यक्षगान नृत्य
यक्षगान कर्नाटक राज्य का पारम्परिक नृत्य नाट्य रूप है जो एक प्रशंसनीय शास्त्रीय पृष्ठभूमि के साथ किया जाने वाला एक अनोखा नृत्य रूप है। लगभग 5 शताब्दियों की सशक्त नींव के साथ यक्षगान लोक कला के एक रूप के तौर पर मजबूत स्थिति रखता है, जो केरल के कथकली के समान है। नृत्य नाटिका के इस रूप का मुख्य सार धर्म के साथ इसका जुड़ाव है, जो इसके नाटकों के लिए सर्वाधिक सामान्य विषय वस्तु प्रदान करता है। जन समूह के लिए एक नाट्य मंच होने के नाते यक्षगान संस्कृत नाटकों के कलात्मक तत्वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गांवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्परिक संगीत तथा रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आम तौर पर रात के समय धान के खेत में निभाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में धार्मिक भावना की सशक्त पकड़ होने से इसकी लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई है, जिसे इन स्थानों पर इनमें शामिल होने वाले कलाकारों को मिलने वाला उच्च सम्मान पूरकता प्रदान करता है।
स्वर्गिक संगीत के साथ आलंकारिक महत्व के विपरीत वास्तव में स्वर्गिक और पृथ्वी के संगीत का एक अनोखा मिश्रण है। यह कला रूप अस्पष्टता और ऊर्जा के बारीक तत्वों का कला रूप अपने प्रस्तुतीकरण में दर्शाता है, जो नृत्य और गीत के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है, इसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के अलावा कलाकारों के नाटकीय हाव भाव सम्मिलित होते हैं। इसे प्रदर्शित करने वाले कलाकार समृद्ध डिज़ाइनों के साथ चटकीले रंग बिरंगे परिधानों से स्वयं को सजाते हैं, जो कर्नाटक के तटीय ज़िलों की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा पर प्रकाश डालते हैं।
नाटकीय प्रस्तुति
इस प्रकार नाटकीय प्रस्तुति सर्वोत्तम शास्त्रीय संगीत, मंजी हुई नृत्य कला और प्राचीन अनुलेखों का एक भव्य मिश्रण बन कर प्रकट होती है, जो भारत के नृत्य रूपों में सर्वाधिक मनमोहक रूपों में से एक माना जाता है। इस नाटकीय प्रस्तुति की विडंबना यह है कि इसमें नृत्य के चरणों में युद्ध के चरणों का अभिनय किया जाता है, जिनके साथ विशेष प्रभाव देने वाले कुछ पारम्परिक नाटकीय संकेत, चमकदार परिधान और विशाल मुकुट पहने जाते हैं और ये सभी मिलकर कलाकारों को एक सशक्त तथा सहज लोक चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कलाकारों द्वारा पहने गए आभूषण नर्म लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिसे शीशे के टुकड़ों और सुनहरे रंग के कागज़ के टुकड़ों से सजाया संवारा जाता है। यक्षगान के बारे में सर्वाधिक अद्भुत विशेषताओं में से एक है इसमें शास्त्रीय तथा लोक भाषाओं को एक रूप कर देना, ताकि कला के सम्मोहन का एक ऐसा दृश्य बने जो नाट्य विद्या में कला की सीमाओं के पार चला जाए।
यक्षगान प्रदर्शन
एक प्रारूपिक यक्षगान प्रदर्शन भगवान गणेश की वंदना से शुरू होता है, जिसके बाद एक हास्य अभिनय किया जाता है तथा इसमें पृष्ठभूमि संगीत चेंड और मेडल के साथ तीन व्यक्तियों के दल द्वारा ताल (घण्टियां) बजाई जाती हैं। कथावाचक, जो भागवत नामक दल का एक हिस्सा भी है और वह इस पूरे प्रदर्शन का निर्माता, निर्देशक और कार्यक्रम का प्रमुख होता है। उसके प्रारंभिक कार्य में गीतों के माध्यम से कथा का वाचन, चरित्रों का परिचय और कभी कभार उनके साथ वार्तालाप शामिल है। एक सशक्त संगीत ज्ञान और मजबूत कद काठी एक कलाकार की पहली आवश्यकताएं हैं और इसके साथ उसे हिन्दू धर्म का गहरा ज्ञान होना आवश्यक है। इन नाटकों को सहज़ रूप से कलाकारों द्वारा निभाई गई अनेक पौराणिक चरित्रों की भूमिकाओं में विशाल जनसमूह द्वारा देखा जाता है। यक्षगान की एक अन्य अनोखी विशेषता यह है कि इसमें पहले से कोई अभ्यास या आपसी संवाद का लिखित रूप उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे यह अत्यंत विशेष रूप माना जाता है।
वर्तमान परिदृश्य में यक्षगान न केवल भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कला परम्परा में से एक है बल्कि पूरी दुनिया में इसे मान्यता दी जाती है। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि केवल कर्नाटक राज्य में ही 10,000 से अधिक यक्षगान प्रदर्शन प्रति वर्ष किए जाते हैं, जिसमें सभी महोत्सवों के भ्रमण, विद्यालयों और महाविद्यालयों में किए जाने वाले प्रदर्शन आदि शामिल हैं। एक इतनी प्रभावशाली स्थिति को एक ऐसा प्रमाणपत्र माना जा सकता है जो यह कहता है कि यक्षगान सदैव जीवित रहेगा।