टॉमस हिल ग्रीन

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टॉमस हिल ग्रीन ( जन्म- 7 अप्रैल 1836) ई., (निधन- 15 मार्च 1882) ई., अंग्रेज विज्ञानवादी 'आइडियलिस्ट' दार्शनिक, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ह्वाइट प्रोफेसर थे।

टॉमस हिल ग्रीन की दो प्रमुख रचनाएँ-

  1. नीतिदर्शन के क्षेत्र में 'प्रोलेगोमेना टु एथिक्स',
  2. राज्यदर्शन के क्षेत्र में 'लेक्चर्स ऑन दि प्रिंसिपल्स ऑव पोलिटिकल ऑब्लिगेशन'

सिद्धांतो

टॉमस हिल ग्रीन ने दर्शन में उन सब सिद्धांतो का प्रबल विरोध किया है जो मानव मन को असंबद्ध अनुभव की मात्र श्रृंखला मानते हैं अथवा मनुष्य को प्राकृतिक ऊर्जाओं का परिणाम बताते हैं। उनका कथन था कि ऐसे सिद्धांतों के अनुसार ज्ञान असंभव हो जाता है और नीतिधारणा अर्थहीन हो जाती है। मानव जीवन कर्म के ज्ञाता और उसे करने में समर्थ आत्मा के व्यक्तिगत अस्तित्व का प्रमाण है। चेतना में केवल अनुभव का परिवर्तन नहीं, परिवर्तनों का अनुभव, और अनुभव के विषय से भिन्न उसके अनुभवकर्ता आत्म का अनुभव भी, अवश्यमेव होता है। ज्ञान मन द्वारा चेतना में संबद्ध करने की क्रिया है। विज्ञान तथा दर्शन में सत्य को खोज की जड़ में यह विश्वास अवश्य ही होता है कि ज्ञान का विषय बुद्धिगम्य प्रत्ययात्मक संबंधतंत्र हैं। इसलिये मानना पड़ता है कि एक ऐसे तत्व का अस्तित्व है जिससे सब संबंध संभव होते हैं, परंतु जो स्वयं उन संबंधों द्वारा निर्धारित नहीं है; एक ऐसी नित्य आत्मबोधयुक्त चेतना है जिसे वह सब कुछ समष्टि रूप से ज्ञात है जिसका हम सबको केवल असत्य ही पता है।[1]

विचार

टॉमस हिल ग्रीन क विचार था कि इस प्रकार के तत्वविचार पर ही नीतिदर्शन टिक सकता है। नीतिदर्शन में पदार्पण के लिये पहले मनुष्य के आध्यात्मिक रूप में विश्वास आवश्यक है। आत्मबोध अथवा आत्मचिंतन में मानव का सामर्थ्य, कर्म तथा उत्तरदायित्व का ज्ञान होता है। मनुष्य का वास्तविक हित इन्हीं संभावनाओं की सिद्धि में है। उसका उत्प्रेरक आत्मबोध के लिये वांछनीय प्रतीत होने वाला शुभ साध्य है। संकल्प क्रिया किसी विशिष्ट प्रकार की आत्म प्राप्ति 'सेल्फ्र रियलाइज़ेशन' ही है। इसलिये न वह अकारण है, न बाह्य निर्धारित। आत्मा का ऐसे उत्प्रेरक के साथ तादात्म्य आत्म निर्धारण है। यह बौद्धिक भी है और स्वतंत्र भी, कुछ भी कर लेने को सामर्थ्य नहीं अपने को बुद्धि द्वारा प्रकट अपने वास्तविक हित से तद्रूप कर देना है। अपना वास्तविक हित व्यक्तिगत चरित्र विकास में है। इसलिये परमार्थ अथवा नैतिक आदर्श की प्राप्ति केवल ऐसे समाज में हो सकती है जो व्यक्तियों का व्यक्तित्व सुरक्षित रखते हुए भी उन्हें सामाजिक समष्टि में समाविष्ट कर सके। व्यक्ति अपने स्वरूप को समाज के बिना प्राप्त नहीं कर सकता और समाज अपने स्वरूप को व्यक्तियों के बिना नहीं पहुँचा सकता है। ग्रीन के इन विचारों के अनुसार नागरिक तथा राजनीतिक कर्तव्य भी व्यक्ति के स्वभाव में ही निहित हैं। नैतिक कल्याण व्यक्तिगत सद्गुणों के विकास तक सीमित नहीं हो सकता। व्यक्तिगत सद्गुणों पर राजनीतिक तथा सामाजिक कर्तव्यों के रूप में साकार होने का उत्तरदायित्व है। इनमें ही व्यक्तियों के चरित्र का विकास होगा। वास्तविक राजनीतिक संस्थाएँ आदर्श नहीं होतीं। फिर भी उनके द्वारा अधिकारों तथा कर्तव्यों की सुरक्षा होनी ही चाहिए। इसीलिये कभी कभी राज्य के ही हित में राज्य के आदर्श्‌ उद्देश्य की सुरक्षा के लिये राज्य के विरुद्ध क्रांति करना भी कर्तव्य हो जाता है। राज्य का आधार तथा उद्देश्य नागरिकों द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का आध्यात्मिक बोध है। वह शक्ति नहीं संकल्प के ही सहारे स्थित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. टॉमस हिल ग्रीन (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 12 जून, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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