सिंहासन बत्तीसी चौदह

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एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा हुई कि वह यज्ञ करे। देश-देश को न्योते भेजे। सातों द्वीपों के ब्राह्मणों को बुलाया, राजाओं को इकट्ठा किया। एक वीर स्वर्ग के देवताओं को बुलाने भेजा राजा ने एक ब्राह्मण से कहा कि तुम जाकर समुद्र को न्योता दे आओ। ब्राह्मण चला। चलते-चलते समुद्र के किनारे पहुंचा। वहां देखता क्या है कि चारों ओर पानी-ही-पानी है। न्योता किसे दे? तब उसने चिल्लाकर कहा कि हे समुद्र! तुम यज्ञ में आना।

जब वह चला तो आगे उसे ब्राह्मण के भेस में समुद्र मिला।

उसने कहा: मैं आने को तो तैयार हूँ, लेकिन मेरे आने से पानी भी आयगा और बहुत-से नगर डूब जायंगे। सो तुम राजा से सब बात कह देना और ये पांच लाल और घोड़ा सौगात में मेरी ओर से दे देना।

ब्राह्मण पांचों रत्न और घोड़ा लेकर वापस आया और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने वे चीज़ें उसी ब्राह्मण को दान में दे दीं। ब्राह्मण प्रसन्न होकर चला गया।

पुतली बोली: ऐसा कोई दानी हो तो सिंहासन पर बैठै!

राजा चुप रह गया। अगले दिन पंद्रहवी पुतली अनूपवती की बारी आयी। उसने भी वही किया, जो चौदह कर चुकी थीं। उसने कहा कि लो, विक्रमादित्य के गुण कान लगा कर सुनो।


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