शहरीकरण और क्षेत्रीय स्वरूप

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भारत के अलग-अलग राज्यों पर यदि नगरीकरण के क्षेत्र में विकास की दृष्टि से विश्लेषण किया जाय तो यह स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों में नगरीकरण की मात्रा और गति एक जैसी नहीं थी। 1981 और 1991 के बीच जहां उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े राज्यों नगर नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर थीं, वहीं पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से नीची रही। प्रति व्यक्ति अधिक आय वाले राज्यों में महाराष्ट्र और हरियाणा ऐसे राज्य हैं, जिनमें नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से अधिक थी।

1951 से 1991 की अवधि में बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर प्रायः अधिक रही है, परंतु उड़ीसा और बिहार में 1981 से 1991 के बीच नगरीकरण की गति कुछ धीमी पड़ गई थी। उत्तर प्रदेश, आन्ध प्रदेश, राजस्थान में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से नीचे थी, लेकिन बाद में इन राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। पुराने औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर ऊंची थी, लेकिन इसके बाद महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया धीमी रही।

भारत औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों - महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु में नगरीय जनसंख्या 34 प्रतिशत से अधिक है। इन राज्यों में और अधिक औद्योगिकरण होने पर इनकी नगरीय जनसंख्या बढ़ती है लेकिन आधार बड़ा होने के कारण नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर प्रायः इतनी अधिक नहीं होती जितनी कि अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में देखने को मिलती है।

नगरीकरण से उपजी समस्यायें

भारत मे आवास की समस्या अन्य समस्याओं से कम विकराल नहीं है। इसका कारण आर्थिक विषमता है, जिसके अंतर्गत हर साल काफी लोग घर विहीन होते हैं। योजना आयोग के अनुमान के अनुसार - भारत की जनसंख्या का पांचवा भाग झुग्गी-झोंपड़ी में रहता है। भारत में बंगलुरू में 10 प्रतिशत, कानपुर में 17 प्रतिशत, मुंबई में 38 प्रतिशत तथा कोलकाता में 42 प्रतिशत लोगों के सामने आवास की कठिन समस्या है। भारत में आवास के बारे में एक विडम्बना यह भी है कि यहां एक तरफ तो आलीशान मकान हैं जबकि दूसरी तरफ मूलभूत सुविधाओं के अभाव में टूटा-फूटा मकान है। एक अनुमान के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत मकान ऐसे हैं जिनमें खिड़कियाँ नहीं है और 80 प्रतिशत मकानों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। वैसे भी शहरी आबादी वाले देशों में सं.रा. अमेरिका, रूस तथा चीन के बाद विश्व में भारत का चैथा स्थान है। यहां हर साल लगभग 27 लाख लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर रोजगार की तलाश में आते हैं।

महानगरों की स्थिति तो और भी दयनीय होती जा रही है। आवास समस्या का आलम यह है कि कार्य करने की जगह और निवास स्थान की दूरी बढ़ती जा रही है। दिल्ली में औसतन 45 किमी की दूरी के लिए 50-60 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। इस प्रकार कुछ लोगों को 4-6 घंटे सफर में व्यतीत करने पड़ते है। अपना घर बनाने का सपना शहरवासियों के लिए पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकारी तौर मान्य आंकड़ों के अनुसार - एक औसत आवास की कीमत मुंबई में एक व्यक्ति की 13 वर्ष की आय के बराबर है, दिल्ली में 12 वर्ष की आय के बराबर, बंगलौर में 11 वर्ष की आय के बराबर और चेन्नई में 7 वर्ष की आय के बराबर है। छोटे शहरों में भी लागत 3-4 वर्ष की आय के बराबर है। यदि किराये पर मकान लेना हो तो वह भी कोई कम आर्थिक बोझ नहीं डालता है। सबसे बड़े शहर में 30-35 प्रतिशत तक आय का हिस्सा इस पर खर्च हो रहा है तथा छोटे शहरों में 20-25 प्रतिशत तक होता है।

इसके अलावा पीने के पानी की समस्या तथा गंदगी के निष्काषन की समस्या भी नगरीकरण के परिणामस्वरूप विकराल रूप ले चुकी है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन भी पैदा होने का खतरा बना हुआ है।

समस्याओं के समाधान हेतु पहल

यदि यह कहा जाये कि भारत दुनिया में पहला देश है, जो इस शताब्दी के अंत तक सबको आवास तथा 5 वर्ष के अन्दर सभी रिहायशी इलाकों में पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि जिस गति से भारत की जनसंख्या बढ़ रही है यदि यह नहीं रुकी तो सन् 2000 तक इसके एक अरब हो जाने की संभावना है। ऐसी स्थिति में 20 लाख से अधिक लोग बेघर हो जायेंगें। इस दिशा में कई संस्थाओं ने सराहनीय काम किए हैं। इस संदर्भ में लारी ब्रकर के प्रयोग प्रशंसनीय है जिन्हें हुडकों ने 1987 में राष्ट्रीय आवास पुरस्कार से सम्मानित किया था। लारी बेकर गृह निर्माण के ऐसे विशेषज्ञ हैं जो कम लागत पर सुंदर मकान के निर्माण का कार्य करते हैं। इन्होने केरल में तिरुअनंतपुरम के आस-पास अपना कार्य क्षेत्र चुना है। आवास समस्या के समाधान में शहरी आवास विकास निगम अर्थात हुडको ने भी आशातीत सफलता प्राप्त की है। राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन ने भी आवास संगठन से निपटने के लिए मकानों की सस्ती तकनीकि विकसित की है। भारत में कमजोर वर्ग के लोगों के हितों को ध्यान में रखकर सस्ती तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है।

आठवीं योजना में आवास समस्या के समाधान हेतु मौलिक नीति का अनुसरण किया गया। इस योजना में शहरी आवास के लिए 3,581.87 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। इस योजनावधि में 78 लाख नये घरों को बनाने की योजना थी।

नौंवी योजना में सभी वर्गों के लिए आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य है। इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोग, मुक्त कराए गए बंधुओं मजदूर, गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग आदि पर विशेष ध्यान देना होगा।

गृह निर्माण में आने वाले आगतों को पर्याप्त और शीघ्र उपलब्ध कराने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। नौवी योजना में 20 लाख शहरी आवास प्रतिवर्ष बनाने की योजना है। यह योजना सरकार की विशेष कार्य योजना के अंतर्गत है। आर्थिक रुप से कमजोर तथा निम्न आय वर्ग के लिए एक आवास निर्माण की कीमत क्रमशः 35,000 रुपये तथा 1 लाख रुपये के आधार पर नौंवी योजना 7 लाख अतिरिक्त आवासों के निर्माण पर 4,000 करोड़ रुपये की लागत आयेगी। इस कार्य के लिए वित्तीय संस्थाओं के द्वारा 2,800 करोड़ रुपये के वित्त की प्रत्याशा है, जो कि कुल वित्त का 70 प्रतिशत है। शेष 30 प्रतिशत सब्सिडी के रूप में वहन किया जायेगा। नौंवी योजना में आवास क्षेत्र में निवेश के लिए निजी क्षेत्र को भी कई तरह के प्रोत्साहन दिए जायेंगें।

नौवीं योजना में शहरी जलापूर्ति तथा स्वच्छता के लिए 5,250 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इस कार्य में राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों को भागेदारी बनाया जायेगा। तमिलनाडु की तर्ज पर भारत सरकार द्वारा कए विकास कोष की स्थापना की जायेगी जिसका उपयोग शहरी क्षेत्रों में आधारभूत ढांचा उपलब्ध कराने के लिए किया जायेगा।

औद्योगिक इकाइयों से निकले हुए अवशिष्ट का पुनर्शोधन और विभिन्न प्रकार के अवशिष्टों का अलग-अलग संग्रहण करने की भी एक योजना है। ठोस अवशिष्टों के निपटान का निजीकरण कर दिया जायेगा।

इस प्रकार स्पष्ट है कि शहरीकरण विकास एक सूचक होते हुए भी कई तरह की समस्याओं का जन्मदाता है। शहरी विकास को सही रास्ते पर लाने के लिए अमीरों और गरीबों के बीच जो टकराव की स्थिति है, उसकी जगह सहयोग को प्रतिस्थापित करना होगा। संपन्न वर्ग अनेक स्थानों पर झुग्गी-झोंपड़ियों और गंदी बस्तियों में रहने वाल लोगों के प्रति सहानुभूति और संवेदना से हीन हो जाते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि नगरों का अधिकांश निर्माण कार्य इन्ही वर्गो के परिश्रम एवं त्याग से हुआ है। निर्धन वर्ग के इस आन्दोलन को संपन्न वर्ग के लोगों को स्वीकार करना चाहिए। परिणामतः परस्पर सहयोग की जो भावना उत्पन्न होगी, उससे नगरों का जो विकास होगा वह संतुलित तथा उचित होगा।


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