ज्योतिष फलित

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ज्योतिष फलित उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखने वाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का भी बोध होता है, तथापि साधारण लोग ज्योतिष विद्या से फलित विद्या का अर्थ ही लेते हैं। ग्रहों तथा तारों के रंग भिन्न भिन्न प्रकार के दिखलाई पड़ते हैं, अतएव उनसे निकलने वाली किरणों के भी भिन्न भिन्न प्रभाव हैं। इन्हीं किरणों के प्रभाव का भारत, बैबीलोनिया, खल्डिया, यूनान, मिस्र तथा चीन आदि देशों के विद्वानों ने प्राचीन काल से अध्ययन करके ग्रहों तथा तारों का स्वभाव ज्ञात किया। पृथ्वी सौर मंडल का एक ग्रह है। अतएव इस पर तथा इसके निवासियों पर मुख्यतया सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों और चंद्रमा का ही विशेष प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी विशेष कक्षा में चलती है जिसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। पृथ्वी के निवासियों को सूर्य इसी में चलता दिखलाई पड़ता है। इस कक्षा के ईद गिर्द कुछ तारामंडल हैं, जिन्हें राशियाँ कहते हैं। इनकी संख्या 12 है। इन्हें, मेष, वृष आदि कहते हैं। प्राचीन काल में इनके नाम इनकी विशेष प्रकार की किरणें निकलती हैं, अत: इनका भी पृथ्वी तथा इसके निवासियों पर प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक राशि 30 की होती है। मेष राशि का प्रारंभ विषुवत्‌ तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु से होता है। अयन की गति के कारण यह बिंदु स्थिर नहीं है। पाश्चात्य ज्योतिष में विषुवत्‌ तथा क्रातिवृत्त के वर्तमान संपात को आरंभबिंदु मानकर, 30 -30 अंश की 12 राशियों की कल्पना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आने वाले संपात बिंदु ही मेष आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य गणना प्रणाली तथा भारतीय गणना प्रणाली में लगभग 23 अंशों का अंतर पड़ जाता है। भारतीय प्रणाली निरयण प्रणाली है। फलित के विद्वानों का मत है कि इससे फलित में अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि इस विद्या के लिये विभिन्न देशों के विद्वानों ने ग्रहों तथा तारों के प्रभावों का अध्ययन अपनी अपनी गणना प्रणाली से किया है। भारत में 12 राशियों के 27 विभाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। ये अश्विनी, भरणी आदि हैं। फल के विचार के लिये चंद्रमा के नक्षत्र का विशेष उपयोग किया जाता है।

वैज्ञानिक आधार

ज्योतिष के आधार पर शुभाशुभ फल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति विशेष से बतलाया जाता है। इसके लिये हमें सूत्रों से गणित द्वारा ग्रह तथा तारों की स्थिति ज्ञात करनी पड़ती है, अथवा पंचांगों, या नाविक पंचागों, से उसे ज्ञात किया जाता है। ग्रह तथा नक्षत्रों की स्थिति प्रति क्षण परिवर्तनशील है, अतएव प्रति क्षण में होने वाली घटनाओं पर ग्रह तथा नक्षत्रों का प्रभाव भी विभिन्न प्रकार का पड़ता है। वास्तविक ग्रह स्थिति ज्ञात करने के लिए गणित ज्योतिष ही हमारा सहायक है। यह फलित ज्योतिष के लिये वैज्ञानिक आधार बन जाता है।

कुंडली

कुंडली वह चक्र है, जिसके द्वारा किसी इष्ट काल में राशि चक्र की स्थिति का ज्ञान होता है। राशिचक्र क्रांतिचक्र से संबद्ध है, जिसकी स्थिति अक्षांशों की भिन्नता के कारण विभिन्न देशों में एक सी नहीं है। अतएव राशिचक्र की स्थिति जानने के लिये स्थानीय समय तथा अपने स्थान में होने वाले राशियों के उदय की स्थिति (स्वोदय) का ज्ञान आवश्यक है। घड़ियाँ किसी एक निश्चित याम्योत्तर के मध्यम सूर्य के समय को बतलाती है। इससे सारणियों की, जो पंचांगों में दी रहती हैं, सहायता से हमें स्थानीय स्पष्टकाल ज्ञात करना होता है। स्थानीय स्पष्टकाल को इष्टकाल कहते हैं। इष्टकाल में जो राशि पूर्व क्षितिज में होती है उसे लग्न कहते हैं। तात्कालिक स्पष्ट सूर्य के ज्ञान से एवं स्थानीय राशियों के उदयकाल के ज्ञान से लग्न जाना जाता है। इस प्रकार राशिचक्र की स्थिति ज्ञात हो जाती है। भारतीय प्रणाली में लग्न भी निरयण लिया जाता है। पाश्चात्य प्रणाली में लग्न सायन लिया जाता है। इसके अतिरिक्त वे लोग राशिचक्र शिरोबिंदु (दशम लग्न) को भी ज्ञात करते हैं। भारतीय प्रणाली में लग्न जिस राशि में होता है उसे ऊपर की ओर लिखकर शेष राशियों को वामावर्त से लिख देते हैं। लग्न को प्रथम भाव तथा उसके बाद की राशि को दूसरे भाव इत्यादि के रूप में कल्पित करते हैं। भावों की संख्या उनकी कुंडली में स्थिति से ज्ञात होती है। राशियों का अंकों द्वारा तथा ग्रहों को उनके आद्यक्षरों से व्यक्त कर देते हैं। इस प्रकर का राशिचक्र कुंडली कहलाता है।

फल का ज्ञान

फल के ज्ञान के लिये राशियों के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ता है। कुंडली के विभिन्न भावों से हमारे जीवन से संबंध रखने वाली विभिन्न बातों का पता चलता है, जैसे प्रथम भाव से शरीर संबंधी, दूसरे भाव से धन संबंधी आदि। जिस भाव में जो राशि हो उसका स्वामी उस भाव का स्वामी होता है। एक ग्रह राशि चक्र पर विभिन्न प्रकार से किरणें फेंकता है। अतएव कुंडली में ग्रह की दृष्टि भी पूरी या कम मानी जाती है। ग्रह जिस ग्रह स्थान पर अत्यधिक प्रभाव रखता है उसे उच्च तथा उससे सातवें भाव को उसका नीच कहते हैं। सूर्य के सान्निध्य से ग्रह हमें कभी कभी दिखाई नहीं पड़ते; तब वे अस्त हुए कहलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न स्थितियों में ग्रहों के प्रभाव के अनुसार उन्हें बाल, युवा तथा वृद्ध कहते है। ग्रहों के अन्य ग्रह स्वभाव की सदृशता अथवा विरोध के कारण मित्र अथवा शत्रु होते हैं। अतएव फलित के लिये ग्रहों के बलाबल को जाना जाता है। जो ग्रह युवा, अपने स्थान अथवा उच्च में स्थित हो तथा अपने मित्रों से युत अथवा दृष्ट हो, उसका प्रभाव बहुत होता है। इसी प्रकार वह भाव जो अपने स्वामी से युत अथवा दृष्ट हो और जिसमें शुभ ग्रह हों, पूर्ण फल देता है। इस प्रकार ग्रहों के बलाबल, उनकी स्थिति तथा उनपर अन्य ग्रहों का भी विचार किया जाता है। इसके साथ परिस्थितियों तथा मनुष्य की दशा का भी विचार किया जाता है। इन्हीं सब कारणों से फलित बताना अति कठिन कार्य है। जो लोग गणित ज्योतिष के ज्ञान के बिना फल बताते हैं, वे ठीक नहीं बता सकते। चूँकि अधिकांश ज्योतिषी ऐसे ही पाए जाते हैं, इसलिये कुछ लोगों को इस विद्या की वैज्ञानिकता पर संदेह होने लगा है। हमारे जीवन के ऊपर सबसे अधिक सूर्य तथा चंद्रमा का प्रभाव पड़ता है, अतएव पाश्चात्य देशों में सूर्यस्थित राशि (सूर्य कुंडली) तथा चंद्रस्थित राशि (चंद्र कुंडली) को विशेष महत्व देते हैं। सूर्य हृदय की स्थिर प्रवृत्तियों का तथा चंद्रमा प्रतिक्षण चल मानसिक प्रवृत्तियों का बोधक है। अतएव भारत में चंद्रकुंडली को महत्व दिया जाता है। पाश्चात्य देशों में भी अब लोग इसी विचारधारा को प्रश्रय दे रहे हैं। चूँकि सूर्य अथवा चंद्र एक राशि में बहुत समय तक रहते हैं, अत: इनकी कुंडलियों से विभिन्न व्यक्तियों पर होने वाले प्रभाव का ठीक अध्ययन नहीं किया जा सकता। स्पष्ट लग्न शीघ्र बदलता रहता है, अतएव लग्न कुंडली को व्यक्ति की वास्तविक जन्मकुंडली माना जाता है। सूक्ष्म फल के लिये होरा, द्रेष्काण, नवांश कुंडलियों का उपयोग किया जाता है।

ग्रह दशा

ग्रहों का विशेष फल देने का समय तथा अवधि भी निश्चित है। चंद्र नक्षेत्र का व्यतीत तथा संपूर्ण भोग्यकाल ज्ञात होने से ग्रह दशा ज्ञात हो जाती है। ग्रह अपने शुभाशुभ प्रभाव विशेष रूप से अपनी दशा में ही डालते हैं। किसी ग्रह की दशा में अन्य ग्रह भी अपना प्रभाव दिखलाते हैं। इसे उन ग्रहों की अंतर्दशा कहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों की अंतर, प्रत्यंतर दशाएँ भी होती है। ग्रहों की पारस्परिक स्थिति से एक योग बन जाता है जिसका विशेष फल होता है। वह फल किस समय प्राप्त होगा, इसका निर्णय ग्रहों की दशा से ही किया जा सकता है। भारतीय प्रणाली में विंशोत्तरी महादशा का मुख्यतया प्रयोग होता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की आयु 120 वर्ष की मानकर ग्रहों का प्रभाव बताया जाता है।

फलित ज्योतिष की कई शाखाएँ हैं। पाश्चात्य ज्योतिष में इनकी संख्या छह है:

  1. व्यक्तियों तथा वस्तुओं के जीवन संबंधी ज्योतिष
  2. प्रश्न ज्योतिष
  3. राष्ट्र तथा विश्व संबंधी ज्योतिष
  4. वायुमंडल संबंधी ज्योतिष
  5. आयुर्वेद ज्योतिष
  6. ज्योतिषदर्शन

भारतीय ज्योतिष में केवल जातक तथा संहितास दो शाखाएँ ही मुख्य हैं। पाश्चात्य ज्योतिष की (1), (2) तथा (3) शाखाओं का जातक में तथा शेष तीन का संहिता ज्योतिष में अंतर्भाव हो जाता है।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्योतिष फलित (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 3 फ़रवरी, 2015।

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