राधाकमल मुखर्जी

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राधाकमल मुखर्जी (जन्म- 7 दिसम्बर, 1889 ई., पश्चिम बंगाल, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 1968 ई.) आधुनिक भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के विख्यात विद्वान थे। उनकी अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि विषयों में गहरी रुचि थी। डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने विविध विषयों में 50 से अधिक ग्रंथों की रचना की थी। वे प्राच्य और पाश्चात्य दोनों विचार धाराओं में समन्वय के समर्थक थे।

जन्म तथा शिक्षा

भारतीय संस्कृति और समाजशास्त्र के विख्यात विद्वान डॉ. राधाकमल मुखर्जी का जन्म 7 दिसम्बर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता बहरामपुर में बैरिस्टर थे। राधाकमल मुखर्जी ने 'कोलकाता विश्वविद्यालय' से पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की थी।

व्यावसायिक जीवन

पी.एच.डी. करने के बाद इन्होंने कुछ समय तक लाहौर के एक कॉलेज में और उसके बाद 'कोलकाता विश्वविद्यालय' में अध्यापन कार्य किया। 1921 में वे समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष पद पर 'लखनऊ विश्वविद्यालय' में आ गए। 1952 में इस पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे 1955 से 1957 तक इस विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर भी रहे।

अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि विषयों में उनकी गहरी रुचि थी। कला का अध्ययन भी उनका प्रिय विषय था। यूरोप और अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालय उन्हें अपने यहाँ भाषण देने के लिए आमंत्रित करते रहते थे। भारतीय कलाओं के प्रति अपने अनुराग के कारण ही वे कई वर्षों तक लखनऊ के प्रसिद्ध भातखंडे संगीत महाविद्यालय और प्रदेश ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। 1955 में लंदन के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान मैकमिलन ने डॉ. मुखर्जी के सम्मान में एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया था। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में भी उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। लखनऊ विश्वविद्यालय के जे. के. इंस्टीटयूट के निदेशक तो वे जीवन भर रहे।

डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने विविध विषयों में 50 से अधिक ग्रंथों की रचना की। उनमें से कुछ प्रमुख हैं- 'द सोशल स्ट्रक्चर ऑफ़ वैल्यूज', 'द सोशल फ़शन्स ऑफ़ आर्ट', 'द डाइनानिक्स ऑफ़ मौरल्स', 'द फ़िलासाफ़ी ऑफ़ पर्सनेल्टी', 'द फ़िलासाफ़ी ऑफ़ सोशल साइन्सेज', 'द वननेस ऑफ़ मैनकाइंड', 'द फ़्लावरिंग ऑफ़ इंडियन आर्ट', 'कास्टिक आर्ट ऑफ़ इंडिया' आदि। भगवदगीता पर भी उन्होंने एक भाष्य की रचना की थी।

डॉ. राधाकमल मुखर्जी की मान्यता थी कि ज्ञान का अत्यधिक विखंडन समाज की सर्वांगीण प्रगति के लिए अहितकर है। वे प्राच्य और पाश्चात्य दोनों विचार धाराओं में समन्वय के समर्थक थे। सन 1968 में डॉ. मुखर्जी का देहान्त हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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