जाट

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  • कुछ विद्वान जाटों को विदेशी वंश-परम्परा का मानते है, तो कुछ दैवी वंश-परम्परा का । कुछ अपना जन्म किसी पौराणिक वंशज से हुआ बताते है । सर जदुनाथ सरकार ने जाटों का वर्णन करते हुए उन्हें "उस विस्तृत विस्तृत भू-भाग का, जो सिंधु नदी के तट से लेकर पंजाब, राजपूताना के उत्तरी राज्यों और ऊपरी यमुना घाटी में होता हुआ चंबल के पार ग्वालियर तक फैला है, सबसे महत्वपूर्ण जातीय तत्व बताया है । सभी विद्वान एकमत हैं कि जाट आर्य-वंशी हैं । जाट अपने साथ कुछ संस्थाएँ लेकर आए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है - "पंचायत" - 'पाँच श्रेष्ठ व्यक्तियों की ग्राम-सभा, जो न्यायाधीशों और ज्ञानी पुरुषों के रूप में कार्य करते थे।<balloon title="'सर जदुनाथ सरकार' फ़ॉल ऑफ़ द मुग़ल ऐम्पायर,' खंड दो पृष्ठ. 300" style=color:blue>*</balloon>


औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए । उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो "मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था ।" यमुना नदी इसकी विभाजक रेखा थी, दिल्ली और आगरा इसके दो मुख्य नगर थे । |}

  • "हर जाट गाँव सम गोत्रीय वंश के लोगों का छोटा-सा गणराज्य होता था, जो एक-दूसरे के बिल्कुल समान लेकिन अन्य जातियों के लोगों से स्वयं को ऊँचा मानते थे । जाट गाँव का राज्य के साथ सम्बन्ध निर्धारित राजस्व राशि देने वाली एक अर्ध-स्वायत्त इकाई के रूप में होता था । कोई राजकीय सत्ता उन पर अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं करती थी, जो कोशिश करती थीं, उन्हें शीध्र ही ज्ञान हो जाता था, कि क़िले रूपी गाँवों के विरुद्ध सशस्त्र सेना भेजना लाभप्रद नहीं है । स्वतन्त्रता तथा समानता की जाट-भावना ने ब्राह्मण-प्रधान हिन्दू धर्म के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया, इस भावना के कारण उन्हें गंगा के मैदानी भागों के विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मणों की अवमानना और अपमान झेलना पड़ा । जाटों ने "ब्राह्मणों" ( जिसे वह ज्योतिषी या भिक्षुक मानता था) और "क्षत्रिय" ( जो ईमानदारी से जीविका कमाना पसंद नहीं करता था और किराये का सैनिक बनना पसंद करता था ) के लिए एक दयावान संरक्षक बन गये । जाट जन्मजात श्रमिक और योद्धा थे । वे कमर में तलवार बाँधकर खेतों में हल चलाते थे और अपने परिवार की रक्षा के लिए वे क्षत्रियों से अधिक युद्ध करते थे, क्योंकि आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण करने पर जाट अपने गाँव को छोड़कर नहीं भागते थे । अगर कोई विजेता जाटों के साथ दुर्व्यवहार करता, या उसकी स्त्रियों से छेड़छाड़ की जाती थी, तो वह आक्रमणकारी के काफ़िलों को लूटकर उसका बदला लेता था । उसकी अपनी ख़ास ढंग की देश-भक्ति विदेशियों के प्रति शत्रुतापूर्ण और साथ ही अपने उन देशवासियों के प्रति दयापूर्ण, यहाँ तक कि तिरस्कारपूर्ण थी जिनका भाग्य बहुत-कुछ उसके साहस और धैर्य पर अवलम्बित था।<balloon title="'खुशवन्त सिंह' हिस्ट्री आफ़ द सिक्खस, खंड प्रथम, पृ 15-16" style=color:blue>*</balloon>
  • प्रोफ़ेसर कानूनगों ने जाटों की सहज लोकतन्त्रीय प्रवृत्ति का उल्लेख किया है । "ऐतिहासिक काल में जाट-समाज उन लोगों के लिए महान शरणस्थल बना रहा है, जो हिन्दुओं के सामाजिक अत्याचार के शिकार होते थे; यह दलित तथा अछूत लोगों को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानपूर्ण स्थिति तक उठाता और शरण में आने वाले लोगों को एक सजातीय आर्य ढाँचें में ढालता रहा है। शारीरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन तथा सामाजिक संस्था-विषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यों का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है ।<balloon title="के.आर.कानूनगो, 'हिस्ट्री आफ़ द जाट्स,' पृ.23" style=color:blue>*</balloon>"
  • औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए । उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो "मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था ।" (टी.जी.पी स्पीयर, 'ट्विलाइट आफ मुग़ल्स,' पृ.5) यमुना नदी इसकी विभाजक रेखा थी, दिल्ली और आगरा इसके दो मुख्य नगर थे । इसमें वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन और मथुरा में हिन्दुओं के धार्मिक तीर्थस्थान तथा मन्दिर भी थे । पूर्व में यह गंगा की ओर फैला था और दक्षिण में चम्बल तक, अम्बाला के उत्तर में पहाड़ों और पश्चिम में मरूस्थल तक । " इनके राज्य की कोई वास्तविक सीमाएँ नहीं थीं । यह इलाक़ा कहने को सम्राट के सीधे शासन के अधीन था, परन्तु व्यवहार में यह कुछ सरदारों में बँटा हुआ था । यह ज़मीनें उन्हें, उनके सैनिकों के भरण-पोषण के लिए दी गई हैं । जाट-लोग "दबंग देहाती थे, जो साधारणतया शान्त होने पर भी, उससे अधिक राजस्व देने वाले नहीं थे, जितना कि उनसे जबरदस्ती ऐंठा जा सकता था; और उन्होंने मिट्टी की दीवारें बनाकर अपने गाँवों को ऐसे क़िलों का रूप दे दिया था, जिन्हें केवल तोपखाने द्वारा जीता जा सकता था।<balloon title="टी.जी.पी स्पीयर, 'ट्विलाइट आफ मुग़ल्स,'" style=color:blue>*</balloon>"
  • फ़ादर वैंदेल लिखते हैं, - "जाटों ने भारत में कुछ वर्षों से इतना तहलका मचाया हुआ है और उनके राज्य-क्षेत्र का विस्तार इतना अधिक है तथा उनका वैभव इतने थोड़े समय में बढ़ गया है कि मुग़ल साम्राज्य की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए इन लोगों के विषय में जान लेना आवश्यक है, जिन्होंने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली है। यदि कोई उन विप्लवों पर विचार करे जिन्होंने इस शताब्दी में साम्राज्य को इतने प्रचंड रूप से झकझोर दिया है, तो वह अवश्य ही इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि जाट, यदि वे इनके एकमात्र कारण न भी हों, तो भी कम-से-कम सबसे महत्वपूर्ण कारण अवश्य हैं।<balloon title="वैंदेल, 'और्म की पांडुलिपि'" style=color:blue>*</balloon>"
  • "इतिहासकारों ने जाटों के विषय में नहीं लिखा । जवाहरलाल नेहरू, के.एम पणिक्कर ने जाटों के मुख्य नायक सूरजमल के नाम का उल्लेख भी नहीं किया । टॉड ने अस्पष्ट लिखा है । जाटों में इतिहास–बुद्धि लगभग नहीं है । जाट इतिहास में कुछ देरी से आते हैं और जवाहर सिंह की मृत्यु (सन् 1763) के बाद से सन् 1805 में भरतपुर को जीतने में लार्ड लेक की हार तक उनका वैभव कम होता जाता है । मुस्लिम इतिहासकारों ने जाटों की प्रशंसा नहीं की । ब्राह्मण और कायस्थ लेखक भी लिखने से कतराते रहे । दोष जाटों का ही है । उनका इतिहास अतुलनीय है, पर जाटों का कोई इतिहासकार नहीं हुआ । देशभक्ति, साहस और वीरता में उनका स्थान किसी से कम नहीं है।<balloon title="कुँवर नटवर सिंह 'महाराजा सूरजमल'" style=color:blue>*</balloon>"