भीखा साहब

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भीखा साहब (भीखानन्द चौबे) बावरी पंथ की भुरकुडा, गाजीपुर शाखा के प्रसिद्ध संत गुलाम साहब के शिष्य थे। वे बड़े सिद्ध और अनुभवी संत थे। चमत्कारों और दिखावे में वे विश्वास नहीं करते थे। वे तो इतना जानते थे कि जो राम का भजन नहीं करता, उसे कालरूप समझना चाहिए-

'भीखा जेहि तन राम भजन नहिं कालरूप तेहि मानी।'

जन्म तथा गृह त्याग

भीखा साहब का जन्म आजमगढ़ ज़िला, उत्तर प्रदेश के खानपुर बोहना नामक ग्राम में हुआ था। उनको बचपन से ही गांव में आने वाले साधु-संत आकर्षित किया करते थे। धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य बढ़ने लगा। मात्र बारह साल की अवस्था में ही उनके विवाह की तैयारी की जाने लगी थी। विवाह के रंग- बिरंगे कपड़े पहनकर भीखा समझ गए कि उनके पैरों में गृहस्थ-धर्म की बेड़ियां डाली जा रही हैं। बस फिर क्या था, एक दिन वह चुपचाप घर से निकल भागे।[1]

गुलाल साहब के उत्तराधिकारी

गाजीपुर ज़िले के ही सैदपुर भीरती परगना के अमुआरा गाँव में गुलाल साहब के एक पद का गान सुनकर भीखा साहब उनसे इतने प्रभावित हुए कि सीधे भुरकुड़ा जाकर उनके शिष्य हो गये। भीखा तेजस्वी महात्मा थे। बाद में गुलाल साहब ने भीखा को दीक्षा दी। उनकी साधना इतनी बढ़ी कि 1760 ई. में गुलाल साहब के बाद भीखा साहब ही उनके उत्तराधिकारी बने।

शिष्य

भीखा साहब के दो प्रमुख शिष्य हुए-

  1. गोविन्द साहब
  2. चतुर्भुजदास

इनके शिष्य गोविन्द साहब ने फैजाबाद में अपनी पृथक गद्दी चलायी, जबकि चतुर्भुजदास भुरकुड़ा में ही रहे।

कृतियाँ

भीखा साहब की छ: कृतियाँ प्रसिद्ध है- 'राम कुण्डलिया', 'राम सहस्रनाम', 'रामसबद', 'रामराग', 'राम कवित्त' और 'भगतवच्छावली'। इन रचनाओं का प्रमुख अंश बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित 'भीखा साहब की बानी' और भुरकुड़ा गद्दी से प्रकाशित 'महात्माओं की बानी' में आ गया है। 'राम सबद' सबसे बड़ी रचना है, जिसमें भीखा साहब के अतिरिक्त अन्य संतों के समान भाव-धारा के छन्द भी संगृहीत हैं। आपकी कृतियों में संसार की असारता, चंचल मन का निग्रह, शब्द ब्रह्म की अद्वैतता और पूर्णता, शब्द-योग, नाम-स्मरण, दैन्य, प्रेम-निरूपण, गुरु की महत्ता, आत्मा की सर्वव्यापकता और संसारी जीवों का उद्बोधन वर्णित है।[1]

छन्द तथा भाषा प्रयोग

पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने भीखा साहब की विचारधारा को अद्वैत-वेदांत-दर्शन के निकट स्वीकार किया है। आपने पद, कवित्त, रेखता, कुण्डलिया और दोहा (साखी) आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है। इनके गेय पदों की संख्या भोजपुरी के और रेखता की भाषा अरबी-फ़ारसी से युक्त खड़ी बोली के अधिक निकट है।

निधन

सन 1791 ई. में भीखा साहब ने अपनी इहलीला समाप्त की।[1] वे अपनी रचना-शैली की सुबोधता, पदों के लालित्य और विचारों की स्पष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 411 |
  2. सहायक ग्रंथ- उत्तरी भारत की संत परम्परा: परशुराम चतुर्वेदी; संतकाव्य; संतबानी संग्रह, भाग पहिला, बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।

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