गीता 5:3

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गीता अध्याय-5 श्लोक-3 / Gita Chapter-5 Verse-3

प्रसंग-


साधन में सुगम होने के कारण सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोगी को श्रेष्ठ सिद्ध करके अब भगवान् दूसरे श्लोक में दोनों निष्ठाओं का जो एक ही फल नि:श्रेयस-परमकल्याण बतला चुके हैं, उसी के अनुसार दो श्लोकों में दोनों निष्ठाओं की फल में एकता का प्रतिपादन करते हैं-


ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।




हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है ।।3।।


The karmayogi who neither hates nor desires should be ever considered a renouncer. For, Arjuna, he who is free from the pairs of opposites is easily freed from bondage. (3)


महाबाहो = हे अर्जुन: य: = जो पुरुष; द्वेष्टि = द्वेष करता है; काड़गति = आकाड़ा करता है; स: = वह (निष्काम कर्मयोगी); नित्य संन्यासी = सदा संन्यासी ही; ज्ञेय: = समझने योग्य है; हि = क्योंकि; निर्द्वषादि द्वन्दों से रहित हुआ पुरुष; सुखम् = सुखपूर्वक; बन्धात् = संसाररूप बन्धन से; प्रमुच्यते = मुक्त हो जाता है।



अध्याय पाँच श्लोक संख्या
Verses- Chapter-5

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8, 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 ,28 | 29

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)