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पर्यटन

भोपाल और आसपास के दर्शनीय स्थानों में फ़तेहगढ़ का क़िला। ताज-उल-मस्जिद (भारत की सबसे बड़ी मस्जिद), जामा मस्जिद, मोती मस्जिद और दूसरी मस्जिद अनेक हिंदू और जैन धार्मिक केंद्र, जैसे लक्ष्मीनारायण मंदिर; भारत भवन, और मानव संग्रहालय शामिल हैं।

प्राचीनता के वैभव से मन भर जाए और मध्ययुगीन भारत को देखने की चाह जागे तो आप भोपाल शहर में घूमना शुरू कर दीजिए। मध्य काल में भोपाल नवाबों का शहर रहा है और आज भी उनकी छाप यहां साफ दिखाई देती है। शहर से 16 किलोमीटर दूर इस्लाम नगर में नवाबों के महल आज भी मौजूद हैं, पर उनकी तहजीब और नवानियत भोपाल में कैद है। शहर में नवाबी असर को देखने की शुरुआत गौहर महल से की जा सकती है। महल ऊपरी ताल के करीब बना है और इसे कुदसिया बेगम या नौहर बेगम ने बनवाया था।


लक्ष्मीनारायण मंदिर, भोपाल लक्ष्मीनारायण मंदिर की स्थापना 1960 में देश के प्रमुख औद्योगिक बिड़ला परिवार द्वारा की गई थी। लक्ष्मीनारायण मंदिर भोपाल में बिरला मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर सबसे ऊँची पहाड़ी अरेरा पहाडियों पर नये विधान सभा भवन मार्ग के निकट बनी झील के दक्षिण में स्थित है। मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के दोनों तरफ संगमरमर से बने मंदिरों में शिव और हनुमान की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित है। मंदिर में प्रवेश हेतु अर्धमंडप, महामण्डप, परिक्रमापथ तथा गर्भगृह है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान नारायण एवम् उनकी पत्नी लक्ष्मी की समभंग मुद्रा में मोहक मूर्ति भावाव्यक्ति के साथ स्थापित है। मुख्य गर्भगृह के दोनों ओर भगवान शिव तथा दुर्गा के छोटे मंदिर है। मंडप, महामंडप और परिक्रमापथ की दीवारों पर वेद, गीता, रामायण, महाभारत और पुराण आदि के श्लोक लिखे हुऐ है। मंदिर के निकट एक संग्रहालय बना हुआ है जिसमें मध्‍य प्रदेश के रायसेन, सेहोर, मंदसौर और सहदोल आदि जगहों से लाई गईं मूर्तियाँ रखी गईं हैं। यहाँ शिव, विष्‍णु और अन्‍य अवतारों की पत्‍थर की मूर्तियाँ स्थापित हैं।

मोती मस्जिद मोती मस्जिद को बुनियाद करीब डेढ़ सौ साल पहले रखी गई थी। इस मस्जिद को कदसिया बेगम की बेटी सिकंदर जहाँ बेगम ने 1860 ई. में बनवाया था। उनका घरेलू नाम मोती बीबी था और उन्हीं के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम मोती मस्जिद रखा गया। मस्जिद के पूर्वी छोर पर स्थित लान को मोतिया पार्क के नाम से जाना जाता है। मोती मस्जिद दिल्ली की जामा मस्जिद के आधार पर बनी हुई है। सुल्तानिया रोड स्थित मोती मस्जिद का प्रबंधन औकाफे शाही द्वारा किया जाता है। इस मस्जिद की शैली दिल्‍ली में बनी जामा मस्जिद के समान है, लेकिन आकार में यह उससे छोटी है। मस्जिद की गहरे लाल रंग की दो मीनारें हैं, जो ऊपर नुकीली हैं और सोने के समान लगती हैं। मोती मस्जिद को सफेद संगमरमर और लाल पत्थर के इस्तेमाल से बनाया गया है और यह स्थापत्य का बेहद खूबसूरत नमूना है ।

ताज-उल-मस्जिद ताजुल मस्जिद भोपाल की सबसे बड़ी मस्जिद है और ताजुल मस्जिद एशिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। ताजुल मस्जिद का अर्थ है 'मस्जिदों का ताज'। यह मस्जिद भारत की सबसे विशाल मस्जिदों में एक है। छोटी मसजिद दिल्ली की जामा मसजिद से प्रेरणा लेकर बनाई गई है। इसमें सुर्ख लाल रंग की मीनारें हैं, जिनमें सोने के स्पाइक जडे हैं। सिकन्दर बेगम ने इस मस्जिद को तामीर करवाने का ख्वाब देखा था। सिकन्दर बेगम 1861 में इलाहबाद दरबार के बाद जब वह दिल्ली गई तो उन्होंने देखा कि दिल्ली की जामा मस्जिद को ब्रिटिश सेना की घुड़साल में तब्दील कर दिया गया है। सिकन्दर बेगम ने अपनी वफादारियों के बदले अंग्रेज़ों से इस मस्जिद को हासिल कर लिया और ख़ुद हाथ बँटाते हुए इसकी सफाई करवाकर शाही इमाम की स्थापना की। इस मस्जिद से प्रेरित होकर उन्होने तय किया की भोपाल में भी ऐसी ही मस्जिद बन वायेगी। सिकन्दर जहाँ का ये ख़ाब उनके जीते जी पूरा न हो सका फिर उनकी बेटी शाहजहाँ बेगम ने इसे अपना ख्वाब बना लिया। उन्होने ताजुल मस्जिद का बहुत ही वैज्ञानिक नक्षा तैयार करवाया। ध्वनि तरंग के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए 21 खाली गुब्बदों की एक ऐसी संरचना का नकशा तैयार किया गया कि मुख्य गुंबद के नीचे खडे होकर जब ईमाम कुछ कहेगा तो उसकी आवाज़ पूरी मस्जिद में गूँजेगी। शाहजहाँ बेगम ने ताजुल मस्जिद के लिए विदेश से 15 लाख रुपए का पत्थर भी मंगवाया चूँकि इसमें अक्स दिखता था अत: मौलवियों ने इस पत्थर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। आज भी ऐसे कुछ पत्थर दारुल उलूम में रखे हुए हैं। धन की कमी के कारण उनके जीवंतपर्यंत यह बन न सकी और शाहजहाँ बेगम का ये ख्वाब भी अधूरा ही रह गया और गाल के कैंसर के चलते उनका असामयिक मृत्यु हो गई। इसके बाद सुल्तानजहाँ और उनके बेटा भी इस मस्जिद का काम पूरा नहीं करवा सके। गुलाबी रंग की इस विशाल मस्जिद की दो सफेद गुंबदनुमा मीनारें हैं, जिन्‍हें मदरसे के तौर पर इस्‍तेमाल किया जाता है। 1971 में भारत सरकार के दखल के बाद यह मस्जिद पूरी तरह से बन गई। आब जो ताजुल मसाजिद हमें दिखाई देती है उसे बनवाने का श्रेय मौलाना मुहम्मद इमरान को जाता है जिन्होने 1970 में इस मुकम्मल करवाया। यह दिल्ली की जामा मस्जिद की हूबहू नक़ल है। आज एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद है लेकिन यदि क्षेत्रफल के लिहाज से देखें और इसके मूल नक्षे के हिसाब से वुजू के लिए बने 800 X 800 फीट के मोतिया तालाब को भी इसमें शामिल कर लें तो बकौल अख्तर हुसैन के यह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद होगी। इसके चारों ओर दीवार है और बीच में एक तालाब है। इसका प्रवेश द्वार दो मंजिला है। जिसमें चार मेहराबें हैं और मुख्य प्रार्थना हॉल में जाने के लिए 9 प्रवेश द्वार हैं। पूरी इमारत बेहद खूबसूरत है। यहाँ लगने वाला तीन दिन का इज्तिमा पूरे देश के लोगों को आमंत्रित करता है। गुलाबी पत्थर से बनी इस मसजिद में दो विशाल सफेद गुंबद हैं। मुख्य इमारत पर तीन सफेद गुंबद और हैं। यहां हर साल तीन दिन का इजतिमा उर्स होता है। जिसमें देश के कोने-कोने से लोग आते हैं।

शौकत महल शौकत महल भोपाल शहर के इकबाल मैदान के बीचोंबीच चौक एरिया के प्रवेश द्वार पर स्थित है। शौकत महल का निर्माण सन् 1830 ई. में भोपाल राज्य की प्रथम महिला शासिका नवाब कुदसिया बेगम ने कराया था। शौकत महल इस्‍लामिक और यूरोपियन शैली का मिश्रित रूप है। शौकत महल पश्चिमी वास्तु और इस्लामी वास्तु का नायाब संगम है। शौकत महल समन्वयवादी स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। शौकत महल का आकल्पन एक फ्रेंच वास्तुविद ने किया था। शौकत महल लोगों की पुरातात्विक जिज्ञासा को जीवंत कर देता है। शौकत महल में नवाब जहांगीर मोहम्मद खान और उनकी बेगम नवाब सिकन्दर जहां अपने शुरूआती दौर में रहे थे। उनके बाद शासिका बनने के पहले शाहजहांबेगम अपने शौहर नवाब उमराव दूल्हा के साथ रहती थीं। शौकत महल के सामने एक विशाल गुलाब उद्यान था।


सदर मंजिल सदर मंजिल शौकत महल के निकट बनी हुई है। वर्ष 1898 ई. में सदर मंजिल की शानदार इमारत का निर्माण तत्कालीन नवाब शाहजहां बेगम द्वारा कराया गया था। भोपाल स्थित अनोखा सदर मंजिल शामला की पहाडियों पर 200 एकड के क्षेत्र में फैला हुआ है। सदर मंजिल जिस स्‍थान पर बनी है, उसे प्रागैतिहासिक काल से संबंधित माना जाता है। वर्ष 1901 ई. में नवाब शाहजहां बेगम की मृत्यु के बाद उनकी एकमात्र पुत्री नवाब सुल्तानजहां बेगम जब नवाब भोपाल बनी तब उन्होंने सदर मंजिल को रियासत के दरबार हॉल के रूप में परिवर्तित कर दिया था। सदर मंजिल में भारत के विभिन्‍न राज्‍यों की जनजातीय संस्‍कृति की झलक देखी जा सकती है। इस शानदार भवन की वास्तुकला देखने लायक है। इस भवन की पच्चीकारी दिल्ली के लाल किला स्थित दीवानेखास के अनुरूप है। अनेक ब्रिटिश वायसराय एवं देश की स्वतंत्रता के बाद महत्वपूर्ण राज नेताओं का यहाँ आगमन होता रहा है। वर्ष 1953 में स्वर्गीय डॉ. शंकर दयाल शर्मा के मुख्यमंत्रित्व काल में इस दरबार हॉल में भोपाल शहर की नगर पालिका स्थापित की गई थी। वर्तमान में सदर मंजिल में राजधानी भोपाल का नगर पालिक निगम स्थापित है। कहा जाता है कि भोपाल के शासक इस मंजिल का इस्‍तेमाल पब्लिक हॉल के रूप में करते थे।

गोहर महल गौहर महल बड़े तालाब के किनारे व्ही.आई.पी. रोड पर स्थित है। शौकत महल के पास बड़ी झील के किनारे स्थित वास्तुकला का यह खूबसूरत नमूना कुदसिया बेगम के काल का है। इस तिमंजिले भवन का निर्माण भोपाल राज्य की तत्कालीन शासिका नवाब कुदसिया बेगम (सन् 1819-37) ने गौहर महल को 1820 ई. में कराया था। 4.65 एकड़ क्षेत्र में फैले है। कुदसिया बेगम का नाम गौहर भी था इसलिए इस महल को गौहर महल के नाम से जाना जाता है। गौहर महल भोपाल रियासत का पहला महल है। गौहर महल की खासिय यह है कि इसकी सजावट भारतीय और इस्लामिक वास्तुकला को मिलाकर की गई है। गौहर महल हिन्‍दु और मुग़ल कला का अद्भुत संगम है। गौहर महल में दीवान-ए आम और दीवान-ए-खास हैं। गौहर महल के आंतरिक भाग में नयनाभिराम फब्बारे थे जो कालान्तर में नष्ट हो गये हैं। फब्बारों की हौज अब भी विद्यमान है। हल के ऊपर का हिस्सा में एक ऐसा कमरा है जिससे पूरे शहर का नजारा दिखाता है और इसके दरवाजों पर कांच से नक्काशी की गई है। महल में दीवारों पर लकड़ी के नक्काशीदार स्तंभ, वितान और मेहराबें हैं। स्तंभों पर आकृतियां और फूल पत्तियों का अंकन है। आंतरिक हिस्स में बेगम का निवास था जिसकी खिड़कियों से बड़े तालाब का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। भवन की दूसरी मंजिल पर एक प्रसूतिगृह था, जिसकी दीवारों पर रंगीन चित्र बने थे। महल में ब्रेकेटयुक्त छज्जों का अभिनव प्रयोग हुआ है।


पुरातात्विक संग्रहालय मध्य प्रदेश के विदिशा ज़िले के सिरोंज में पुरातात्विक धरोहर को संरक्षित करने के लिए स्थानीय संग्रहालय स्थापित किया गया है। बनगंगा रोड पर स्थित पुरातात्विक संग्रहालय में मध्‍य प्रदेश के विभिन्‍न हिस्‍सों से कला के खूबसूरत नमूने और मूर्तियों को एकत्रित करके रखा गया है। पुरातात्विक संग्रहालय एक ऐसा संग्रहालय है जिसकी सीमाएँ किसी एक भवन के दायरे में सीमित नहीं हैं। इसके परिसर में विश्व धरोहर भीमबैटका के समान प्रागैतिहासिक काल के शैल चित्र अपने मूल रूप में विद्यमान हैं। पुरातात्विक संग्रहालय में विभिन्‍न स्‍कूलों से एकत्रित की गई पेंटिग्‍स, बाघ गुफाओं की चित्रकारियों की प्रतिलिपियाँ, अलक्ष्‍मी और बुद्ध की प्रतिमाएँ इस संग्रहालय में सहेजकर रखी गई हैं। यहाँ की दुकानों से पत्‍थरों की मूर्तियों खरीदी जा सकती हैं। प्राचीन संस्कृति से अवगत होने मे पुरातात्विक संग्रहालय मददगार साबित है क्योंकि इस संग्रहालय में शोधार्थियों और इतिहासकारों को जानकारी प्रदान करने के लिए काफि वस्तुएँ मोजुद है।

भारत भवन भारत भवन, राष्‍ट्रीय प्रान्त मध्य प्रदेश में स्थित सबसे अनूठे राष्‍ट्रीय संस्‍थानों मे से है जोकि एक विविध कला संग्रहालय भी है | भारत भवन को 1982  में स्‍थापित किया गया था। भारत भवन भोपाल के बड़े तालाब के निकट स्थित है। भारत भवन मुख्य रूप से यह प्रदर्शन कला और दृश्य कला का केंद्र है। इस भवन में अनेक रचनात्‍मक कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। भारत भवन विशाल क्षेत्र में फैले हुआ है और इसके आस-पास का प्राकृतिक सौंदर्य इसे और भी भव्य बनाता है। भारत के विभिन्‍न पारंपरिक शास्‍त्रीय कलाओं के संरक्षण का यह प्रमुख केन्‍द्र है। भारत भवन में म्‍युजियम ऑफ आर्ट, आर्ट गैलरी, ललित कला संग्रह, इनडोर या आउटडोर ओडोटोरियम, रिहर्सल रूम, भारतीय काव्‍य की पुस्‍तकालय आदि कई चीजें शामिल हैं। शामला पहाडियों पर स्थित इस भवन को प्रसिद्ध वास्‍तुकार चार्ल्‍स कोरेया ने अभिकल्प किया था। चार्ल्‍स कोरेया का कहना है- "यह कला केन्द्र एक बहुत ही सुंदर स्थान पर स्थित है, पानी पर झुका हुआ एक पठार जहाँ से तालाब और ऐतिहासिक शहर दिखाई देता है"

इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय- यह अनोखा संग्रहालय शामला की पहाडियों पर 200 एकड के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस संग्रहालय में भारत के विभिन्‍न राज्‍यों की जनजातीय संस्‍कृति की झलक देखी जा सकती है। यह संग्रहालय जिस स्‍थान पर बना है, उसे प्रागैतिहासिक काल से संबंधित माना जाता है। सोमवार और राष्‍ट्रीय अवकाश के अलावा यह संग्रहालय प्रतिदिन 10 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।

भीमबेटका गुफाएं- दक्षिण भोपाल से 46 किमी. दूर स्थित भीमबेटका की गुफाएं प्रागैतिहासिक काल की चित्रकारियों के लिए लोकप्रिय हैं। यह गुफाएं चारों तरफ से विन्‍ध्‍य पर्वतमालाओं से घिरी हुईं हैं, जिनका संबंध नवपाषाण काल से है। इन गुफाओं के अंदर बने चित्र गुफाओं में रहने वाले प्रागैतिहासिक काल के जीवन का विवरण प्रस्‍तुत करते हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को 12 हजार वर्ष पूर्व की मानी जाती है।

भोजपुर- यह प्राचीन शहर दक्षिण पूर्व भोपाल से 28 किमी की दूरी पर स्थित है। यह शहर भगवान शिव को समर्पित भोजेश्‍वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर को पूर्व का सोमनाथ भी कहा जाता है। मंदिर की सबसे खास विशेषता यहां के लिंगम का विशाल आकार है। लिंगम की ऊंचाई लगभग 2.3 मीटर की है और इसकी परिधि 5.3 मीटर है। यह मंदिर 11 वीं शताब्‍दी में राजा भोज ने बनवाया था। शिव रात्रि का पर्व यहां बडी धूमधाम से मनाया जाता है। मंदिर के निकट ही एक जैन मंदिर भी है जिसमें एक जैन तीर्थंकर की 6 मीटर ऊंची काले रंग की प्रतिमा स्‍थापित है।

सदर मंजिल, भोपाल

भोपाल स्थित यह अनोखा संग्रहालय शामला की पहाडियों पर 200 एकड के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस संग्रहालय में भारत के विभिन्‍न राज्‍यों की जनजातीय संस्‍कृति की झलक देखी जा सकती है। यह संग्रहालय जिस स्‍थान पर बना है, उसे प्रागैतिहासिक काल से संबंधित माना जाता है। सोमवार और राष्‍ट्रीय अवकाश के अलावा यह संग्रहालय प्रतिदिन 10 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय

भारत के मध्य प्रदेश राज्य की राजधानी भोपाल में यह अनोखा संग्रहालय शामला की पहाडियों पर २०० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है, जहाँ ३२ पारंपरिक एवं प्रागैतिहासिक चित्रित शैलाश्रय भी हैं।[१] यह भारत ही नहीं अपितु एशिया में मानव जीवन को लेकर बनाया गया विशालतम संग्रहालय है। इसमें भारतीय प्ररिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के कालक्रम को दिखाया गया है। इस संग्रहालय में भारत के विभिन्‍न राज्यों की जनजातीय संस्‍कृति की झलक देखी जा सकती है। यह संग्रहालय जिस स्‍थान पर बना है, उसे प्रागैतिहासिक काल से संबंधित माना जाता है। सोमवार और राष्ट्रीय अवकाश के अतिरिक्त यह संग्रहालय प्रतिदिन प्रातः १० बजे से शाम ५ बजे तक खुला रहता है।

२०० एकड़ क्षेत्रफल में स्थापित इस संग्रहालय के दो भागों में एक भाग खुले आसमान के नीचे है और दूसरा एक भव्य भवन में। मुक्ताकाश प्रदर्शनी में भारत की विविधता को दर्शाया गया है। इसमें हिमालयी, तटीय, रेगिस्तानी व जनजातीय निवास के अनुसार वर्गीकृत कर प्रदर्शित किया गया है। मध्य-भारत की जनजातियों को भी पर्याप्त स्थान मिला है जिनके अनूठे रहन-सहन को यहाँ पर देखा जा सकता है। आदिवासियों के आवासों को उनके बरतन, रसोई, कामकाज के उपकरण अन्न भंडार तथा परिवेश को हस्तशिल्प, देवी देवताओं की मूर्तियों और स्मृति चिन्हों से सजाया गया है। बस्तर दशहरे का रथ भी यहाँ प्रदर्शित है जो आदिवासियों और उनके राजपरिवार की परंपरा का एक भाग है। भीतरी संग्रहालय भवन बहुत विशाल है, जिसका स्थापत्य अनूठा है। यह संग्रहालय ढालदार भूमि पर १० हजार वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला है। इसके अंदर अनेक प्रदर्शनी कक्ष हैं। प्रथम कक्ष में मानव जीवन के विकास की कहानी को चरणबद्ध रूप से दर्शाने के लिए माडलों व स्केचों का सहारा लिया गया है। देश के विभिन्न भागों से जुटाए गए साक्ष्यों को भी यहाँ रखा गया है। यहाँ विभिन्न समाजों के जनजीवन की बहुरंगी झलक तो देखने को मिलती ही है, अलग-अलग क्षेत्रों के परिधान, साजसज्जा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पारंपरिक कला, हस्तशिल्प, शिकार, मछली मारने के उपकरण, कृषि उपकरण, औजार व तकनीकी, पशुपालन, कताई व बुनाई के उपकरण, मनोरंजन, उनकी कला से जुडे नमूने से भी परिचय होता है। यह संग्रहालय २१ मार्च १९७७ में नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में खोला गया था किंतु दिल्ली में पर्याप्त जमीन व स्थान के अभाव में इसे भोपाल में लाया गया। चूँकि श्यामला पहाडी के एक भाग में पहले से ही प्रागैतिहासिक काल की प्रस्तर पर बनी कुछ कलाकृतियाँ थीं, इसलिए इसे यहीं स्थापित करने का निर्णय लिया गया। [२]

यहाँ स्थित दूसरा संग्रहालय राज्य आदिवासी संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। यह भी श्यामला पहाडी़ पर स्थित है और आदिम जाति अनुसंधान केंद्र के परिसर में है। मध्यप्रदेश के आदिवासियों के जनजीवन व उनकी संस्कृति के संरक्षण के उद्देश्य से इस संस्थान की स्थापना १९५४ में छिंदवाडा में कर दी गई थी किंतु किसी केंद्रीय स्थान में इसकी उपयोगिता को देखते हुए १९६५ में इसे छिंदवाडा से भोपाल स्थानांतरित कर दिया गया। इस संग्रहालय में जनजातियों की उपासना की मूर्तियाँ, संगीत उपकरण, आभूषण, चित्रकारी, प्रस्तर उपकरण, कृषि उपकरण, शिकार करने के हथियार-तीर कमान, मस्त्य आखेट के उपकरण, वस्त्र हस्तशिल्प व उनके औषध तन्त्र आदि संग्रहीत हैं। छत्तीसगढ राज्य के गठन से पूर्व में इसमें वहाँ की भी जनजातियाँ शामिल थी किंतु राज्य बनने के बाद इस संग्रहालय का क्षेत्र कुछ कम हो गया। राज्य की लगभग ४० जनजातियों द्वारा निर्मित कालकृतियों को यहाँ रखा जा रहा है जिनमें सहरिया, भील, गोंड भरिया, कोरकू, प्रधान, मवासी, बैगा, पनिगा, खैरवार कोल, पाव भिलाला, बारेला, पटेलिया, डामोर आदि शामिल हैं।[३]




भोपाल का तालाब

11वीं शताब्दी में इस विशाल तालाब का निर्माण किया गया था और भोपाल शहर इसके आसपास विकसित होना शुरु हुआ। भोपाल में एक कहावत है “तालों में ताल भोपाल का ताल बाकी सब तलैया”, अर्थात यदि सही अर्थों में तालाब कोई है तो वह है भोपाल का तालाब। भोपाल के इस तालाब को “बड़ा तालाब” कहा जाता है। इस बड़े तालाब के पास ही एक छोटा तालाब भी यहाँ मौजूद है और यह दोनों जलक्षेत्र मिलकर एक विशाल “भोज वेटलैण्ड” का निर्माण करते हैं, जो कि अन्तर्राष्ट्रीय रामसर सम्मेलन के घोषणापत्र में संरक्षण की संकल्पना हेतु शामिल है। यह एशिया की सबसे बड़ी कृत्रिम झील भी कहा जाता है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह तालाब भोपाल के निवासियों के पीने के पानी का सबसे मुख्य स्रोत है। भोपाल की लगभग 40% जनसंख्या को यह झील लगभग तीस मिलियन गैलन पानी रोज देती है। रोज़मर्रा की आम जरूरतों का पानी उन्हें इन्हीं झीलों से मिलता है। बड़े तालाब के बीच में तकिया द्वीप है जिसमें शाह अली शाह रहमतुल्लाह का मकबरा भी बना हुआ है, जो कि अभी भी धार्मिक और पुरातात्विक महत्व रखता है।




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मध्य प्रदेश में स्थित प्रमुख नगर। यह एक महत्त्वपूर्ण रेल जंक्शन है और यहाँ एक हवाई अड्डा भी है। ==================  कहते है कि परमारवंशीय नरेशों में प्रसिद्ध राजाभोज ने 1010 के लगभग इस नगर को बसाया था। भोजपाल इसका प्राचीन नाम था। अब तक भोपाल का एक भाग भोजपुरा के नाम से प्रसिद्ध है जहाँ का प्राचीन कलापूर्ण शिवालय इस स्थान का सुंदर स्मारक है। भोपाल के निकट ही प्राचीनकाल में एक बड़ी झील राजा भोज ने सिचाई के लिए बनवाई थी। इसके बांध को गुजरात के सुलतान होशंगशाह ने कटवा दिया था। कहा जाता है कि तीन साल तक इस झील का पानी निरंतर बहता रहा और तीन साल में यह स्थान बसने योग्य हुआ था। आजकल भी भोपाल के पास का क्षेत्र बहुत उपजाऊ है। वर्तमान ताल इसी प्राचीन झील का अवशिष्ट अंश हो सकता है। किंवदंती के अनुसार वास्तव में यह झील बहुत पुरानी है और कई लोग इसे रामायण में वर्णित पंपासर भी मानते हैं किंतु यह अभिज्ञान ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि पंपासरोवर किष्किंधा के निकट स्थित था (दे॰ पंपा, किष्किंधा)। भोपाल के ताल के तट पर प्राचीन गौंड शासिका कमलापति का दो मंजिलें भवन है, कहा जाता है यह प्रासाद पहले सात मंजिला था और इसकी कई मंजिलें तालाब के अंदर है। यह जन-प्रवाद यहाँ प्रचलित है कि कमलापति ने अपने पति की मृत्यु का संकेत पाकर अट्टालिका से नीचे ताल में कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी। भोपाल में, भूतपूर्व मुसलमानी राजवंश का राज्य 18वीं शती के उत्तरार्घ में स्थापित हुआ था। इस राजवंश के शासनकाल के अनेक राजमहल तथा सुंदर भवन यहाँ के भव्य-स्मारक है। इनमें सात मंजिला ताजमहल जो शाहजहां बेगम का निवास-गृह था, अब भी भोपाल के गतवैभव का साक्षी है। सचिवालय से प्रायः दो फलांग की दूरी पर भूपाल के भूतपूर्व नवाब हमीदुल्ला खाँ का महल है जिसे अहमदाबाद कहा जाता है।

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मध्‍य प्रदेश की राजधानी भोपाल का दौरा मध्‍यकालीन नवाबों के वैभव की याद ताजा कर देता है। भोपाल अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनेक ऐतिहासिक स्‍मारकों के लिए प्रसिद्ध है। इस शहर की स्‍थापना ग्‍यारहवीं शताब्‍दी में राजा भोज ने की थी इसीलिए इस शहर को भोजपाल के नाम से जाना जाता था। बाद में इस शहर को औरंगजेब के गवर्नर दोस्‍त मोहम्‍मद ने विकसित किया। दो मानव निर्मित झीलों से घिरा होने के कारण इसे झीलों के शहर के नाम से भी संबोधित किया जाता है। यहां अनेक शानदार मंदिर और मस्जिद बने हुए हैं जो अपने गौरवशाली अतीत की कहानी कहते प्रतीत होते हैं। क्‍या देखें                                                          

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भौगोलिक स्थिति – बड़ा तालाब के पूर्वी छोर पर भोपाल शहर बसा हुआ है, जबकि इसके दक्षिण में “वन विहार नेशनल पार्क” है, इसके पश्चिमी और उत्तरी छोर पर कुछ मानवीय बसाहट है जिसमें से अधिकतर इलाका खेतों वाला है। इस झील का कुल क्षेत्रफ़ल 31 वर्ग किलोमीटर है और इसमें लगभग 361 वर्ग किमी इलाके से पानी एकत्रित किया जाता है। इस तालाब से लगने वाला अधिकतर हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र है, लेकिन अब समय के साथ कुछ शहरी इलाके भी इसके नज़दीक बस चुके हैं। कोलास नदी जो कि पहले हलाली नदी की एक सहायक नदी थी, लेकिन एक बाँध तथा एक नहर के जरिये कोलास नदी और बड़े तालाब का अतिरिक्त पानी अब कलियासोत नदी में चला जाता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व – 11वीं शताब्दी में इस विशाल तालाब का निर्माण किया गया और भोपाल शहर इसके आसपास विकसित होना शुरु हुआ। इन दोनों बड़ी-छोटी झीलों को केन्द्र में रखकर भोपाल का निर्माण हुआ। भोपाल शहर के बाशिंदे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से इन दोनों से झीलों से दिल से गहराई तक जुड़े हैं। रोज़मर्रा की आम जरूरतों का पानी उन्हें इन्हीं झीलों से मिलता है, इसके अलावा आसपास के गाँवों में रहने वाले लोग इसमें कपड़े भी धोते हैं (हालांकि यह इन झीलों की सेहत के लिये खतरनाक है), सिंघाड़े की खेती भी इस तालाब में की जाती है। स्थानीय प्रशासन की रोक और मना करने के बावजूद विभिन्न त्यौहारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इन तालाबों में विसर्जित की जाती हैं। बड़े तालाब के बीच में तकिया द्वीप है जिसमें शाह अली शाह रहमतुल्लाह का मकबरा भी बना हुआ है, जो कि अभी भी धार्मिक और पुरातात्विक महत्व रखता है।

मनोरंजन और व्यवसाय – बड़े तालाब में मछलियाँ पकड़ने हेतु भोपाल नगर निगम ने मछुआरों की सहकारी समिति को लम्बे समय तक एक इलाका लीज़ पर दिया हुआ है। इस सहकारी समिति में लगभग 500 मछुआरे हैं जो कि इस तालाब के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में मछलियाँ पकड़कर जीवनयापन करते हैं। इस झील से बड़ी मात्रा में सिंचाई भी की जाती है। इस झील के आसपास लगे हुए 87 गाँव और सीहोर जिले के भी कुछ गाँव इसके पानी से खेतों में सिंचाई करते हैं। इस इलाके में रहने वाले ग्रामीणों का मुख्य काम खेती और पशुपालन ही है। इनमें कुछ बड़े और कुछ बहुत ही छोटे-छोटे किसान भी हैं। भोपाल का यह बड़ा तालाब स्थानीय और बाहरी पर्यटकों को भी बहुत आकर्षित करता है। यहाँ “बोट क्लब” पर भारत का पहला राष्ट्रीय सेलिंग क्लब भी स्थापित किया जा चुका है। इस क्लब की सदस्यता हासिल करके पर्यटक कायाकिंग, कैनोइंग, राफ़्टिंग, वाटर स्कीइंग और पैरासेलिंग आदि का मजा उठा सकते हैं। विभिन्न निजी और सरकारी बोटों से पर्यटकों को बड़ी झील में भ्रमण करवाया जाता है। इस झील के दक्षिणी हिस्से में स्थापित वन विहार राष्ट्रीय उद्यान भी पर्यटकों के आकर्षण का एक और केन्द्र है। चौड़ी सड़क के एक तरफ़ प्राकृतिक वातावरण में पलते जंगली पशु-पक्षी और सड़क के दूसरी तरफ़ प्राकृतिक सुन्दरता मन मोह लेती है।

जैव-विविधता (Biodiversity) – इन दोनों तालाबों में जैव-विविधता के कई रंग देखने को मिलते हैं। वनस्पति और विभिन्न जल आधारित प्राणियों के जीवन और वृद्धि के लिये यह जल संरचना एक आदर्श मानी जा सकती है। प्रकृति आधारित वातावरण और जल के चरित्र की वजह से एक उन्नत किस्म की जैव-विविधता का विकास हो चुका है। प्रतिवर्ष यहाँ पक्षियों की लगभग 20,000 प्रजातियाँ देखी जा सकती हैं, जिनमें मुख्य हैं व्हाईट स्टॉर्क, काले गले वाले सारस, हंस आदि। कुछ प्रजातियाँ तो लगभग विलुप्त हो चुकी थीं, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता अब वे पुनः दिखाई देने लगी हैं। हाल ही में यहाँ भारत का विशालतम पक्षी सारस क्रेन (Grusantigone) भी देखा गया, जो कि अपने आकार और उड़ान के लिये प्रसिद्ध है।

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भोपाल का ताल आत्मदीप, जनसत्ता भोपाल, 3 जनवरी।‘ताल तो भोपाल का और सब तलैया‘ की देश भर में मशहूर कहावत जिस झील की शान में रची गई, वह अब बेआब और बेनूर हो गई है। भोपाल की जीवनरेखा और पहचान है यहाँ की बड़ी झील। खासी हरियाली और झमाझम बरसात के लिए मशहूर भोपाल में अबकी इतनी कम बारिश हुई है कि इस विशाल झील का करीब 65 फीसदी हिस्सा सूख गया है। ज्यादातर बचा हिस्सा भी गर्मी तक सूखने के कगार पर पहुँच जाएगा। ऐसे हालात पहली दफा बने हैं। ऐसी स्थिति भी पहली बार बनी है कि जब भोपालवासियों को महीने भर से एक दिन छोड़कर जलप्रदाय किया जा रहा है। बड़ी झील से यहां की 40 फीसदी आबादी को जलप्रदाय किया जाता है। अबकी झील का स्तर डेड स्टोरेज लेवल के करीब पहुँच जाने के कारण इसमें करीब 15 किलोमीटर दूर बने कोलार डैम का पानी पाइप लाइन के जरिए डाला जा रहा है। अभी झील का जलस्तर करीब 1651 फुट है जबकि डेड स्टोरेज 1648 फुट है। इस तरह झील में जल प्रदाय के लिए फकत 3 फुट पानी बचा है। कोलार डैम का पानी झील में न पहुँचाया जाता तो इससे जल प्रदाय अब तक बंद हो चुका होता।

कोलार डैम से रोजाना चार मिलियन गैलन डिवीजन (एमजीडी) पानी बड़ी झील में डाला जा रहा है। तब जाकर रोज मात्र पाँच एमजीडी पानी भोपालवासियों को देना संभव हो पा रहा है। इतना ही पानी नलकूप, कुँए बावड़ी आदि अन्य स्थानीय स्रोतों से दिया जा रहा है। भोपाल में सर्वाधिक जलप्रदाय (35 से 40 एमजीडी) डैम से किया जा रहा है। इन सब स्रोतों से भी रोजाना करीब 50 एमजीडी जलप्रदाय ही संभव हो पा रहा है। जबकि जरूरत 70 से 80 एमजीडी पानी की है। इस तरह दैनिक आवश्यकता के मुकाबले कम से कम 20 एमजीडी पानी कम पड़ रहा है। इसी कारण नगर निगम को पहली दफा एक दिन के अन्तराल से जलप्रदाय करने का फैसला लेना पड़ा है।

इस पहाड़ी शहर की प्यास बुझाने के लिए राजा भोज ने 11वीं सदी में बड़ी झील बनवाई थी। भोज के नाम पर ही इस शहर का नाम भेजपाल पड़ा था जो बाद में घिसकर भोपाल हो गया। करीब एक हजार बरस पुरानी इस खूबसूरत झील का जल संग्रहण क्षेत्र 371 वर्ग किमी है जबकि जलभराव क्षेत्र 31 वर्ग किमी है। इसमें हमेशा इतना पानी भरा रहा है जिसके कभी खत्म होने के आसार नहीं माने जाते थे। इसीलिए यहाँ के लोग यह कह कर आशीर्वाद देते रहे हैं कि तब तक जिओ, जब तक भोपाल के ताल में पानी है। कम बारिश के कारण इस जीवनदायिनी झील में जल भराव 31 वर्ग किमी से सिकुड़ कर मात्र 7वर्ग किमी में सिमट गया है। झील का करीब 24 वर्ग किमी हिस्सा सूख गया है। शहर की गंदगी, कचरे व मिट्टी के जमाव ने झील को उथला अलग बना दिया है जिससे इसकी जल भंडारण क्षमता घट गई है। बेजा कब्जों और अवैध निर्माणों से भी झील का जल भराव क्षेत्र घटा है।

झील पर छाए अपूर्व संकट को भविष्य के लिए वरदान में बदलने के उद्देश्य से मप्र सरकार और भोपाल नगर निगम ने स्वागत योग्य पहल की है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रविवार को झील में श्रमदान कर ‘अपना सरोवर, अपनी धरोहर, बड़ा असर वाला संरक्षण अभियान‘ का शुभारम्भ किया है। इसके तहत झील की खुदाई कर इसमें जमा गंदगी और गाद को बाहर निकाला जा रहा है। इससे झील की सफाई हो रही है और जिससे जल संग्रहण क्षमता बढ़ेगी। यह अभियान छह महीने तक लगातार चलेगा। इसमें सरकारी व स्वायत्तशासी एजेंसियों के अलावा विभिन्न वर्गों और छात्र-छात्राओं को भी भागीदार बनाया जाएगा।

संरक्षण अभियान चलाने के लिए झील के जल भंडारण क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में दस स्थान चिन्हित किए गए हैं। झील संरक्षण प्रकोष्ठ के प्रभारी अधिकारी उदित गर्ग को नोडल अफसर बनाया गया है। दो पंजीयन काउंटर खोलकर उन संस्थानों और व्यक्ति समूहों के नाम दर्ज करना शुरू कर दिया गया है जो झील की सफाई व शहरीकरण के काम में हाँथ बटाना चाहते हैं। उन्हें श्रमदान के लिए गेंती, फावड़े, तगारी आदि मुहैया कराए जाएँगे। जेसीबी मशीनें भी काम करेंगी। अभियान के लिए क्लेक्टर भोपाल सहभागिता समिति के नाम बैंक ड्राफ्ट/चैक के रूप में आर्थिक सहयोग भी मांगा जा रहा है। झील की गाद को अपने खेत, बगीचे आदि में डालने के लिए किसान व अन्य लोग मुफ्त में ले जा सकेंगे।

इस गाद से जमीन का उपजाऊपन इतना बढ़ जाता है कि फसल उत्पादन में डेढ़ से दो गुना तक इजाफा हो जाता है। साथ ही खाद पर होने वाला खर्च और रासायनिक खाद से खेत बगीचे की उर्वरा शक्ति को होने वाला नुकसान भी बच जाता है। झील संरक्षण अभियान का यह अतिरिक्त लाभ हजारों खेतों तक पहुँचेगा। अगले छह माह तक रोज सुबह से शाम तक चलने वाली इस मुहिम में लाखों लोगों को भागीदार बनाने की तैयारी की जा रही है। झील के हजार बरस पुराने इतिहास में यह पहला मौका है जब इस ऐतिहासिक धरोहर को सहेजने के लिए इतनी लंबी अवधि तक और इतने बड़े पैमाने पर जन सहभागिता सुव्यवस्थित अभियान चलाने की योजना बनाई गई है। समाचार माध्यम भी इसमें पूरा सहयोग कर रहे हैं।

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भोपाल झीलो के शहर की पहचाना जाता है किन्‍तु आज भोपाल की जो सबसे बड़ी पहचान है वह है भोपाल गैस कांड। भोपाल गैस कांड को आज 25 वर्ष हो गये है, यह विश्व की वह शर्मनाक घटना है जिसमें यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी से मिथाइल आइसोसाइनाइड लीक होने परिणाम स्‍वरूप 25 हजार लोग मारे गये थे तथा आज तक करीब 5 लाख से अधिक लोग इससे दुष्‍परिणाम प्रभावित हुये थे।

विश्व की बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार मानी जाने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्‍ट्री आज भले ही अस्तित्‍व मे न हो किन्‍तु इस घटना ने उसे लोगो के आक्रोश पटल पर हमेशा जिन्‍दा रखा है, ज्ञात हो कि यूनियन कार्बाइड को 2001 मे अमरीकी कंम्पनी डाउ कैमिकल्स ने ख़रीद लिया था और इसके साथ ही साथ डाउ कैमिकल्स ने 25 हजार लोगो के मौत की जिम्‍मेवारी और 5 लाख से ज्‍यादा घायलो की बद्दुआएं।

आज भी भोपाल गैस कांड के भुक्‍त भोगियों को न्‍याय नही मिल पा रहा है, इसके पीछे दोषी कौन है ? हमारी व्‍यवस्‍था कि, हमारी सरकारो की इच्‍छा शक्ति की या हमारी स्‍वयं की। आज हम मुम्‍बई हमले को बड़ी तत्‍परता से याद करते है करना भी चाहिये किन्‍तु ऐसे रा‍ष्‍ट्रीय बहस के मुद्दो की अनदेखी किया जाना, इस घटना के पीडितो के साथ सबसे बड़ा अन्‍याय है।

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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 32 किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर भव्य व विशाल शिव मंदिर और जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। रायसेन जिले की गोहरगंज तहसील के ओबेदुल्ला गंज विकास खंड में स्थित इस शिव मंदिर को 11वीं सदी में परमार वंश के राजा भोज प्रथम (ईस्वी 1010-1055) ने बनवाया था। बेतवा नदी के किनारे बना उच्चकोटि की वास्तुकला का यह नमूना राजा भोज के मुख्य वास्तुविद (स्थापति) और अन्य विद्वान वास्तुविदों के सहयोग से तैयार हुआ। इसे भोजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर की विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका चबूतरा 35 मीटर (115 फुट ) लंबा, 25 मीटर (82 फुट) चौड़ा और 4 मीटर (13 फुट) ऊंचा है। भारी भरकम पत्थरों से बना यह चबूतरा अपने आप में अनोखा है। कई-कई टन भारी अनेक पत्थरों को इस चबूतरे पर चढ़ाकर शिव मंदिर के गर्भगृह का निर्माण किया गया है। बाहर से गर्भगृह 20 वर्ग मीटर (65 वर्ग फुट) और भीतर से 12.80 वर्ग मीटर (42 वर्ग फुट) है। मंदिर में विशाल शिवलिंग 7.90 मीटर (26 फुट) ऊंचाई के गढ़े हुए गौरी पट्ट पर स्थित है। शिवलिंग 2.3 मीटर (7.5 फुट) ऊंचा है और उसकी परिधि 5.5 मीटर (18 फुट) की है। इसे कुछ लोगों द्वारा भारत का सबसे ऊंचा शिवलिंग माना जाता है। गर्भगृह में प्रवेश के लिए 10 मीटर ऊंचा और 4 मीटर चौड़ा द्वार है। यह विशाल मंदिर राजा भोज के महान व्यक्तित्व और दूरदृष्टा होने का परिचायक है। भोज के पिता सिंधु राजा गोदावरी नदी के दक्षिण में चालुक्य राजा तेलपा के हाथों मारे गए थे मान्यता है कि उन्हीं की स्मृति में भोज ने शिवमंदिर का निर्माण करवाया था जिसका डिजाइन ‘स्वर्गारोहणप्रसाद’ कहलाता है। मनोहारी दृश्य भोज ने अनेक मंदिर बनवाए। शिव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर खूबसूरत जैन मंदिर है। शिव मंदिर की ही तरह यह भी अधूरा है। वहां के शिलालेख पर राजा भोज का उल्लेख है। मंदिर में जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएं हैं। नीय स्तर पर उपलब्ध साहित्य के अनुसार इसमें मुख्य प्रतिमा तीर्थकर शांतिनाथ की है, जबकि राज्य पर्यटन और रायसेन जिले की वेबसाइट में इसे भगवान महावीर की 20 फुट ऊंची प्रतिमा बताया गया है। कुछ अन्य जगह इसे आदिनाथ की प्रतिमा लिखा गया है। पुरातत्व विभाग के अनुसार मुख्य प्रतिमा के दोनों और पा‌र्श्वनाथ और सुपा‌र्श्वनाथ की दो छोटी प्रतिमाएं हैं। यह क्षेत्र भक्तामर स्त्रोत के रचियता मुनि मानतुंगाचार्य से संबधित है। उनकी समाधि यहां बनी है। चारों ओर का मनोहारी दृश्य आत्मिक शांति प्रदान करता है। पूर्व का सोमनाथ भोज ने वास्तुकला में दक्षता देने के लिए वास्तुविदों के प्रशिक्षण की पाठशाला चलाई थी। परंतु राजा की आकस्मिक मृत्यु के कारण शिव मंदिर का अंतिम चरण में पहुंचा कार्य और पाठशाला दोनो ही बंद हो गए। मंदिर अधूरा भी इतना भव्य है कि जानकार कहते हैं कि अगर यह पूरा हो गया होता तो यह बेमिसाल होता। इसे कुछ इतिहासकारों द्वारा पूर्व का सोमनाथ भी कहा जाता है। कालांतर में स्थानीय लोगों ने अपनी अपनी आवश्यकतानुसार चबूतरे के पत्थरों को बटोरना शुरू कर दिया और कुछ क्षति भी पहुंचाई। इसके अतिरिक्त 15वीं शताब्दी में माण्डु के सुल्तान होशंग शाह ने हमला करके चबूतरे और मंदिर को भारी क्षति पहुंचाई। राजा भोज ने दक्ष इंजीनियरों की सहायता से पास ही में जो बांध और झील बनवाये थे, उन्हें भी काफी नुकसान पहुंचाया गया और जल व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। दरअसल पत्थरों से बने दो विशालकाय बांध भी राजा भोज की उपलब्धियों में गिना जाता है। कहा जाता है कि झील चारों तरफ पहाडि़यों से घिरी थी और उसमें महज दो जगह रास्ते थे- एक सौ गज का और दूसरा पांच सौ गज का। भोज ने पत्थरों से बांध बनाकर झील को बांधा था। छोटा बांध 44 फुट ऊंचा और नीचे से तीन सौ फुट मोटा था। बड़ा बांध 24 फुट ऊंचा और सौ फुट चौड़ा था। दोनों बांध मिलकर 250 वर्ग मील में फैली झील का पानी रोकते थे। गोंड जनजाति में यह कहानी प्रचलित है कि होशंग शाह ने छोटे बांध को तोड़ा तो उसकी पूरी सेना को उसे तोड़ने में तीन महीने लगे। बांध टूटने के बाद तीन साल झील का पानी सूखने में लगे और उसके भी अगले तीस साल बाद तक वह जमीन रिहाइश लायक नहीं रही। कहा जाता है कि इस विशालकाय झील के सूखने से मालवा इलाके का मौसम हमेशा के लिए बदल गया।

एक समय था जब भोजपुर से भोपाल तक फैली झील के अंतिम छोर पर भोजेश्वर मंदिर खड़ा दिखाई देता था। मंदिर निर्माण के लिए जिस पत्थर का प्रयोग किया गया उसे भोजपुर के ही पथरीले क्षेत्रों से प्राप्त किया गया था। मंदिर के समीप और दूर तक पत्थरों और चट्टानों की कटाई के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। ‘अर्ली स्टोन टेम्पल्स ऑफ ओडि़सा’ की लेखिका विद्या देहेजिया के अनुसार भोजपुर के शिव मंदिर और भुवनेश्वर के लिंग राज मंदिर व कुछ और मंदिरों के निर्माण में समानता दिखाई देती है। मंदिर से कुछ दूर बेतवा नदी के किनारे पर माता पार्वती की गुफा है। क्योंकि गुफा नदी के दूसरी ओर है इसलिए नदी पार जाने के लिए नौकाएं उपलब्ध हैं। यद्यपि भोजपुर का प्रसिद्ध शिव मंदिर वीरान पथरीले इलाके में खड़ा है परंतु श्रद्धालुओं की कोई कमी नहीं है। प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। कैसे पहुंचे 1. देश के किसी भी कोने से हवाई या रेल मार्ग से भोपाल पहुंचें। 2. भोपाल से भोजपुर की दूरी 32 किमी. है। 3. घूमने के लिए निजी वाहन अधिक उचित है। 4. बस स्टैंड से भोपाल मंडीदीप रोड पर चलते हुए भोजपुर उतरें। किराया 8-10 रुपये प्रतिव्यक्ति लगता है। वहां से मंदिर के लिए टेम्पो लें। उसका किराया भी प्रतिव्यक्ति  8-10 रुपये लगता है। 5. मंदिर में या उसके आसपास ठहरने का कोई स्थान नहीं है यानी ठहरने के लिए भोपाल ही उपयुक्त रहेगा।

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देश के करीब-करीब मध्य में स्थित राज्य मध्य प्रदेश के लगभग मध्य में उसकी राजधानी भोपाल है। पड़ोसी राज्य राजस्थान या उत्तर प्रदेश के मुकाबले यह शहर राजधानी होने के बावजूद ज्यादा शोर-शराबे से ग्रस्त नहीं है। आप अगर सड़क या ट्रेन के जरिये इस शहर में पहुंचें तो आपको एहसास ही नहीं होगा कि आप राजधानीनुमा शहर में हैं। खुदा न खास्ता अगर हवाई जहाज से उतरे तब तो लगेगा कि बियाबान जंगल में ही आ गए हैं। पर इस शांति के पीछे एक ऐसा शहर छिपा है जिसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी हैं। ताल तो भोपाल ताल भोपाल के बारे में ऐसा कहा जाता है कि यहां हर ची़ज या तो बड़ी है या फिर नायाब है। कुछ यही हाल भोपाल की झील का भी है। शहर में कहावत है कि ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैयां। पहली ऩजर में ही पता चल जाता है कि कहावत 16 आने सही है और इसमें जरा भी क्षेत्रीय अतिशयोक्ति नहीं है। ताल के बारे में कहानी है कि एक बार राजा भोज बीमार हो गए और लंबे समय तक इलाज चला, पर कारगर न हुआ। हालात काफी बिगड़ गए तो राजज्योतिषी ने कहा कि अगर राजा 12 नदियों के पानी से भरा ताल बनवाएं तो उनकी जान बच जाएगी। फिर ऐसी जगह की खोज हुई जहां 12 नदियां हों। उस व़क्त भोपाल के आसपास 10 नदियां तो मिल गई, बाकी दो सुरंग के जरिए 5 किलोमीटर दूर से लाकर यहां कृत्रिम रूप से बनाए गए ताल में डाली गई। मूल रूप से ताल 6500 हेक्टेयर में फैला था और इस कारण मालवा तक जमीन की आबोहवा बदल गई थी। बाद में होशंगाबाद ने इसका एक तिहाई हिस्सा तुड़वा दिया। पर टूटने के बावजूद यह ताल इतना बड़ा है कि इसके उत्तरी छोर पर श्यामला हिल्स से देखने पर इसका अंतर नहीं दिखाई देता। यहीं श्यामला हिल्स पर मुख्यमंत्री निवास के करीब भारत भवन है। अस्सी के दशक में यह उत्तर भारत में साहित्य और संस्कृति का बड़ा केंद्र बन गया था। यहां चर्चाएं, गोष्ठियां, संगीत समारोह, वगैरह आयोजित होते थे। हालांकि 80 के दशक का रुतबा तो अब नहीं रहा, पर सांस्कृतिक आयोजन आज भी होते हैं। साथ ही भारत भवन की इमारत वास्तु का एक शानदार नमूना भी है। वास्तुप्रेमियों को कम से कम यहां जरूर आना चाहिए। भोपाल ताल के पश्चिमी छोर पर एक नेचर पार्क बनाया गया है और यहां स़फेद शेर एक बड़ा आकर्षण है। मंदिर राजा भोज का वैसे राजा भोज और भोपाल की विशालता के बीच का संबंध यहीं तक सीमित नहीं है। शहर से 28 किलोमीटर दूर एक मंदिर है, जिसे भोज मंदिर कहा जाता है। शिव को समर्पित यह मंदिर पूरी तरह इसलिए नहीं बन पाया क्योंकि राजा भोज इसके निर्माण के दौरान बीच में ही चल बसे। पर वास्तु की इस अपूर्ण धरोहर की लंबाई-चौड़ाई देखकर हैरानी होती है कि वास्तुकार की कल्पना कितनी उदात्त रही होगी। मंदिर में स्थापित शिवलिंग सात फुट ऊंचा है और घंटा 17.8 फुट का है। मंदिर के बगल में एक जैन मठ भी है, जहां भगवान महावीर जी की 20 फुट ऊंची मूर्ति स्थापित है। यहां भी एक झील थी और यह भोपाल ताल का ही हिस्सा थी। झील 250 वर्ग मील के इलाके में फैली थी। अब तो उस झील को बनाने वाले बांधों के कुछ अवशेष ही दिखाई देते हैं। गुफाओं में चित्रकारी शालता और प्राचीनता की भूख अगर आपमें ़जरूरत से ़ज्यादा है तो घबराइए नहीं। भोपाल में इसे बुझाने का पूरा इंत़जाम है। भोपाल में होशंगाबाद के रास्ते में भीम बैठका नाम की गुफाएं पड़ती हैं। कहा जाता है कि पौराणिक काल में भीम यहां आकर रुके थे।

बात कितनी सही है, यह तो आपकी आस्था पर निर्भर करता है। हां जिस बात के प्रमाण आंखों के सामने मौजूद हैं, वह यह कि यहां मौजूद गुफाएं प्रागैतिहासिक चित्रकारी का केंद्र हैं। ईसा से तीन हजार साल पहले से लेकर आठवीं शताब्दी ईसवी तक की जनजातीय चित्रकारी के नमूने यहां मिल जाते हैं। अपनी आंख के सामने अपने पूर्वजों के हाथों बनी चित्रकारी के आदिम नमूनों को देखकर वाकई जबर्दस्त रोमांच होता है। नवाबी शान के वैभव चीनता के वैभव से मन भर जाए और मध्ययुगीन भारत को देखने की चाह जागे तो आप भोपाल शहर में घूमना शुरू कर दीजिए।

मध्यकाल में भोपाल नवाबों का शहर रहा है और आज भी उनकी छाप यहां सा़फ दिखाई देती है। शहर से 16 किलोमीटर दूर इस्लाम

नगर में नवाबों के महल आज भी मौजूद हैं, पर उनकी तहजीब और नवानियत भोपाल में कैद है। शहर में नवाबी असर को देखने की

शुरुआत गौहर महल से की जा सकती है। महल ऊपरी ताल के करीब बना है और इसे कुदसिया बेगम या नौहर बेगम ने बनवाया था।

इसी के सामने शौकत महल और सद्र मंजिल है। शौकत महल पश्चिमी वास्तु और इस्लामी वास्तु का नायाब संगम है। महल के करीब ही

जनता से नवाबों की मुलाकात करने के लिए सद्र मंजिल बनवाई गई थी। आज ये इमारत सरकारी कार्यालय बन चुकी है। भोपाल के नवाबी इतिहास पर बेगमों का काफी असर रहा है। अपने रुतबे का बेगमों ने कई बड़े कामों के लिए इस्तेमाल किया।

कुदसिया बेगम की बेटी सिकंदर जहां ने मसजिद का निर्माण करवाया। ये छोटी मसजिद दिल्ली की जामा मसजिद से प्रेरणा लेकर

बनाई गई है। इसमें सुर्ख लाल रंग की मीनारें हैं, जिनमें सोने के स्पाइक जड़े हैं। लेकिन शहर में इससे भी ज्यादा आकर्षक एक मसजिद

है। उसे बनाने में भी एक बेगम का ही हाथ है। शाहजहां बेगम ने भोपाल की ताज-उल-मसजिद का निर्माण शुरू करवाया था। हालांकि

ये उनके इंतकाल के बाद ही पूरी तरह तैयार हो पाई। आज ये देश की सबसे बड़ी मसजिद मानी जाती है। गुलाबी पत्थर से बनी इस

मसजिद में दो विशाल स़फेद गुंबद हैं। मुख्य इमारत पर तीन स़फेद गुंबद और हैं। यहां हर साल तीन दिन का इजतिमा उर्स होता है।

जिसमें देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। हम्माम और चार बैन पर एक यात्री के हिसाब से राय ली जाए तो भोपाल दिसंबर या जनवरी के महीने में ही जाना चाहिए। उस व़क्त इस शहर में दो और

ची़जों का आनंद उठाया जा सकता है। एक तो यहां का हम्माम और दूसरा चार बैत। भारत भवन के करीब ही यहां का डेढ़ सौ साल से

ज्यादा पुराना हम्माम है। इसे आज भी उसी परिवार के सदस्य चला रहे हैं जो बेगमों के लिए काम करते थे। यह अक्टूबर से मार्च तक

चलता है। यहां आज भी पानी गर्म करने के लिए लकड़ी जलाई जाती है। ठीक वैसे ही मालिश और मेहमाननवाजी होती है जैसी पहले

हुआ करती थी। मालिश के लिए बनाए तेल की एक खास विधि है। इसका राज पिता अपने बेटे को ही बताता है। हम्माम की ऐसी

शोहरत है कि शाम को यहां शहर के कई प्रतिष्ठित लोग मिल जाएंगे। राष्ट्रपति बनने से पहले डॉ. शंकर दयाल शर्मा भी यहां नियमित

रूप से आया करते थे। दो घंटे की शानदार सेवा के लिए आपको कुल 80 रुपये देने पड़ते हैं। नवाबी शौक और इतने कि़फायती दाम में

और कहीं संभव है? सर्दियों में भोपाल की एक लोक कला चार बैत का भी आनंद लिया जा सकता है। यह कव्वाली का एक रूप है जिसमें चार-चार लोगों

की दो टीमें होती हैं। दोनों छोटे ढप लेकर बैठते हैं और उसी समय मिले विषय पर शायरी गढ़ते जाते हैं और गाकर बहस का

सिलसिला आगे बढ़ता रहता है। अंत में जीतने वाली टीम अगले विरोधी का सामना करती है। एक जमाने में चार बैत की टीमों का

हाल यह था कि उनके फैन क्लब हुआ करते थे। वह उनकी हौसला आफजाई के लिए हर जगह जाया करते थे। कई बार तो दो फैन

क्लबों के बीच झड़पें तक हो जाती थीं, पर अब वो जुनून नहीं रहा। अब यह कला धीरे-धीरे खत्म-सी हो रही है। भोजन पर्यटन की मिसाल देश के बीचोबीच स्थित होने और कई संस्कृतियों को खुद में समेटने के कारण भोपाल उन लोगों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है

जो सि़र्फ भोजन पर्यटन में विश्वास रखते हैं। जिन लोगों की सोच गायक अदनान सामी के नारे से मेल खाती है कि – मैं जहां जाता हूं

वहां सबसे पहले स्थानीय खाना खाता हूं और फिर संगीत सुनता हूं, ऐसे लोग भोपाल में मायूस नहीं होंगे। इस शहर में नवाबों का

वर्चस्व होने के कारण बढि़या अफगानी और मुगल पकवान इ़फरात में मिलते हैं। शहर के पुराने इलाके में ताज-उल-मस्जिद के आसपास

ऐसे बड़े रेस्तरां हैं जो ल़जी़ज पकवान, बिरयानी वगैरह से आपका स्वागत करने को तैयार रहते हैं। मालवा के करीब होने के कारण भोपाल में पोहे और तमाम शाकाहारी व्यंजन भी खूब मिलते हैं। शहर में शाकाहारी भोजन आपको हर

जगह मिल जाएगा। दक्षिण भारतीयों की बड़ी तादाद होने के कारण भोपाल में इडली, दोसा, उत्तपम आदि व्यंजनों की भी कमी

महसूस नहीं होती। खरीदारी के शौकीन पर्यटकों के लिए न्यू मार्केट शानदार जगह है। यहां राज्य भर की कलाकृतियों से लेकर नई से

नई ची़जें तक उपलब्ध हैं। भोपाल देश की राजधानी दिल्ली और मुंबई के अलावा ग्वालियर एवं इंदौर से भी हवाई मार्ग से जुड़ा है। दिल्ली-चेन्नई रेल मार्ग पर

स्थित होने के कारण यहां के लिए कई ट्रेनें हैं और दिल्ली से प्रतिदिन शताब्दी भोपाल के लिए चलती है। सड़क मार्ग से ये शहर देश के

हर कोने से जुड़ा है। यहां घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के बीच है।

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मस्जिदों का शहर भोपाल अगर आप साल भर तक, हर रोज़ एक नई मस्जिद में नमाज़ अदा करना चाहें तो भोपाल आ जाइए । भोपाल ऐसा शहर है जहाँ एशिया की सबसे छोटी मस्जिद से लेकर एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद भी आपको मिलेगी । 'द रॉयल जर्नी ऑफ भोपाल' के लेखक अख्तर हुसैन के अनुसार भोपाल ने डेढ़ सौ बरस पहले ही 365 मस्जिदों का आंकड़ा हासिल कर लिया था, तब इस्लामी देशों के किसी शहर में भी इतनी मस्जिदें नहीं थी । मस्जिदों की गिनती के लिहाज से भारतीय उपमहाद्वीप में आज भोपाल का दूसरा स्थान है बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाद ।यहाँ दरख्तों के नाम पर, बागों के नाम पर, औरतों के नाम पर मस्जिदें हैं; मस्जिदों में मस्जिद है ...ये मस्जिदों का शहर है ।ग्यारहवीं सदी की शुरुआत में मालवा के परमार वंश के शासक राजा भोज ने भोजपाल नाम की एक बस्ती को आबाद किया था । यही बस्ती बाद में भोपाल के नाम से प्रसिध्द हुई । राजा भोज के शासनकाल के लगभग सात सौ साल बाद सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में एक साहसी अफगान भोपाल आया जिसका नाम था दोस्त मोहम्मद ख़ान । वह अफगानिस्तान के तिरह के मीर अज़ीज़ का वंशज था और मूल रुप से औरंगज़ेब की सेना में भर्ती होने की नीयत से आया था । कुछ दिनों उसने दिल्ली में औरंगज़ेब की सेना में काम भी किया किन्तु वहाँ एक युवक की हत्या करने के बाद वह फ़रार हो गया । वह भागकर मालवा आया और उसने चन्देरी पर सैय्यद बंधुओं को आक्रमण में हिस्सा लिया । बाद में इस लड़ाके ने पैसे लेकर लोगों के लिए लड़ना शुरु कर दिया ।

इसी सिलसिले में दोस्त मोहम्मद को भोपाल की गोंड रानी द्वारा बुलवाया गया और रानी ने मदद की एवज़ में उसे बैरसिया परगने का मावज़ा गाँव दे दिया । रानी की मृत्यु के बाद 1722 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल पर कब्ज़ा कर लिया ।उसने राजा भोज के टूटे हुए क़िले के पास भोपाल की चहारदीवारी बनवाई और इसमें सात दरवाज़े बनवाए जो हफ्तों के दिनों के नाम से थे । सन 1726 में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने अपनी बीवी फतेह के नाम पर एक क़िला बनवाया - फतेहगढ़ का क़िला । इसके मग़रबी बुर्ज पर एक मस्जिद बनवाई गई । इस छोटी सी मस्जिद में दोस्त और उसके सुरक्षा कर्मी नमाज़ अदा किया करते थे । यह एशिया की सबसे छोटी मस्जिद के रुप में जानी जाती है और इसका नाम है 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' ।

इसका नाम 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' क्यूँ पड़ा यह कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि ढाई सीढ़ी आज कहीं भी नज़र नहीं आती लेकिन शायद जब यह बनी होगी तब ढाई सीढ़ी जैसी कोई संरचना इससे अवश्य जुड़ी रही होगी । इसे भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं । हालाँकि कुछ लोग आलमगीर मस्जिद को भोपाल की पहली मस्जिद कहते हैं । उनका मानना है कि औरंगज़ेब का जहाँ-जहाँ से गुज़र हुआ उनके लिए जगह जगह आलमगीर मस्जिदें तामीर की गई और इस लिहाज से इसका नाम पहले आना चाहिए ।मौखिक इतिहास पर विश्वास न कर यदि तथ्यों का विष्लेषण किया जाय तो 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' को ही भोपाल की पहली मस्जिद कहा जाएगा ।

यहीं से शुरु होता है भोपाल में मस्जिदें तामीर करवाने का सिलसिला । दोस्त मोहम्मद ख़ान के बाद एक लम्बे वक्फ़े तक कोई ख़ास निर्माण कार्य नहीं हुआ । बाद में उसके पोते फैज़ मोहम्मद ख़ान ने भोपाल की झील के किनारे कमला महल के पास एक मस्जिद बनवाई जो आज रोज़ा है और इसे मकबरे वाली मस्जिद के नाम से जाना जाता है । ऐसा स्थान जहाँ मस्जिद और मज़ार साथ में होते हैं उसे रोज़ा कहा जाता है । दोस्त मोहम्मद ख़ान की बहू माजी ममोला, जो विवाह के पूर्व हिन्दू थी, ने तीन मस्जिदें बनवाई । इनमें से एक थी तालाब के किनारे स्थित माजी साहिबा कोहना जिसे भोपाल की पहली जामा मस्जिद भी कहा जाता है । दूसरी मस्जिद थी गौहर महल के पासवाली माजी कलाँ और तीसरी इस्लाम नगर जाने वाले रास्ते नबीबाग में ।माजी ममोला के बाद तीन नवाब हुए और तीसरे नवाब की बेटी थी कुदसिया बेगम इनका अस्ल नाम था गौहर आरा । कुदसिया बेगम बहुत धार्मिक थी और उन्होने पहली बार मक्का मदीना में हाजियों के ठहरने के लिए इंतज़ाम की पहल की । पुराने भोपाल शहर के बीचों बीच स्थित जामा मस्जिद का निर्माण कुदसिया बेगम ने ही करवाया था ।

1832 में इसका संग -ए - बुनियाद रखा गया और इसे मुक्कमल होने में 25 साल लग गए । इस मस्जिद के निर्माण में तब 5, 60, 521 रुपए खर्च हुए थे । यह मस्जिद बहुत ऊँचे आधार पर बनी है और इस आधार पर कई दुकानों का भी प्रावधान किया गया था ।ये दुकानें आज भी लगती है और मस्जिद के इर्दगिर्द एक रंगबिरंगी दुनिया का अहसास कराती हैं । जामा मस्जिद के आधार पर फूल पत्तियों की घुमावदार आकृतियों हिन्दू स्थापत्य शैली का प्रभाव स्पष्ट करती हैं । यह मस्जिद एक तरह से भोपाल में स्थापत्य की शुरुआत है ।

जामा मस्जिद के दक्षिण पश्चिम की तरफ बमुश्किल एक मील दूर एक और मस्जिद आपको मिलेगी जिसका नाम है मोती मस्जिद। इसकी संगे बुनियाद भी कुदसिया बेगम ने ही रखी थी । बाद में इसे कुदसिया बेगम की बेटी सिकन्दर जहाँ ने मुकम्मल करवाया । सिकन्दर जहाँ का अस्ल नाम मोती बीवी था और इन्ही के नाम पर मस्जिद का नाम पड़ा । इसमें सफेद संगमरमर और लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है और यह स्थापत्य का बेहद खूबसूरत नमूना है ।अब रुख़ करते हैं भोपाल की सबसे बड़ी मस्जिद यानि ताजुल मसाजिद का ताजुल मसाजिद का अर्थ है 'मस्जिदों का ताज'।

सिकन्दर बेगम ने इस मस्जिद को तामीर करवाने का ख्वाब देखा था । दरअस्ल 1861 के इलाहबाद दरबार के बाद जब वह दिल्ली गई तो उन्होने पाया कि दिल्ली की जामा मस्जिद को ब्रिटिश सेना की घुड़साल में तब्दील कर दिया गया है । उन्होने अपनी वफादारियों के बदले अंग्रेज़ों से इस मस्जिद को हासिल किया और ख़ुद हाथ बँटाते हुए इसकी सफाई करवाकर शाही इमाम की स्थापना की । इस मस्जिद से प्रेरित होकर उन्होने भोपाल में भी ऐसी ही मस्जिद बनवाना तय किया । सिकन्दर जहाँ का ये ख़ाब उनके जीते जी पूरा न हो पाया तो उनकी बेटी शाहजहाँ बेगम ने इसे अपना ख्वाब बना लिया । उन्होने इसका बहुत ही वैज्ञानिक नक्षा तैयार करवाया ।

ध्वनि तरंग के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए 21 खाली गुब्बदों की एक ऐसी संरचना का मॉडल तैयार किया गया कि मुख्य गुंबद के नीचे खडे होकर जब ईमाम कुछ कहेगा तो उसकी आवाज़ पूरी मस्जिद में गूँजेगी । शाहजहाँ बेगम ने इस मस्जिद के लिए विदेश से 15 लाख रुपए का पत्थर भी मंगवाया किन्तु चूँकि इसमें अक्स दिखता था अत: मौलवियों ने इस पत्थर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी । आज भी ऐसे कुछ पत्थर दारुल उलूम में रखे हुए हैं । शाहजहाँ बेगम का ख्वाब भी अधूरा ही रह गया क्योंकि गाल के कैंसर के चलते उनका असामयिक मृत्यु हो गई । इसके बाद सुल्तानजहाँ और उनके बेटा भी इस मस्जिद का काम पूरा नहीं करवा सके । आज जो ताजुल मसाजिद हमें दिखाई देती है उसे बनवाने का श्रेय मौलाना मुहम्मद इमरान को जाता है जिन्होने 1970 में इस मुकम्मल करवाया ।यह दिल्ली की जामा मस्जिद की हूबहू नक़ल है । आज एशिया की छठी सबसे बड़ी मस्जिद है लेकिन यदि क्षेत्रफल के लिहाज से देखें और इसके मूल नक्षे के हिसाब से वुजू के लिए बने 800 X 800 फीट के मोतिया तालाब को भी इसमें शामिल कर लें तो बकौल अख्तर हुसैन के यह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद होगी ।

भोपाल की कुछ और क़दीमी मस्जिदें हैं जो देखने लायक हैं जैसे अहमदाबाद पैलेस स्थित सोफिया मस्जिद । यह संभवत: भारत की पहली एक मीनारा मस्जिद है । इक़बाल मैदान के पास छोटी सी झक सफेद हीरा मस्जिद भले ही अपनी ओर आपका ध्यान आकर्षित न कर पाए किंतु शाहजहाँ बेगम द्वारा बनवाई गई यह ऐसी मस्जिद है जो भोपाल के बाहर टुकड़ों में तैयार की गई थी और यहाँ लाकर इसे जोड़ भर दिया गया था ।भोपाल में मस्जिदों के बनने का सिलसिला जारी है लकिन इसकी क़दीमी मस्जिदों की बात अलहदा है । इनकी ऊँची ऊँची मीनारों ने कई दौर देखे हैं । इन्होने कभी इंसानियत को ख़ुद से ऊँचा उठता देखा है तो कभी उसे हैवानियत में तब्दील होते हुए । लेकिन ये गुंबद, ये मीनारें ये मस्जिदें सदियों से एक पैग़ाम दे रही हैं ओर वह पैग़ाम है इंसानियत का ।

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 सूरज ढलते ही भोपाल का तालाब कुछ यों रोशन हो जाता है यह कहावत बहुत प्रसिध्द है कि तालों में ताल भोपाल का, बाकी सब तलैया। गढ़ों में गढ़ चित्तौड़ का बाकी सब गढैयां । राजा भोज

द्वारा 11 वीं शताब्दी में निर्मित कराया गया भोपाल का ताल शहर का गौरव है, यह शान-ए- भोपाल है। प्राचीन काल से ही मानव

सभ्यताएं जल स्त्रोतों के किनारे विकसित हुई हैं, और यह तालाब भी इसका अपवाद नहीं है। इस तालाब के जितना बड़ा जलाशय यदि

किसी शहर के निकट हो, तो शहरवासियों का उस पर गर्व करना सर्वथा उचित है।     

यह नासमझी का ही नतीजा माना जायेगा कि यह विशाल ताल एक बार फिर सूखने के कगार पर है। सदियों से लबालब भरा रहने

वाला यह ताल दुर्दशा का शिकार इस वजह से हुआ कि लोगों ने इस ताल के पारम्परिक जल स्त्रोतों और जल भराव क्षेत्र की ओर

समुचित ध्यान नहीं दिया और प्राकृतिक संतुलन से  अनावश्यक छेड़-छाड़ की। लेकिन अब  भोपाल के लाखों वाशिन्दों की प्यास

बुझाने वाले इस ताल को बचाने के लिए सैकडों लोग खुद ब खुद आकर तालाब की सफाई के लिए श्रमदान करने में जुट गए है। रोजाना

सैकडों की संख्या में विभिन्न वर्गो के लोग, अधिकारी, कर्मचारी, जनप्रतिनिधि, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं भोपाल के ताल के सफाई के

लिए जुट रहे है।  मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान कि  अगुवाई में शुरू हुआ यह अभियान आगामी जून माह तक सतत जारी रहेगा।

मानव और मशीनों के संयुक्त योगदान से इस बार निश्चित ही सैकडों साल पुराने इस ताल को नया जीवन मिलेगा।      

भारत की ह्रदयस्थली भोपाल आनेवाला हर कोई बड़े शहर के बीचों बीच एक विशाल तालाब देखकर स्तब्ध रह जाता है। इस तालाब

के जितना बड़ा जलाशय यदि किसी शहर के निकट हो, तो शहरवासियों का उस पर गर्व करना सर्वथा उचित है। प्राचीन काल से ही

मानव सभ्यताएं जल स्त्रोतों के किनारे विकसित हुई हैं, और यह तालाब भी इसका अपवाद नहीं है। सैकड़ो साल पुराना भोपाल का

यह ताल प्राचीन जल-अभियांत्रिकी का बेजोड़ उदाहरण है।     

बेहद प्राचीन और जनउपयोगी इस जलाशय का इतिहास अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से भरा हुआ है। उपलब्ध ऐतहासिक अभिलेखों के

आधार पर यह माना जाता है कि धार प्रदेश के प्रसिध्द परमार राजा भोज एक असाध्य चर्मरोग से पीड़ित हो गए थे। एक संत ने उन्हें

सलाह दी कि वे 365 स्त्रोतों वाला एक विशाल जलाशय बनाकर उसमें स्नान करें। साधु की बात मानकर राजा ने राजकर्मचारियों को

काम पर लगा दिया। इन राजकर्मचारियों ने एक ऐसी घाटी का पता लगाया, जो बेतवा नदी के मुहाने स्थित थी। लेकिन उन्हें यह

देखकर झुंझलाहट हुई कि वहां केवल 356 सर-सरिताओं का पानी ही आता था। तब कालिया नाम के एक गोंड मुखिया के पास की

एक नदी की जानकारी दी जिसकी अनेक सहायक नदियां थीं। इन सबको मिलाकर संत के द्वारा बताई गई संख्या पूरी होती थी। इस

गोंड मुखिया के नाम पर इस नदी का नाम कालियासोत रखा गया, जो आज भी प्रचलित है।      

लेकिन राजा भोज के चुनौतियों का दौर अब भी समाप्त नहीं हुआ था। बेतवा नदी का पानी इस विशाल घाटी को भरने के लिए पर्याप्त

नहीं था। इसलिए इस घाटी से लगभग 32 किलोमीटर पश्चिम में बह रही एक अन्य नदी को बेतवा घाटी की ओर मोड़ने के लिए एक

बांध बनाया गया। यह बांध आज के भोपाल शहर के नजदीक भोजपुर में बना था। इन प्रयासों से जो विशाल जलाशय बना, उसका

नाम भोजपाला रखा गया। उसका विस्तार 65,000 हेक्टेयर था और कहीं कहीं वह 30 मीटर गहरा था। यह प्रायद्वीपीय भारत का

कदाचित सबसे बड़ा मानव-निर्मित जलाशय था। उसमें अनेक सुंदर द्वीप थे, और उसके चारों ओर खुबसूरत पहाड़ियां थीं। वह प्रसिध्द

भोजपुर शिवालय से आज के भोपाल शहर तक फैला हूआ था। कहते हैं कि राजा भोज इस जलाशय में स्नान करके अपने रोग से मुक्त हो

गए। राजा भोज द्वारा निर्मित विशाल जलाशय भोजपाला की वजह से ही इस शहर का नाम धीरे-धीरे भोजपाल और बाद में भोपाल

हो गया।     

बेतवा नदी के बहाव को रोकने के लिए भोजपुर में जो मुख्य बांध बनाया गया था, वह पत्थरों से निर्मित था। इस बांध को 1443 ईस्वीं

में होशंगशाह ने तुड़वा दिया था। कहते हैं कि उसके सैनिकों को उसे तोड़ने में 30 दिन लग गए। बांध के टूटने के बाद भी जलाशय को

पूरा सूखने में 30 वर्ष लगे। तालाब की सूखी जमीन पर आज बसाहट है।      

कालान्तर में भोजपुर का बांध तोड़ दिया गया, लेकिन भोपाल में कमला पार्क के पास जो मिट्टी का बांध था, वह बच गया। उसके

कारण एक छोटा जलाशय शेष रह गया। इसी को आज बड़ा तालाब कहते हैं। वर्ष 1694 में नवाब छोटे खान ने बड़े तालाब के पास

बाणगंगा पर एक बांध बनवाया, जिसके कारण छोटा तालाब अस्तित्व में आया। यह दोनों तालाब आज भी धार के दूरदर्शी राजा भोज

की स्मृति को अमर बनाए हुए है।      

वर्ष 1963 में भदभदा पर एक बांध बनाकर बड़े तालाब की जल संग्रहण क्षमता को बढ़ाया गया। इससे बड़े तालाब के पश्चिमी और

दक्षिणी भागों के डूब क्षेत्र में वृध्दि हुई। बड़े तालाब का जल विस्तार क्षेत्र लगभग 31 वर्ग किलोमीटर है, जबकि छोटे तालाब का जल

विस्तार क्षेत्र मात्र 1.29 वर्ग किलोमीटर है। इन तालाबों की औसत गहराई 6 मीटर है। कुछ स्थानों में गहराई 11 मीटर है। बड़े

तालाब की जल संग्रहण क्षमता 1160 लाख घन मीटर है। यह पानी तालाब के जलग्रहण क्षेत्र में हुई वर्षा से आता है और अंतत:

भोपाल के रहवासियों को घरों के नलों से पेयजल के रूप में उपलब्ध होता है। भोपाल के तालाबों के नीचे की चट्टानें डेक्कन ट्रैप बेसाल्ट

प्रकार की हैं, जो ज्वालामुखियों के लावा के बहने और तुरंत ठंडा होने के कारण बनी हैं। जिस भूभाग में भोपाल का तालाब स्थित हैं,

प्राचीन समय में उस भूभाग में काफी भूगर्भीय उथल-पुथल हुई थी।      

अपने लगभग एक हजार वर्ष के अस्तित्व काल में बड़ा तालाब एक प्राकृतिक नमभूमि में बदल गया है। वोट क्लब पर टहलते हुए जब

भी लोग तकिया टापू के पीछे सूरज को डूबते देखते है, तो वे इस तालाब के सौंदर्य से अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाते। यद्यपि आज इन

तालाबों के इर्द-गिर्द अनेक आधुनिक संरचनाएं बना दी गई हैं फिर भी तालाब को आस्तित्व प्रदान करने वाली प्रमुख संरचना वही

मिट्टी का पुराना बांध है जिसे  राजा भोज ने बनवाया था। निश्चित ही राजाभोज में गजब की दूरदृष्टि थी क्योंकि 11वीं सदी में निर्मित

यह जलाशय आज 21वीं शताब्दी में भी भोपाल शहर की 40 प्रतिशत पेयजल आपूर्ति कर रहा है। इसका श्रेय निश्चय की उस समय की

बेजोड़ जल-अभियांत्रिकी क्षमता को है।