कथा साहित्य (संस्कृत)
संस्कृत भाषा में निबद्ध कथाओं का प्रचुर साहित्य है, जो सैकड़ों वर्षों से मनोरंजन करता हुआ उपदेश देता आ रहा है। संस्कृत की कहानियों का सर्वश्रेष्ठ तथा प्राचीन संग्रह है- 'पंचतंत्र'। दक्षिण में महिलारोप्य नामक नगर में अमरकीर्ति राजा के मूर्ख पुत्रों को नीति तथा व्यवहार की शिक्षा देने के लिए विष्णु शर्मा ने इस ग्रंथरत्न का प्रणयन किया था। इसके अनेक संस्करण भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में होते रहे हैं।
श्रेणी
पश्चिमी देशों में कथाएँ तीन श्रेणियों में विभक्त की जाती हैं-
- फ़ेअरी टेल्स (परियों की कहानियाँ)
- फ़ेबुल्स (जंतु कथाएँ)
- डायडेक्टिक टेल्स (उपदेशमयी कहानियाँ)
संस्कृत साहित्य में उपरोक्त तीनों प्रकार की कहानियों के उदाहरण मिलते हैं, जो कथा साहित्य से संबद्ध ग्रंथों के आलोचन से स्पष्ट हो जाता है।
कथा का मूल स्रोत
कथाओं के मूल स्रोत की खोज के लिए वैदिक संहिताओं का अनुशीलन आवश्यक है। ऋग्वेद की मंत्र संहिता में अनेक रोचक कहानियों की सूचना मिलती है, जिनका परिबृंहण शौनक ने 'बृहद्देवता' में, षड्गुरुशिष्य ने 'कात्यायन सर्वानुक्रमणी' की वेदार्थदीपिका में, यास्क ने निरुक्त में, सायण ने अपने वेद भाष्यों में तथा स्याद्विवेद ने 'नीति मंजरी'[1] में किया है। यहीं से ये कथाएँ पुराणों के माध्यम से होकर जनता के मनोरंजन तथा शिक्षण के निमित्त लौकिक संस्कृत साहित्य में अवतीर्ण हुईं।[2]
प्रधान ग्रंथ
संस्कृत साहित्य के प्रधान ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं-
पंचतंत्र
संस्कृत की कहानियों का 'पंचतंत्र' सर्वश्रेष्ठ तथा प्राचीन संग्रह है। ग्रंथकार का उद्देश्य आरंभ से ही रोचक कथाओं के द्वारा नीति तथा सदाचार का शिक्षण रहा है। दक्षिण में महिलारोप्य नामक नगर में अमरकीर्ति राजा के मूर्ख पुत्रों को नीति तथा व्यवहार की शिक्षा देने के लिए विष्णु शर्मा ने इस ग्रंथरत्न का प्रणयन किया था। इसके अनेक संस्करण भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में होते रहे हैं, जिनका सांगोपांग अध्ययन कर जर्मनी के प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ डॉ. हर्टेल ने इसके विकास की चार श्रेणियाँ बतलाईं। 'पंचतंत्र' का सबसे प्राचीन रूप 'तंत्राख्यायिका' में सुरक्षित है, जिसका मूल स्थान कश्मीर है।
- संस्करण
'पंचतंत्र' के विभिन्न चार संस्करण आज उपलब्ध हैं-
- पंचतंत्र का पहलवी (पुरानी फ़ारसी) अनुवाद
- गुणाढ्य की बृहत्कथा में अंतर्निविष्ट रूप
- दक्षिणी पंचतंत्र, नेपाली पंचतंत्र तथा हितोपदेश के द्वारा निर्दिष्ट संस्करण
- वर्तमान परिवर्धित जैन संस्करण
'तंत्राख्यायिका' या 'तंत्राख्यान' में कथाओं की रूपरेखा बहुत ही परिमित है। नीतिमय पद्यों का संकलन बहुत ही संक्षिप्त तथा औचित्यपूर्ण है। पहलवी अनुवाद का यही मूल रूप है, जिसकी रचना चतुर्थ शती में की गई थी। आजकल उपलब्ध पंचतंत्र पूर्णभद्र नामक जैन विद्वान के परिबृंहण और परिवर्धन का परिणत फल है। इन्होंने 1255 विक्रमी (1199 ई.) में मूल ग्रंथ का आमूल संशोधन किया तथा नीति के पद्यों का समावेश कर इसे भरा-पूरा बनाया। पंचतंत्र से प्राचीनतर कहानियों का संग्रह 'बौद्ध जातकों' में उपलब्ध होता है, जो संख्या में 550 हैं तथा जिनमें भगवान बुद्ध के प्राचीन जन्मों की कथाएँ दी हैं और जो मूलत: पालि भाषा में हैं। इन कहानियों का रूपगत वैशिष्टय यह है कि एक बड़ी कहानी के भीतर छोटी कहानियाँ एक के भीतर एक उसी रूप में गूँथी गई हैं, जिस प्रकार चीन के बॉक्स में बड़े बॉक्स के भीतर छोटे बॉक्स एक के भीतर एक बनाए जाते हैं। पंचतंत्र के पाँचों प्रकरणों में पाँच ही मुख्य कहानियाँ हैं, जिनके भीतर आवांतर कहानियाँ प्रसंग के अनुसार निविष्ट की गई हैं।[2]
हितोपदेश
संस्कृत के कथा साहित्य में अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है- 'हितोपदेश'। रोचक होने के अतिरिक्त भाषा की दृष्टि से इतना सरल तथा सुबोध है कि भारत में तथा पश्चिमी देशों में संस्कृत भाषा सीखने के लिए यह पहली पुस्तक है। इसके रचयिता नारायण पंडित थे, जिनके आश्रयदाता बंगाल के राजा धवलचंद्र थे। रचना का काल 14वीं शती है।
बृहत्कथा
यह पैशाची भाषा में निबद्ध प्राचीन ग्रंथ है, जिसकी कहानियों की जानकारी हमें इसके संस्कृत अनुवादों से होती है।
वेताल पंचविंशति (वेताल पच्चीसी)
इस कथाचक्र का संबंध राजा विक्रमादित्य के अलौकिक तथा शौर्यमंडित जीवन से है। 'कथासरित्सागर' तथा 'बृहत्कथामंजरी' में ये कहानियाँ प्राय: एक रूप में उपलब्ध होती हैं। इसके अनेक लोकप्रिय संस्करण गद्य-पद्य में मिलते हैं। शिवदासरचित 'पंचविंशति' में कथाएँ अधिकतर गद्य में वर्णित हैं, परंतु बीच-बीच में उसे श्लोकों के उद्धरणों से परिपुष्ट किया गया है। जंभलदत्त का संस्करण बिल्कुल गद्यात्मक है। कहानियों में स्थल-स्थल पर अंतर होने पर भी यह संस्करण कश्मीरी संस्करण से विशेष मिलता है। ये कहानियाँ मनोरंजक, ज्ञानवर्धक और कौतूहलजनक हैं, जिनमें राजा विक्रमादित्य की अलोक सामान्य चातुरी तथा वीरता का वर्णन बड़े सुंदर ढंग से किया गया है।
सिंहासन द्वात्रिंशिका (सिंहासन बत्तीसी)
'सिंहासन बत्तीसी' भी राजा विक्रम के चरित से संबद्ध है और इसीलिए इसका नाम 'विक्रमचरित' भी है। जैन मुनि क्षेमकर का संस्करण उत्तरी वाचनिका का प्रतिनिधि माना जाता है, जिसके ऊपर बंगाली संस्करण आश्रित है। दक्षिण भारत में ये ही कहानियाँ 'विक्रमचरित' नाम से प्रख्यात हैं। डॉ. हर्टेल की दृष्टि में जैन विवरण ही मूल ग्रंथ के समीप आता है, परंतु डॉ.एड्गर्टन के विचार से दक्षिणी वाचनिका ही मौलिक तथा प्राचीनतर है। दोनों संस्करण 13वीं शती से प्राचीन नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों में हेमाद्रि[3] के 'दानखंड' का उल्लेख मिलता है।[2]
शुकसप्तति
'शुकसप्तति' की कहानियाँ कम रोचक नहीं हैं, जिनमें कोई सुग्गा अपने गृहस्वामी के परदेश चले जाने पर परपुरुषों के आकर्षण जाल से अपनी स्वामिनी को बचाता है। इसकी विस्तृत वाचनिका के लेखक कोई चिंतामणि भट्ट हैंरु, जिनका समय 12 शतक से पूर्ववर्ती होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने इस ग्रंथ में पूर्णभद्र के द्वारा संस्कृत 'पंचतंत्र' का स्थान-स्थान पर उपयोग किया है।
इन कथाओं के अतिरिक्त अनेक जैन तथा बौद्ध कहानियों के संग्रह उपलब्ध हैं। जैन लोग कहानियों की रचना में बड़े पटु थे और इस साहित्यिक काव्य रूप को उन्होंने अपने धर्म प्रचार का समर्थ साधन बनाया था। भरटक द्वात्रिंशिका तथा कथारत्नाकार की कहानियाँ इसी कोटि की हैं। 'जैन प्रबंधी' में भी लोकप्रिय कहानियाँ खोजी जा सकती हैं। बौद्ध साहित्य में कथा साहित्य का एक विशाल संग्रह है, जो 'अवदानों' के नाम से प्रख्यात है। मध्य युग में भी कहानियों की रचना होती रही है। ऐसी कहानियों का मध्ययुगीन संग्रह मैथिलकोकिल विद्यापति (14वीं शती) के मनोरम ग्रंथ 'पुरुषपरीक्षा' में उपलब्ध होता है। इस प्रकार संस्कृत का कथा साहित्य नाना ग्रंथों में अपना वैभव बिखेर रहा है तथा अपने प्रभाव से विश्व के शिष्ट साहित्य को अपना अनवरत ऋणी बना रहा है।
भारतीय कहानियों की विदेश यात्रा
संस्कृत का कथा साहित्य और विशेषत: पंचतंत्र, विश्व साहित्य को भारत की देन है। ये कहानियाँ भारत के निवासियों का ही शिक्षण और मनोरंजन नहीं करतीं, प्रत्युत विश्व के सभ्य साहित्य का अंग बनकर नाना देशों के निवासियों का भी मनोरंजन करती हैं। भारतीय कथा की विदेश यात्रा की यह राम कहानी बड़ी ही रोचक तथा शिक्षाप्रद है। फ़ारस के प्रसिद्ध सम्राट खुसरों नौशेरवाँ (531ई.-579 ई.) के राज्य काल में पंचतंत्र की कहानियाँ पहलवी भाषा (पुरानी) में प्रथमत: 533 ई. में अनूदित की गईं। अनुवादक का नाम था- 'हकीम बुरजोई'। प्रथम तंत्र के शृगाल बंधुओं- 'करटक' और 'दमनक' के नाम पर यह अनुवाद 'कलेलाह-व-दिमनाह' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 560 ई. में 'बुद' नामक एक ईसाई संत ने इस पहलवी अनुवाद को सीरियाई भाषा में रूपांतरित किया। 750 ई. में सीरियाई से अरबी अनुवाद करने का श्रेय प्राप्त है 'अब्दुल्ला-बिन-अलमुकफ्फा' को, जो स्वयं तो मुसलमान था, परंतु जिसका पिता पारसी था। इस अनुवाद के भी अनेक अनुवाद लैटिन, ग्रीक, स्पेनिश, इतालीय, जर्मन तथा अंग्रेज़ी भाषाओं में भिन्न-भिन्न शताब्दियों में होते रहे और इस प्रकार ये कहानियाँ 16वीं शती से पूर्व ही यूरोप के विभिन्न देशों में घर कर गईं। उन देशों के निवासियौं को इनके भारतीय होने का तनिक भी भान नहीं था। ये 'विदापई' की कहानियों के नाम से सर्वत्र विख्यात हो गईं।[2]
यूनानी कथा साहित्य
यूनान के प्रख्यात कथा संग्रह 'ईसप फ़ेबुल' तथा अरब की मनोरंजक कहानियों 'अलिफ़ लैला' की आधारभूत ये ही भारतीय कथाएँ हैं। यूरोप तथा अरब के निवासी इन्हें अपने साहित्य की निधि मानते थे। इसका विचित्र परिणाम यह हुआ कि भगवान बुद्ध ईसाई संतों की श्रेणी में विराजने लगे। यूरोप के मध्य युग की एक विख्यात कहानी थी- 'बरलाम और जोज़ेफ़' की कहानी, जिसमें जोज़ेफ़ ने अपने उपदेशों से बरलाम नामक राजा को ईसाई मत में दीक्षित कर लिया। इसमें जोज़ेफ़ नाम 'बुदसफ़' के रूप में 'बोधिसत्व' का ही अपभ्रंश है और जोज़ेफ़ स्वयं बुद्ध ही है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि इन्हीं कहानियों की कृपा से बुद्ध अपने से विरोधी धर्म के मान्य संत के रूप में ईसाई धर्म में गृहीत हैं।
मध्य युग से भी पहले सुदूर प्राचीन काल में भी 'हिब्रू' (यहूदी) लोगों को इन कहानियों का परिचय मिल चुका था। 'सुलेमान का न्याय'[4] के नाम से प्रसिद्ध कहानी का मूल भी भारतीय है। बाइबिल की अनेक कथाएँ मूलत: भारतीय हैं। प्रसिद्ध यूनानी सम्राट सिकंदर के विषय की वह लोकप्रिय कहानी भी भारतीय ही है, जिसमें उसकी माता के तीव्र पुत्रशोक को कम करने के लिए किसी तत्ववेत्ता ने ऐसे घर से सरसों की खोज में निराश होने पर ही उस वृद्धा को देह की नश्वरता की व्यावहारिक शिक्षा मिली थी। यह कथा भी भगवान बुद्ध द्वारा 'किसा गौतमी'[5] को दिए गए उपदेश को प्रतिध्वनित करती है।
विश्व साहित्य को भारत की देन
इतना ही नहीं, षष्ठ शती से पूर्व ही ये भारतीय कथाएँ चीन के दो अत्यंत प्रचीन विश्वकोशों में अनूदित की गई उपलब्ध होती हैं। फलत: समस्त सभ्य संसार के लोग प्राचीन तथा मध्य युग में इन भारतीय कहानियों से आनंद उठाते थे और अपने जीवन को सुखमय बनाते थे। मध्य युग का एक प्रख्यात कथा चक्र था, जो इटली के कवि पेत्रार्क के विश्वविश्रुत कथा ग्रंथ 'डेकामेराँ' में आज भी सुरक्षित है। आलोचकों से यह बात परोक्ष नहीं है कि शेक्सपियर के अनेक नाटकों की कथावस्तु इसी रोचक ग्रंथ से गृहीत है। डेकामेराँ की अधिकांश कहानियाँ भारतवर्ष की कहानियों का किंचित परिवर्धित तथा परिवर्तित रूप हैं। 'शकुसप्तति' की कहानियाँ भी फ़ारस में बहुत ही प्रख्यात और लोकप्रिय थीं। 1329-30 में हाफिज़ और सादी के समकालीन एक लेखक ने 'तूतीनामा' के नाम से फ़ारसी में इसका अनुवाद प्रस्तुत किया, जिसका तुर्की भाषा में अनुवाद सौ वर्ष के भीतर ही किया गया। 18वीं शती में 'कादिरी' नामक लेखक ने इसका नया अनुवाद तैयार किया। इस फ़ारसी अनुवाद की बहुत-सी कहानियाँ यूरोप में फैल गईं। जर्मनी के प्रसिद्ध प्राच्यविद डॉ. थिओडोर बेनफ़ी ने बड़े अध्यवसाय से भारतीय कहानियों की इस यात्रा का सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया है। फलत: विश्व साहित्य को भारतवर्ष की देनों में कथाओं की देन बड़ी ही व्यापक, रोचक तथा लोकप्रिय है।[2]
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