बेगम अख़्तर

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बेगम अख़्तर (अंग्रेज़ी: Begum Akhtar, जन्म: 7 अक्तूबर, 1914 - मृत्यु: 30 अक्टूबर, 1974) भारत की प्रसिद्ध गायिका थीं जिन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1968 में पद्म श्री और सन 1975 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। बेगम अख़्तर को मल्लिका-ए-ग़ज़ल भी कहा जाता है।

जीवन परिचय

उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में 7 अक्टूबर 1914 में जन्मी बेगम अख्तर का बचपन के दिनों से ही संगीत की ओर रूझान था। वह पार्श्वगायिका बनना चाहती थी। उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के सख्त खिलाफ थे लेकिन उनके चाचा ने बेगम अख्तर के संगीत के प्रति लगाव को पहचान लिया और उन्हें इस राह पर आगे बढने के लिये प्रेरित किया। बेगम अख्तर ने फ़ैज़ाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान खां और अता मोहम्मद खान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके अलावा उन्होने मोहम्मद खान, अब्दुल वहीद खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा।[1]

आरंभिक जीवन

बचपन के दिनों में उस्ताद मोहम्मद खान और बेगम अख्तर के बीच ऐसी घटना हुई कि बेगम अख्तर ने गाना सीखने से मना कर दिया। उन दिनों बेगम अख्तर सही सुर नही लगा पाती थीं। उनके गुरु ने उन्हें इसके बारे में कई बार सिखाया और जब वह नही सीख पाई तो उन्हें डांट दिया। इसके बाद बेगम अख्तर रोने लगी और कहा हमसे नहीं बनता नानाजी, मैं गाना नहीं सीखूंगी। तब उनके उस्ताद ने कहा बस इतने में हार मान ली तुमने, नहीं बिट्टो ऐसे हिम्मत नही हारते, मेरी बहादुर बिटिया चलो एक बार फिर से सुर लगाने में जुट जाओ। उनकी यह बात सुनकर बेगम अख्तर ने फिर से रियाज शुरू किया और सही सुर लगाये। तीस के दशक में बेगम अख्तर पारसी थियेटर से जुड़ गईं। नाटकों में काम करने के कारण उनका रियाज छूट गया जिससे उनके गुरु मोहम्मद अता खान काफी नाराज हुये और कहा जब तक तुम नाटक में काम करना नही छोड़ती मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाउंगा। उनकी इस बात पर बेगम अख्तर ने कहा आप सिर्फ एक बार मेरा नाटक देखने आ जाएँ उसके बाद आप जो कहेंगे, मैं करूंगी। उस रात मोहम्मद अता खान बेगम अख्तर के नाटक तुर्की हूर देखने गये। जब बेगम अख्तर ने उस नाटक का गाना 'चल री मोरी नैय्या' गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गये और नाटक समाप्त होने के बाद बेगम अख्तर से उन्होंने कहा बिटिया तू सच्ची अदाकारा है जब तक चाहो नाटक में काम करो।[1]

सिने कैरियर की शुरुआत

नाटकों में मिली शोहरत के बाद बेगम अख्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अभिनय करने का मौका मिला। बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने 'एक दिन का बादशाह' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म की असफलता के कारण अभिनेत्री के रुप में वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना पाई। वर्ष 1933 में ईस्ट इंडिया के बैनर तले बनी फिल्म 'नल दमयंती' की सफलता के बाद बेगम अख्तर बतौर अभिनेत्री अपनी कुछ पहचान बनाने में सफल रही। इस बीच बेगम अख्तर ने अमीना, मुमताज बेगम, 1934, जवानी का नशा, 1935, नसीब का चक्कर जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का जौहर दिखाया। कुछ समय के बाद वह लखनउ चली गई जहां उनकी मुलाकात महान निर्माता -निर्देशक महबूब खान से हुई जो बेगम अख्तर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुये और उन्हें मुंबई आने का न्योता दिया। वर्ष 1942 में महबूब खान की फिल्म 'रोटी' में बेगम अख्तर ने अभिनय करने के साथ ही गाने भी गाये। उस फिल्म के लिए बेगम अख्तर ने छह गाने रिकार्ड कराये थे लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान संगीतकार अनिल विश्वास और महबूब खान के आपसी अनबन के बाद रिकार्ड किये गये तीन गानों को फिल्म से हटा दिया गया। बाद में उनके इन्हीं गानों को ग्रामोफोन डिस्क ने जारी किया गया। कुछ दिनों के बाद बेगम अख्तर को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब सी लगने लगी और वह लखनऊ वापस चली गईं।[1]

विवाह

वर्ष 1945 में बेगम अख्तर का निकाह वकील इश्ताक अहमद अब्बासी से हो गया। दोनों की शादी का किस्सा काफी दिलचस्प है। एक कार्यक्रम के दौरान बेगम अख्तर और इश्ताक मोहम्मद की मुलाकात हुई। बेगम अख्तर ने कहा, "मैं शोहरत और पैसे को अच्छी चीज नहीं मानती हूं, औरत की सबसे बड़ी कामयाबी है किसी की अच्छी बीवी बनना" यह सुनकर अब्बासी साहब बोले क्या आप शादी के लिये अपना कैरियर छोड़ देंगी। इस पर उन्होंने जवाब दिया हां यदि आप मुझसे शादी करते है तो मैं गाना बजाना तो क्या आपके लिये अपनी जान भी दे दूं। बाद में शादी के बाद उन्होंने गाना बजाना तो दूर गुनगुनाना तक छोड़ दिया। शादी के बाद अपने पति की इजाजत नही मिलने पर बेगम अख्तर ने गायकी से मुख मोड़ लिया। गायकी से बेइंतहा मोहब्बत रखने वाली बेगम अख्तर को जब लगभग पांच वर्ष तक आवाज की दुनिया से रूखसत होना पड़ा तो वह इसका सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और हमेशा बीमार रहने लगी। हकीम और वैद्यों की दवाइयां भी उनके स्वास्थ्य को नही सुधार पा रही थीं। एक दिन जब बेगम अख्तर गा रही थीं तभी उनके पति के दोस्त सुनील बोस जो लखनऊ रेडियो के स्टेशन डायरेक्टर थे ने उन्हें गाते देखकर कहा, अब्बासी साहब यह तो बहुत नाइंसाफी है। कम से कम अपनी बेगम को रेडियो में तो गाने का मौका दीजिये। बाद में अपने दोस्त की बात मानकर अब्बासी साहब ने बेगम अख्तर को गाने का मौका दिया। जब लखनऊ रेडियों स्टेशन में बेगम अख्तर पहली बार गाने गईं तो उनसे ठीक से नहीं गाया गया। अगले दिन समाचार पत्र में निकला कि बेगम अख्तर का गाना बिगड़ा। बेगम अख्तर को यह बात नहीं जमी और बेगम अख्तर ने रियाज करना शुरू कर दिया और बाद में उनका अगला कार्यक्रम अच्छा हुआ।[1]

फ़िल्मों में वापसी

रेडियो में गाना शुरू हुआ तो संगीत सम्मेलन और इसी बीच फ़िल्मों में भी वापसी हुई। महान संगीतकार मदन मोहन के कहने पर बेगम अख्तर ने 1953 मे प्रदर्शित फिल्म 'दानापानी' के गीत 'ऐ इश्क मुझे और कुछ याद नही' और 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'एहसान' के गीत 'हमें दिल में बसा भी लो' गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया। पचास के दशक में बेगम अख्तर ने फिल्मों मे काम करना कुछ कम कर दिया। वर्ष 1958 में सत्यजीत राय द्वारा निर्मित फिल्म 'जलसा घर' बेगम अख्तर के सिने कैरियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे जीवंत कर दिया था। इस दौरान वह रंगमंच से भी जुड़ी रही और अभिनय करती रही।[1]

स्वाभिमानी स्वभाव

बेगम अख्तर बहुत स्वाभिमानी गायिका थीं। एक बार कश्मीर में वह कार्यक्रम करने के लिये गई थीं। वहां के राज्यपाल ने उन्हें चाय पर आमंत्रित किया था। जब वह वहां पहुंची तो राज्यपाल ने कहा पहले आप गाना सुनाये उसके बात मैं आपको चाय पिलाता हूं। उनकी इस बात से बेगम अख्तर काफी नाराज हुई और कहा आपने मुझे चाय पर बुलाया है न कि गाना सुनने और वह वहां से चली गईं। बाद में राज्यपाल ने उनसे इस बात के लिये माफी भी मांगी।

सम्मान और पुरस्कार

निधन

अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। अपनी मौत से सात दिन पहले बेगम अख्तर ने कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल गाई थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 परिमल, महेश कुमार। बेगम अख़्तर:सब अजनबी हैं यहाँ कौन किसको पहचाने (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) संवेदनाओं के पंख। अभिगमन तिथि: 11 अक्टूबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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