महात्मा रामचन्द्र वीर

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महात्मा रामचन्द्र वीर
पूरा नाम पंडित महात्मा रामचन्द्र वीर
अन्य नाम स्वामी रामचन्द्र वीर
जन्म आशिवन शुक्ल प्रतिपदा संवत १९६६ वि. (सन १९०९)
जन्म भूमि विराटनगर (राजस्थान)
मृत्यु [[ २४ अप्रैल]], २००९
मृत्यु स्थान विराटनगर
संतान आचार्य धर्मेन्द्र
प्रसिद्धि गोभक्त, समाज सुधारक
कर्मक्षेत्र समाज सुधारक,हिन्दू नेता, स्वतंत्रता सेनानी
रचनाएँ हमारी गोमाता, श्री रामकथामृत (महाकाव्य), हमारा सवास्थ्य, वज्रांग वंदना, ‘विजय पताका’

महात्मा रामचन्द्र वीर महाराज (जन्म- 1909 - मृत्यु- 24 अप्रैल, 2009) एक यशस्वी लेखक, कवि तथा ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने देश तथा धर्म के लिए बलिदान देने वाले हिन्दू महात्माओं का इतिहास लिखा। 'हमारी गोमाता', 'वीर रामायण' (महाकाव्य), 'हमारा स्वास्थ्य' जैसी दर्जनों पुस्तकें लिखकर उन्होंने साहित्य सेवा में योगदान दिया। वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक-प्राणियों व गोमाता की रक्षा तथा हिन्दू हितों के लिए 28 बार जेल यातनाएँ सहन की। वीर जी राष्ट्रभाषा हिन्दी की रक्षा के लिए भी संघर्षरत रहे। एक राज्य ने जब हिन्दी की जगह उर्दू को भाषा घोषित किया, तो महात्मा वीर जी ने उसके विरुद्ध अभियान चलाया व अनशन किया। वीर विनायक दामोदर सावरकर ने उनका समर्थन किया था। पावनधाम विराट नगर के पंचखंड पिठाधिस्वर एवं विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल संत आचार्य धर्मेन्द्र उनके सुपुत्र हैं।

जीवन परिचय

  • मुग़ल बादशाह औरंगजेब के दरबार में अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले गोपाल दास जी की 11 वी पीढ़ी में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा संवत 1966 विक्रमी. (सन 1909) को गोमाता की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले झुझारू धर्माचार्य महात्मा रामचन्द्र वीर का जन्म श्रीमद स्वामी भूरामल जी व श्रीमती विरधी देवी के घर पुरातन तीर्थ विराटनगर (राजस्थान) में हुआ था।
  • महात्मा रामचन्द्र वीर ने ज्ञान की खोज में घर का त्याग तब किया जब वे न महात्मा थे न वीर। मात्र 14 वर्ष का बालक रामचन्द्र आत्मा की शांति को ढूंढता हुआ अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद के पास जा पहुंचा।
  • 13 वर्ष की अल्पायु में ही इनके पिता ने वीर जी का विवाह कर दिया था, किन्तु अपनी शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और स्वाभावगत अनमेलता के कारण यह विवाह, विवाह नहीं बन पाया, वर की आयु से 2 वर्ष बड़ी और नितांत विपरीत मन मस्तिष्क स्वभाव और आचरण वाली पत्नी के साथ दांपत्य प्रारंभ होने के पूर्व ही टूट गया।
  • युवावस्था में महाराज जी पंडित रामचन्द्र शर्मा वीर जी के नाम से पूरे देश में विख्यात थे। इन्होंने कोलकाता और लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनो में भाग लेकर स्वाधीनता का संकल्प लिया। सन 1932 में इन्होंने अजमेर के चीएफ़ कमिश्नर गिवाह्सों की उपस्थिति में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध ओजश्वी भाषण देकर अपनी निर्भीकता का परिचय दिया। परिणामस्वरुप इन्हें 6 माह के लिए जेल भेज दिया गया. रतलाम और महू में इनके ओजपूर्ण भाषणों के कारण ब्रिटिश प्रशासन कांप उठा था।
  • वीर जी को गोभक्ति पिता जी से विरासत में मिली थी। वीर जी ने जब देखा देश के विभिन्न राज्यों में कसाई-खाने बनाकर गोवंश को नष्ट किया जा रहा है तो इन्होंने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगने तक अन्न और नमक न ग्रहण करने की महान प्रतिज्ञा की जिसको इन्होंने अंतिम साँस तक निभाया।
  • वीर जी 1934 में कल्याण (मुंबई) के निकटवर्ती गाँव तीस के दुर्गा मंदिर में दी जाने वाली निरीह पशुओं की बलि के विरुद्ध संघर्षरत हुए। जनजागरण व अनशन के कारण मंदिर के ट्रस्टियों ने पशुबलि रोकने की घोषणा कर दी। उन्होंने भुसावल, जबलपुर तथा अन्य अनेक नगरों में पहुँच कर कुछ देवालयों में दी जाने वाली पशुबलि को घोर व् अमानवीय करार देकर इस कलंक से मुक्ति दिलाई।
  • स्वामी रामचन्द्र वीर ने 1000 से अधिक मंदिरों में धर्म के नाम पर होने वाली पशु बलि को बंद कराया था। कोलकाता के काली मंदिर पर होने वाली पशुबलि का विरोध करने पर आप पर प्राणघातक हमला भी हुआ। तब स्वयं महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने आकर आपका अनशन तुडवाया।
  • वीर जी महाराज ने देश की स्वाधीनता, मूक प्राणियों व गोमाता की रक्षा व हिन्दू हितों के लिए 28 बार जेल यातनाएँ सहन की। वीर जी स्वामी श्रद्धानन्द, पंडित मदन मोहन मालवीय, वीर सावरकर, भाई परमानन्द जी, केशव बलिराम हेडगवार जी के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर उपाख्य श्री गुरुजी, भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, लाला हरदेव सहाय, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री जैसे लोग वीर जी के तयागमय, तपस्यामय, गाय और हिन्दुओं की रक्षा के लिए किये गए संघर्ष के कारण उनके प्रर्ति आदर भाव रखते थे।

महाप्रयाण

वीर जी गोरक्षा के लिए संघर्ष करते हुए 24 अप्रैल 2009 ई० को शतायु पूरण करते हुए विराटनगर (राजस्थान) में स्वर्ग सिधार गए। उनके निधन पर उनके यशश्वी पुत्र आचार्य धर्मेन्द्र जी (राम मंदिर आन्दोलन के शिखर पुरुष, पंचखंड पिठाधिस्वर एवं विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल संत) ने घोषणा की के वे वीर जी द्वारा दिखाए गए मार्ग और हिन्दू राष्ट्र की सथापना के लिए सतत संघर्ष शील रहेंगे।

==वंश परिचय और स्वामी कुल परम्परा== जयपुर राज्य के पूर्वोत्तर में एतिहासिक तीर्थ विराट नगर के पाश्र्व में पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड नमक छोटे से ग्राम में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण संत, लश्करी संप्रदाय के अनुयायी थे. गृहस्थ होते हुए भी अपने सम्प्रदाय के साधू और जनता द्वारा उन्हें साधू संतो के सामान आदर और सम्मान प्राप्त था. राजा और सामंत उनको शीश नवाते थे और ब्राह्मण समुदाय उन्हें अपना शिरोमणि मानता था. भगवान नरसिंह देव के उपासक इन महात्मा का नाम स्वामी गोपालदास था. गोतम गौड़ ब्राह्मणों के इस परिवार को 'स्वामी' का सम्मानीय संबोधन जो भारत में संतो और साधुओ को ही प्राप्त है, लश्करी संप्रदाय के द्वारा ही प्राप्त हुआ था, क्योंकि कठोर सांप्रदायिक अनुशासन के उस युग में चाहे जो उपाधि धारण कर लेना सरल नहीं था. मुग़ल बादशाह औरंगजेब द्वारा हिन्दुओ पर लगाये गए शमशान कर के विरोध में अपना बलिदान देने वाले महात्मा गोपाल दास जी इनके पूर्वज थे. जजिया कर की अपमान जनक वसूली और विधर्मी सैनिको के अत्याचारों से क्षुब्ध स्वामी गोपालदास धरम के लिए प्राणोत्सर्ग के संकल्प से प्रेरित होकर दिल्ली जा पहुंचे. उन तेजस्वी संत ने मुग़ल बादशाह के दरबार में किसी प्रकार से प्रवेश पा लिया और आततायी औरंगजेब को हिन्दुओ पर अत्याचार न करने की चेतावनी देते हुए, म्लेछो द्वारा शारीर का स्पर्श करके बंदी बनाये जाने से पूर्व ही, कृपाण से अपना पेट चीर कर देखते - देखते दरबार में ही पाने प्राण विसर्जित कर दिए. महाराज जी का रोम-रोम राष्ट्रभक्ति, हिन्दुत्व व संस्कृति से ओत-प्रोत्र था. वीर जी ऐसे प्रणिवत्सल संत थे जिनकी दहाड़ से, ओजश्वी वाणी से, पैनी लेखनी के वर से राष्ट्रद्रोही व धर्मद्रोही कांप उठते थे. वीर जी ऐसे संत थे जिनका हृदय धरम के नाम पर दी जाने वाली निरीह प्राणियों की बलि देख कर दर्वित हो उठता था.


बाहरी कड़ियाँ

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