बौधायन श्रौतसूत्र

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तैत्तिरीय शाखा के छह श्रौतसूत्र हैं:– बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, सत्याषाढ (हिरण्यकेशि), वैखानस और वाधूल। इनमें बौधायन का स्थान प्रथम है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के प्रारम्भिक अंश पर महादेव का ‘वैजयन्ती’ संज्ञक भाष्य है, जिसके मंगल श्लोकों में उन्होंने तैत्तिरीय शाखा के सूत्रकारों को प्रणाम किया है–

यत्राकरोत् सूत्रमतीव गौरवाद् बौधायनाचार्यवरोऽर्थगुप्तये।
तथा भरद्वाज मुनीश्वरस्तथाऽऽपस्तम्ब आचार्य इदं परं स्फुटम्।।
अतीव गूढार्थमनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:।
हिरण्यकेशीति यथार्थनामभाग् अभूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मातात्।।
वाधूल आचार्यवरोऽकरोत् परं सूत्रं तु यत् केरल देशसंस्थितम्।
वैखानसाचार्यकृतं त्वथापरं पूर्तेन युक्तं त्विति सूत्र षड्विधा:।।

उपर्युक्त पद्वों में वैजयन्तीकार महादेव ने तैत्तिरीय शाखा के बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, वैखानस, वाधूल – इन सूत्रकारों का क्रम से निर्देश करके उन्हें प्रणाम किया है। इनमें बौधायन का नाम प्रथम है।[1] और अन्य नाम; वाधूल को छोड़कर, ऐतिहासिक क्रम से भी युक्त हैं। पहला नाम बोधायन और बौधायन – इन दो प्रकारों से ही लिखा गया है। व्याकरण की दृष्टि से 'बुध' शब्द से गोत्रापत्यदर्शक बौधायन शब्द सिद्ध होता है तब आदिवृद्धि होती है, किन्तु प्राचीन काल से बोधायन शब्द ही सर्वत्र रूढ़ है।

इन आचार्यों में भारद्वाज से वाधूल तक सूत्रकार कहलाते हैं, जबकि बोधायन को प्रवचनकार की संज्ञा दी गई है।[2] आचार्य शिष्यों को संबोधित करके प्रवचन करता है, जबकि सूत्रकार सूत्र–प्रणयन करता है। सूत्रकार के सम्मुख शिष्य उपस्थित नहीं होते। वास्तव में ही बौधायन श्रौतसूत्र प्रवचन ही है। उसमें विस्तार है, जबकि सूत्रों की रचना संक्षिप्त होती है। विषय के पुनरुक्त होने पर भी बोधायन संक्षेप नहीं करते। बीच–बीच में विधि की पुष्टि के लिए ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सामने बैठे हुए शिष्यों को समझाने के लिए आचार्य हर प्रकार से प्रयास कर रहे हों। आवश्यकता होने पर अभिनय के द्वारा भी वह किसी बात को स्पष्ट करते हैं। अग्न्याधान के अवसर पर आहवनीय अग्नि की स्थापना के लिए गार्हपत्य अग्नि से प्रज्वलित काष्ठ को वह हाथ में पकड़ लेते हैं और उस काष्ठ को क्रम से ऊपर लेते हैं। प्रवचनकार का प्रश्न है– 'इत्यग्नेय हरति अर्थवति अर्थयति।' इस प्रकार अपना दाहिना हाथ ऊँचा करके वह अध्वर्यु द्वारा की जाने वाली विधि बतलाते हैं।

तैत्तिरीय शाखा की संहिता

यद्यपि बोधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा की संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक का पाठ सुनिश्चित था, तो भी सूत्र में बहुसंख्यक मन्त्र सकल पाठ के रूप में उद्धृत हैं। इस शाखा के अन्य सूत्रों में मन्त्र प्रतीक रूप में प्रदर्शित हैं। बौधायन के समय तैत्तिरीय शाखा का पाठ सुप्रतिष्ठित था, इसके अनेक प्रमाण सूत्र में मिलते हैं। जब पूर्वापर मन्त्रों का विनियोग अपेक्षित है, तब पहले प्रतीक उद्धृत करके 'इत्यनुहृत्य' कहकर दूसरे मन्त्र का प्रतीक पाठ दिया जाता है। अग्नि–चयन–प्रकरण में जब अग्निचिति की रचना पूरी होती है, तब चिति के उत्तर पक्ष में अन्तिम इष्टका पर तैत्तिरीय संहितागत रूद्राध्यायसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला की तैत्तिरीय संहिता का सम्पूर्ण तीसरा काण्ड। इस काण्ड में क्रम से जो विषय आए हैं, चाहे वे मन्त्र हों या ब्राह्मण, उनका उसी क्रम से विवरण बौधायन सूत्र के 14वें प्रश्न में है। अत: उसका स्वरूप अन्य प्रश्नों से भिन्न है। स्वाभाविक था कि इसमें ब्राह्मण अंश कुछ अधिक प्रमाण में उद्धृत होता। इससे स्पष्ट है कि बौधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा का आर्षेय पाठ सुप्रतिष्ठित था। सत्याषाढ प्रभृति अन्य गृह्यसूत्रों में आर्षेय पाठ के छह, चार या नौ काण्ड माने गए हैं।

अश्वमेध

15वें प्रश्न में अश्वमेध का विवरण है। 16वें प्रश्न में द्वादशाह, गवामयन और अहीन क्रतुओं से सम्बद्ध सामग्री है। द्वादशाह अहीन और सत्र प्रकार से उभयविध होता है। अहीनरूप हो तो एक ही यजमान होता है। सत्ररूप होने पर ऋत्विक ही उसके सहभागी यजमान होते हैं। इन्हीं में से एक को गृहपति का स्थान देकर कार्य करने को कहा जाता है। गवामयन संवत्सरसत्र है। संवत्सरसत्रों की वह प्रकृति है। काम्य, अहीन क्रतुओं का विवरण भी इस प्रश्न में है। दो से लेकर सहस्त्ररात्र तक अहीन क्रतुओं की विधियाँ संक्षेप में बताई गई हैं।

उत्तरातति:

17वें और 18वें प्रश्नों को 'उत्तरातति:' कहा गया है। 17वें प्रश्न में बहुत से विषय आए हैं, जैसे अतिरात्र, एकादशिनी, सत्रों और अयनों के प्रकार, सौत्रामणि इत्यादि। अन्यत्र गृह्यकर्मों में अन्तर्भूत समावर्तन विधि भी उत्तरातति में वर्णित है। 18वें प्रश्न में काम्य एकाह क्रतुओं का विवरण है।

काठक चयन

19वें प्रश्न में काठक चयन उपवर्णित है। पाँच काठक वचनों में चार का आधार तैत्तिरीय ब्राह्मण में और एक का आरण्यक में निहित है।

द्वैध

20वें से 23वें तक के चार प्रश्न 'द्वैध' के नाम से जाने जाते हैं। यह बौधायन सूत्र की विशेषता है। द्वैधसूत्र में उन विधियों के विषय में विभिन्न मतों का संग्रह है, बौधायनीय परम्परा में जिनके भिन्न सम्प्रदाय थे। आरम्भ में मूलसूत्र का सन्दर्भ देकर उस विषय में जितने आचार्यों के विभिन्न मत हैं, उनका निर्देश है। द्वैधसूत्र में जिन विभिन्न आचार्यों के मत प्रदर्शित हैं, वे ये हैं– आञ्जीगवि, आत्रेय, अर्त्तभागीपुत्र, औपमन्यव, औपमन्यवीपुत्र, भाष्य, कौणपतन्त्रि, गौतम, ज्यायान् कात्यायन, दक्षिणाकार, राथीतर, दीर्घवात्स्य, बौधायन, मांगल, मैत्रेय, मौद्गल्य, वाधूलक और शालीकि। द्वैधसूत्र में कुछ ऐसे स्थल हैं जिनका मूल सूत्र बौधायन सूत्र में नहीं मिलता है। तीन प्रश्न (24–26) 'कर्मान्तसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हैं। मूलसूत्र में जो अंश किसी कारण अधूरा रहा, उसकी इस विभाग में पूर्ति की गई है।

परिभाषा

24वें प्रश्न के आरम्भिक खण्डों में ऐसे विषय आए हैं, जिन्हें परिभाषा कहा जा सकता है।

प्रायश्चित्त सूत्र

27वें से 29वें तक के तीन प्रश्न प्रायश्चित्त सूत्र हैं। इनमें अग्निहोत्र से लेकर सत्र तक सभी विधियों के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त संगृहीत हैं। नैमित्तिकी विधि भी इसी में समाविष्ट है।

शुल्बसूत्र

30वाँ प्रश्न शुल्बसूत्र है और उसके पश्चात प्रवरसूत्र है, जिसकी प्रश्न संख्या नहीं दी गई है।

शाखागत क्रम

तैत्तिरीय शाखा, जिससे बौधायन श्रौतसूत्र का सम्बन्ध है, सूत्र रचना से पूर्व सुप्रतिष्ठित थी। सूत्रकार ने मन्त्रों को शाखागत क्रम से उद्धृत किया है। ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते समय वह 'अथ वै यजति' शब्द देते हैं, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड के सप्तम प्रपाठक (अच्छिद्र काण्ड) का कोई अंश बौधायन सूत्र में उद्धृत नहीं किया गया है। काण्डानुक्रम के अनुसार चतुर्थ वैश्वदेव काण्ड में 'अच्छिद्राणि' अन्तर्भूत है। तैत्तिरीय ब्राह्मणसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला अनेक सामों का भी निर्देश है।

वैविध्य

बौधायन कल्पसूत्र में शुल्ब सूत्र के अंत तक 32 प्रश्न परिगणित हैं, किन्तु मुद्रित सूत्र में उनकी संख्या 30 है। बौधायन श्रौतसूत्र के हस्तलेखों में पाठक्रम के वैविध्य का अनुभव होता है। किसी हस्तलेख में प्रश्न अग्निष्टोम से पूर्व और किसी में पश्चात्। सौत्रामणी याग दो प्रकार का है– चरक और कौकिली। विद्यमान सूत्र में कौकिली है ही नहीं। बौधायन श्रौतसूत्र के भाष्यकार भवस्वामी ने लिखा है कि बौधायन श्रौतसूत्र का कौकिली सौत्रामणीपरक अंश नष्ट हो गया है। उसके पूर्व अस्तित्व के प्रमाण सूत्र में भी हैं। बौधायन श्रौतसूत्र की भाषा–शैली भाषा के सदृश है। बौधायन श्रौतसूत्र के सम्पादक डॉ. कालान्द ने इसका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है।

भवस्वामी का भाष्य

बौधायन श्रौतसूत्र के 1 से 26 प्रश्नों पर भवस्वामी का भाष्य है। यह भाग संक्षिप्त है और उसके हस्तलेख अत्यन्त दोषपूर्ण हैं। अब तक यह अप्रकाशित है। नि:संदेह इसका प्रकाशन बौधायन श्रौतसूत्र के अध्ययन में अतीव लाभदायक होगा। सायणाचार्य का भी इस सूत्र के प्रथम प्रश्न पर भाष्य उपलब्ध है। यह प्रकाशित भी हुआ है। दशम प्रश्न (अग्निचयनपरक) पर वासुदेव दीक्षितकृत 'महाग्निसर्वस्व' संज्ञक भाष्य है, जो उपादेय है। 17वें प्रश्नगत एकादशिनी पर भी एक भाष्य है। कर्मान्तसूत्र पर वेंकटेश्वर का भाष्य उपलब्ध है। 27वें से 29वें तक के प्रश्नों पर भी भाष्य मिलता है। शुल्बसूत्र पर द्वारकानाथ यज्वन् का भाष्य मुद्रित ही है। तंजाऊर के महादेव वाजपेयी ने प्रथम आठ प्रश्नों पर 'सुबोधिनी' नाम्नी विस्तृत टीका रची है जो अभी तक अप्रकाशित है। केशव स्वामी ने बौधायन श्रौतसूत्रानुसार अनेक यागों के प्रयोग लिखे हैं जो हस्तलेखों के रूप में सुरक्षित हैं। ये यागानुष्ठान कराने वाले ऋत्विजों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। यों भी केशव स्वामी के वय में सर्वशाखीय वैदिकों में अत्यन्त आदरभाव रहा है। 17वीं शताब्दी के अनन्तदेव ने भी अनेक श्रौतप्रयोग और बौधायन शाखापरक ग्रन्थ लिखे हैं। अनन्तदेव के आश्रयदाता थे हिमाचल प्रदेश के राजा बाजबहादुर। महाराष्ट्रीय शेषकुल के ब्राह्मणों ने भी जो 16वीं शती में वाराणसी चले गए थे, अनेक श्रौतयागों के प्रयोग लिखे।

बौधायन श्रौतसूत्र की रचना

बुह्लर ने धर्मसूत्रों के अपने अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रस्तावना में कहा है कि तैत्तिरीय शाखा का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ और वहीं सम्प्रति उसके अनुयायी रहते हैं। अब यह बात नहीं मानी जाती। जब कृष्णयजुर्वेद की अन्य शाखाओं का उद्भव उत्तर भारत में हुआ तो यही मानना युक्तियुक्त है कि तैत्तिरीय शाखा भी वहीं पनपी। इस शाखा के प्राचीनतम सूत्र बौधायन श्रौतसूत्र की रचना भी उत्तर भारत में हुई। व्याकरण–महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार (ई. पू. 150) में कठ–कालाप शाखाओं का अध्ययन गाँव–गाँव में प्रचलित था। बौधायन ने काठकचयन काठकशाखा से ही लिए हैं। इससे पष्ट होता है कि वह काठकशाखा के सान्निध्य में रहते थे। बौधायन श्रौतसूत्र में उत्तर भारत के अनेक भौगोलिक निर्देश मिलते हैं। दक्षिण भारत में भारतीयों का विस्तार ई. पू. पाँचवीं शती में हुआ, तभी बौधायन श्रौतसूत्र के अनुयायी भी दक्षिण भारत में जाकर रहे। इसकी पृष्ठभूमि में ऋग्वेदीय (आश्वलायनशाखीय) यजमानों का आग्रह निहित था, क्योंकि उन्हें आध्वर्यव के लिए बौधायनशाखीय ऋत्विजों की आवश्यकता थी। सम्प्रति आन्ध्र और तमिलनाडु की अपेक्षा कर्नाटक और केरल में इस शाखा का विशेष प्रचार है। ब्राह्मण ग्रन्थों के सदृश भाषा–शैली होने के आधार पर कहा जा सकता है कि बौधायन श्रौतसूत्र की रचना पाणिनि और बुद्ध के काल (ई. पू. 500) से पहले हुई। जैमिनि की पूर्वमीमांसा में कल्पसूत्राधिकरण है। वह जिस आधार पर है, उसमें बौधायन का अवश्य अन्तर्भाव होना चाहिए। बौधायन की रचना प्रवचन रूप में है, सूत्राकार रूप में नहीं। इन प्रमाणों के आधार पर यह कहना युक्तियुक्त होगा कि बौधायन श्रौतसूत्र की रचना ई. पूर्व 650 से पहले हुई होगी।

बौधायन श्रौतसूत्र के संस्करण

  • बौधायन श्रौतसूत्र, सम्पादक–विल्हेल्म कालान्द, प्रथम संस्करण 1904 से 1923 के मध्य प्रकाशित।
  • द्वितीय संस्करण मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, भाग–1–2, 1982।

टीका टिप्पणी

  1. सायण से पूर्वकालीन भाष्यकार भट्टभास्कर ने भी तैत्तिरीय संहिता–भाष्य में सर्वप्रथम बोधायन को ही प्रणाम किया है – ‘प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यान् बोधायनपुर: सरान् व्याख्यैषाध्वर्युवेदस्य यथाबुद्धि विधीयते।’
  2. बौधायन गृह्यसूत्र में उत्सर्जन विधि के अवसर पर देवताओं, ऋषियों और आचार्यों के लिए आसनों की कल्पना के समय बोधायन को प्रवचनकार कहा गया है – 'काण्वाय बोधायनाय प्रवचनकाराय।'