स्निग्ध हास्य-परिहास-चंचल कमललता ही नहीं, बल्कि साधारण गृह-कर्म में नियुक्ता जो सब वैष्णवियाँ अभी तक साधारण, तुच्छ और कुरूप लगी थीं, वे भी मानो इस धूप के धुएँ से आच्छन्न गृह के अनुज्ज्वल दीप के प्रकाश में क्षणभर के लिए मेरी नजरों में अत्यन्त सुन्दर हो उठीं। मुझे भी मानो ऐसा लगा कि पत्थर की यह निकटवर्ती मूर्ति यथार्थ में ऑंखें मलकर देख रही है और कान लगाकर कीर्तन का समस्त माधुर्य उपभोग कर रही है।

भावों की इस विह्वल-मुग्धता से मैं बहुत डरता हूँ, व्यस्त होकर बाहर चला आया- किसी ने लक्ष्य भी नहीं किया। देखता हूँ कि प्रांगण के एक कोने में गौहर बैठा है और कहीं से प्रकाश की एक रेखा आकर उसके शरीर पर पड़ रही है। मेरे पैरों की आवाज से उसका ध्या न भंग नहीं हुआ, पर उस एकान्त समाहित मुँह की तरफ मैं भी न हिल सका, वहीं स्तब्ध हो खड़ा रहा। ऐसा लगा कि सिर्फ मुझको ही अकेला छोड़कर इस जगह के सब व्यक्ति और किसी दूसरे लोक में चले गये हैं- जहाँ का पथ मैं नहीं पहचानता। कमरे में जा, रोशनी बुझाकर लेट गया। यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि ज्ञान, विद्या और बुद्धि में मैं इन सबसे बड़ा हूँ, तथापि न जाने किसी की व्यथा से अन्दर ही अन्दर मन रोने लगा और वैसे ही अनजान कारण से ऑंखों के कोनों से पानी की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगीं।

पता नहीं कि कितनी देर से सो रहा था। कान में भनक पड़ी, "अरे नये गुसाईं?"

जगकर उठ बैठा, "कौन?"

"मैं हूँ तुम्हारी शाम की बन्धु- इतना सोते हो?"

अंधेरे कमरे में चौखट के पास कमललता वैष्णवी खड़ी थी। बोला, "जागने से क्या फायदा होता? सोने में समय का कुछ सदुपयोग तो हुआ।"

"यह मालूम है। पर ठाकुर का प्रसाद नहीं लोगे?"

"लूँगा।"

"तो फिर, सो क्यों रहे हो?"

"जानता हूँ कि कोई दिक्कत नहीं होगी, प्रसाद तो मिलेगा ही। मेरा शाम का बन्धु रात को भी परित्याग नहीं करेगा।"

वैष्णवी ने सहास्य कहा, "यह अधिकार वैष्णवों को है, तुम लोगों को नहीं।"

"आशा मिलने पर वैष्णव होते क्या देर लगती है? तुमने गौहर तक को गुसाईं बना डाला, तो मैं ही क्या इतनी अवहेलना का पात्र हूँ? आज्ञा होने पर वैष्णवों का दासानुदास होने को भी राजी हूँ।"

कमललता का कण्ठ स्वर कुछ गम्भीर हुआ। कहा, "वैष्णवों की हँसी नहीं उड़ानी चाहिए, गुसाईं, अपराध होता है। गौहर गुसाईं को भी तुमने गलत समझा है। उनके अपने आदमी उन्हें काफिर कहते हैं, पर नहीं जानते कि वे पक्के मुसलमान हैं, पिता-पितामह के धर्म-विश्वास को इन्होंने नहीं त्यागा है।"

"पर उसका भाव देखने पर तो यह मालूम नहीं होता।"

वैष्णवी ने कहा, "यही तो आश्चर्य है। पर अब देरी मत करो, आओ।" फिर कुछ सोचकर कहा, "या प्रसाद ही तुम्हें यहीं दे जाऊँ- क्या कहते हो?"

"आपत्ति नहीं। पर गौहर कहाँ है? वह हो तो दोनों को एक साथ ही दो न।"

"उनके साथ बैठकर खाओगे?"

"हमेशा ही तो खाता हूँ। बचपन में उसकी माँ ने मुझको बहुत खिलाया है। और उस वक्त तुम्हारे प्रसाद की अपेक्षा वह कम मीठा नहीं होता था। इसके अलावा गौहर भक्त है, गौहर कवि है- कवि की जाति की खोज नहीं की जाती।"

उस अन्धकार में भी ऐसा लगा कि वैष्णवी ने एक साँस को दबा लिया। फिर कहा, 'गौहर गुसाईं नहीं है। वह कब चले गये, हमें पता नहीं।"

मैंने कहा, "मैंने देखा था कि गौहर ऑंगन में बैठा है। उसे क्या तुम भीतर नहीं जाने देतीं?"

वैष्णवी ने कहा, "नहीं।"

"गौहर को आज मैंने देखा था। कमललता, मेरे मजाक से तुम नाराज हो गयीं, किन्तु तुम भी अपने देवता के साथ कम हँसी नहीं कर रही हो। यह बात नहीं कि अपराध सिर्फ एक तरफ से ही होता हो।"

वैष्णवी ने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप बाहर चली गयी। थोड़ी देर बाद ही उसने एक दूसरी वैष्णवी के हाथों रोशनी और आसन तथा खुद प्रसाद का पात्र लेकर प्रवेश किया। कहा, "नये गुसाईं, अतिथि-सेवा में त्रुटि हो सकती है, पर यहाँ का सब कुछ ठाकुरजी का प्रसाद है।"

मैंने हँसकर कहा, "ओ संध्याी की बन्धु, यह कोई डर की बात नहीं, वैष्णव न होते हुए भी तुम्हारे नये गुसाईं में रस-बोध है, आतिथ्य की त्रुटि के लिए वह रस-भंग नहीं करेगा। जो है रख दो- लौटकर देखोगी कि प्रसाद का एक कण भी बाकी नहीं है।"

"ठाकुरजी का प्रसाद ऐसे ही तो खाया जाता है," यह कह और सिर नीचा कर कमललता ने सारी खाद्य-सामग्री एक-एक कर सिलसिलेवार सजा दी।

दूसरे दिन बहुत सबेरे ही नींद टूट गयी। भारी नगाड़े की आवाज के साथ मंगल आरती शुरू हो गयी है। प्रभाती के सुर में कीर्तन का पद कान में पड़ा-

कान्ह-गले बनमाला बिराजे, राधा-गले मोती साजैं।

अरुण चरण दोउ नू पुरशोभित, चख लख खंजन लाजैं।

इसके बाद दिनभर ठाकुरजी की सेवा होती रही। पूजा-पाठ, कीर्तन, नहलाना, खाना-खिलाना, बदन पोंछना, चन्दन लगाना, माला पहनाना- इसमें जरा भी विराम और विच्छेद नहीं पड़ा। सब व्यस्त हैं, सब नियुक्त हैं। ऐसा लगा कि ये पत्थर के देवता ही यह अष्टप्रहरव्यापी अनन्त सेवा सह सकते हैं, और कोई होता तो ऐसे जबरदस्त उपद्रव के मारे कभी का क्षीण होकर नष्ट हो जाता।

कल वैष्णवी से पूछा था कि "तुम भजन करती हो?" उसने जवाब में कहा था, कि 'यही तो साधना और भजन है।" सविस्मय प्रश्न किया था, "यह रसोई बनाना, फूल चुनना, माला गूँथना, दूध ओंटाना- क्या इसी को साधना कहती हो?" उसने उसी वक्त सिर हिलाकर जवाब देते हुए कहा था, "हाँ, हम इसी को साधना कहती हैं- हमारी और कोई भजन-साधना नहीं है।"

आज पूरे दिन का हाल देखकर समझ गया कि उसकी बात का एक-एक अक्षर सच है। कहीं भी अतिरंजन या अत्युक्ति नहीं। दोपहर को जरा मौका पाकर बोला, "मैं जानता हूँ कमललता, कि तुम और सब जैसी नहीं हो। सच तो कहो, भगवान की प्रतीक यह पत्थर की मूर्ति..."

वैष्णवी ने हाथ उठाकर मुझे रोक दिया और कहा, "प्रतीक क्या जी- वे तो साक्षात् भगवान हैं- ऐसी बात कभी जबान पर भी न लाना नये गुसाईं- "मेरी बातों से उसे जैसे बहुत शर्म आयी, न जाने मैं भी क्यों एक तरह से झेंप गया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बोल, "मैं तो नहीं जानता, इसीलिए पूछा था कि क्या वाकई तुम सब यह सोचती हो कि इस पत्थर की मूर्ति में ही भगवान की शक्ति और चेतना है उसका..."

मेरी यह बात भी पूरी न हो सकी। वह बोल उठी, "सोचने जाँयेंगी ही क्यों जी, यह तो हमारे लिए प्रत्यक्ष है। तुम लोग संस्कारों के मोह नहीं तोड़ सके हो, इसीलिए यह सोचते हो कि रक्त-मांस के शरीर को छोड़कर और कहीं चैतन्य के रहने के लिए जगह नहीं है। पर यह क्यों? और यह भी कहती हूँ कि शक्ति और चैतन्य का तत्व क्या तुम लोग ही सब हजम कर चुके हो, जो यह कहोगे कि पत्थर में उसके लिए जगह नहीं है? होती है जी, होती है, भगवान को कहीं भी रहने में रुकावट नहीं होती, नहीं तो बताओ उन्हें भगवान ही क्यों कहेंगे?"

तर्क की दृष्टि से ये बातें स्पष्ट भी नहीं और पूर्ण भी नहीं हैं। पर यह और कुछ तो है नहीं, यह तो उसका जीवन्त विश्वास है। उसके इस जोर और अकपट उक्ति के सामने मैं एकाएक न जाने कैसे सिटपिटा-सा गया, बहस करने- प्रतिवाद करने का साहस ही नहीं हुआ, इच्छा भी नहीं हुई। बल्कि सोचा, सच तो है, पत्थर हो या और कुछ लेकिन इतने परिपूर्ण विश्वास से वह अपने को अगर पूर्णत: समर्पित न कर पाती तो वर्ष के बाद वर्ष, और दिन के बाद दिन यह अविछिन्न सेवा करते रहने की शक्ति उसे मिलती कैसे? इस तरह सीधे, निश्चिन्त और निर्भय होकर खड़े होने का अवलम्बन कहाँ से मिलता? ये शिशु तो हैं नहीं, बच्चों के खेल के इस मिथ्या अभिनय से दुबिधाग्रस्त मन दो दिन में ही थककर गिन जाता? पर ऐसा तो नहीं हुआ बल्कि भक्ति और प्रेम की अखण्ड एकाग्रता में इनके आत्मनिवेदन का आनन्दोत्सव बढ़ता ही जा रहा है। इस जीवन में पाने की दृष्टि से वह क्या सब कुछ शून्य या सब कुछ भूल है- सब अपने को ठगना है?

वैष्णव ने कहा, "क्यों गुसाईं, बात क्यों नहीं करते?"

मैंने कहा, "सोच रहा हूँ।"

"किसका सोच कर रहे हो?"

"तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ।"

"यह तो मेरा बड़ा सौभाग्य है।" कुछ देर बाद कहा, "फिर भी यहाँ रहना नहीं चाहते, न जाने कहाँ किस बर्मा देश में नौकरी करने जाना चाहते हो। नौकरी क्यों करोगे?"

मैंने कहा, "मेरे पास मठ की जमीन-जायदाद तो है नहीं- अन्धभक्तों का दल भी नहीं- खाऊँगा क्या?"

"भगवान देंगे।"

मैंने कहा, "यह अत्यन्त दुराशा है। पर ऐसा तो नहीं लगता कि तुम सबका भी भगवान पर बहुत भरोसा है, नहीं तो भिक्षा के लिए क्यों जातीं।"

वैष्णवी ने कहा, "जाती हूँ इसलिए कि देने के लिए वे हाथ बढ़ाये दरवाजे-दरवाजे खड़े हैं। नहीं तो हमारी गरज नहीं है। अगर होती तो नहीं जातीं। बिना खाये ही सूख-सूख मर जातीं, तो भी नहीं जातीं।"

"कमललता, तुम्हारा देश कहाँ है?"

"कल ही तो कहा था गुसाईं, मेरा घर पेड़ के नीचे है, मेरा देश गली-गली में है।"

"तो पेड़ के नीचे और गली-गली में न रहकर मठ में किस लिए रहती हो?"

"बहुत दिनों तक गली-गली में ही थी गुसाईं- अगर कोई संगी मिल जाय तो फिर एक बार गली को संबल बना लूँ।"

मैंने कहा, "इस बात पर तो विश्वास नहीं होता। तुम्हें संगी-साथी की क्या कमी है कमललता? जिससे कहोगी वही राजी हो जायेगा।"

वैष्णवी ने हँसते हुए कहा, "तुम्हीं से कहती हूँ नये गुसाईं- राजी होगे?"

मैं भी हँसा। कहा, "हाँ, राजी हूँ। नाबालिग उम्र में जो यात्रा के दल से नहीं डरा, बालिग अवस्था में उसे वैष्णवी का क्या डर?"

"यात्रा के दल में भी रहे थे?"

"हाँ।"

"तो गाना भी गा सकते हो?"

"नहीं। मालिक ने इतनी दूर आगे बढ़ने ही नहीं दिया, इसके पहले ही जवाब दे दिया। यह नहीं कहा जा सकता कि तुम मालिक होती तो क्या करतीं।"

वैष्णवी हँसने लगी। बोली, "मैं भी जवाब दे देती। इसे छोड़ो, अब हम में से एक के भी जाने पर काम चल जाएगा। इस देश में चाहे जैसे भी भगवान का नाम लेने पर भिक्षा का अभाव नहीं होता। चलो न गुसाईं, निकल पड़े। कह रहे थे कि वृन्दावन धाम कभी नहीं देखा है, चलो तुम्हें दिखला लाऊँ। बहुत दिन घर में बैठे-बैठे कटे, रास्ते का नशा जैसे फिर अपनी ओर खींचना चाहता है। सच, चलोगे नये गुसाईं?"

अचानक उसके मुँह की ओर देखकर बहुत विस्मय हुआ। कहा, "हमारा परिचय हुए तो अभी चौबीस घण्टे भी नहीं हुए, मुझ पर इतना विश्वास कैसे हो गया?" वैष्णवी ने कहा, "ये चौबीस घण्टे सिर्फ एक पक्ष के लिए ही तो नहीं हैं गुसाईं, दोनों पक्षों के लिए हैं। मेरा विश्वास है कि रास्ते में प्रवास में भी तुम पर मेरा अविश्वास न होगा। कल पंचमी है, जाने का बड़ा अच्छा शुभ दिन है- चलो। और रास्ते के किनारे रेल का पथ तो है ही- अच्छा नहीं लगे तो लौट आना। मैं मना नहीं करूँगी।"

एक वैष्णवी ने आकर खबर दी, "ठाकुरजी का प्रसाद कमरे में रख दिया गया है।" कमललता ने कहा, "चलो तुम्हारे कमरे में चलकर बैठें।"

"मेरे कमरे में? अच्छी बात है।"

और एक बार उसके मुँह की तरफ देखा। इस बार लेशमात्र भी सन्देह न रहा कि वह हँसी नहीं कर रही है। यह भी निश्चित है कि मैं उपलक्ष-मात्र हूँ, पर चाहे जिस कारण से हो, उसकी ऐसी हालत मालूम हुई कि वह चाहे जिस कारण से हो, यदि यहाँ के बन्धन तोड़कर भाग सके तो मानों उसकी जान में जान आ जाय- उसे एक क्षण का भी विलम्ब सहन नहीं हो रहा है।

कमरे में आकर खाने बैठा। बहुत बढ़िया प्रसाद है। भागने का षडयन्त्र अच्छी तरह जम जाता, पर एक बहुत जरूरी काम से कोई कमललता को बुला ले गया। अत: अकेले ही मुँह बन्द किये हुए सेवा समाप्त करनी पड़ी। बाहर निकलने पर कोई भी नज़र नहीं आया, द्वारिकादास बाबाजी भी न जाने कहाँ चले गये। दो-तीन पुरानी वैष्णवियाँ घूम-फिर रही हैं- कल शाम को ठाकुर जी के कमरे के धुएँ में शायद ये ही अप्सरा जैसी लगी थीं, किन्तु आज दिन की तेज रोशनी में कल का वह अध्‍यात्म सौन्दर्य-बोध उतना अटूट नहीं रहा। मन न जाने कैसा हो गया, सीधा आश्रम के बाहर चला आया। वही शैवालाच्छन्न शीर्णकाया मन्दस्रोता सुपरिचित नदी और वही लता-गुल्म-कंटकाकीर्ण तटभूमि, वही सर्पसंकुल सुदृढ़ बेंतों का कुंज और सुविस्तृत बेणुवन।

बहुत दिनों के अनभ्यास के कारण शरीर सनसनाने लगा, कहीं दूसरी जगह जाने की सोच ही रहा था कि एक आदमी जो कहीं छिपा बैठा था, अब उठा और नजदीक आकर खड़ा हो गया। पहले तो आश्चर्य हुआ कि इस जगह भी आदमी हो सकता है। उसकी उम्र मेरे बराबर ही होगी, और दस वर्ष ज्यादा होना भी असम्भव नहीं है। ठिंगना, दुबला-पतला, शरीर का रंग बहुत ज्यादा काला नहीं है, पर मुँह का नीचे का हिस्सा जैसे बहुत ही छोटा है। ऑंखों की दोनों भौहें भी वैसी ही अस्वाभाविक रूप में विस्तीर्ण हैं। वस्तुत:, इतनी बड़ी, घनी और मोटी भौंहें भी मनुष्य की होती हैं, यह ज्ञान मुझे इसके पहले न था। दूर से ही सन्देह हुआ कि प्रकृति ने मजाक में होठों के बदले कपाल पर एक जोड़ी मोटी मूँछें तो नहीं चिपका दी हैं। गले में तुलसी की मोटी माला है, वेशभूषादि भी बहुत कुछ वैष्णवों जैसी है, पर जितनी मैली है उतनी ही जीर्ण।

"महाशयजी!"

"चौंककर खड़े होते हुए मैंने पूछा, "क्या आज्ञा है?"

"क्या यह जान सकता हूँ कि आप यहाँ कब आये हैं?"

"जान सकते हैं। कल शाम को आया हूँ।"

"रात को अखाड़े में शायद थे?"

"हाँ, था।"

"ओ:!"

नीरवता में ही कुछ क्षण कटे। पैर बढ़ाने की कोशिश करते ही उस आदमी ने कहा, "आप तो वैष्णव नहीं हैं, भले आदमी हैं- अखाड़े में आपको रहने दिया?"

मैंने कहा, "यह तो वे ही जानें। उन्हीं से पूछिए।"

"ओ:, शायद कमललता ने रहने के लिए कहा होगा?"

"हाँ।"

"ओ:, जानते हैं उसकी असली नाम क्या है? उषांगिनी। मकान सिलहट में है किन्तु दिखती है कलकत्ते जैसी। मेरा घर भी सिलहट में है। गाँव का नाम है महमूदपुर। उसके स्वभाव-चरित्र के बारे में कुछ सुनेंगे?"

मैंने कहा, "नहीं।" पर उस आदमी के हाव-भाव देखकर इस बार सचमुच ही विस्मित हो उठा। प्रश्न किया, "कमललता के साथ आपका कोई सम्बन्ध है?"

"है क्यों नहीं!"

"वह क्या?"

क्षणभर इधर-उधर कर वह आदमी एकाएक गरज उठा, "क्यों, क्या झूठ है? वह मेरी घरवाली होती है। उसके बाप ने खुद हमारी कण्ठी-बदली की थी। इसके गवाह हैं।"

न जाने क्यों मुझे विश्वास नहीं हुआ। पूछा, "आपकी जाति क्या है?"

"हम द्वादश तेली हैं।"

"और कमललता की?"

प्रत्युत्तर में वह अपनी वह मोटी भौंहों की जोड़ी घृणा से कुंचित कर बोला, "वह कलवार है- उनके पानी से हम पैर भी नहीं धोते। एक बार उसे बुला सकते हैं?"

"नहीं। अखाड़े में सब जा सकते हैं, इच्छा हो तो आप भी जा सकते हैं।" कुछ नाराज होकर वह बोला, "जाऊँगा साहब, जाऊँगा। दरोगा को पैसे खिला दिये हैं, प्यादे साथ लेकर झोंटा पकड़कर बाहर खींच लाऊँगा। बाबाजी के बाबा भी नहीं बचा सकेंगे! साला, रास्कल कहीं का!"

मैं और वाक्य व्यय न करके आगे चलने लगा। वह पीछे से कर्कश कंठ से बोला, "इसमें आपका क्या नुकसान था? जाकर अगर एक बार बुला देते तो क्या शरीर का कुछ क्षय हो जाता? ओह-भले आदमी!"

अब पीछे घूमकर देखने का साहस नहीं हुआ। पीछे कहीं गुस्से को न रोक पाऊँ और इस अति दुर्बल आदमी के शरीर पर हाथ न छोड़ बैठूँ, इस डर से कुछ तेजी के साथ ही मैंने प्रस्थान किया। ऐसा लगने लगा कि वैष्णवी के भाग जाने का हेतु शायद यहीं कहीं सम्बद्ध है।

मन खराब हो गया था। ठाकुरजी के कमरे में न तो खुद गया और न कोई बुलाने ही आया। कमरे के भीतर एक चौकी पर कई- एक वैष्णव ग्रंथावलियाँ बड़े यत्न से रक्खी थीं। उन्हीं में से एक को हाथ में लेकर और प्रदीप को सिरहाने रखकर बिछौने पर लेट गया। वैष्णव-धर्मशास्त्र के अध्यलयन के लिए नहीं, सिर्फ वक्त गुजारने के लिए। बार-बार क्षोभ के साथ सिर्फ एक ही बात का खयाल आने लगा, कमललता जो गयी सो फिर लौटकर नहीं आयी! ठाकुरजी की संध्याय-आरती यथारीति शुरू हुई, उसका मधुर कण्ठ बार-बार कानों में सुनाई पड़ने लगा और घूम-फिरकर यही खयाल मन में आने लगा कि उस वक्त से कमललता ने मेरी कोई खोज-खबर ही नहीं ली! और वह मोटी भौंहों वाला आदमी? क्या उसकी शिकायत में कुछ भी सत्य नहीं है?

और भी एक बात है। गौहर कहाँ है? उसने भी तो आज मेरी कोई खोज खबर नहीं ली। सोचा था कि कुछ दिन- पूँटू के विवाहवाले दिन तक, यहीं गुजार दूँगा, पर अब यह नहीं होगा। शायद कल ही कलकत्ते रवाना हो जाना पड़े।

शनै: शनै: आरती और कीर्तन समाप्त हो गया। कलवाली वही वैष्णवी आकर बड़े यत्न से प्रसाद रख गयी, पर जिसकी राह देख रहा था उसके दर्शन नहीं मिले। बाहर लोगों की बातचीत और आने-जाने की आवाज भी क्रमश: शान्त हो गयी। यह सोचकर कि अब उसके आने की सम्भावना नहीं है, भोजन किया और हाथ-मुँह धोकर दीप बुझा सो गया।

शायद उस वक्त बहुत रात थी, कानों में भनक पड़ी, "नये गुसाईं!"

जागकर उठ बैठा। अन्धकार में खड़ी कमललता आहिस्ता-आहिस्ता बोली, "आयी नहीं, इसलिए शायद मन-ही-मन बहुत दु:खी हो रहे हैं- क्यों नये गुसाईं?"

कहा, "हाँ, दुखी हुआ हूँ।"

क्षणभर के लिए वैष्णवी चुप रही, फिर बोली, "जंगल में वह आदमी तुमसे क्या कह रहा था?"

"तुमने देखा था क्या?"

"हाँ।"

"कह रहा था कि वह तुम्हारा पति है- अर्थात्, तुम्हारे सामाजिक आचारों के मुताबिक तुम्हारी उसकी कंठी-बदल हुई है।"

"तुमने विश्वास किया?"

"नहीं, नहीं किया।"

क्षणभर के लिए फिर मौन रहकर वैष्णवी ने कहा, "उसने मेरे स्वभाव और चरित्र के बारे में कुछ इशारा नहीं किया?"

"किया था।"

"और मेरी जातिका?"

"हाँ, उसका भी।"

वैष्णवी ने कुछ ठहरकर कहा, "सुनोगे मेरे बचपन का इतिहास? शायद तुम्हें घृणा हो जाय।"

"तो रहने दो, मैं नहीं सुनना चाहता।"

"क्यों?"

"उससे क्या फायदा कमललता? तुम मुझे बहुत भली लगी हो। यहाँ से कल चला जाऊँगा और शायद फिर कभी हम लोगों की मुलाकात ही न हो। तब मेरे इस भले लगने को निरर्थक ही नष्ट करने से क्या फायदा होगा, बताओ?"

इस बार वैष्णवी बहुत देर तक मौन रही। यह समझ में न आया कि अन्धकार में चुपचाप खड़ी वह क्या कर रही है। पूछा, "क्या सोच रही हो?"

"सोच रही हूँ कि कल तुम्हें नहीं जाने दूँगी।"

"तो फिर कब जाने दोगी?"

"जाने कभी न दूँगी। पर अब बहुत रात हो गयी, सो जाओ। मसहरी अच्छी तरह से लगी हुई है न?"

"क्या पता, शायद लगी है।"

वैष्णवी ने हँसकर कहा, "शायद लगी है? वाह, खूब हो।" यह कह उसने करीब आकर अन्धकार में ही हाथ बढ़ाकर बिछौने के चारों छोरों की परीक्षा कर ली और कहा, "सोओ गुसाईं, मैं जाती हूँ।" यह कहकर वह दबे पैरों बाहर निकल गयी और बाहर से बहुत ही सावधानी के साथ दरवाजा भी बन्द कर गयी।

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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