श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 1-13

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दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


ग्वालबालों ने कहा—नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चितचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अतः तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो |

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! जब ग्वालबालों ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुरा की अपनी भक्त ब्राम्हणपत्नियों पर अनुग्रह करने के लिये यह बात कही—

‘मेरे प्यारे मित्रों! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर वेदवादी ब्राम्हण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ ग्वालबालों मेरे भेजने से वहाँ जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा-सा भात-भोजन की सामग्री माँग लाओ’ जब भगवान ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राम्हणों की यज्ञशाला में गये और उनसे भगवान की आज्ञा के अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्वी पर गिरकर दण्डवत् प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा—‘पृथ्वी के मूर्तिमान् देवता ब्राम्हणों! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रज के ग्वाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा से हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें । भगवान बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँ से थोड़े ही दूर पर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोडा-सा भाल दे दें। ब्राम्हणों! आप धर्म का मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियों के लिये कुछ भात दे दीजिये । सज्जनों! जिस यज्ञदीक्षा में पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञ में में दीक्षित पुरुष का अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञ में दीक्षित पुरुष का भी अन्न खाने में में कोई दोष नहीं है । परीक्षित्! इस प्रकार भगवान के अन्न माँगने की बात सुनकर भी उन ब्राम्हणों ने उस पर कोई ध्यानं नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राम्हण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक की, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे । परीक्षित्! देश, काल अनेक प्रकार की सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज्-ब्रम्हा आदि यज्ञ कराने वाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, और धर्म—इन सब रूपों में एकमात्र भगवान ही प्रकट हो रहे हैं । वे ही इन्द्रियातीत परब्रम्ह भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालों के द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूर्खों ने, जो अपने को शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया । परीक्षित्! जब उन ब्राम्हणों ने ‘हाँ’ या ‘ना’—कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालों की आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँ की सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम से कह दी उनकी बात सुनकर सारे जगत् के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालों को समझाया कि संसार में असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहेन से सफलता मिल ही जाती है।’ फिर उनसे कहा—


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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