श्रीकांत उपन्यास भाग-13

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मनुष्य की परलोक की चिन्ता में शायद पराई चिन्ता के लिए कोई स्थान नहीं। नहीं तो, मेरे खाने-पहरने की चिन्ता राजलक्ष्मी छोड़ बैठी, इतना बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या हो सकता है? इस गंगामाटी में आए ही कितने दिन हुए होंगे, इन्हीं कुछ दिनों में सहसा वह कितनी दूर हट गयी! अब मेरे खाने के बारे में पूछने आता है रसोइया और मुझे खिलाने बैठता है रतन। एक हिसाब से तो जान बची, पहले की सी जिद्दा-जिद्दी अब नहीं होती। कमजोरी की हालत में अब ग्यारह बजे के भीतर न खाने से बुखार नहीं आता। अब तो जो इच्छा हो वह, और जब चाहूँ तब, खाऊँ। सिर्फ रतन की बार-बार की उत्तेजना और महाराज की सखेद आत्म-भर्त्सना से अल्पाहार का मौका नहीं मिलता- वह बेचारा म्लान मुख से बराबर यही सोचा करता है कि उसके बनाने के दोष से ही मेरा खाना नहीं हुआ। किसी तरह इन्हें सन्तुष्ट करके बिस्तर पर जाकर बैठता हूँ। सामने वही खुला जँगला, और वही ऊसर प्रान्त की तीव्र तप्त हवा। दोपहर का समय जब सिर्फ इस छाया-हीन शुष्कता की ओर देखते-देखते कटना ही नहीं चाहता तब एक प्रश्न मुझे सबसे ज़्यादा याद आया करता है, कि आखिर हम दोनों का सम्बन्ध क्या है? प्यार वह आज भी करती है, इस लोक में मैं उसका अत्यन्त अपना हूँ, परन्तु लोकान्तर के लिए मैं उसका उतना ही अधिक पराया हूँ। उसके धर्म-जीवन का मैं साथी नहीं हूँ- हिन्दू घराने की लड़की होकर इस बात को वह नहीं भूली है कि वहाँ मुझ पर दावा करने के लिए उसके पास कोई दलील नहीं, सिर्फ यह पृथ्वीा ही नहीं- इसके परे भी जो स्थान है, उसके लिए पाथेय सिर्फ मुझे प्यार करने से नहीं मिल सकेगा- यह सन्देह शायद उसके मन में खूब बड़े रूप में हो उठा है।

वह रही उन बातों को लेकर और मेरे दिन कटने लगे इस तरह। कर्महीन, उद्देश्यहीन जीवन का दिवारम्भ होता है श्रान्ति में, और अवसान होता है अवसन्न ग्लानि में। अपनी आयु की अपने ही हाथ से प्रतिदिन हत्या करते चलने के सिवा मानो दुनिया में मेरे लिए और कोई काम ही नहीं है। रतन आकर बीच-बीच में हुक्का दे जाता है, समय होने पर चाय पहुँचा देता है- बोलता-चालता कुछ नहीं। मगर उसका मुँह देखने से मालूम होता है कि वह भी अब मुझे कृपा की दृष्टि से देखने लगा है। कभी सहसा आकर कहता, "बाबूजी, जँगला बन्द कर दीजिए, लू की लपट आती है।" मैं कह देता, "रहने दे।" मालूम होता, न जाने कितने लोगों के शरीर के स्पर्श और कितने अपरिचितों के तप्त श्वासों का मुझे हिस्सा मिल रहा है। हो सकता है कि मेरा वह बचपन का मित्र इन्द्रनाथ आज भी जिन्दा हो, और यह उष्ण वायु अभी तुरन्त ही उसे छूकर आई हो। सम्भव है कि वह भी मेरी ही तरह बहुत दिनों के बिछुड़े हुए अपने सुख-दु:ख के बाल्य साथी की याद करता हो। और हम दोनों की वह अन्‍नदा- जीजी! सोचता, शायद इतने दिनों में उसे समस्त दु:खों की समाप्ति हो गयी हो। कभी-कभी ऐसा मालूम होता कि इसी कोने में ही तो बर्मा देश है, हवा के लिए तो कोई रुकावट है नहीं, फिर कौन कह सकता है तक समुद्र पार होकर अभया का स्पर्श भी वह मेरे पास तक बहाती हुई नहीं ले आ रही है? अभया की बात याद आते ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सहज में वह मेरे मन से निकलना ही नहीं चाहती। रोहिणी भइया शायद इस वक्त काम पर गये हैं और अभया अपने मकान का सदर दरवाजा बन्द करके सिलाई के काम में लगी हुई है। दिन में मेरी तरह वह सो नहीं सकती, शायद किसी बच्चे के लिए छोटी कँथड़ी, या उसकी तरह की किसी तकिये की खोल, या ऐसा ही कोई अपनी गृहस्थी का छोटा-मोटा काम कर रही है।

छाती के भीतर जैसे तीर-सा चुभ जाता। युग-युगान्तर से संचित संस्कार और युग-युगान्तर के भले-बुरे विचारों का अभिमान मेरे रक्त के अन्दर भी तो डोल-फिर रहा है- फिर कैसे मैं इसे निष्कपट भाव से 'दीर्घायु हो' कहकर आशीर्वाद दूँ! परन्तु, मन तो शरम और संकोच के मारे एकबारगी छोटा हुआ जाता है।

काम में लगी हुई अभया की शान्त प्रसन्न छवि मैं अपने हिये की ऑंखों से देख सकता हूँ। उसके पास ही निष्कलंक सोता हुआ बालक है। मानो हाल के खिले हुए कमल के समान शोभा और सम्पद से, गन्ध और मधु से, छलक रहा है। इस अमृत वस्तु की क्या जगत में सचमुच ही जरूरत न थी? मानव-समाज में मानव-शिशु का सम्मान नहीं, निमन्त्रण नहीं, स्थान नहीं, इसी से क्या घृणा भाव से उसको दूर कर देना होगा? कल्याण के धन को ही चिर-अकल्याण में निर्वासित कर देने की अपेक्षा मानव-हृदय का बड़ा धर्म क्या और है ही नहीं?

अभया को मैं पहचानता हूँ। इतना-भर पाने के लिए उसने अपने जीवन का कितना दिया है, सो और कोई न जाने, मैं तो जानता हूँ। हृदय की बर्बरता के साथ सिर्फ अश्रद्धा और उपहास करने से ही संसार में सब प्रश्नों का जवाब नहीं हो जाता। भोग! अत्यन्त स्थूल और लज्जाजनक देह का भोग! हो भी सकता है! अभया को धिक्कार देने की बात जरूर है!

बाहर की गरम हवा से मेरी ऑंखों के गरम ऑंसू पलक मारते ही सूख जाते। बर्मा से चले आने की बात याद आती। तब की बात जब कि रंगून में मौत के डर से भाई बहन को और लड़का बाप को भी ठौर न देता था, मृत्यु-उत्सव की उद्दण्ड मृत्यु-लीला शहर-भर में चालू थी- ऐसे समय जब मैं मृत्यु-दूत के कन्धों पर चढ़कर उसके घर जाकर उपस्थित हुआ, तब, नयी जमाई हुई घर-गृहस्थी की ममता ने तो उसे एक क्षण के लिए भी दुविधा में नहीं डाला। उस बात को सिर्फ मेरी आख्यायिका की कुछ पंक्तियाँ पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता। मगर, मैं तो जानता हूँ कि वह क्या है! और भी बहुत ज़्यादा जानता हूँ। मैं जानता हूँ, अभया के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। मृत्यु!- वह भी उसके आगे छोटी ही है। देह की भूख, यौवन की प्यास- इन सब पुराने और मामूली शब्दों से उस अभया का जवाब नहीं हो सकता। संसार में सिर्फ बाहरी घटनाओं को अगल-बगल लम्बी सजाकर उससे सभी हृदयों का पानी नहीं नापा जा सकता।

काम-धन्धे के लिए पुराने मालिक के पास अर्जी भेजी है, भरोसा है कि वह नामंजूर न होगी। लिहाजा फिर हम लोगों की मुलाकात होगी। इस अरसे में दोनों तरफ बहुत-सा अघटन घट गया है। उसका भार भी मामूली नहीं, परन्तु उस भार को उसने इकट्ठा किया है अपनी असाधारण सरलता से और अपनी इच्छा से। और, मेरा भार इकट्ठा हुआ है उतनी ही बलहीनता से और इच्छा-शक्ति के अभाव से। मालूम नहीं, इसका रंग और चेहरा उस दिन आमने-सामने कैसा दिखाई देगा।

अकेले दिन-भर में जब मेरा जी हाँफने लगता, तब दिन उतरने के बाद जरा टहलने निकल जाता। पाँच-सात दिन से यह टहलना एक आदत में शुमार हो गया था। जिस धूल-भरे रास्ते से एक दिन गंगामाटी में आया था, उसे रास्ते से किसी-किसी दिन बहुत दूर तक चला जाता था। अन्यमनस्क भाव से आज भी उसी तरह जा रहा था, सहसा-सामने देखा कि धूल का पहाड़-सा उड़ाता हुआ कोई घुड़सवार दौड़ा चला आ रहा है। डरकर मैं रास्ता छोड़कर किनारे हो गया। सवार कुछ आगे बढ़ जाने के बाद रुका और लौटकर मेरे सामने खड़ा होकर बोला, "आपका ही नाम श्रीकान्त बाबू है न? मुझे पहिचाना आपने?"

मैंने कहा, "नाम मेरा यही है, मगर आपको तो मैं न पहिचान सका।"

वह घोड़े से उतर पड़ा। मैली-कुचैली फटी साहबी पोशाक पहने हुए उसने अपना पुराना सोले का हैट उतारते हुए कहा, "मैं सतीश भारद्वाज हूँ। थर्ड क्लास से प्रमोशन मिलने पर सर्वे स्कूल में पढ़ने चला गया था, याद नहीं?"

याद आ गयी। मैंने खुश होकर कहा, "कहते क्यों नहीं, तुम हमारे वही मेंढक हो! यहाँ साहब बने कहाँ जा रहे हो?"

मेंढक ने हँसकर कहा, "साहब क्या अपने वश बना हूँ भाई! रेलवे कन्स्ट्रक्शन में सब-ओवरसियरी का काम करता हूँ, कुली चराने में ही जिन्दगी बीती जा रही है, हैट-कोट के बिना गुजर कहाँ? नहीं तो, एक दिन वे ही मुझे चराकर अलग कर दें। सोपलपुर में जरा काम था, वहीं से लौट रहा हूँ- करीब एक मील पर मेरा तम्बू है, साँइथिया से जो नयी लाइन निकल रही है, उसी पर मेरा काम है। चलोगे मेरे डेरे पर? चाय पीकर चले आना।"

नामंजूर करते हुए मैंने कहा, "आज नहीं, और किसी दिन मौका मिला तो आऊँगा।"

उसके बाद मेंढक बहुत-सी बातें पूछने लगा। तबीयत कैसी रहती है, कहाँ रहते हो, यहाँ किस काम से आय हो, बाल-बच्चे कितने हैं, कैसे हैं, वगैरह-वगैरह।

जवाब में मैंने कहा, तबीयत ठीक नहीं रहती, रहता हूँ गंगामाटी में, यहाँ आने के बहुत से कारण हैं, जो अत्यन्त जटिल हैं। बाल-बच्चा कोई नहीं है, लिहाजा यह प्रश्न ही निरर्थक है।

मेंढक सीधा-साधा आदमी है। मेरा जवाब ठीक न समझ सकने पर भी, ऐसा दृढ़ संकल्प उसमें नहीं है कि दूसरे की सब बातें समझनी ही चाहिए। वह अपनी ही बात कहने लगा। जगह स्वास्थ्यकर है, साग-सब्जी मिलती है, मछली और दूध भी कोशिश करने पर मिल जाता है, पर यहाँ आदमी नहीं हैं, साथी-सँगी कोई नहीं। फिर भी विशेष तकलीफ नहीं, कारण शाम के बाद जरा नशा-वशा कर लेने से काम चल जाता है। साहब लोग कैसे भी हों, पर बंगालियों से बहुत अच्छे हैं- टेम्परेरी तौर पर एक ताड़ी का शेड खोला गया है-जितनी तबीयत आवे, पीओ। पैसे तो एक तरह से लगते ही नहीं समझ लो- सब अच्छा ही है- कन्स्ट्रक्शन में ऊपरी आमदनी भी है, और चाहूँ तो तुम्हारे लिए भी साहब से कह-सुनकर आसानी से एक नौकरी दिलवा सकता हूँ- इसी तरह की अपने-सौभाग्य की छोटी-बड़ी बहुत-सी बातें वह कहता रहा। फिर अपने गठियावाले घोड़े की लगाम पकड़े मेरे साथ-साथ वह बहुत दूर तक बकता हुआ चला। बार-बार पूछने लगा कि मैं कब तक उसके डेरे पर पधारूँगा, और मुझे भरोसा दिया कि पोड़ापाटी में उसे अकसर अपने काम से जाना पड़ता है, लौटते वक्त वह किसी दिन मेरे यहाँ गंगामाटी में जरूर हाजिर होगा।

इस दिन घर लौटने में मुझे जरा रात हो गयी। रसोइए ने आकर मुझसे कहा कि भौजन तैयार है। हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलकर खाने बैठा ही था कि इतने में राजलक्ष्मी की आवाज सुनाई दी। वह घर में आकर चौखट पर बैठ गयी, हँसती हुई बोली, "मैं पहले से कहे देती हूँ, तुम किसी बात पर एतराज न कर सकोगे।"

मैंने कहा, "नहीं, मुझे ज़रा भी एतराज नहीं।"

"किस बात पर, बिना सुने ही?"

मैंने कहा, "जरूरत समझो तो कह देना किसी वक्त।"

राजलक्ष्मी का हँसता चेहरा गम्भीर हो गया, बोली, "अच्छा।" सहसा उसकी निगाह पड़ गयी मेरी थाली पर। बोली, "अरे, भात खा रहे हो? जानते हो कि रात को तुम्हें भात झिलता नहीं- तुम क्या अपनी बीमारी न अच्छी करने दोगे मुझे, यही तय किया है क्या?"

भात मुझे अच्छी तरह ही झिल रहा था, मगर इस बात के कहने से कोई लाभ नहीं। राजलक्ष्मी ने तीव्र स्वर में आवाज दी, "महाराज!" दरवाजे के पास महाराज के आते ही उसे थाली दिखाते हुए राजलक्ष्मी ने पहले से भी अधिक तीव्र स्वर में कहा, "यह क्या है? तुम्हें शायद हज़ार बार मना कर दिया है कि रात में बाबू को भात न दिया करो- जाओ, जुरमाने में एक महीने की तनखा कट जायेगी।" मगर, इस बात को सभी नौकर-चाकर जानते थे कि रुपयों के रूप में जुर्माने के कुछ मानी नहीं होते, लेकिन फटकार के लिहाज़ से तो उसके मानी हैं ही। महाराज ने गुस्से में आकर कहा, "घी नहीं है, मैं क्या करूँ?"

"क्यों नहीं है, सो मैं सुनना चाहती हूँ।"

उसने जवाब दिया, "दो-तीन बार कहा है आपसे कि घी निबट गया है, आदमी भेजिए। आप न भेजें तो इसमें मेरा क्या दोष?"

घर-खर्च के लिए मामूली घी यहीं मिल जाता है, पर मेरे लिए आता है साँइथिया के पास के किसी गाँव से। आदमी भेजकर मँगाना पड़ता है। घी की बात या तो अन्यमनस्कता के कारण राजलक्ष्मी ने सुनी नहीं, या फिर वह भूल गयी। उससे पूछा, "कब से नहीं है महाराज?"

"हो गये पाँच-सात दिन।"

"तो पाँच-सात दिन से इन्हें भात खिला रहे हो?"

रतन को बुलाकर कहा, "मैं भूल गयी तो क्या तू नहीं मँगा सकता था? क्या इस तरह सभी मिलकर मुझे तंग कर डालोगे?"

रतन भीतर से अपनी माँजी पर बहुत खुश न था। दिन-रात घर छोड़कर अन्यत्र रहने और खासकर मेरी तरफ से उदासीन हो जाने से उसकी नाराजगी हद तक पहुँच चुकी थी। मालकिन के उलाहने के उत्तर में उसने भले आदमी का सा मँह बनाकर कहा, "क्या जानूँ माँजी, तुमने सुनी-अनसुनी कर दी तो मैंने सोचा कि बढ़िया कीमती घी की शायद अब जरूरत न हो। तभी तो भला पाँच-छह दिन से मैं कमजोर आदमी को भात खाने देता?"

राजलक्ष्मी के पास इसका जवाब ही न था, इसलिए नौकर से इतनी बड़ी चुभने वाली बात सुनकर भी वह बिना कुछ जवाब दिये चुपके से उठकर चली गयी?

रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े बहुत देर तक छटपटाते रहने के बाद शायद कुछ झपकी-सी लगी होगी, इतने में राजलक्ष्मी दरवाजा खोलकर भीतर आई और मेरे पाँयते के पास बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही; फिर बोली, "सो गये क्या?"

मैंने कहा, "नहीं तो।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम्हें पाने के लिए मैंने जितना किया है, उससे आधा भी अगर भगवान के पाने के लिए करती तो अब तक शायद वे भी मिल जाते। मगर मैं तुम्हें न पा सकी।"

मैंने कहा, "हो सकता है कि आदमी को पाना और भी कठिन हो।"

"आदमी को पाना?" राजलक्ष्मी क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, "कुछ भी हो, प्रेम भी तो एक तरह का बन्धन है, शायद यह भी तुमसे नहीं सहा जाता-ऑंसता है।"

इस अभियोग का कोई जवाब नहीं, यह अभियोग शाश्वत और सनातन है। आदिम मानव-मानवी से उत्तराधिकार-सूत्र में मिले हुए इस कलह की मीमांस कोई नहीं है- यह विवाद जिस दिन मिट जायेगा उस दिन संसार का सारा रस और सारी मधुरता तीती जहर हो जायेगी इसी से मैं उत्तर देने की कोशिश न करके चुप हो रहा।

परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि, जीवन के लिए राजलक्ष्मी ने कोई आग्रह या जबरदस्ती नहीं की, जीवन के इतने बड़े सर्वव्यापी प्रश्न को भी वह मानो एक निमेष में अपने आप ही भूल गयी। बोली, "न्यायरत्न महाराज किसी एक व्रत के लिए कह रहे थे-पर जरा कठिन होने से सब उसे कर नहीं सकते, और इतनी सुविधा भी कितनों के भाग्य में जुटती है?"

असमाप्त प्रस्ताव के बीच में मैं मौन रहा; वह कहने लगी, "तीन दिन एक तरह से उपवास ही करना पड़ता है, सुनन्दा की भी बड़ी इच्छा है- दोनों का व्रत एक ही साथ हो जाता- पर..." इतना कहकर वह खुद ही जरा हँसकर बोली, "पर तुम्हारी राय हुए बिना कैसे..."

मैंने पूछा, "मेरी राय न होने से क्या होगा?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तो फिर नहीं होगा।"

मैंने कहा, "तो इसका विचार छोड़ दो, मेरी राय नहीं है।"

"रहने दो- मजाक मत करो।"

"मज़ाक नहीं, सचमुच ही मेरी राय नहीं है- मैं मनाही करता हूँ।"

मेरी बात सुनकर राजलक्ष्मी के चेहरे पर बादल घिर आय। क्षण-भर स्तब्ध रहकर वह बोली, "पर हम लोगों ने तो सब तय कर लिया है। चीज-वस्तु मँगाने के लिए आदमी भेज दिये हैं, कल हविष्य करके परसों से- वाह अब मनाही करने से कैसे होगा? सुनन्दा के सामने मैं मुँह कैसे दिखाऊँगी छोटे महाराज? वाह! यह सिर्फ तुम्हारी चालाकी है। मुझे झूठमूठ खिझाने के लिए- सो नहीं होगा, तुम बताओ, तुम्हारी राय है?"

मैंने कहा, "है। मगर तुम किसी दिन भी तो मेरी राय गैर-राय की परवाह नहीं करती लक्ष्मी, फिर आज ही क्यों अचानक मजाक करने चली आईं? मेरा आदेश तुम्हें मानना ही होगा, यह दावा तो मैंने तुमसे कभी किया नहीं।"

राजलक्ष्मी ने मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, "अब कभी न होगा, सिर्फ अबकी बार खुशी मन से मुझे हुक्म दे दो।"

मैंने कहा, "अच्छा। लेकिन तड़के ही शायद तुम्हें जाना पड़ेगा। अब और रात मत बढ़ाओ, सोने जाओ।"

राजलक्ष्मी नहीं गयी, धीरे-धीरे मेरे पैरों पर हाथ फेरने लगी। जब तक सो न गया, घूम-फिरकर बार-बार सिर्फ यही मालूम होने लगा कि वह स्नेह-स्पर्श अब नहीं रहा। वह भी तो कोई ज़्यादा दिन की बात नहीं है, आरा स्टेशन से जिस दिन वह उठाकर अपने घर लाई थी तब इसी तरह पाँवों पर हाथ फेरकर मुझे सुलाना पसन्द करती थी। ठीक इसी तरह नीरव रहती थी, पर मुझे मालूम होता था कि उसकी दसों उँगलियाँ मानो दसों इन्द्रियों की सम्पूर्ण व्याकुलता से नारी-हृदय का जो कुछ है सबका सब मेरे इन पैरों पर ही उंड़ेले दे रही है। हालाँकि मैंने चाहा नहीं था, माँगा नहीं था, और इसे लेकर कैसे क्या करूँगा, सो भी सोचकर तय नहीं कर पाया था। बाढ़ के पानी के समान आते समय भी उसने राय नहीं ली, और शायद जाते सयम भी, उसी तरह मुँह न ताकेगी। मेरी ऑंखों से सहज में ऑंसू नहीं गिरते, और प्रेम के लिए भिखमंगापन भी मुझसे करते नहीं बनता। संसार में मेरा कुछ भी नहीं है, किसी से कुछ पाया भी नहीं है, 'दे दो' कहकर हाथ फैलाते हुए भी मुझे शरम आती है। किताबों में पढ़ा है, इसी बात पर कितना विरोध, कितनी जलन, कितनी कसक और मान-अभिमान-न जाने कितना प्रमत्त पश्चात्ताप हुआ करता है- स्नेह की सुधा गरल हो उठने की न जाने कितनी विक्षुब्ध कहानियाँ हैं। जानता हूँ कि ये सब बातें झूठी नहीं हैं, परन्तु मेरे मन का जो वैरागी तन्द्रराच्छन्न पड़ा था, सहसा वह चौंककर उठ खड़ा हुआ, बोला, "छि छि छि!"

बहुत देर बाद मुझे सो गया समझकर, राजलक्ष्मी जब सावधानी के साथ धीरे से उठकर चली गयी तब वह जान भी न पाई कि मेरे निद्राहीन निमीलित नेत्रों से ऑंसू झर रहे हैं। ऑंसू बराबर गिरते ही रहे, किन्तु आज की वह आयत्तातीत सम्पदा एक दिन मेरी ही थी, इस व्यर्थ के हाहाकार से अशान्ति पैदा करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई।

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सबेरे उठकर सुना कि बहुत तड़के ही राजलक्ष्मी नहा-धोकर रतन को साथ लेकर चली गयी है। और यह भी खबर मिली कि तीन दिन तक उसका घर आना न होगा। हुआ भी यही। वहाँ कोई विराट काण्ड हो रहा हो सो बात नहीं- पर हाँ, दस-पाँच ब्राह्मण सज्जनों का आवागमन हो रहा है, और कुछ-कुछ खाने-पीने का भी आयोजन हुआ है, इस बात का आभास मुझे यहीं बैठे-बैठे अपने जँगले में से मिल रहा था। कौन-सा व्रत है, उसका कैसा अनुष्ठान है, उसके सम्पन्न करने से स्वर्ग का मार्ग कितना सुगम होता है, यह मैं कुछ भी न जानता था, और जानने के लिए ऐसा कुछ कुतहूल भी न था। रतन रोज शाम के बाद आया करता और

कहता, "आप एक बार भी गये नहीं बाबूजी?"

मैं पूछता, "इसकी क्या कोई जरूरत है?"

रतन कुछ मुसीबत में पड़ जाता। वह इस ढंग से जवाब देता- मेरा बिल्कु्ल न जाना लोगों की निगाह में कैसा लगता होगा! हो सकता है कि कोई समझ बैठे कि इसमें मेरी इच्छा नहीं है। कहा तो नहीं जा सकता?

नहीं, कहा कुछ भी नहीं जा सकता। मैं पूछता, "तुम्हारी मालकिन क्या कहती हैं?"

रतन कहता, "उनकी इच्छा तो आप जानते ही हैं, आप नहीं रहते हैं तो उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। लेकिन क्या करें, कोई पूछता है तो कह देती हैं, कमजोर शरीर है, इतनी दूर पैदल आने-जाने से तबीयत खराब होने का डर है। और आ के करेंगे ही क्या!"

मैंने कहा, "सो तो ठीक बात है। इसके अलावा तुम तो जानते हो रतन, कि इन सब पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, धर्म-कर्मों के बीच मैं बिल्कुआल ही अशोभन-सा दिखाई देता हूँ। योग-यज्ञ के मामलों में मेरा जरा दूर-दूर ही रहना अच्छा है। ठीक है न?"

रतन हाँ में हाँ मिलाता हुआ कहता, "सो तो ठीक है!" मगर मैं राजलक्ष्मी की तरफ से समझता था कि मेरी उपस्थिति वहाँ... किन्तु जाने दो उस बात को।

सहसा एक जबरदस्त खबर सुनने में आयी। मालकिन को आराम और सहूलियत पहुँचाने के बहाने गुमाश्ता काशीनाथ कुशारी महाशय सस्त्रीक वहाँ उपस्थित हुए हैं।

"कहता क्या है रतन, एकदम सस्त्रीक?"

"जी हाँ। सो भी बिना निमन्त्रण के।"

समझ गया कि भीतर-ही-भीतर राजलक्ष्मी का कोई कौशल चल रहा है। सहसा ऐसा भी मालूम हुआ कि शायद इसीलिए उसने अपने घर न करके दूसरों के घर यह इन्तजाम किया है।

रतन कहने लगा, "बड़ी बहू का विनू को गोद में लेकर रोना अगर आप देखते! छोटी बहू ने खुद अपने हाथ से उनके पाँव धो दिये, खाना नहीं चाहती थीं सो अपने हाथ से आसन बिछाकर छोटे बच्चों की तरह उन्हें स्वयं खिलाया बैठकर। माँजी की ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। यह हाल देखकर बूढ़े कुशारी महाराज तो फूट-फूटकर रोने लगे- मुझे तो ऐसा मालूम होता है बाबू, काम-काज खतम हो जाने पर छोटी बहू अब उस खण्डहर की ममता छोड़-छाड़कर अपने मकान में जाकर रहेगी। यह अगर हो गया तो गाँवभर के सभी लोग बड़े खुश होंगे। और यह करामात है अपनी माँजी की ही, सो मैं बताए देता हूँ बाबूजी।"

सुनन्दा को जहाँ तक मैंने पहिचाना है, उससे इतनी बड़ी आशा मैं न कर सका; परन्तु राजलक्ष्मी के ऊपर से मेरा बहुत-सा अभिमान, शरत के मेघाच्छन्न आकाश की भाँति, देखते-देखते हटकर न जाने कहाँ बिला गया और ऑंखों के सामने बिल्कुाल स्वच्छ हो गया।

इन दोनों भाइयों और बहुओं का विच्छेद जिस तरह सत्य नहीं, उसी तरह स्वाभाविक भी नहीं। मन के भीतर जरा-सी खौंप न होने पर भी जहाँ बाहर से इतनी बड़ी फटन दिखाई दे रही है, उस फटे को जोड़ देने लायक हृदय और कौशल जिसमें है, उस जैसा कलाकार और है कहाँ? इसी उद्देश्य से कितने दिनों से वह गुप्त रूप से उद्योग करती आ रही है, कोई ठीक है! मैंने एकाग्र हृदय से आशीर्वाद दिया कि उसकी यह सदिच्छा पूर्ण हो। कुछ दिनों से मेरे हृदय के एकान्त कोने में जो भार संचित हो रहा था, आज उसके बहुत-कुछ हलका हो जाने से, आज का दिन मेरा बहुत अच्छी तरह बीता। कौन-सा शास्त्रीय व्रत राजलक्ष्मी ने लिया है, मैं नहीं जानता; परन्तु आज उसकी तीन दिन की मियाद पूरी हो जायेगी और कल उससे भेंट होगी, यह बात बहुत दिनों बाद फिर मानो मुझे नये रूप में याद आ गयी।

दूसरे दिन सबेरे राजलक्ष्मी आ न सकी, पर बहुत दु:ख के साथ रतन के मुँह से खबर भिजवाई कि ऐसा भाग्य है मेरा कि एक बार आ के सूरत दिखा जाने तक की फुरसत नहीं- दिन-मुहूर्त बीत जायेगा। पास ही कहीं वक्रेश्वर नाम का तीर्थ है, वहाँ जाग्रत देवता और गरम जल का कुण्ड है, उसमें अवगाहन स्नान करने से सिर्फ वही नहीं, उसके पितृ-कुल मातृ-कुल और श्वशुर-कुल के तीन करोड़ जन्मों के जो कोई जहाँ होंगे, उन सबका उद्धार हो जायेगा। साथी मिल गये हैं, दरवाजे पर बैलगाड़ी तैयार है, यात्रा का मुहूर्त हो ही रहा है। दो-एक बहुत जरूरी चीजें रतन ने दरबान के हाथ भेज दीं। वह बेचारा जी छोड़कर दौड़ा चला गया। सुना कि लौटने में पाँच-सात दिन लगेंगे।

और भी पाँच-सात दिन! शायद अभ्यास के कारण ही हो, आज उसे देखने के लिए मैं मन-ही-मन उन्मुख हो उठा था। परन्तु रतन के मुँह से अकस्मात् उसकी तीर्थयात्रा का समाचार सुनकर निराशा के अभिमान या क्रोध के बदले, सहसा मेरा हृदय करुणा और व्यथा से भर उठा। प्यारी सचमुच ही सम्पूर्णतया नि:शेष होकर मर गयी है, उसके कृतकर्म के दु:सह भार से आज राजलक्ष्मी के सम्पूर्ण देह-मन में जो वेदना का आर्तनाद उच्छ्वसित हो उठा है, उसे रोकने का रास्ता उसे ढूँढे नहीं मिल रहा है। यह जो अश्रान्त विक्षोभ है-अपने जीवन से दौड़कर निकल भागने की यह जो दिग्विहीन व्याकुलता है, इसका क्या कोई अन्त नहीं? पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह ही क्या यह दिन-रात अविश्राम सिर धुन-धुनकर मर मिटेगी? और उस पिंजडे क़ी लौह-शलाका के समान मैं ही क्या चिरकाल उसका मुक्ति का द्वार घेरे रहूँगा? संसार जिसे किसी भी चीज से किसी दिन बाँध न सका, उसी मेरे भाग्य से ही क्या भगवान ने अन्ततोगत्वा इतना बड़ा दुर्भोग लिख दिया है? मुझे वह सम्पूर्ण हृदय से चाहती है। मेरा मोह उससे छुटाए नहीं छूटता। इसी का पुरस्कार देने के लिए क्या मैं उसकी समस्त भावी सुकृति के पैरों की बेड़ी बनकर रहूँगा?

मैंने मन-ही-मन कहा, "मैं उसे छुट्टी दूँगा- उस बार की तरह नहीं- अबकी बार, एकाग्र चित्त से, अन्त:करण के सम्पूर्ण आशीर्वाद के साथ हमेशा के लिए उसे मुक्ति दूँगा। और हो सका तो उसके लौटने के पहले ही मैं इस देश को छोड़कर चला जाऊँगा। किसी भी आवश्यकता पर, किसी भी बहाने, सम्पदा और विपदा के किसी भी चक्कर में अब उसके सामने न आऊँगा। एक दिन मेरे अपने ही अदृष्ट ने मुझे अपने इस संकल्प में दृढ़ नहीं रहने दिया, परन्तु, अब मैं उसके आगे किसी भी तरह पराजय स्वीकार न करूँगा।"

मन-ही-मन बोला, "अदृष्ट इसी का नाम है। एक दिन जब मैं पटने से बिदा हुआ, तब प्यारी अपने ऊपर के बरामदे में चुपचाप खड़ी थी। उस समय उसके मुँह में जबान न थी, नीरव थी; फिर भी क्या उसके विरुद्ध अन्त:करण से निकली हुई मुझे वापस बुलाने वाली ऑंसूभरी पुकार रास्ते-भर मेरे कानों में बार-बार नहीं गूँजती रही थी? परन्तु, मैं लौटा नहीं। देश छोड़कर सुदूर विदेश में चला गया था, परन्तु वह जो रूपहीन, भाषारहित, दुर्निवार आकर्षण मुझे रात-दिन अपनी ओर खींचने लगा, उसके निकट यह देश-विदेश का व्यवधान कितना-सा था? फिर एक दिन वापस आना पड़ा। बाहर वाले मेरे उस पराजय की ग्लानि को ही देख सके, पर मेरे कण्ठ की अम्लान कान्ति जयमाला पर उनकी निगाह न पड़ी।"

ऐसा ही होता है। मैं जानता हूँ, निकट-भविष्य में ही फिर एक दिन मेरी बिदाई की घड़ी आ पहुँचेगी। उस दिन भी शायद वह उसी तरह नीरव ही बनी रहेगी, परन्तु मेरी उस अन्तिम बिदा की यात्रा में सम्पूर्ण मार्ग-व्यापी वह अभूतपूर्व निविड़ आह्नान शायद अब न सुनाई देगा।

मन-ही-मन सोचने लगा, "यह जो रहने का निमन्त्रण समाप्त हो जाना ही सिर्फ बाकी बच रहता है, सो कैसी व्यथा की वस्तु है! फिर भी, इस व्यथा का कोई भागीदार नहीं, सिर्फ मेरे ही हृदय में गढ़ा खोदकर इस निन्दित वेदना को हमेशा के लिए अकेला रहना होगा। राजलक्ष्मी से प्रेम करने का अधिकार संसार ने मुझे नहीं दिया; यह एकाग्र प्रेम, यह हँसना-रोना और मान-अभिमान यह त्याग, यह निविड़ मिलन- सब कुछ लोक-समाज की दृष्टि से जैसे व्यर्थ है। उसी तरह आपका मेरा यह आसन्न विच्छेद का असह्य अन्तर्दाह भी बाहर वालों की दृष्टि से अर्थहीन है।" आज यही बात मुझे सबसे ज़्यादा चुभने लगी कि एक का मर्मान्तिक दु:ख जब कि दूसरे के लिए उपहास की वस्तु हो जाती है, तो इससे बढ़कर ट्रेजिडी संसार में और क्या हो सकती है? फिर भी, होती यही है। लोकसमाज में रहते हुए भी जिस आदमी ने लोकाचार को नहीं माना- विद्रोह किया है, वह फरियाद भी करे तो किससे? यह समस्या सनातन है, शाश्वत और प्राचीन है। सृष्टि के दिन से लेकर आज तक यह एक ही प्रश्न बार-बार घूमता हुआ चला आ रहा है, और भविष्य के गर्भ में भी जहाँ तक दृष्टि जाती है, इसका कोई समाधान दिखाई नहीं देता। यह अन्याय है-अवांछनीय है। तो भी, इतनी बड़ी सम्पदा- इतना बड़ा ऐश्वर्य, क्या मनुष्य के पास और कुछ है? अबाध्यै नर-नारी के इस आवांछित हृदय वेग की न जाने कितनी नीरव वेदनाओं के इतिहास को बीच में रखकर युग-युग में कितने पुराणों, कितनी कथाओं और कितने काव्यों के अभ्रभेदी सौध खड़े किये गये हैं, कोई ठीक है!

परन्तु आज अगर यह रुक जाय? मन-ही-मन कहा, जाने दो। राजलक्ष्मी की धर्म में रुचि हो, उसके वक्रेश्वर का मार्ग सुगम हो, उसका मन्त्रोच्चारण शुद्ध हो, आशीर्वाद करता हूँ कि उसका पुण्योपार्जन का मार्ग निरन्तर निर्विघ्न और निष्कण्टक होता जाय। अपने दु:ख का भार मैं अकेला ही ढोता रहूँगा।

दूसरे दिन नींद खुलने के साथ ही साथ ऐसा मालूम हुआ, मानो गंगामाटी के इस घर से, यहाँ के गली-कूचों और खुले मैदान से-सबसे मेरे सभी बन्धन एक साथ ही शिथिल हो गये हैं। राजलक्ष्मी कब लौटेगी, कोई ठीक नहीं, मगर मेरा मन ही अब एक क्षण भी यहाँ रहना नहीं चाहता। नहाने के लिए रतन ने ताकीद करना शुरू कर दिया। कारण, जाते समय राजलक्ष्मी सिर्फ कड़ा हुक्म देकर ही निश्चिन्त न हो सकी थी, रतन से उसने अपने पैर छुआकर सौगन्ध ले ली थी कि उसकी अनुपस्थिति में मेरी तरफ से जरा भी लापरवाही या अनियम न होने पायेगा। खाने का वक्त सबेरे ग्यारह बजे और रात को आठ बजे के भीतर तय हुआ है, और इसके लिए रतन को रोज घड़ी देखकर समय लिख रखना होगा। कह गयी है कि लौटने पर इसके लिए वह हर एक को एक-एक महीने की तनखा इनाम में देगी। मैं बिस्तर पर पड़ा-पड़ा ही जान रहा था कि रसोइया अपनी रसोई का काम खतम करके इधर-उधर डोल रहा है, और कुशारी महाशय सबेरा होते न होते नौकर के सिर पर साग-सब्जी, मछली, दूध वगैरह लादे स्वयं आ पहुँचे हैं। उत्सुकता अब किसी भी विषय में नहीं थी- अच्छी बात है, ग्यारह बजे और आठ बजे ही सही। मेरे कारण, एक महीने के अतिरिक्त वेतन से तुम लोग वंचित न होगे, यह निश्चित है।

कल रात को बिल्कुतल ही नींद नहीं आई थी, शायद इसीलिए आज खा-पीकर बिस्तर पर पड़ते ही सो गया।

नींद खुली करीब चार बजे। कुछ दिनों से मैं नियमित रूप से घूमने निकल जाता था, आज भी हाथ-मुँह धोकर चाय पीकर निकल पड़ा।

दरवाजे के बाहर एक आदमी बैठा था, उसने मेरे हाथ में एक चिट्ठी दी। सतीश भारद्वाज की चिट्ठी थी, किसी ने बहुत मुश्किल से एक पंक्ति लिखकर जताया कि वह बहुत बीमार है। मैं न जाऊँगा तो वह मर जायेगा।

मैंने पूछा, "क्या हुआ है उसे?"

उस आदमी ने कहा, "हैज़ा।"

मैं खुश होकर बोला, "चलो।" खुश इसलिए नहीं हुआ कि उसे हैज़ा हुआ है; बल्कि इस बात की खुशी हुई कि कम-से-कम कुछ देर के लिए तो घर से सम्बन्ध छूटने का मौका हाथ लगा और इसे मैंने बहुत बड़ा लाभ समझा।

एक बार सोचा कि रतन को बुलाकर कम-से-कम उसे कह तो जाऊँ, पर उसकी अनुपस्थिति से ऐसा न कर सका। जैसा खड़ा था वैसा ही चल दिया, घर के किसी भी आदमी को कुछ मालूम न हुआ।

लगभग तीन कोस रास्ता तय करने के बाद संध्याआ के समय सतीश के कैम्प पर पहुँचा। सोचा था कि रेलवे कन्स्ट्रक्शन के इन्चार्ज 'एस.सी. बरदाज' के यहाँ बहुत कुछ ऐश्वर्य दिखाई देगा, मगर वहाँ पहुँचकर देखा कि ईष्या करने लायक कोई भी बात नहीं है। छोटे-से एक छोलदारी डेरे में वह रहता है, उसके पास ही पुआल और डाली-पत्तों से छाई हुई एक झोंपड़ी है, उसमें रसोई बनती है। एक हृष्ट-पुष्ट बाउरी की लड़की आग जलाकर कुछ उबाल रही थी। वह मुझे अपने साथ तम्बू के भीतर ले गयी।

इस बीच में रामपुर हाट से एक छोकरा-सा पंजाबी डॉक्टर आ पहुँचा था। मुझे सतीश का बाल्य-बन्धु जानकर मानो वह जी-सा गया। रोगी के बारे में बोला, "केस सीरियस नहीं है, जान का कोई खतरा नहीं।" फिर कहने लगा, "मेरी ट्राली तैयार है, अभी रवाना न होने से हेड-क्वार्टर्स से पहुँचने में बहुत ज़्यादा रात हो जायेगी- तकलीफ का ठिकाना न रहेगा।" मेरा क्या होगा, यह उसके सोचने का विषय नहीं। कब क्या करना होगा, इस बात का भी उपदेश दिया; और अपनी ठेलागाड़ी पर रवाना होते समय बैग में से दो-तीन डिब्बी और शीशियाँ मेरे हाथ में देते हुए उसने कहा, "हैज़ा छूत की बीमारी है। उस तलैया का पानी काम में लाने के लिए मना कर दीजिएगा।" कहते-कहते उसने सामने के एक मिट्टी निकाले हुए गढ़े की और इशारा किया, और फिर कहा, "और अगर आपको खबर मिले कि कुलियों में से किसी को हैज़ा हो गया है- हो भी सकता है, तो इन दवाओं को काम में लाइएगा।"

इतना कहकर रोग की किस अवस्था में कौन-सी दवा देनी होगी, यह सब भी उसने समझा दिया।

आदमी बुरा नहीं है, और दया-माया भी है। मुझे बार-बार समझाकर सावधान कर गया है कि अपने बाल्य-बन्धु की तबीयत का हाल कल उसे जरूर मिल जाय, और कुलियों पर भी निगाह रखने में भूल न हो।

यह अच्छा हुआ। राजलक्ष्मी गयी वक्रेश्वर की यात्रा करने, और नाराज होकर मैं निकला बाहर फिरने। रास्ते में एक आदमी से भेंट हो गयी। बचपन का परिचय था उससे, इसलिए बाल्य-बन्धु तो है ही। हाँ, इतना जरूर है कि पन्द्रह-सोलह वर्ष से उससे भेंट नहीं हुई थी, इसलिए सहसा उसे पहिचान न सका था। मगर इन दो ही चार दिनों के अन्दर यह कैसी घोर घनिष्ठता हो गयी कि उसके हैजे के इलाज का भार, तीमारदारी की जिम्मेवारी, और साथ ही उसके सौ-डेढ़ सौ मिट्टी खोदने वाले कुलियों की रखवारी का भार- वह तमाम आफत मुझ पर ही आ टूटी! बच रहा सिर्फ उसका सोले का हैट और टट्टू घोड़ा- और शायद वह मजदूर की लड़की भी। उसकी मानभूमि‍ की अनिर्वचनीय बाउरी भाषा का अधिकांश मुझे खटकने लगा। सिर्फ एक बात मुझे नहीं खटकी, वह यह कि इन दस ही पन्द्रह मिनटों के दर्म्यान, मुझे पाकर उसे बहुत कुछ तसल्ली हो गयी। जाऊँ, अब इतनी कमी क्यों रक्खूँ, जाकर घोड़े को एक बार देख आऊँ।

सोचा कि मेरी तकदीर ही ऐसी है। नहीं तो उसमें राजलक्ष्मी ही क्यों कर आती, और अभया ही मेरे जरिए अपने दु:ख का बोझ कैसे ढुआती? और यह मेंढक और उसके कुलियों का झुण्ड- और किसी व्यक्ति को तो यह सब झाड़-फेंकने में क्षण-भर की भी देर न लगती। तब फिर मैं ही क्यों जिन्दगी-भर ढोता फिरूँ?

तम्बू रेल-कम्पनी का है। सतीश की निजी सम्पत्ति की सूची मैंने मन-ही-मन बना ली। कुछ एनामेल के बर्तन, एक स्टोव्ह, एक लोहे की पेटी, एक चीड़ का बॉक्स, और उसके सोने की कैम्बीस की खाट- जिसने बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने से डांगी का रूप धारण कर लिया था। सतीश होशियार आदमी है, इस खाट के लिए बिस्तर की जरूरत नहीं पड़ती, कोई बिछौने जैसी चीज होने से ही काम चल जाता है, इसी से सिर्फ रंगीन दरी के सिवा उसने और कुछ नहीं खरीदा। भविष्य में हैजा होने की उसे कोई आशंका नहीं थी। कैम्बीस की खाट पर तीमारदारी करने में बहुत ही असुविधा मालूम हुई; और जो एकमात्र दरी थी, सो बहुत ही गन्दी हो चुकी थी, इसलिए उसे नीचे जमीन पर सुलाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था।

मैं यत्परोनास्ति चिन्तित हो उठा। उस लड़की का नाम था कालीदासी। मैंने उससे पूछा, "काली कहीं किसी से एक-दो बिछौने मिल सकते हैं?"

काली ने जवाब दिया, "नहीं।"

मैंने कहा, "थोड़ा-सा पयाल-अयाल ला सकती हो?"

काली ने चट से हँसकर जो कहा, उसका मतलब यह था कि यहाँ गाय-भैंसें थोड़े ही बँधी हैं!

मैंने कहा, "तो बाबू को सुलाऊँ किस पर?"

काली ने बिना किसी डर के जमीन दिखाकर कहा, "यहाँ। ये क्या बचने वाले हैं?"

उसके चेहरे की तरफ देखने में मालूम हुआ कि ऐसा निर्विकल्प प्रेम संसार में सुदुर्लभ है। मन-ही-मन बोला, तुम भक्ति की पात्र हो। तुम्हारी बातें सुन लेने पर फिर 'मोह-मुद्गर' पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। परन्तु मेरी वैसी विज्ञानमय अवस्था नहीं है। अभी तो यह जिन्दा है, इसलिए कुछ तो बिछाने को चाहिए ही।

मैंने पूछा, "बाबू के पहिनने के एक-आध धोती-ओती भी नहीं है क्या?"

काली ने सिर हिला दिया। उसमें किसी तरह की दुबिधा या संकोच का भाव न था। वह 'शायद' नहीं कहती थी। बोली, "धोती नहीं है, पतलून है।"

माना कि पैण्ट साहबी चीज है, कीमती वस्तु है; पर उससे बिस्तर का काम लिया जा सकता है या नहीं, मेरी समझ में न आया। सहसा याद आया, आते वक्त नजदीक ही कहीं एक फटा तिरपाल देखा था; मैंने कहा, "चलो चलें, दोनों मिलकर उस तिरपाल को उठा लावें। पतलून बिछाने की बजाय वह अच्छा रहेगा।"

काली राजी हो गयी। सौभाग्यवश वह वहीं पड़ा था, लाकर उसी पर सतीश को सुला दिया। उसी के एक किनारे पर काली ने अत्यन्त विनय के साथ आसन जमा लिया, और देखते-देखते ही वह वहीं सो गयी। मेरी धारणा थी कि स्त्रियों की नाक नहीं बजती पर काली ने उसे गलत साबित कर दिया।

मैं अकेला उस चीड़ के बॉक्स पर बैठा रहा। इधर सतीश के हाथ-पैर बार-बार ऐंठ रहे थे, सेंकने-तपाने की जरूरत थी। बहुत बुलाने-पुकारने पर काली की नींद टूटी, लेकिन उसने करवट बदलकर जताया कि लकड़ी-वकड़ी कुछ है नहीं, वह आग जलाए तो कैसे? खुद कोशिश करके देख सकता था, मगर प्रकाश के नाम पूँजी वही एक हरीकेन थी। फिर भी उसकी रसोई में जाकर देखा तो मालूम हुआ कि काली ने झूठ नहीं कहा। उस एक झोंपड़ी के सिवा वहाँ और कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जो जलाई जा सके। मगर साहस न हुआ कहीं प्राण निकलने से पहले ही उसका अग्नि संस्कार न कर बैठूँ! कैम्प-खाट और चीड़ का बॉक्स निकालकर उसी में दिया सलाई लगाकर आग जलाई, और अपना कुरता खोलकर उसकी पोटली-सी बना के, उससे कुछ-कुछ सेंक देने की कोशिश करता रहा, पर अपने को सान्त्वना देने के सिवा रोगी को उससे कुछ भी फ़ायदा न पहुँच सका।

रात के दो बजे होंगे या तीन, खबर आई कि कुलियों को कै-दस्त शुरू हो गये हैं। उन लोगों ने मुझे डॉक्टर-साहब समझ लिया था। उन्हीं की बत्ती की सहायता से दवा-दारू लेकर कुली-लाइन तक पहुँचा। वे मालगाड़ी में रहते थे, छत नदारत, खुली गाड़ियाँ लाइन पर खड़ी हैं- मिट्टी खोदने की जरूरत पड़ने पर इंजन उन्हें गन्तव्य स्थान पर खींच ले जाता है और वहीं वे काम पर जाते हैं।

बाँस की नसैनी के सहारे गाड़ी पर चढ़ा। एक तरह वह बूढ़ा-सा आदमी पड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर बत्ती का प्रकाश पड़ते ही समझ गया कि उसका रोग आसान नहीं है, बहुत दूर आगे बढ़ गया है। और दूसरी ओर पाँच-सात आदमी थे, स्त्री और पुरुष दोनों। कोई सोते से उठ बैठा है तो किसी की नींद ज्यों की त्यों बनी हुई है।

इतने में उनका जमादार आ पहुँचा। वह बंगला भाषा अच्छी बोल लेता था। मैंने पूछा, "और एक रोगी कहाँ है?"

उसने अंधेरे की ओर अंगुली उठाकर दूसरा डिब्बा दिखाते हुए कहा, "वहाँ।"

फिर नसैनी के सहारे चढ़ना पड़ा, देखा कि वह स्त्री है। उमर पचीस-तीस से ज़्यादा न होगी, दो बच्चे उसके पास पड़े सो रहे हैं। पति नहीं है- वह पिछली साल अरकाटी के फेर में पड़कर, दूसरी किसी अपेक्षाकृत कम उमर की औरत के साथ, आसाम के चाय के बगीचे में काम करने चला गया है।

इस गाड़ी में और भी पाँच-छै स्त्री-पुरुष मौजूद थे, उन्होंने उसके पाषाण-हृदय पति की निन्दा करने के सिवा रोगी की कोई भी सहायता नहीं की। पंजाबी डॉक्टर के उपदेशानुसार मैंने दोनों रोगियों को दवा दे दी और बच्चों को स्थानान्तरित करने की भी कोशिश की, परन्तु किसी को भी मैं उनका भार सँभालने के लिए राजी न कर सका।

सबेरे तक और एक लड़के को हैजा शुरू हो गया, उधर सतीश भारद्वाज की अवस्था भी उत्तरोत्तर खराब हो रही थी। बहुत खुशामद-बरामद के बाद एक आदमी को साँइथिया स्टेशन पर पंजाबी डॉक्टर को खबर देने के लिए भेजा। उसने शाम तक आकर खबर दी कि वे कहीं रोगी देखने चले गये हैं।

मेरे लिए सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि साथ में रुपये नहीं थे। और खुद कल से उपवास ही कर रहा था। सोना नहीं, आराम नहीं- खैर, यह नहीं तो न सही, पर पानी वगैर पीये कैसे जीऊँ? सामने की तलैया का पानी पीने के लिए सबको मना कर दिया था, पर किसी ने बात नहीं मानी। औरतों ने मन्द मुसकान के साथ बताया कि इसके सिवा पानी और है कहाँ डॉक्टर साहब? कुछ दूरी पर गाँव में पानी था, पर जाय कौन? ये लोग मर सकते हैं, पर बिना पैसे के यह व्यर्थ का काम करने को राजी नहीं।

इसी तरह, इन्हीं लोगों के साथ, मुझे मालगाड़ी पर ही दो दिन और तीन रात रहना पड़ा। किसी को भी बचा न सका, सभी रोगी मर गये, मगर मरना ही इस स्थिति में सबसे बड़ी बात नहीं। मनुष्य जन्म लेगा तो उसे मरना तो पड़ेगा ही; कोई दो दिन पहले तो कोई दो दिन पीछे- इस बात को मैं बड़ी आसानी से समझ सकता हूँ। बल्कि मेरी समझ में तो यह बात नहीं आती कि इस मोटी-सी बात के समझने के लिए मनुष्य को इतने वैराग्य-साधन और इतने प्रकार के तत्व-विचार की जरूरत आखिर क्यों होती है? लिहाजा, मनुष्य का मरना मुझे उतना चोट नहीं पहुँचाता जितना कि मनुष्यत्व की मौत। इस बात को मानो मैं कह ही नहीं सकता।

दूसरे दिन भारद्वाज का देहान्त हो गया। आदमियों की कमी से दाह-क्रिया न हो सकी, माता धारित्री ने ही उसे अपनी गोद में स्थान दिया।

उधर का काम मिटाकर फिर मालगाड़ी की तरफ लौट आया। न आता तो अच्छा होता, मगर ऐसा कर न सका। जनारण्य के बीच रोगियों को लेकर मैं बिल्कुहल अकेला बैठा था। सभ्यता के बहाने धनी का धन-लोभ मनुष्य को कितना हृदयहीन पुश बना सकता है, इस बात का अनुभव, इन दो ही दिनों में, मानो जीवन-भर के लिए मैंने इकट्ठा कर लिया।

प्रथम सूर्य के ताप से चारों ओर जैसे आग-सी बरसने लगी, उसी में तिरपाल की छाया के नीचे रोगियों के साथ बैठा हूँ। छोटा बच्चा कैसी भयानक तकलीफ से तड़पने लगा, उसकी कोई हद नहीं- एक घूँट पानी तक देने वाला कोई नहीं। सरकारी काम ठहरा, मिट्टी खोदना बन्द नहीं हो सकता, और मजा यह कि उन्हीं की जात का उन्हीं का लड़का है यह। गाँवों में देखा है कि हरगिज ये ऐसे नहीं हो सकते। मगर, यहाँ जो इन्हें अपने समाज से, घर से, सब तरह के स्वाभाविक बन्धनों से अलग करके सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक सिर्फ एक मिट्टी खोदने के लिए ही इकट्ठा करके लाया गया है और माल-गाड़ी में आश्रय दिया गया है, यहीं उनकी मानव-हृदय वृत्ति ऐसी नेस्तनाबूद हो गयी है कि उसका एक कण भी बाकी नहीं रहा। सिर्फ मिट्टी खोदना, मिट्टी ढोना और मजदूरी लेना। सभ्य समाज ने शायद इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है। कि मनुष्य को वगैर पशु बनाए उससे पशुओं का काम ठीक तौर से नहीं लिया जा सकता।

भारद्वाज चला गया, पर उसकी अमर-कीर्ति ताड़ी की दूकान ज्यों की त्यों अक्षय बनी है। शाम के वक्त क्या औरत और क्या मर्द, सभी कोई झुण्ड बाँधकर, ताड़ी पीकर घर लौटे। दोपहर का भात पानी में भिगोकर रख दिया गया था, लिहाजा औरतें रसोई बनाने के झंझट से भी फारिग थीं। अब भला कौन किसकी सुनता है? जमादार की गाड़ी से ढोल और मंजीरे के साथ संगीत-ध्व।नि सुनाई देने लगी। कब तक वह खत्म होगी, सो मेरी समझ में न आया। और, किसी के लिए उन्हें कोई फिकर नहीं, जो सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगे। मेरे ठीक पास के ही एक डब्बे में एक औरत के शायद दो प्रणयी आ जुटे थे; रात-भर उनकी उद्दाम प्रेमलीला, बिना किसी विश्राम के, समान गति से चलती रही। इधर, इस डब्बे में एक हजरत कुछ ज़्यादा चढ़ा गये थे; वह ऐसे ऊँचे शोरगुल के साथ अपनी स्त्री से प्रणय की भीख माँगने लगे कि मारे शरम के मैं गड़-गड़ गया। दूर के एक डब्बे में एक स्त्री रह-रहकर और कराह-कराह कर विलाप कर रही थी। उसकी माँ जब दवा लेने आई, तो पता लगा कि कामिनी के बच्चा होने वाला है। लज्जा नहीं, शरम नहीं, छिपाने लायक इनके यहाँ कहीं भी कुछ नहीं, सब खुला हुआ, सब अनढँका, अनावृत्त। जीवन-यात्रा की अबाध गति बीभत्स प्रकटता में अप्रतिहत वेग से चली जा रही है। सिर्फ मैं ही एक अलग था। मृत्युलोक के आसन्न यात्री माँ और उसके बच्चे को लिये इस गम्भीर अन्धकारमय रात्रि में अकेला बैठा हुआ हूँ।

लड़के ने माँगा, "पानी।"

मैंने उसके मुँह पर झुककर कहा, "पानी नहीं है बेटा, सबेरा होने दो।"

बच्चे ने गरदन हिलाकर कहा, "अच्छा।" उसके बाद वह ऑंखें मींचकर चुप हो गया।

प्यास बुझाने को पानी नहीं था, पर मेरी ऑंखें अपने को फाड़-फाड़कर पानी बहाने लगीं। हाय रे हाय! सिर्फ मानव की सुकुमार हृदय-वृत्ति ही नहीं, अपनी सुदु:सह यातना के प्रति भी यह कैसी भयानक और असीम उदासीनता है! यही तो पशुता है! यह धैर्य-शक्ति नहीं, बल्कि जड़ता है! यह सहिष्णुता मानवता से बहुत नीचे के स्तर की वस्तु है!

हमारे डब्बे के और सभी लोग बेफिक्र सो रहे थे। कालिख-लगी हरीकेन के अत्यन्त मलिन प्रकाश में भी मैं स्पष्ट देखा रहा था कि माँ और लड़के दोनों की ही सारी देह अकड़ी जा रही है। मगर मेरे करने लायक अब और था ही क्या?

सामने काले आकाश का बहुत-सा हिस्सा सप्तर्षिमण्डल के तेज से चमक रहा है। उस तरह देखकर मैं वेदना, क्षोभ और निष्फल पश्चात्ताप से बार-बार शाप देने लगा, "आधुनिक सभ्यता के वाहन हो तुम लोग- तुम मर जाओ। मगर जिस निर्मम सभ्यता ने तुम लोगों को ऐसा बना डाला है, उसे तुम लोग हरगिज क्षमा न करना। अगर ढोना ही हो, तो तुम उसे ढोते-ढोते, खूब तेजी के साथ, रसातल तक पहुँचा दो।"

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सबेरे खबर मिली कि और भी दो जनें बीमार पड़े हैं। मैंने दवा दी, और जमादार ने साँइथिया खबर भेजी। आशा थी कि इस बार अधिकारियों का आसन डिगेगा।

नौ बजे के करीब लड़का मर गया। अच्छा ही हुआ। यही तो इनका जीवन है।

सामने के मैदान की पगडण्डी से दो भले आदमी छतरी लगाये जा रहे थे। मैंने उनके पास जाकर पूछा, "यहाँ से गाँव कितनी दूर है?"

जो वृद्ध थे, उन्होंने सिर को जरा ऊँचा करके कहा, "वह रहा।"

मैंने पूछा, "वहाँ खाने-पीने की चीज कुछ मिलती है?"

दूसरे आदमी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "मिलती नहीं कैसे! शरीफों का गाँव है, चावल-दाल, घी, तेल, तरकारी जो चाहिए, लीजिए। कहाँ से आ रहे हैं आप? आपका निवास? महाशय, आपकी..."

संक्षेप में उनका कुतूहल मिटाकर, सतीश भरद्वाज का नाम लेते ही वे रुष्ट हो उठे, वृद्ध ने कहा, "शराबी, बदमाश, जुआरी चोर!"

उसके साथी ने कहा, "रेल के आदमी और कितने अच्छे होंगे! कच्चा पैसा आता था काफी; इसी से न!

प्रत्युत्तर में सतीश की ताजी कब्र का टीला दिखलाते हुए मैंने कहा, "अब उसके विषय में आलोचना करना व्यर्थ है। कल वह मर गया, आदमियों की कमी से उसकी दाह-क्रिया नहीं की जा सकी, यहीं गाड़ देना पड़ा है।"

"कहते क्या हैं! ब्राह्मण की सन्तान को..."

"मगर उपाय क्या था?"

सुनकर दोनों ने क्षुब्ध होकर कहा कि, "शरीफों का गाँव है, जरा खबर मिलती तो कुछ-न-कुछ-कोई-न-कोई, उपाय हो ही जाता।" एक ने प्रश्न किया, "आप उनके कौन हैं?"

मैंने कहा, "कोई नहीं। मामूली परिचय था उनसे। इतना कहकर, संक्षेप में मैंने सारा किस्सा कह सुनाया और कहा कि दो दिन से कुछ खाया-पीया नहीं है, और उधर कुलियों में हैजा फैल रहा है, इसलिए उन्हें छोड़कर भी जाया नहीं जाता।"

खाना-पीना नहीं हुआ, सुनकर वे अत्यन्त उद्विग्न हुए, और साथ चले-चलने के लिए बार-बार आग्रह करने लगे। और एक ने यह भी जता दिया कि इस भयानक व्याधि में खाली पेट रहना बड़ा ही खतरनाक है।

ज़्यादा कहने की जरूरत न हुई- कहने की जरूरत थी भी नहीं- भूख-प्यास के मारे मुरदा-सा हो रहा था, लिहाजा उनके साथ हो लिया। रास्ते में इसी विषय में बातचीत होने लगी। गँवई-गाँव के आदमी थे; शहर की शिक्षा जिसे कहना चाहिए, वह इनमें नहीं थी; मगर मजा यह कि अंगरेजी राज्य की खालिस पॉलिटिक्स या कूटनीति इनसे छिपी न थी। इस बात को तो मानो देश के लोगों ने यहाँ की मिट्टी, पानी, आकाश और हवा से ही अच्छी तरह संग्रह करके अपनी नस-नस में मिला लिया है।

दोनों ने ही कहा, "सतीश भारद्वाज का इसमें कोई दोष नहीं; हम होते तो हम भी ठीक ऐसे ही हो जाते। कम्पनी-बहादुर के संसर्ग में जो आयेगा, वह चोर हुए बिना रह ही नहीं सकता। यह तो इनकी छूत की करामात है।"

भूखे-प्यासे और बहुत ही थके हुए शरीर में ज़्यादा बात करने की शक्ति नहीं थी, इसलिए मैं चुप बना रहा। वे कहने लगे, "क्या जरूरत थी साहब, देश की छाती चीरकर फिर एक रेल-लाइन निकालने की? कोई भी आदमी क्या इसे चाहता है? नहीं चाहता। मगर फिर भी होनी ही चाहिए। बावड़ी नहीं, तालाब नहीं, कुएँ नहीं, कहीं भी एक बूँद पानी पीने को नहीं- मारे गरमी के बछड़े बेचारे पानी की कमी से तड़प-तड़पकर मरे जाते हैं- कहीं भी जरा पीने को अच्छा पानी मिलता तो क्या सतीश बाबू इस तरह बेमौत मारे जाते? हरगिज नहीं। मलेरिया, हैजा, हर तरह की बीमारियों से लोग उजाड़ हो गये, मगर, काकस्य परिवेदना। कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। सरकार तो सिर्फ रेलगाड़ी चलाकर-कहाँ किसके किसी के घर क्या अनाज पैदा हुआ है, उसे चूसकर, चालान कर देना चाहती है। क्यों साहब, आपकी क्या राय है? ठीक है न?"

मेरे गले में आलोचना करने लायक जोर न था, इसलिए सिर्फ चुपके से गरदन हिलाकर हाँ में हाँ मिलाता हुआ मैं मन-ही-मन हजारों बार कहने लगा-यही बात है, यही बात है, यही बात है! सिर्फ इसीलिए ही तैंतीस करोड़ नर-नारियों का कंठ दबाकर विदेशी शासन-तन्त्र भारत में बना हुआ है। सिर्फ एक इसी वजह से ही भारत के कोने-कोने और संघ-संघ में रेल-लाइन फैलाने की कोशिशें चल रही हैं। व्यापार के नाम पर धनिकों के धन-भण्डारों को विपुल से विपुलतर बना डालने की अविराम चेष्टा से कमजोरों का सुख गया, शान्ति गयी, रोटी गयी, धन गया- उनके जीने का रास्ता दिन पर दिन संकीर्ण होता जाता है, उनका बोझ असह्य होता जाता है- सत्य को तो किसी की दृष्टि से छिपाया नहीं जा सकता।

वृद्ध सज्जन ने मेरी इस मन की बात में ही मानो वाक्य जोड़कर कहा, "महाशय, बचपन में अपने ननिहाल में पला हूँ, पहले यहाँ बीस कोस के इर्द-गिर्द रेलगाड़ी नहीं थी, तब चीज़-बस्त इतनी सस्ती थी, और इतनी ज़्यादा थी कि आपसे क्या बताऊँ! तब कोई चीज पैदा होती तो पाड़-पड़ोसी सभी को उसमें से कुछ-न-कुछ मिला करता था, और अब तो अकेला 'थोड़' और 'मोचा¹' तक-ऑंगन में लगे हुए शाक की दो पत्तियाँ भी, कोई किसी को नहीं देना चाहता। कहते हैं, रहने दो, साढ़े आठ बजे की गाड़ी से खरीददारों के हाथ बेच देने से दो पैसे तो भी आ जाँयगे। अब तो देने का नाम ही हो गया है फिजूलखर्ची। अरे साहब, कहाँ तक दुखड़ा रोया जाय, दु:ख की बात कहने में क्या है, पैसे बनाने के नशे में स्त्री-पुरुष सबके सब बिल्कुतल ही नीच हो गये हैं।

"और खुद भी क्या जी भर के कुछ भोग सकते हैं? सिर्फ आत्मीय-स्वजन और पड़ोसियों की ही बात नहीं, खुद अपने को भी सब तरफ से ठग-ठगकर रुपये पाने को ही मानो सबने अपना परमार्थ समझ लिया है।

"इन सब अनिष्टों की जड़ है यह रेलगाड़ी। नसों की तरह देश की संघ-संघ में रेल के रास्ते अगर न घुस पाते और खाने-पीने की चीजें चालान करके पैसा कमाने की इतनी सहूलियतें न होतीं, और उस लोभ से आदमी अगर पागल न हुआ होता, तो इतनी बुरी दुर्दशा देश की न होती।"

रेल के विरुद्ध मेरी शिकायतें भी कम नहीं हैं। वास्तव में, जिस व्यवस्था से मनुष्य के जीवित रहने के लिए अत्यन्त आवश्यक खाद्य वस्तु प्रतिदिन छीनी जाकर शौकीनी कूड़े-करकट से सारा देश भर उठता है, उसके प्रति तीव्र घृणा भाव पैदा हुए बगैर रही ही नहीं सकता। खासकर गरीब आदमियों का जो दु:ख और जो हीनता मैं अपनी ऑंखों से देख आया हूँ, किसी भी युक्ति-तर्क से उसका उत्तर नहीं मिलता; फिर भी मैंने कहा, "जरूरत से ज़्यादा बच रहने वाली चीजों को बरबाद न करके अगर बेचकर पैसा पैदा कर लिया जाए, तो क्या वह बहुत खराब बात होगी?"

उन सज्जन ने रंचमात्र ऊहापोह न करके नि:संकोच भाव से कहा, "हाँ, निहायत ही खराब बात है, खालिस अकल्याण है।"

उनका क्रोध और घृणा मेरी अपेक्षा बहुत ज़्यादा प्रचण्ड थी। बोले, "आपकी यह बरबादी की धारणा विलायत की आमद है, धर्म स्थान भारतवर्ष की भूमि में इसका जन्म नहीं हुआ- यहाँ हो ही नहीं सकता। महाशयजी, सिर्फ अपनी आवश्यकता ही क्या एकमात्र सत्य है? जिसके पास नहीं है, उसकी जरूरत मिटाने का क्या कोई मूल्य ही नहीं दुनिया में? अगर उतना बाहर भेजकर रुपये इकट्ठे न किये जाँय तो वह बरबादी हुई, अपराध हुआ? यह निर्मम और निष्ठुर बात हम लोगों के मुँह से नहीं निकली, यह निकली है उनके मुँह से जो विदेश से आकर कमजोरों के

मुँह का कौर छीनने के लिए अपने देशव्यापी जाल में फन्दे पर फन्दे डालते चले

¹ 'थोड़'=केले के पेड़ के काण्ड का भीतर का कोमल हिस्सा।

'मोचा'=केले की छोटी-छोटी फलियों का गोभी-सा ढका हुआ समूह।

जा रहे हैं।"

मैंने कहा, "देखिए, देश का अन्न विदेश ले जाने का मैं पक्षपाती नहीं हूँ; परन्तु, मैं पूछता हूँ कि एक के बचे हुए अन्न से दूसरे की भूख मिटती रहे, यह क्या अमंगल की बात है? इसके सिवा, वास्तव में विदेश में आकर तो वे जबरदस्ती छीन नहीं ले जाते? पैसे देकर ही तो खरीद ले जाते हैं?"

उन सज्जन ने तीखे कण्ठ से जवाब दिया, "हाँ, खरीदते तो हैं ही! वैसे ही, जैसे काँटे में खुराक लगाकर पानी में मछलियों को सादर निमन्त्रण देना।"

इस व्यंग्योक्ति का मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। कारण, एक तो भूख-प्यास और थकावट के मारे वाद-विवाद की शक्ति नहीं थी; दूसरे, उनके वक्तव्य के साथ मूलत: मेरा कोई मतभेद भी न था।

परन्तु, मुझे चुप रहते देख वे अकस्मात् ही अत्यन्त उत्तेजित हो उठे, और मुझे ही प्रतिपक्षी समझकर अत्यन्त सरगर्मी के साथ कहने लगे, "महाशयजी, उनकी उद्दाम वणिक्बुद्धि के तत्व को ही आप सार सत्य समझ रहे हैं, परन्तु असल में, इतनी बड़ी असत् वस्तु संसार में दूसरी है ही नहीं। वे तो सिर्फ सोलह आने के बदले चौंसठ पैसे गिन लेना जानते हैं- सिर्फ देन-लेन की बात समझते हैं, और उन्होंने सीख रक्खा है सिर्फ भोग को ही मानव-जीवन का एकमात्र धर्म मानना। इसी से तो उनके दुनिया भर के संग्रह और संचय के व्यसन ने संसार के समस्त कल्याण को ढक रक्खा है। महाशयजी, यह रेल हुई; कलें हुईं; लोहे की बनी सड़के हुईं- यही तो सब पवित्र टमेजमक पदजमतमेज हैं- इन्हीं के भारी भार से ही तो दुनिया में कहीं भी गरीब के लिए दम लेने को जगह नहीं।"

जरा ठहरकर वे फिर कहने लगे, "आप कह रहे थे कि एक की जरूरत पूरी होने के बाद जो बच रहे, उसे अगर बाहर ने भेजा जाता तो, या तो वह नष्ट होता, या फिर उसे अभाव-ग्रस्त लोग मुक्त खा जाते। इसी को बरबादी कह रहे थे न आप?"

मैंने कहा, "हाँ, उसकी तरफ से वह बरबादी तो है ही।"

वृद्ध मेरे जवाब से और भी असहिष्णु हो उठे। बोले, "ये सब विलायती बोलियाँ हैं, नयी रोशनी के अधार्मिक छोकरों के हीले-हवाले हैं। कारण, जब आप और भी जरा ज़्यादा विचारना सीख जाँयगे, तब आप ही को सन्देह होगा कि वास्तव में यह बरबादी है, यह देश का अनाज विदेश भेजकर बैंकों में रुपये जमा करना सबसे बड़ी बरबादी है। देखिए साहब, हमेशा से ही हमारे यहाँ गाँव-गाँव में कुछ लोग उद्यम-हीन, उपार्जन-उदासीन प्रकृति के होते आए हैं। उनका काम ही था- मोदी या मिठाई की दुकान पर बैठकर शतरंज खेलना, मुरदे जलाने जाना, बड़े आदमियों की बैठक में जाकर गाना-बजाना, पंचायती पूजा आदि में चौधराई करना आदि। ऐसे ही कार्य-अकार्यों में उनके दिन कट जाया करते थे। उन सबके घर खाने-पीने का पूरा इन्तजाम रहता हो, सो बात नहीं; फिर भी बहुतों के बचे हुए हिस्से में से किसी तरह सुख-दु:ख में उनकी गुजर हो जाया करती थी। आप लोगों का, अर्थात् अंगरेजी शिक्षितों का, सारा-का-सारा क्रोध उन्हीं पर तो है? खैर जाने दीजिए, चिन्ता की कोई बात नहीं। जो आलसी, ठलुए और पराश्रित लोग थे, उन सबों का लोप हो चुका। कारण, 'बचा हुआ' नाम की चीज अब कहीं बच ही नहीं रही, लिहाजा, या तो वे अन्नाभाव से मर गये हैं, या फिर कहीं जाकर किसी छोटी-मोटी वृत्ति में भरती होकर जीवन्मृत की भाँति पड़े हुए हैं। अच्छा ही हुआ। मेहनत-मजदूरी का गौरव बढ़ा, 'जीवन-संग्राम' की सत्यता प्रमाणित हो गयी- परन्तु इस बात को तो वे ही जानते हैं जिनकी मेरी-सी काफी उमर हो चुकी है, कि उनकी कितनी बड़ी चीज उठ गयी! उनका क्या चला गया! इस 'जीवन-संग्राम' ने उनका लोप कर दिया है- पर गाँवों का आनन्द भी मानो उन्हीं के साथ सहमरण को प्राप्त हो गया है।"

इस अन्तिम बात से चौंककर मैंने उनके मुँह की ओर देखा। खूब अच्छी तरह गौर के साथ देखने पर भी उनको मैंने अल्पशिक्षित साधारण ग्रामीण भले आदमी के सिवा और कुछ नहीं पाया- फिर भी उनकी बात मानो अकस्मात् अपने को अतिक्रमण करके बहुत दूर पहुँच गयी।

उनकी सभी बातों को मैं अभ्रान्त समझकर अस्वीकार कर सका हूँ सो बात नहीं, परन्तु अंगीकार करनें में भी मुझे वेदना का अनुभव होने लगा। न जाने कैसा संशय होने लगा कि ये सब बातें उनकी अपनी नहीं हैं, मानो यह और किसी न दीखने वाले की जबान बन्दी है।

बहुत ही संकोच के साथ मैंने पूछा, "और कुछ खयाल न करें..."

"नहीं-नहीं, खयाल किस बात का? कहिए?"

मैंने पूछा, "अच्छा, यह सब क्या आपकी अपनी अभिज्ञता है, अपने निजी चिन्तन का फल है?"

भले आदमी नाराज हो गये। बोले, "क्यों ये क्या झूठी बातें हैं? इसमें एक अक्षर भी झूठा नहीं- समझ लीजिएगा।"

"नहीं नहीं, झूठी तो मैं बताता नहीं, पर..."

"फिर 'पर' कैसी? हमारे स्वामीजी कभी झूठ नहीं बोलते। उनके समान ज्ञान और है कोई?"

मैंने पूछा, "स्वामीजी कौन?"

उनके साथी ने इसका जवाब दिया। बोले, "स्वामी वज्रानन्द। उमर कम है तो क्या अगाध पण्डित हैं, अगाध..."

"उन्हें आप लोग पहिचानते हैं क्या?"

"पहिचानते नहीं? खूब। उन्हें तो अपना ही आदमी कहा जा सकता हैं। इन्हीं के घर तो उनका मुख्य अवहै।" यह कहते हुए उन्होंने साथ के भले आदमी को दिखा दिया।

वृद्ध महाशय ने उसी वक्त संशोधन करते हुए कहा, "अवमत कहो नरेन, कहो, आश्रम। महाशय, मैं गरीब आदमी हूँ, जितनी बनती है, उतनी सेवा कर देता हूँ। मगर हाँ, हैं ऐसे जैसे विदुर के घर श्रीकृष्ण। मनुष्य तो नहीं, मनुष्य की आकृति में देवता हैं।"

मैंने पूछा, "फिलहाल वे हैं कितने रोज से आपके गाँव में?"

नरेन्द्र ने कहा, "करीब दो महीने हुए होंगे। इस तरफ न तो कोई डॉक्टर-वैद्य ही और न स्कूल। इसी के लिए वे इतना उद्योग कर रहे हैं। और फिर खुद भी एक भारी डॉक्टर हैं।"

अब साफ मेरी समझ में आ गया कि माजरा क्या है। ये अपने वही आनन्द हैं, साँइथिया स्टेशन पर भोजनादि कराकर राजलक्ष्मी जिन्हें परम आदर के साथ गंगामाटी ले आई थी। बिदाई की वे घड़ियाँ याद आ गयीं। राजलक्ष्मी कैसी रो रही थी। परिचय तो दो ही दिन का था, पर मालूम ऐसा होता कि मानो वह न जाने कितने भारी स्नेह की वस्तु को ऑंखों से ओझल करके किसी भयंकर विपत्ति के ग्रास की ओर बढ़ाए दे रही है- ऐसी ही उसकी व्यथा की। वापस आने के लिए उसकी वह कैसी व्याकुल विनय थी! परन्तु आनन्द है सन्यासी।- उसमें ममता भी नहीं, और मोह भी नहीं। नारी-हृदय की वेदना का रहस्य उसके लिए मिथ्या के सिवा और कुछ नहीं। इसी से इतने दिन इतने पास रहकर भी बिना प्रयोजन के दिखाई देने की जरूरत उसने पल-भर के लिए भी महसूस नहीं की, और भविष्य में भी शायद इस प्रयोजन का कारण न आएगा। परन्तु राजलक्ष्मी को यह बात मालूम होते ही कितनी गहरी चोट पहुँचेगी, सो मैं ही जानता हूँ!

अपनी बात याद आ गयी। मेरा भी विदा का मुहूर्त नजदीक आ रहा है- जाना ही होगा, इस बात को प्रतिक्षण महसूस कर रहा हूँ। राजलक्ष्मी के लिए मेरी जरूरत समाप्त हो रही है। सिर्फ इतना ही मेरी समझ में नहीं आता कि राजलक्ष्मी के उस दिन के दिनान्त का कहाँ और कैसे अवसान होगा!

गाँव में पहुँचा। गाँव का नाम है महमूदपुर। वृद्ध यादव चक्रवर्ती ने उसी का उल्लेख करके गर्व के साथ कहा, "नाम सुन के चौंकियेगा नहीं साहब, गाँव के चारों तरफ कहीं मुसलमानों की छाया तक नहीं पाएँगे आप। जिधर देखिए उधर ब्राह्मण, कायस्थ और भली जात। ऐसी जात की यहाँ बस्ती ही नहीं जिसके हाथ का पानी न चल सके। क्यों नरेन, कोई है?"

नरेन ने बार-बार हाँ में हाँ मिलाते हुए सिर हिलाकर कहा- "एक भी नहीं, एक भी नहीं। ऐसे गाँव में हम लोग रहते ही नहीं।"

हो सकता है कि यह सच हो, पर इसमें इतने खुश होने की कौन-सी बात है, मेरी समझ में नहीं आया।

चक्रवर्ती के घर वज्रानन्द से भेंट हुई। हाँ, वे ही हैं। मुझे देखकर उन्हें जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही आनन्द।

"अहा भाई साहब! अचानक यहाँ कैसे?" इतना कहकर आनन्द ने हाथ उठाकर नमस्कार किया। इस नर-देहधारी देवता को सम्मान के साथ मेरा अभिवादन करते देख चक्रवर्ती विगलित हो उठे। अगल-बगल और भी बहुत-से भक्त थे, वे भी उठ के खड़े हो गये। मैं कोई भी क्यों न होऊँ, इस विषय में तो किसी को सन्देह ही न रह गया कि मैं मामूली आदमी नहीं हूँ।

आनन्द ने कहा, "आप पहले से कुछ लुटे-लुटे से दिखाई देते हैं, भाई साहब?"

इसका जवाब दिया चक्रवर्ती ने। दो दिन से मुझे आहार नहीं मिला, सोने का कोई ठिकाना नहीं रहा, और किसी बड़े पुण्य से मैं जिन्दा आ गया हूँ तथा कुलियों में महामारी आदि का ऐसा सुन्दर और सविस्तार वर्णन किया कि सुनकर मैं भी दंग रह गया।

आनन्द ने कोई खास व्याकुलता प्रकट नहीं की। जरा कुछ मुसकराकर औरों के कान बचाकर कहा, "दो दिन में इतना नहीं होता भाई साहब, इसके लिए जरा कुछ समय चाहिए। क्या हुआ था? बुखार?"

मैंने कहा, "ताज्जुब नहीं। मलेरिया तो है ही।"

चक्रवर्ती ने आतिथ्य में कोई त्रुटि नहीं की, खाना-पीना आज खूब अच्छी तरह ही हुआ।

भोजन के बाद चलने की तैयारी करने पर आनन्द ने पूछा, "आप अचानक कुलियों में कैसे पहुँच गये?"

मैंने कहा, "दैव के चक्कर से।"

आनन्द ने हँसते हुए कहा, "चक्कर तो है ही। गुस्से में आकर घर पर खबर भी न दी होगी शायद?"

मैंने कहा, "नहीं- मगर वह गुस्से में आकर नहीं। देना फिजूल है, समझकर ही नहीं दी। इसके सिवा आदमी ही कहाँ थे जो भेजता?"

आनन्द ने कहा, "यह एक बात जरूर है। परन्तु आपकी भलाई-बुराई जीजी के लिए फिजूल कब से हो उठी? वे शायद डर और फिक्र से अधमरी हो गयी होंगी।"

बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं। इस प्रश्न का मैंने फिर कुछ उत्तर ही नहीं दिया। आनन्द ने ऐसा समझ लिया कि जिरह में उन्होंने मेरा एकदम मुँह बन्द कर दिया। इसी से, स्निग्ध मृदु मुसकराहट के साथ कुछ देर तक आत्म-गौरव अनुभव करके वे बोले, "आपके लिए रथ तैयार है, मैं समझता हूँ शाम के पहले ही घर पहुँच जाँयगे। चलिए, आपको विदा कर आऊँ।"

मैंने कहा, "पर घर जाने से पहले मुझे जरा कुलियों की खबर लेने जाना है।"

आनन्द ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "इसके मानी- अभी गुस्सा उतरा नहीं है। पर मैं तो कहूँगा कि दैव के चक्कर से दुर्भोग जो भाग्य में बदा था वह तो फल चुका। आप डॉक्टर भी नहीं, साधु-बाबा भी नहीं, गृहस्थ आदमी हैं। अब, सचमुच ही अगर खबर लेने लायक कोई बात रह गयी हो, तो उसका भार मुझ पर सौंपकर आप निश्चिन्त मन से घर चले जाइए। पर जाते ही मेरा नमस्कार जताकर कहिएगा कि उनका आनन्द अच्छी तरह है।"

दरवाजे पर बैलगाड़ी तैयार थी। गृहस्वामी चक्रवर्ती महाशय ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि फिर कभी इधर आना हो तो इस घर में पद-धूलि जरूर पड़नी चाहिए। उनके आन्तरिक आतिथ्य के लिए मैंने सहस्र धन्यवाद दिया; परन्तु दुर्लभ पद-धूलि की आशा न दे सका। मुझे बंगाल प्रान्त शीघ्र ही छोड़ जाना होगा, इस बात को मैं भीतर ही भीतर महसूस कर रहा था; लिहाजा किसी दिन किसी भी कारण से इस प्रान्त में वापस आने की सम्भावना मेरे लिए बहुत दूर चली गयी थी।

गाड़ी में बैठ जाने पर आनन्द ने भीतर को मुँह बढ़ाकर धीरे से कहा, "भाई साहब, इधर की आब-हवा आपको माफिक नहीं आती। मेरी तरफ से आप जीजी से कहिएगा कि पछाँह के आदमी ठहरे आप, आपको वे वहीं ले जाँय।"

मैंने कहा, "इस तरफ क्या आदमी जीते नहीं आनन्द?"

प्रत्युत्तर में आनन्द ने रंचमात्र इतस्तत: न करके फौरन ही कहा, "नहीं। मगर इस विषय में तर्क करके क्या होगा भाई साहब? आप सिर्फ मेरा हाथ जोड़कर अनुरोध उनसे कह दीजिएगा। कहिएगा, आनन्द सन्यासी की ऑंखों से देखे बिना इसकी सत्यता समझ में नहीं आ सकती।"

मैं मौन रहा। कारण, राजलक्ष्मी को उनका यह अनुरोध जताना मेरे लिए कितना कठिन है, इसे आनन्द क्या जाने!

गाड़ी चल देने पर आनन्द ने फिर कहा, "क्यों भाई साहब, मुझे तो आपने एक बार भी आने का निमन्त्रण नहीं दिया?"

मैंने मुँह से कहा, "तुम्हारे कामों का क्या ठीक है, तुम्हें निमन्त्रण देना क्या आसान काम है भाई?"

मगर मन ही मन आशंका थी कि इसी बीच में कहीं वे स्वयं ही किसी दिन पहुँच न जाँय। फिर तो इस तीक्ष्ण-बुद्धि सन्यासी की दृष्टि से कुछ भी छुपाने का उपाय न रहेगा। एक दिन ऐसा था जब इससे कुछ भी बनता-बिगड़ता न था, तब मन ही मन हँसता हुआ कहा करता, "आनन्द, इस जीवन का बहुत कुछ विसर्जन दे चुका हूँ, इस बात को अस्वीकार न करूँगा, परन्तु मेरे नुकसान के उस सहज हिसाब को ही तुम देख सके और तुम्हारे देखने के बाहर जो मेरे संचय का अंक एकबारगी संख्यातीत हो रहा है सो! मृत्यु-पार का वह पाथेय अगर मेरा जमा रहे, तो मैं इधर की किसी भी हानि की परवाह न करूँगा।" लेकिन आज कहने के लिए बात ही क्या थी? इसी से चुपचाप सिर नीचा किये बैठा रहा। पल-भर में मालूम हुआ कि ऐश्वर्य का वह अपरिमेय गौरव अगर सचमुच ही आज मिथ्या मरीचिका में विलुप्त हो गया, तो इस गल-ग्रह, भग्न-स्वास्थ्य, अवांछित गृहस्वामी के भाग्य में अतिथि-आह्नान करने की विडम्बना अब न घटे।

मुझे नीरव देखकर आनन्द ने उसी तरह हँसते हुए कहा, "अच्छी बात है, नये तौर से न कहिए तो भी कोई हर्ज नहीं, मेरे पास पुराने निमन्त्रण की पूँजी मौजूद है, मैं उसी के बल-बूते पर हाजिर हो सकूँगा।"

मैंने पूछा, "मगर यह काम कब तक हो सकेगा?"

आनन्द ने हँसते हुए कहा, "डरो मत भाई साहब, आप लोगों के गुस्सा उतरने के पहले ही पहुँचकर मैं आपको तंग न करूँगा- उसके बाद ही पहुँचूगा।"

सुनकर मैं चुप हो रहा। गुस्सा होकर नहीं आया, यह कहने की भी इच्छा न हुई।

रास्ता कम नहीं था, गाड़ीवान जल्दी कर रहा था। गाड़ी हाँकने से पहले फिर उन्होंने एक बार नमस्कार किया और मुँह हटा लिया।

इस तरफ गाड़ी वगैरह का चलन नहीं और इसीलिए उसके लिए किसी ने रास्ता बनाकर भी नहीं रक्खा। बैलगाड़ी, मैदान और खाली खेतों में होकर, ऊबड़-खाबड़ ऊसर को पार करती हुई अपना रास्ता तय करने लगी। भीतर अधलेटी हालत में पड़े-पड़े मेरे कानों में आनन्द सन्यासी की बातें ही गूँजने लगीं। गुस्सा होकर मैं नहीं आया- और यह कोई लाभ की चीज नहीं और लोभ की भी नहीं; परन्तु, बराबर खयाल होने लगा, कहीं यह भी अगर सच होता? किन्तु सच नहीं, और सच होने का कोई रास्ता ही नहीं। मन ही मन कहने लगा, गुस्सा मैं किस पर करूँगा? और किसलिए? उसने कुसूर क्या किया है? झरने की जलधारा के अधिकार के बारे में झगड़ा हो सकता है, किन्तु उत्स-मुख में ही अगर पानी खत्म हो गया हो, तो सूखे जल-मार्ग के विरुद्ध सिर धुन के जान दे दूँ किस बहाने?

इस तरह कितना समय बीत गया, मुझे होश नहीं। सहसा नाले में गाड़ी रुक जाने से उसके धक्कों-दचकों से मैं उठकर बैठ गया। सामने को टाट का परदा उठाकर देखा कि शाम हो आई है। गाड़ी चलाने वाला लड़का-सा ही है, उमर शायद चौदह-पन्द्रह साल से ज़्यादा न होगी। मैंने कहा, "और तू इतनी जगह रहते नाले में क्यों आ पड़ा?"

लड़के ने अपनी गँवई गाँव की बोली में उसी वक्त जवाब दिया, "मैं क्यों पड़ने लगा, बैल अपने आप ही उतर पड़े हैं।"

"अपने आप ही कैसे उतर पड़े रे? तू बैल सँभालना भी नहीं जानता?"

'नहीं। बैल जो नये हैं।"

"बहुत ठीक! पर इधर तो अंधेरा हुआ जा रहा है, गंगामाटी है कितनी दूर यहाँ से?"

"सो मैं क्या जानूँ! गंगामाटी मैं कभी गया थोड़े ही हूँ!"

मैंने कहा, "कभी अगर गया ही नहीं, तो मुझ पर ही इतना प्रसन्न क्यों हुआ भई? किसी से पूछ क्यों नहीं लेता रे- मालूम तो हो, कितनी दूर है।"

उसने जवाब में कहा, "इधर आदमी हैं कहाँ? कोई नहीं है।"

लड़के में और चाहे जो दोष हो, पर जवाब उसके जैसे संक्षिप्त वैसे ही प्रांजल हैं, इसमें कोई शक नहीं।

मैंने पूछा, "तू गंगामाटी का रास्ता तो जानता है?"

वैसा ही स्पष्ट जवाब दिया। बोला, "नहीं!"

"तो तू आया क्यों रे?"

"मामा ने कहा कि बाबू को पहुँचा दे। ऐसे सीधा जाकर पूरब को मुड़ जाने से ही गंगामाटी में जा पड़ेगा। जायेगा और चला आयेगा।"

सामने अंधेरी रात है, और अब ज़्यादा देर भी नहीं है। अब तक तो ऑंखें मींचकर अपनी चिन्ता में ही मग्न था। पर लड़के की बातों से अब मुझे डर-सा मालूम होने लगा। मैंने कहा, "ऐसे सीधे दक्षिण की बजाय उत्तर को जाकर पश्चिम को तो नहीं मुड़ गया रे?"

लड़के ने कहा, "सो मैं क्या जानूँ?"

मैंने कहा, "नहीं जानता तो चल दोनों जने अंधेरे में मौत के घर चले चलें। अभागा कहीं का, रास्ता नहीं जानता था तो आया ही क्यों तू? तेरा बाप है?"

"नहीं।"

"माँ है?"

"नहीं, मर गयी।"

"आफत चुकी। चल, तो फिर आज रात को उन्हीं के पास चला चल। तेरे मामा में अकेली अकल ही ज़्यादा नहीं, दया-माया भी काफी है।"

और कुछ आगे बढ़ने के बाद लड़का रोने लगा, उसने जता दिया कि अब वह आगे नहीं जा सकता।

मैंने पूछा, "फिर ठहरेगा कहाँ?"

उसने जवाब दिया, "घर लौट जाऊँगा।"

"पर ऐसे बेवक्त मेरे लिए क्या उपाय है?"

पहले ही कह चुका हूँ कि लड़का अत्यन्त स्पष्टवादी है। बोला, "तुम बाबू उतर जाओ। मामा ने कह दिया है, किराया सवा रुपया ले लेना। कमती लेने से वे मुझे मारेंगे।"

मैंने कहा, "मेरे लिए तुम मार खाओगे, यह कैसी बात!"

एक बार सोचा कि इसी गाड़ी से यथास्थान लौट जाऊँ। मगर न जाने कैसी तबीयत हुई, लौटने का मन नहीं हुआ। रात हो रही है, अपरिचित स्थान है, गाँव-बस्ती कहाँ और कितनी दूर है, सो भी जानने का कोई उपाय नहीं। सिर्फ सामने एक बड़ा-सा आम-कटहल का बाग देखकर अनुमान किया कि गाँव शायद बहुत ज़्यादा दूर न होगा। कोई न कोई आश्रय तो मिल ही जायेगा और अगर नहीं मिला, तो उससे क्या? न हो तो इस बार की यात्रा ऐसे ही सही।

उतरकर किराया चुका दिया। देखा कि लड़के की कोरम-कोर बात ही नहीं, अपनी बात पर अमली कार्रवाई करने का भी बिल्कुल स्पष्ट है। पलक मारते ही उसने गाड़ी का मुँह फेर दिया, और बैल भी घर लौटने का इशारा पाते ही पल-भर में ऑंखों से ओझल हो गये।

श्रीकांत उपन्यास
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